“एक शरीर में रहते हुए भी नारी मां नहीं होती. मां की दृष्टि में क्षमा होती है. मन में वात्सल्य होता है और दान में हाथ उठा होता है. नारी की दृष्टि में निषेध व आलोचना होती है, मन में कामना होती है और हाथ याचना में फैला होता है. मां समर्पण का जीवन जीती है, वह अल्प संतोषी होती है, सीधी-सादी और सरल! नारी समर्पित होती नहीं, समर्पण मांगती है. वह पूर्ण संतुष्ट नहीं होती, नारी बहुत जटिल रचना है विधाता की. उसकी थाह बहुत कठिन होती है!”
आज मां को गुज़रे पंद्रह दिन बीत चुके हैं. तेरहवीं वाले दिन ही सारे मेहमान चले गए थे. आज रविवार है. मुझे भी मां की कमी बहुत खल रही थी. मेरा भी मां के साथ प्यारभरा अपनत्व से परिपूर्ण सास-बहू का रिश्ता था. मुझे आज भी याद है वो दिन जब मैं ब्याह के यथार्थ के साथ इस घर में आयी थी. मैंने चरण-स्पर्श करने के बाद मां की तरफ़ देखा, तो उनकी आंखों में उमड़ती ममता को पहचाना. वहां अस्वीकार या परीक्षण का एक कण भी नहीं था, वहां तो स्वीकृति ही स्वीकृति थी. मां ने मेरी ठोड़ी को ऊपर उठाया और प्रशंसाभरी दृष्टि से मुझे निहारती हुई बोलीं, “इस घर में तुम्हारा स्वागत है बहू! आज से इस घर को अपना मानकर अधिकारपूर्वक यहां रहो और अपने धर्म का निर्वाह करो. बड़ों का आदर करो और छोटों को प्यार दो. तुम देखोगी सब तुमसे कितना प्रेम करते हैं. सक्षम बड़ा है, लेकिन अधिकार का भोग सब समान रूप से करते हैं. मेरे दोनों बेटे अपने गुणों के कारण महत्वपूर्ण हैं. तुम यथार्थ की पत्नी हो, अत: तुम्हारा भी विशेष महत्व है. तुम हमारे कुल का सौभाग्य हो. इस कुल से कभी रूष्ट मत होना. कोई असुविधा हो, तो अपने पति से कहना. असुविधा दूर न हो तो नि:संकोच मेरे पास आ सकती हो. मेरे पास कोई अधिकार नहीं है, लेकिन मेरे बेटे मां के प्रति अपने स्नेह के कारण मेरा कहा कभी नहीं टालते...” और उन्होंने मुझे सीने से लगा लिया. “मां सारी ममता बहू पर ही न्योछावर कर दोगी तो मेरे लिए क्या बचेगा?” यथार्थ बोले. “ममता की कोई निश्चित मात्रा नहीं है और बेटा ये भी तो तेरी अर्धांगिनी है. इसे अपने सीने से लगाती हूं, तो क्या तेरा हृदय शीतल नहीं होता? पति-पत्नी में तो किसी प्रकार का कोई विभाजन नहीं होता बेटा. स्वयं को समग्रता में पत्नी को सौंपेगा, तभी तो पत्नी को समग्र रूप में पाएगा. तुम अपनी मां को पूर्ण रूप से पत्नी को समर्पित नहीं करोगे, तो तुम्हारी पत्नी तुम्हारी मां के प्रति संपूर्ण रूप से समर्पित कैसे होगी?” मां ने मुस्कुराकर यथार्थ को समझाया. मगर मेरे लिए सास के रिश्ते से ये प्रथम परिचय था. लेकिन... मेरी धारणा के बिल्कुल विपरीत. मैं सोच रही थी कि क्या सचमुच इस स्त्री का मातृत्व इतना उदार है कि यह पुत्र के साथ बहू को भी उसकी परिधि में ले ले... और मेरा मन मां के लिए श्रद्धा से भर गया. मां ने कभी ये नहीं कहा कि- ‘क्षमता, तू मेरी बहू नहीं बेटी है, लेकिन मां ने सास के रूप में ममत्व देने में कभी कंजूसी