दर्द की गहराइयां, इश्क़ की रुसवाइयां... तल्ख़ हो चले हैं रिश्ते अब... ओढ़ ली हैं सबने तन्हाइयां... अपने ही दायरों में कैद हो गए हम, गढ़ ली हैं अपनी ही वीरानियां... आज़ादपरस्त ख़्यालों में ख़ुद को बुलंदी पर समझने का ये कुसूर, जैसे कर रहे हों हम अपने ही वजूद से बेईमानियां..
. आगे बढ़ना, क़ामयाबी की नई मंज़िलें तय करना न स़िर्फ ज़रूरी है, बल्कि मजबूरी भी है. इस मजबूरी के साथ जीना ही बदलती लाइफ़स्टाइल का संकेत है. समाज बदला, सोच में फ़र्क़ आया और हमने भी अपने दायरे बदल दिए. परंपरा के नाम पर रूढ़िवादी सोच को अपने ज़ेहन से निकाल फेंकने का साहस भी जुटाया और बहुत हद तक इसमें क़ामयाबी भी हासिल कर ली है और यहीं से शुरू हुआ वर्जनाओं के टूटने का सिलसिला. हालांकि यह इस बदलाव का एक सकारात्मक पहलू है, लेकिन इन टूटती वर्जनाओं में कहीं न कहीं हमारा कुछ छूट रहा है, जिसका प्रभाव हमारे सिसकते, दम तोड़ रहे रिश्तों में अब नज़र आने लगा है. एक नज़र डालते हैं इन्हीं टूटती वर्जनाओं और उनका हमारे रिश्तों पर. पड़नेवाले प्रभाव पर-
कौन-सी वर्जनाएं टूटीं? * सबसे बड़ा बदलाव यही आया कि महिलाएं अब शिक्षित होने लगीं. किसी भी समाज की तरक़्क़ी के लिए यह बेहद ज़रूरी है कि उस समाज की महिलाओं का स्तर ऊपर उठे. * महिलाएं न स़िर्फ शिक्षित हुईं, बल्कि घर की दहलीज़ लांघकर अपनी क़ाबिलियत हर क्षेत्र में साबित की. * घर और बाहर की दोहरी भूमिकाएं भी बख़ूबी निभाने लगीं. * स्त्री-पुरुष मित्रता अब आम हो गई. * शादी जैसी सामजिक प्रथा अब व्यक्तिगत निर्णय में तब्दील हो गई. * लिव-इन रिलेशनशिप्स अब कोई नई बात नहीं रही. * सेक्स पर लोगों के विचार ज़्यादा खुले हो गए. अब इस पर चर्चा भी वर्जित नहींमानी जाती. * उम्र का बंधन अब किसी भी चीज़ के लिए नहीं रहा, चाहे शादी ही क्यों न हो. * शादी न करने के ़फैसले को भी अब स्वीकृति मिलने लगी है. * सिंगल पैरेंट्स, तलाक़शुदा को भीसमाज में उचित सम्मान और महत्वमिलने लगा है. * विवाहेतर संबंधों को अब लोग खुलेआम स्वीकारने लगे हैं. * क़ामयाबी, परंपरा, संस्कारों के मायने बदल गए हैं.
