सोन चिरैया हंसी. बोली, “हे रानी, मैं तो बस तुम्हारे भीतर बैठी लालसा हूं, जो कुछ तुम सोचती और मांगती हो, वही तो मैं तुम्हें देती हूं. फिर भी तुम उदास हो जाती हो. जानती हो क्यों, क्योंकि लालसाएं कभी ख़त्म नहीं होतीं. जिस तरह मैं सोने के पिंजरे में कैद हूं, उसी तरह तुम अपने लालसा के पिंजरे में. इसलिये मुझमें और तुममे कोई अंतर नहीं है.”
टीवी निराकार भाव से चल रहा था. उसके बटन रिमोट पर घूम रहे थे. चैनल आंख के सामने एक-एक कर आ-जा रहे थे. कोई भी प्रोग्राम ऐसा न था, जो विचारों के साथ तारतम्य जोड़ पाता. भीतर क्या चल रहा है, यह निश्चय कर पाना भी आजकल मुश्किल होता जा रहा है हमारे लिए. कारण यह कि हमें स्वयं नहीं पता कि हम चाहते क्या हैं. टीवी शायद इसी तरह चलता रहता और इसी के साथ चलता रहता निरर्थक चिंतन का क्रम, यदि बीच में दूधवाले का व्यवधान न आया होता. कई बार लगता है ज़िंदगी में आने वाले ब्रेक चाहे बाई के बहाने हों, पेपरवाले या फिर कपड़े प्रेस करनेवाले के- हमें बहुत-सी अनचाही समस्याओं से बचा लेते हैं. पता नहीं कहां-कहां दौड़े ये मन, अगर बीच में व्यवधान न आएं. दूध माइक्रोवेव में सेट कर वह हंसने लगी. वह क्यों हंसी- बहुत मुश्किल था इस सवाल का जवाब ढूंढ़ना. शायद अपने आप पर हंसी हो. वैसे भी वह पहले कितना हंसती थी और जब हंसती थी, तो हंसती ही चली जाती थी. उसके पापा पूछते, “क्या हुआ बेटा? किस बात पर हंस रही हो?” कोई बात हो तो वह बताए भी. बस हंसते हुए कहती, “कोई बात नहीं. बस ऐसे ही.” “बस ऐसे ही हंसना क्या होता है भाई?” “पापा आप भी न बाल की खाल निकालने लगते हैं. हंस ही तो रही हूं. कोई रो तो नहीं रही कि आप चिंता करें.” वह कहती और फिर पापा भी हंसने लगते. आजकल के बच्चों का अजीब ही हाल है. और मम्मी कहतीं, “तुमने ही बिगाड़ा है बेटी को. कल को ससुराल में ऐसे ही हंसेगी तो लोग क्या कहेंगे?” “पापा, मम्मी को देखिए मुझे चिढ़ा रही हैं. मैंने कह दिया न कि शादी नहीं करूंगी.” लेकिन लाख चाहने के बाद भी व़क़्त रुकता नहीं है और समाज तथा उम्र के अपने तकाज़े होते हैं. वह दिन भी बीत गए. एक दिन सपनों का राजकुमार आया और उसे डोली में बैठा कर उस घर से इस घर में ले आया. बड़ी अजीब-सी उलझन है. यह उसका घर है- उसका अपना घर, जो उसने अपने उसी सपनों के राजकुमार के साथ मिलकर बनाया है. सवाल यह है कि उसका मन लाख कोशिशों के बाद भी इस ईंट-गारे के ढेर को अपना घर नहीं मान पाता. उसे तो वही बाबुल का घर ही अपना लगता है, लेकिन धीरे-धीरे उसे एहसास दिलाया गया कि वही घर उसका अपना है. सवाल उसे बहुत मंथते हैं. क्या वह घर अब उसका नहीं है. वही, जिसमें वह खेली-कूदी, हंसी और रोई? यदि नहीं है, तो फिर वह उस घर में इतने दिनों तक रही क्यों? और है तो उसे बार-बार एहसास क्यों दिलाया जाता है कि शादी के बाद ससुराल ही उसका घर है. क्या किसी के दो घर नहीं हो सकते? शायद नहीं. मकान दो क्या, दस हो सकते हैं, पर घर एक ही होता है. माना कि घर एक ही होता है. ठीक वैसे ही जैसे जीवन एक होता है, तो फिर इस एक जीवन