नहीं की. मां का विचार था कि रिश्तों को उनकी जगह ही रहने दिया जाए, जो रिश्ता जिस रूप में मिला है, उसे उसी ख़ूबसूरती के साथ जीना चाहिये. क्या एक सास अपनी बहू को प्यार व सम्मान नहीं दे सकती? क्या हम सास-बहू के रिश्ते को प्यार व ख़ूबसूरती के साथ नहीं जी सकते? और... मां ने जीवनभर यही किया. वो अक्सर कहती थीं कि क्षमता तुम पहले एक स्त्री हो, बाद में मेरी बहू! और नारी का सम्मान सबको करना चाहिए. शायद यही कारण था कि नोंक-झोंक के बावजूद हममें कभी मनमुटाव नहीं होता था. यथार्थ भी मां के साथ गहरे जुड़े थे. अक्सर यथार्थ और मां घंटों बातें किया करते थे. हालांकि, वो चाहते थे कि मैं भी उनकी बातों में हिस्सा लूं, बैठूं, मगर मैं बीच में ही उठ जाती थी. दोनों कभी फिलॉसफी पर, कभी राजनीति, तो कभी धर्म पर चर्चा करते थे. बौद्धिक स्तर पर यथार्थ की क्षुधा शायद मां से ही बातें करके तृप्त होती थी. मैं जल्दी ही ऊब जाती थी. सच कहूं तो कभी-कभी मुझे यथार्थ पर क्रोध भी आता था कि क्या रखा है इन चर्चाओं में? पापा के सामने यथार्थ ने शायद कभी अपना दिल नहीं खोला था. बचपन से अंतर्मुखी था यथार्थ, मैंने भी महसूस किया था कि मां, पापा और यथार्थ को लेकर परेशान रहती थीं. दोनों को क़रीब लाने की कोशिश करती रहती थीं. ये सब उन्होंने कभी मुझसे नहीं कहा, मगर मैं इस घर का हिस्सा थी, अत: मुझसे कुछ भी छिपा नहीं था. हालांकि पापा और यथार्थ एक-दूसरे को अच्छी तरह जानते थे, मगर जब दोनों अहं के घोड़े पर सवार होते तो अनचाहे एक-दूसरे को चोट पहुंचा ही देते थे. दोनों ही मां का हिस्सा थे, सो मां भी आहत होती थीं, पर शायद जीवन से उन्होंने समझौता कर लिया था... आज भी पापा अपने कमरे में मां की डायरी के साथ बैठे थे चुपचाप और यथार्थ बालकनी में आरामकुर्सी पर, मगर दोनों की ख़ामोशी में मां का अस्तित्व आज भी महसूस हो रहा था. दोनों हमेशा से शायद ऐसे ही थे. दोनों के दिलों की ख़ामोशी आवाज़ बनकर हमेशा मां के रूप में ही शब्द पाती थी. आज दोनों के बीच का सेतु टूट चुका है. मैं भी यथार्थ के पास कुर्सी डालकर बैठ गई. “चाय पियोगे?” मैंने पूछा. “नहीं...” यथार्थ खोये हुए से बोले. “मां की याद आ रही है ना?” मैंने पूछा. कुछ कहने के स्थान पर यथार्थ की आंखें भर आईं. कुछ देर यूं ही मुझे देखते रहे. फिर बोले, “जानती हो क्षमता, हमारी शादी के बाद मां ने मुझसे क्या कहा था?” मैं चुप थी. “तुमने अब तक मां को जाना है बेटा, नारी को नहीं.” मां ने कहा, “अब तुमने शादी की है, नारी से तुम्हारा संपर्क हुआ है, धीरे-धीरे उसे जानोगे, लेकिन इतना बता देना मेरा धर्म है कि नारी को मां समझने की भूल कभी मत करना.” “नारी ही तो मां होती है.” यथार्थ ने जैसे प्रतिवाद किया. “नहीं बेटा.” मां हंसी. “एक शरीर में रहते हुए भी नारी मां नहीं होती. मां की दृष्टि में क्षमा होती है. मन में वात्सल्य होता है और दान में हाथ उठा होता है. नारी की दृष्टि में निषेध व