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कहानी- ज़िंदगी के मोड़ 1 (Story Series- Zindagi Ke Mod 1)

चाची अपने दोनों बच्चों को ख़ूब लाड़-प्यार करतीं. बच्चे भी ज़िदकर उनसे अपनी बात मनवा लेते. तारा कभी अपनी सहेली के घर जाने के लिए हठ करती, तो कभी नई गुड़िया के लिए. अंशुमान का हठ अधिकतर कंप्यूटर गेम्स को लेकर होता. तारा को देख मेरा भी मन करता कि चाची की गोद में बैठूं, उनके गले में बांहें डाले झूलूं. वैसे तो चाची ने कभी मुझे बेवजह डांटा नहीं, पर फिर भी यूं गोदी में लेकर प्यार भी तो कभी नहीं किया, जिस तरह वे तारा से करती थीं. ज़िंदगी एक पहाड़ी रास्ता है- उतार-चढ़ाव वाला. पहाड़ी रास्ते पर आप चले जा रहे हैं, आस-पास के सौंदर्य को निहारते, उतार-चढ़ाव पर विजय पाते कि सहसा आगे मोड़ आ जाता है. एकदम पलट जाता है सारा परिदृश्य. यह नहीं कह रही कि पहले से हमेशा बुरा ही होता है. बदल जाता है सब कुछ, बस! जबकि पहलेवाले माहौल से आप अभ्यस्त हो चुके थे. ज़िंदगी में भी ऐसा हो जाता है, पर उसमें भिन्नता होती है. पहाड़ी रास्ते पर थोड़ी देर चलने से आप जान जाते हो कि आगे मोड़ आ रहा है, आप सावधान हो जाते हो, स्वयं को तैयार करने का समय पा लेते हो, पर ज़िंदगी तो आपको चंद पलों तक की मोहलत नहीं देती. ख़ुशहाल बचपन था मेरा. पर आठ साल की ही थी कि एक विमान दुर्घटना में मम्मी-पापा को एक साथ खो दिया. पापा कंपनी के काम से बैंगलुरू जा रहे थे, तो मम्मी को भी साथ लेते गए. मेरी देखभाल के लिए मेरे पास दादी और वर्षों पुरानी सीता अम्मा तो थीं ही. उनके जाने के बाद कंपनी का दिया मकान खाली कर मैं और दादी, चाचा-चाची के पास दिल्ली आ गए. उन्होंने मेरा उसी स्कूल में दाख़िला करवाया, जिसमें मेरे चचेरे भाई-बहन पढ़ते थे. मुझसे एक वर्ष छोटी तारा- बातूनी, चुलबुली और एक नंबर की शैतान थी. अंशुमान उससे दो साल छोटा था. पढ़ाई में हम तीनों ही अच्छे थे. मैं बड़ी बहन की तरह इन दोनों का ख़्याल रखती. हमारी शक्लें भी कुछ मिलती थीं, इसलिए  स्कूल में बहुतों को इस बात का पता तक नहीं चला कि मैं उनकी सगी बहन नहीं हूं. चाचा अपने काम में दिनभर व्यस्त रहते और चाची घर-परिवार की देखभाल करतीं. चाची अपने दोनों बच्चों को ख़ूब लाड़-प्यार करतीं. बच्चे भी ज़िदकर उनसे अपनी बात मनवा लेते. तारा कभी अपनी सहेली के घर जाने के लिए हठ करती, तो कभी नई गुड़िया के लिए. अंशुमान का हठ अधिकतर कंप्यूटर गेम्स को लेकर होता. तारा को देख मेरा भी मन करता कि चाची की गोद में बैठूं, उनके गले में बांहें डाले झूलूं. वैसे तो चाची ने कभी मुझे बेवजह डांटा नहीं, पर फिर भी यूं गोदी में लेकर प्यार भी तो कभी नहीं किया, जिस तरह वे तारा से करती थीं. रोज़ाना डाइनिंग टेबल पर हम सब एक साथ खाना खाते थे, पर मैं कई बार देखती कि चाची उन्हें अपने कमरे में बुलाकर कुछ विशेष खाने को दे रही हैं. उनके लंच बॉक्स में खाने के लिए उनकी मनपसंद चॉकलेट भी रखी होती. हर साल उनका जन्मदिन धूमधाम से मनाया जाता, पर मेरे जन्मदिन की याद किसी को न रहती. दादी के समझाने पर मैंने न कभी वैसी ज़िद की, जैसे अपने मम्मी-पापा से किया करती थी और न ही कभी ऐसी कोई इच्छा जताई. एक आज्ञाकारी बच्चे की तरह उनकी सब बात मान लेती. जितना संभव होता, अपना काम स्वयं कर लेती और थोड़ा बड़ी होने पर तो चाची को भरसक सहायता करने की कोशिश करती. पढ़ने के लिए भी कभी किसी को नहीं कहना पड़ता था. जाने कैसे इतनी-सी उम्र में ही यह समझ आ गई थी कि चाचा-चाची जो कुछ मेरे लिए कर रहे हैं, वह उनकी अनुकम्पा है न कि मेरा अधिकार. मतलब यह कि मेरी भौतिक ज़रूरतें तो सब पूरी होती रहीं, लेकिन मन का भावनात्मक कोना खाली ही रह गया. यह भी पढ़ें: साइलेंट मोड पर होते रिश्ते… (Communication Gap In Relationships) बेटे-बहू की मृत्यु के झटके ने दादी को अंदर से तोड़ दिया था. मेरे ही कारण वह हिम्मत बनाए रख रही थीं, लेकिन मेरे स्कूल के अंतिम वर्ष तक पहुंचते-पहुंचते वह भी हमें छोड़ गईं. समय बीतता रहा. मैं अपना ग्रैजुएशन पूरा कर बीएड करने लगी. तारा अभी बीए के अंतिम वर्ष में ही थी कि चाचू के एक ख़ास मित्र ने अपने बेटे के संग उसके विवाह का प्रस्ताव रखा. वह एक कॉलेज के प्रिसिंपल के रूप में रिटायर हुए थे और कुछ समय पूर्व उनकी पत्नी का निधन हो गया था. बेटा विजयन इंजीनियर बन अच्छे पद पर कार्यरत था और वह बेटे का शीघ्र विवाह कर घर में ख़ुशियां लाना चाहते थे. जाना-पहचाना परिवार था, तारा और विजयन पहले कई बार ख़ास मौक़ो पर एक-दूसरे से मिल चुके थे. किसी को भी इस विवाह में अड़चन नहीं हो सकती थी. चाचू पहले मेरा विवाह करना चाहते थे, लेकिन मैं पहले अपने पैरों पर खड़ी होना चाहती थी. अंशुमान तो अपनी पढ़ाई एवं दोस्तों में मस्त रहता, सो तारा के विवाह हो जाने पर घर सूना-सूना-सा लगने लगा था. तारा अपने मम्मी-पापा का भरपूर प्यार पाती थी, पर यह देखकर भी मुझे कभी उससे कोई ईर्ष्या नहीं हुई. ‘वह ख़ुशक़िस्मत है कि उसके मम्मी-पापा उसके साथ हैं’ बस इतना ही ख़्याल आता था मन में. usha vadhava        उषा वधवा

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