में एक स्त्री को अपना घर चुनने की आज़ादी क्यों नहीं है? क्यों वह दो घर में से अपनी मर्ज़ी का घर नहीं चुन सकती? वह अचानक ज़ोर-ज़ोर से रोने लगी. उसे घर याद आ रहा था, वही घर जिसे लाख समझाने के बाद भी वह नहीं छोड़ पायी थी. उसे पापा बहुत याद आ रहे थे. वह जब उदास होती तो पापा उसे एक कहानी सुनाते- सोन चिरैया की कहानी. कहते एक राजा था. वह अपनी रानी को बहुत प्यार करता था. लेकिन राजा तो राजा, आख़िर रात-दिन घर में तो नहीं बैठ सकता. कभी युद्ध पर जाता तो कभी राजकाज में फंसा रहता. धीरे-धीरे रानी को अकेलापन बहुत सालने लगा तो उसने राजा से शिकायत की, “हुजूर आप तो राजकाज में फंसे रहते हैं. आप क्या जानें कि हमारा पूरा दिन आपके बिना कैसे बीतता है.” राजा हंसे. फिर एक दिन हाथ में एक पिंजरा लिये लौटे. पिंजरे में एक अजूबी चिड़िया थी. सोने के रंग की. रानी चहक उठी. राजा मुझे इतना प्यार करते हैं. फिर राजा ने कहना शुरू किया, “देखो मैं हर समय तो तुम्हारे पास रह नहीं सकता. यह सोन चिरैया लाया हूं तुम्हारे लिए, यह तुम्हारा मन बहलाएगी, तुमसे बात करेगी, तुम्हारे लिए गाना गाएगी. इतना ही नहीं इसे हुक्म कर दोगी तो तुम्हारी ज़रूरत का हर सामान हाज़िर कर देगी.” सोन चिरैया को पाकर तो रानी निहाल हो उठी. वह रानी को सुबह जगाती, रात को लोरी गाकर सुलाती. दिनभर उससे बातें करती. चुटकुले से ठिठोली करती. यहां तक कि जो रानी मांगती, वह हाज़िर कर देती. वह जार-जार रो रही थी और उसे सोन चिरैया की कहानी याद आ रही थी. वह शायद रोती ही रहती अगर मोबाइल न बज उठता. लाइन पर अनिमेष थे. अनिमेष उसके हैंडसम दिलकश और सामाजिक प्रतिष्ठा के स्वामी पति. “क्या कर रही हो? नाश्ता किया कि नहीं भाई? आज तो मैंने इटालियन फूड खा लिया नाश्ते में. इतना भारीपन है कि लगता है दोपहर को लंच स्किप करना पड़ेगा. वैसे तुम्हारे आलू के परांठे लंदन में बहुत याद आते हैं. अच्छा सुनो सुरभि बिटिया को फ़ोन कर देना कि पापा इस बार उसके बर्थडे में नहीं पहुंच पाएंगे. लगता है कि कुछ दिन ज़्यादा रुकना पड़ेगा, काम हो नहीं पाया है.” “आप फ़िक्र न करें. मैं चली जाऊंगी और ग़िफ़्ट भी लेती जाऊंगी आपकी तरफ़ से.” “तुम भी न कितनी स्वीट हो. आज मैं जो भी हूं, तुम्हारी बदौलत, कभी-कभी सोचता हूं, तुम न होती, तो भला क्या मैं इतनी तऱक़्क़ी कर पाता.” अपनत्व से भरी अनिमेष के हंसने की आवाज़ सुनायी दी. फ़ोन रखते ही उसने कम्प्यूटर ऑन किया. मेल चेक करने लगी. ढेरो साइट खोलकर बैठ गयी. न्यूज़, म्यूज़िक, साहित्य, ज्योतिष-क्या-क्या नहीं था इस छोटे से जादू के बक्से में. उसे लगा यह सोन चिरैया है, जो हर तरह से उसका मन बहला रही है, बस हुक्म देने भर की देर है. वह हंसी. हा...हा...हा... सोन चिरैया, उसकी सोन चिरैया. उसे लगा कहीं भूख सता रही है. उसने तुरंत पिज़ा का ऑर्डर बुक किया और फिर उलझ गयी. वह रानी है. हां रानी ही तो है और यह इंटरनेट, मोबाइल, टीवी, डीवीडी, कार, एसी आदि उसकी सोन चिरैया. बटन दबाओ और सब उसके मनोरंजन के लिये तैयार हैं. सचमुच उसकी मां ने ठीक कहा था. ‘मेरी बेटी तो रानी की तरह रहती है.’ आज से पच्चीस बरस पहले जब उसकी शादी हुई थी, तो ऐसे लगा था, जैसे किसी लड़की को मुंहमांगी मुराद मिल गई हो. सुंदर पति, अच्छा-खासा रुतबा, शानदार घराना और सबसे बढ़कर मधुर व्यवहार, मेहनती इतने कि देखते-देखते तऱक़्क़ी की सीढ़ियां चढ़ते गए. साथवाले तो ईर्ष्या से जल उठते और हर बार जब तऱक़्क़ी की पार्टी होती तो ये कहते, “आज जो भी हूं. अपनी इसी बेटर हाफ़ की बदौलत.” वो तो बधाइयां पा-पाकर जैसे निहाल हो जाती. पार्टी भी क्या होती, बस हर समय कोई न कोई डील चल रही होती और स्त्रियां अपने पति के इशारे पर सजी-धजी गुड़िया-सी साहब की घरवालियों को लुभाने में लगी रहतीं. कोई ‘मैडम-मैडम’ कहकर खाने की प्लेट लगाता, तो कोई चम्मच पकड़ाता, कोई स्वीट डिश लिए खड़ा रहता, तो कोई आइस्क्रीम. प्लेट रखने से पहले ही दो-एक लोग नैपकिन लिए खड़े रहते. बीच-बीच में भाषण, हंसी-ठिठोली और बच्चों के नाच-गाने. ऐसा लगता, यह पूरी की पूरी दुनिया ही नकली है. वह सामानों के बीच इंसान होने के मायने ढूंढ़ने में असफल हो जाती. एक दिन वह इस नकली दुनिया से घबराने लगी. उसने पार्टी में कहा, “अनिमेष यहां से चलो. मुझे कुछ अच्छा नहीं लग रहा है.” थोड़ी ना-नुकुर के बाद ख़बर फैल गयी कि मैडम की तबियत ख़राब है. पार्टी अधूरी ही रुक गयी. और वह ख़ुद नहीं समझ पा रही थी कि उसे हुआ क्या है. बस उसे यह सब अच्छा नहीं लगता था. इस बीच दो बच्चे भी हुए और पढ़ने-लिखने में पापा की तरह ही रिकॉर्ड तोड़ने लगे. उसे लगा इन्हें पाल-पोसकर बड़ा करने में ही जीवन का सार है. उसने अपने कर्तव्यों में खरा उतरने की भरसक कोशिश की. फिर भी बेटे और बेटी दोनों को उससे शिकायत ही रही कि मम्मी पार्टी में नहीं जातीं या फिर आउटिंग में दिलचस्पी नहीं लेतीं. जहां बेटे ने आईआईटी से बाहर निकलते ही अमेरिका की राह ली, वहीं बेटी ने एयर होस्टेस बन अपनी मर्ज़ी से एक एनआरआई से शादी कर ली. कॉलबेल बजी. शायद पिज़ा आया था. उसे नहीं याद कि कब से उसने पिज़ा पसंद करना शुरू कर दिया था. अचानक उसे लगा कि वह भी सोन चिरैया की तरह पिंजरे में कैद है. अचानक उसे आगे की कहानी याद आने लगी और वह अपनी पहचान के संकट से जूझती हुई सी प्रतीत हुई. क्या पहचान है उसकी- मिसेज़ अनिमेष. अब शायद यही नाम बचा है उसका. स्त्री होने का सबसे बड़ा संघर्ष है उसकी क्षमताओं की रेखाएं खींच देना. उसे उसके कार्यों और कार्यक्षेत्र की परिधि में बांध देना. जैसे घर-गृहस्थी और चूल्हा-चक्की उसकी पहली ज़िम्मेदारी है. एक सफल गृहिणी सिद्ध होने के बाद ही स्त्री के लिए बाकी उपलब्धियां मायने रखती हैं. पापा कहानी सुनाते-सुनाते आगे कहते, कुछ दिन तो रानी सोन चिरैया से बहली रही, लेकिन कुछ समय बाद उसे उदासी फिर से घेरने लगी. धीरे-धीरे उसकी सोन चिरैया से दोस्ती हो गयी. एक दिन रानी ने सोन चिरैया से कहा, “बहन एक बात पूछूं, सच बताओगी?” वह बोली, “पूछो रानी. अब तुमसे क्या भेद?” रानी बोली, “यह बता तू कौन है और मेरे बारे में क्या सोचती है?” सोन चिरैया हंसी. बोली, “हे