आलोचना होती है, मन में कामना होती है और हाथ याचना में फैला होता है. मां समर्पण का जीवन जीती है, वह अल्प संतोषी होती है, सीधी-सादी और सरल! नारी समर्पित होती नहीं, समर्पण मांगती है. वह पूर्ण संतुष्ट नहीं होती, नारी बहुत जटिल रचना है विधाता की. उसकी थाह बहुत कठिन होती है!” “पर तुम तो ऐसी नहीं हो मां!” यथार्थ चकित-सा था. “यही तो कह रही हूं.” मां मुस्कुराई. “मैं तुम्हारी मां हूं ना! मैंने तुम्हें पुत्र के रूप में देखा है, पुरुष के रूप में नहीं. जिसे पुरुष के रूप में देखा है, उसके प्रति मैं भी ऐसी नहीं हूं, इसीलिए तो कह रही हूं बेटा कि नारी को समझने की कोशिश करो. ऐसा न हो कि तुम अपनी पत्नी को ख़ुश न रख सको, जो दांपत्य का आधार है.” “उसके लिए क्या करना होगा मां?” जीवन से जूझना होगा, नारी को अपने पुरुष का अर्जन प्रिय होता है, विसर्जन नहीं. नारी को जीवन से जूझता पुरुष कमनीय लगता है, उससे भयभीत होता या उसकी उपेक्षा करता नहीं. मां अपने असमर्थ और दुर्बल पुत्र को भी अपने आंचल में समेट लेती है और उसका विरोध नहीं करती! किंतु नारी न अपने पुरुष को असमर्थ देखना चाहती है, न पराजित, न दुर्बल. नारी को समझो बेटा...! उसे कपड़े, गहने, संपत्ति, समृद्धि और सत्ता प्रिय होती है.” “लेकिन मैंने ऐसी पत्नी तो नहीं चाही थी मां.” “तुम्हारे चाहने या न चाहने से प्रकृति के नियम तो नहीं बदल जाएंगे.” “मेरी पत्नी में इतना लोभ होगा?” “मैं तुम्हारी पत्नी की तो बात कर नहीं रही बेटा. मैं तो नारी मात्र की बात कर रही हूं. उसमें न तो तुम्हारी पत्नी अपवाद है और न स्वयं तुम्हारी मां. नारी की सुख, समृद्धि के प्रति ललक को मैं लोभ नहीं कहती. वह तो उसकी सहज प्रकृति है बेटा! यदि वो ऐसी न हो तो शायद पुरुष अकर्मण्य हो जाए. मां ने रुककर मुझे देखा, “तुमने वट वृक्ष देखा है ना?” “हां मां!” वह अपने विस्तार कर खुश है. उसकी शाखाएं हैं, पत्ते हैं, छोटे-छोटे फल हैं, जो किसी के काम नहीं आते, लेकिन वह दूसरों को छाया देकर ही अपने जीवन की सार्थकता पा लेता है, लेकिन दूसरी ओर हरसिंगार का छोटा-सा पेड़ भी है, जिस पर मौसम आते ही फूल लगते हैं. चारों ओर सुगंध फैलाता है, लेकिन किसी को छाया नहीं देता. नारी के जीवन में रूप और गंध का जो महत्व है, उसके लिए क्या तुम उसे दोषी ठहराओगे? क्या उसे लोभी कहोगे?” “नहीं मां.” “वैसे ही नारी भी प्रकृति का साक्षात रूप है. वह पुष्पित और पल्लवित होना चाहती है. उसके जीवन में रूप, रस, गंध सबके लिए ललक है. जैसे प्रकृति मदमाती है, इठलाती है, वैसे ही नारी भी है. उसके शरीर की संरचना ही नहीं, वरन् मन की संरचना भी पुरुष के मन से मेल नहीं खाती. शरीर की असमर्थतता उसे बाध्य कर दे तो, कर दे. किंतु उसकी कामना तृप्त नहीं होती. वह सोने से लदी होगी तो भी वेणी में लगाने के लिए एक फूल की कामना उसे अतृप्त रखेगी. और उसकी ये अतृप्ति ही पुरुष के जीवन की प्रगति में सहायक होती है. यह नारी का सहज