कहानी- ज़िंदगी के मोड़ 3 (Story Series- Zindagi Ke Mod 3)
नलिन मेरा पहला प्यार था, मेरा मार्गदर्शक, बंधू, सखा, सब कुछ. उसी से तो मैंने जीना सीखा था, स्वयं से पहले दूसरों के बारे में सोचना. प्रीत-प्रेम से अधिक हमारा मैत्री संबंध था. उससे इस विषय पर बात करना ज़रूरी था. हमने हमेशा एक-दूसरे की उलझनें बांटी थीं. भविष्य की योजनाओं की चर्चा की थी. नलिन कहा करता था कि अपने से कम की सहायता करना सदैव उसके जीवन की प्राथमिकता रहेगी और इस व़क्त गुड्डू की मां बनना मेरी प्राथमिकता है.
तारा को गए महीनाभर हो गया. धीरे-धीरे लोगों का आना-जाना भी कम हो गया. गुड्डू इन सबसे बेख़बर बढ़ रहा था. दहाड़ मारकर वह अपनी ज़रूरतें पूरी करवा ही लेता था. चाहे वह दूध हो या फिर लंगोट गीला होने पर बदलवाना हो. आया कभी सुनती, तो कभी अनसुना कर देती.
उस दिन मैं स्कूल से लौटने पर हाथ-मुंह धोने भीतर गई कि दूसरे कमरे से गुड्डू के रोने की आवाज़ आई. चाची रसोई में व्यस्त थीं और आया भी नज़र नहीं आ रही थी, सो मैं उस ओर बढ़ गई. देखा वह गीला था और इसलिए गुहार लगा रहा था. मैंने उसका लंगोट बदला, तो वह मुस्कुराने लगा. मुझमें उस दिन बिन मां के शिशु पर स्नेह छलक आया और उसे गोदी में लेकर मैंने उसके माथे को चूम लिया. इसी बीच चाची भीतर आ गईं. वह भी गुड्डू की आवाज़ सुनकर आई थीं. हमें देखते कुछ देर खड़ी रहीं, जैसे कुछ कहना चाह रही हों. चेहरे से स्पष्ट था कि उनके मन में कुछ घुमड़ रहा है. फिर शायद विचार त्याग लौट गईं.
अगले दिन रविवार था. चाचा-चाची दोनों लॉन में बैठे चाय पी रहे थे और मुझे बुलावा भेजा. चाचू ने मुझे अपने पास बैठाया पर ख़ामोश रहे. चाची ने भी एक-दो बार मेरी ओर नज़र उठाकर देखा, पर कहा कुछ नहीं. पता नहीं किस बात का संकोच हो रहा था उन्हें? थोड़ी देर में चाचू ने बात शुरू की, “तुमसे एक बात कहनी थी... पता नहीं तुम्हें ठीक लगेगी कि नहीं... विजयन दूसरा विवाह तो करेगा ही, अभी उम्र ही क्या है उसकी... पता नहीं कैसी लड़की आए, गुड्डू को प्यार दे या नहीं... क्या ऐसा हो सकता है... कि तुम ही विजयन से विवाह कर लो?... गुड्डू को एक स्नेहमयी मां मिल जाएगी, पर मैं तुम पर कोई दबाव नहीं डाल रहा. एक इच्छा व्यक्त कर रहा हूं बस. यदि तुम हां कहो तो ही...”
मैंने कल जब गुड्डू को उठाया था, तो मेरे मन में भी यही ख्याल आया था कि इस बच्चे को मैं ही पाल लूं, पर फिर नलिन का ध्यान आया, उससे पूछना ज़रूरी था. लेकिन चाचू तो विजयन से ही शादी करने की बात कर रहे हैं. शायद उनकी बात ही व्यवहारिक है. मां का प्यार देकर मैं उससे उसके पिता का प्यार तो नहीं छीन सकती न! फिर विजयन या गुड्डू के दादाजी बच्चा देने के लिए राज़ी हों, यह ज़रूरी तो नहीं.
ज़िंदगी एक नए मोड़ पर आ खड़ी थी, पर इस बार मुड़ने अथवा न मुड़ने का फैसला मेरे हाथ में था और मैंने फैसला ले लिया था. मैं दूंगी गुड्डू को मां का प्यार. मेरी प्यारी बहन तारा की एकमात्र निशानी है वह. उसी तारा की, जिससे मुझे बहन का प्यार मिला था, जिसने बचपन में न जाने कितनी बार अपने हिस्से की चॉकलेट मुझे खिलाई थी. उसी तारा का रूप है इसमें. मैं न स़िर्फ इसे पालूंगी, बल्कि अपने हृदय से भी लगाके रखूंगी, ताकि इसे कभी भी अपनी मां की कमी महसूस न हो.
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नलिन मेरा पहला प्यार था, मेरा मार्गदर्शक, बंधू, सखा, सब कुछ. उसी से तो मैंने जीना सीखा था, स्वयं से पहले दूसरों के बारे में सोचना. प्रीत-प्रेम से अधिक हमारा मैत्री संबंध था. उससे इस विषय पर बात करना ज़रूरी था. हमने हमेशा एक-दूसरे की उलझनें बांटी थीं. भविष्य की योजनाओं की चर्चा की थी. नलिन कहा करता था कि अपने से कम की सहायता करना सदैव उसके जीवन की प्राथमिकता रहेगी और इस व़क्त गुड्डू की मां बनना मेरी प्राथमिकता है. उसने मेरी इच्छा का सम्मान किया और हमने हमेशा अच्छे दोस्त बने रहने का वादा कर एक-दूसरे से विदा ली.
न बारात सजी और न ही ढोल-धमाका हुआ. आठ-दस रिश्तेदारों की उपस्थिति में हो गया मेरा विवाह विजयन के संग. विदाई के समय चाची ने कसकर सीने से भींच लिया. उनके नेत्रों से निरंतर अश्रुधारा बह रही थी, बोलीं, “आज से तुम ही मेरी तारा हो मेरी बेटी.”
स्त्री-पुरुष प्रेम में जब हम किसी से प्रेम करते हैं, तो स्वाभाविक है उससे प्रतिकार की कामना भी करते हैं, पर अबोध शिशु को दुलारते समय ऐसी कोई भावना नहीं रहती. देते रहकर ही पूर्ण तृप्ति होती है. अनंत सागर-सा विशाल है प्यार का हर रूप. जी भरकर एक को दे देने पर भी दूसरों के लिए कभी कम नहीं पड़ता.
आज गुड्डू दो साल का हो गया है. मैं सोचती थी कि मैंने ही उसे असीम एवं
निःस्वार्थ प्यार दिया है, पर आज लगता है कि जितना प्यार मैंने उसे दिया, उससे कई गुना बढ़कर पाया है- मासूम, निश्छल एवं असीम प्यार. और अब मालूम हुआ कि प्यार का असली रूप तो यही है.
उषा वधवा
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