रानी, मैं तो बस तुम्हारे भीतर बैठी लालसा हूं, जो कुछ तुम सोचती और मांगती हो, वही तो मैं तुम्हें देती हूं. फिर भी तुम उदास हो जाती हो. जानती हो क्यों, क्योंकि लालसाएं कभी ख़त्म नहीं होतीं. जिस तरह मैं सोने के पिंजरे में कैद हूं, उसी तरह तुम अपने लालसा के पिंजरे में. इसलिये मुझमें और तुममे कोई अंतर नहीं है.” कहते हैं उसकी बात सुनते ही रानी को आत्मज्ञान हो गया. उसने पिंजरा खोल सोन चिरैया को आज़ाद कर दिया. वह फुर्र से उड़ी और मुंडेर पर बैठ गयी. बोली, “रानी आज से तुम भी आज़ाद हो गयी हो अपनी लालसा की दुनिया से.” कहते हैं, इसके बाद रानी ने महल के बाहर एक झोपड़ी बनवायी और उसमें रहकर प्रजा के दुख-दर्द दूर करने लगी. उसके बाद रानी ने पीछे मुड़कर नहीं देखा. प्रजा के सुख-दुख में उसे अपना सुख-दुख नज़र आने लगा और उसका नाम यश-कीर्ति दूर-दूर तक फैल गयी. पिज़ा खत्म होते-होते उसे भी लगा कि यह घर, इंटरनेट, टीवी सबके सब सोन चिरैया के रूप हैं और वह उसमें कैद होकर रह गयी है. उसकी आत्मा आज़ादी के लिये छटपटाने लगी. तभी कॉलबेल बजी- सामने दरवाज़े पर कामवाली बाई की लड़की खड़ी थी. “क्या है?” “बीबीजी अम्मा बीमार है, आज नहीं आएगी.” उसे ज़ोर का ग़ुस्सा आया. “तुम लोगों की रोज़ की कहानी है.” उसे तो जैसे बोल भारी पड़ रहे थे. उसने हाथ में दबा काग़ज़ का पुर्ज़ा दिखाया, “ये देख लो बीबीजी.” अचानक उसे लगा कहीं कुछ बात है यह तो डॉक्टर का पर्चा लगता है. उसके भीतर की सोन चिरैया आज़ादी की सांस लेने को छटपटाने लगी. शायद पिंजरा तोड़ने का व़क़्त आ गया है. उसने काग़ज़ का पुर्जा हाथ में ले लिया, “क्या हुआ है तेरी मां को?” “पता नहीं, बस सुबह से शरीर आग की तरह तप रहा है.” “अच्छा ! चल तो, ज़रा चल कर देखूं.” वह उठी. उसने कपड़े बदलने की ज़रूरत भी नहीं समझी, चाहती तो नौकर और ड्राइवर को भेज देती. मगर नहीं, स्लीपर डाले ही वह गंदे रास्ते झुग्गी की ओर चल दी उस छोटी-सी बच्ची का हाथ थाम कर. जितना ही उसके पैर गंदे रास्ते पर पड़ते, उतनी ही चेतना की अनुभूति होती उसे. उसे लगता कि कब की कैद से आज़ाद हो रही है. वह ऐसे ही तो वह स्कूल जाती थी अपने मुहल्ले की मलिन बस्ती पार करके, क्योंकि वह रास्ता शॉर्टकट था और मेन रोड से जाने में देर हो जाती थी. अगर वह नन्हीं-सी जान न टोकती, तो पता नहीं वह कहां तक चलती चली जाती, “बस बीबीजी, बस यही है मेरा घर.” एक छोटी-सी झुग्गी के आगे रुकते हुए वह बोली. भीतर कराहने का स्वर आ रहा था. “कौन है.” “अम्मा, बीबीजी आयी हैं.” “हें! क्या बोली रे तू.” भीतर से बाई किसी तरह उठती हुई बाहर निकली. “अरे बीबीजी आप यहां! अरे सुनो कोई कुर्सी लाओ, अरे पानी है कि नहीं, अरे देखो बीबीजी आई हैं. कुछ करो.” उसे ग़ुस्से के साथ प्यार भी आया. “सुन री, ये क्या पागलपन लगा रखा है. मैं कोई रानी-महारानी हूं, जो इस तरह बोल रही है. चल पहले किसी डॉक्टर को दिखा दें तुझे.” “नहीं बीबीजी. हमारा मरदवा किसी वैद से काढ़ा लाया है, कह रहा था कल तक ठीक हो जाएगी और बीबीजी डॉक्टर का पैसा हम तीन महीने