रूप है. यह उसका दोष नहीं है. जीवन के अस्वाद के प्रति नारी के मन में ग्लानि का भाव नहीं है, जैसा कि बौद्धिक पुरुष के मन में है. इसलिए शास्त्र तथा तत्व ज्ञान भी नारी के गुणों को नष्ट नहीं करता. उसे त्यागपूर्ण उदात्त जीवन की परिकल्पनाओं और कोशिशों से लुभाया नहीं जा सकता.” यथार्थ का जैसे मोहभंग हो रहा था. उसकी कोई भी समस्या जैसे मां के पास जाकर समाधान पा जाती थी. मानो मां ने जीवन से हारना जैसे सीखा ही नहीं था. मां ने उन्हें मेरे विषय में एक सकारात्मक दृष्टिकोण दे दिया था. यथार्थ ने पूछा, “मां क्या स्त्री कभी पुरुष के लिए मां नहीं हो सकती?” “केवल क्षणिक रूप से. स्थायी रूप से यह कभी संभव नहीं है. पुरुष की दृष्टि ही उसे नारी बना देती है, बेटा! न पुरुष कभी पुत्र हो सकता है और न ही नारी कभी मां हो पाएगी.” और यथार्थ चुप हो गए. जैसे वो यहां थे ही नहीं. मौत तो ज़िंदगियों के बीच से गुज़र जाती है, मगर बची हुई ज़िंदगियों को कैसे झंझोड़ जाती है. ये मैंने भी आज जाना है, मां की मौत के बाद. “चलो यथार्थ पापा के पास चलो, क्योंकि उनके साथी का साथ छूट गया है. अब उन्हें तुम्हारे सहारे की ज़रूरत है.” मैंने यथार्थ के हाथों को अपनी हथेलियों के बीच में लेकर कहा. “चलो क्षमता.” यथार्थ उठ खड़े हुए और पापा के कमरे की ओर बढ़ चले. पापा चुपचाप लेटे हुए थे. यथार्थ की ओर उनकी पीठ थी. यथार्थ चुपचाप खड़े पापा को देख रहे थे और न जाने क्या सोच रहे थे, फिर आहिस्ता से पापा के पास बैठे और उनके कंधे पर धीरे-से अपना हाथ रख दिया. पापा जैसे चौंककर उठ बैठे. शायद उनके लिए भी यह स्पर्श अप्रत्याशित ही था और कुछ देर तक दोनों एक-दूसरे को देखते रहे और फिर... यथार्थ पापा के गले लगकर रो पड़े. पापा भी फफक पड़े. पता नहीं मां को याद करके या बेटे के दुख से द्रवित होकर... इतने वर्षों में मैंने भी पहली बार इन्हें पापा के इतने क़रीब देखा था. मां की मौत के बाद पहली बार दोनों एक-दूसरे के साथ अपना ग़म बांट रहे थे. मैं देख रही थी कि कैसे ग़म दो दिलों को जोड़ता है. “बेटा आज मैं महसूस कर रहा हूं, कि एक नदी थी, जो कि दोनों किनारों के बीच निरंतर बहती हुई दोनों किनारों को सींचती थी, जोड़ती ही रहती थी और किनारे उसके थपेड़े तो सहते थे, लेकिन नदी की गहराई में छिपी लहरों की बेचैनी नहीं समझते थे, जो किनारों पर से टकराकर लौट जाती थी. उन किनारों को पास लाना चाहती थी. आज ख़ुद सूखकर रेत बन गई और उड़ा लाई दोनों किनारों को एक पास... आज भी वो यादों के रूप में हमारे बीच हैं, मगर व़क़्त हमारी मुठ्ठी से रेत की तरह निकल गया.... ‘और मैं देख रही थी कि दोनों पिता-पुत्र के बीच अहं की दीवार तो मोम की थी, जो भावनाओं की ऊष्मा से आज पिघल चुकी थी... काश! मां आज ज़िंदा होतीं.... मुझे आज महसूस हो रहा था कि कभी-कभी ग़म भी अपने साथ ख़ुशियां छुपाकर ले आता है.ज्योत्सना प्रवाह
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