काम करके भी नहीं उतार पाएंगे.” ‘पैसा’ जैसे उसे किसी ने चाबुक मारा हो. पैसा अगर ख़ुशी ख़रीद सकता, तो वह भी ख़ुश होती, सोन चिरैया के कैदी-सी उदास नहीं. और आज जो आज़ादी उसे मिली है, क्या उसकी क़ीमत यह चन्द सिक्के चुका पाएंगे? पैसा वही, जो लॉकर में सोने के हार और कंगन के रूप में कैद हैं, जो डायमंड के नेकलेस के रूप में गले में फंदे-सा चुभता है. और वही पैसा, जिसकी वह ग़ुलाम की तरह रखवाली कर रही है. रात-दिन जिसके लिए उसका पति पिछले पच्चीस साल से कभी इंग्लैड, कभी स्विटज़रलैंड भागता रहता है. वही पैसा जिसके लिए उसका बेटा घर छोड़कर अमेरिका चला गया और जिसके लिए उसकी बेटी ने एयर होस्टेस बन किसी एनआरआई से शादी कर ली. वह इसी उधेड़बुन में उलझी रहती, अगर उसे अपने आसपास शोर न सुनाई देता. बच्चे उसे घेरे खड़े थे. कुछ उसे छूकर देख रहे थे. कोई और दिन होता तो उसे ज़ोर का ग़ुस्सा आता. वह भाग खड़ी होती इस जगह से, लेकिन नहीं आज उसे लग रहा था कि उसके भीतर कुछ टूटने की प्रक्रिया चल रही है. उसने बाई का हाथ थामा और खींचती हुई हॉस्पिटल की ओर चल दी. उसे दवा, फल और दूध दिलाकर वह मुनिया से बोली, “सुन रे ये तेरे दोस्त कहां पढ़ते हैं?” वह हंसी, “कहीं नहीं.” “तो सुन कल इन्हें लेकर मेरे घर आएगी?” “हां, आ जाऊंगी. हमें काम क्या है?” और उसकी पूरी रात जैसे करवट बदलते कटी. उसने इंटरनेट को हाथ भी नहीं लगाया. टीवी का स्विच छूने की उसे ज़रूरत नहीं महसूस हुई. मोबाइल कहीं पड़ा धूल खा रहा था और वह सुबह से बहुत बिज़ी थी. सात बजते-बजते कॉलबेल बज उठी. देखा तो ढेर सारे बच्चे शोर मचा रहे हैं. उसने उन्हें भीतर बुलाया, शायद आज उनके आने से घर नहीं गंदा हो रहा था. उसने अपने हाथ से चॉकलेट बांटी, पुराने बक्से में पड़े छोटे-छोटे कपड़े निकाल कर रख दिए. एक-एक को पहनाकर देख रही थी वह कि किस पर कौन-सी फ्रॉक फब रही है और कौन किस सूट में अच्छा लग रहा है. एक कोने में ब्लैकबोर्ड अपने ऊपर कुछ लिखे जाने का इंतज़ार कर रहा था. उधर से मोबाइल बजा. शायद अनिमेष थे. उसने स्विच ऑन किया, “हां अनिमेष बोलो, लेकिन ज़रा जल्दी. मैं आज बहुत बिज़ी हूं.” “अरे हम भी तो सुनें, काम करने की कौन-सी मजबूरी पैदा हो गयी है आपको?” अनिमेष ने कहा. “लो तुम ख़ुद ही देख लो,” इतना कहकर उसने नेट पर वेब कैम ऑन कर दिया और उसके घर में चल रही क्लास सीधे टेलिकास्ट होने लगी. वह कुछ बोलते कि उसने कहा, “बाकी की बात जब तुम लौटोगे, तब करेंगे.” सोन चिरैया शायद आज़ाद हो चुकी थी, उसने अगले दिन घर के बाहर एक नेमप्लेट लगायी- शांति कुलश्रेष्ठ, शायद यही नाम तो दिया था उसके पापा ने स्कूल के रजिस्टर में उसका. हां उसे विश्वास था कि अब वह केवल मिसेज़ अनिमेष के नाम से नहीं पहचानी जाएगी. उसकी गली के ये बच्चे ज़रूर एक न एक दिन उसके नाम और परिश्रम को सार्थक कर देंगे, क्योंकि इन्हें पैसा नहीं चाहिए. इनकी आवश्यकता इनके भीतर पल रही जीवन जीने की जिजिविषा को दिशा देने भर की है.मुरली मनोहर श्रीवास्तव
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