रिश्तों पर प्रभाव * संकोच के पर्दे जब उठे, तो रिश्तों की मर्यादाएं भी तार-तार होने लगीं. * रिश्ते अब तेज़ी से टूटने लगे हैं. * कॉम्प्रोमाइज़ जैसे शब्द रिश्तों की डिक्शनरी से ग़ायब होते जा रहे हैं. * आर्थिक आत्मनिर्भरता ने हर किसी की सहनशक्ति को कम कर दिया है. * बात स़िर्फ पति-पत्नी के रिश्ते की ही नहीं है, बल्कि भाई-बहन, बच्चे-पैरेंट्स के बीच भी मान-मर्यादा के मायने बदल गए हैं. * यह सकारात्मक बात है कि अब बच्चे-पैरेंट्स, भाई-बहन या पति-पत्नी के बीच औपचारिकताएं न होकर दोस्ताना रिश्ते रहते हैं, लेकिन कहीं न कहीं इन ख़त्म होती औपचारिकताओं ने ही इन रिश्तों के बीच का सम्मान भी ख़त्म कर दिया है. * बच्चे पैरेंट्स की सुनते नहीं, पति-पत्नी की बनती नहीं और भाई-बहन के रिश्तों में अब वो लगाव नहीं रहा. * प्रैक्टिकल सोच के चलते भावनाएं महत्वहीन होती जा रही हैं. * यही वजह है कि आज भीड़ में होते हुए भी हम सब शायद कहीं न कहीं तन्हा हैं. * पार्टनर है, मगर अपनी ज़िंदगी में व्यस्त. वे अपनी सहूलियत और आवश्यकतानुसार ही एक-दूसरे को वक़्त देते हैं. * हम सभी को रिश्तों में अब स्पेस चाहिए. * टीनएज प्रेग्नेंसी बढ़ती जा रही है. * युवाओं में सिगरेट-शराब स्टेटस सिंबल बनता जा रहा है. * किशोरों में भी सेक्सुअल बीमारियां आम होती जा रही हैं. * फ्री सेक्स अब मॉडर्न होने का पैमाना बनता जा रहा है. * आपराधिक प्रवृत्ति पनपने व बढ़ने लगी है. यही वजह है कि ऐसी घटनाएं आम होती जा रही हैं कि कहीं पति ने अपनी पत्नी की, तो कहीं किसी बेटे ने अपनी मां की ही हत्या कर दी.
विशेषज्ञों की राय में * सबसे अहम् बात कि आज लोग यह सोचते हैं कि स़िर्फ सेक्स की ज़रूरत को पूरा करने के लिए शादी जैसी बड़ी ज़िम्मेदारी को क्यों ओढ़ा जाए? * हम अपने रिश्तों को अब कम अहमियत देने लगे हैं. हमारे रिश्तों की उम्र छोटी होती जा रही है, उनके मायने बदल रहे हैं. वो अब अधिकतर स़िर्फ शारीरिक आकर्षण पर ही आधारित होते हैं और विशेषज्ञों का तो यहां तक मानना है कि वो दिन भी दूर नहीं जब रिश्ते भी यूज़ एंड थ्रो की तर्ज़ पर बनने लगेंगे. * हम अपने रिश्तों पर काम करना ही नहीं चाहते. अगर वो थोड़े भी बिगड़ते हैं, तो हम फौरन भाग खड़े होते हैं. न वक़्त देते हैं, न कोशिश करते हैं कि रिश्ते ठीक हो जाएं.
कैसे जानें कि रिश्ते प्रभावित हो रहे हैं? * अगर आपका पार्टनर आपको कम समय देने लगे. * दूसरों के साथ ज़्यादा एंजॉय करने लगे. यानी आपका वक़्त और आपकी जगह जब दूसरे लेने लगें, तो समझ जाएं कि सब कुछ ठीक नहीं. * बात करते वक़्त आई कॉन्टैक्ट कम रखे या न रखे. * बात-बात पर या किसी भी विषय पर बात करते वक़्त चर्चा न होकर बहस होने लगे. * हर चीज़ में कमी निकालने लगे. * सेक्स लाइफ़ पर भी प्रभाव पड़ने लगे.
अन्य रिश्तों पर प्रभाव * कम्युनिकेशन गैप बढ़ता जा रहा है. * पैरेंट्स और बच्चों के बीच की दूरियां और टकराव भी बढ़ रहा है. * अपने तरी़के से जीने की ज़िद में किसी की सीख, मार्गदर्शन अपनी ज़िंदगी में अब दख़लअंदाज़ी लगने लगा है. * बच्चों को पैरेंट्स अगर मनमानी नहीं करने देते, तो उनकी नज़र में वो आउटडेटेड हो गए हैं. * पैसे और भौतिक सुविधाएं ही महत्वपूर्ण हो गई हैं. * भावुक होना कमज़ोरी की निशानी मानी जाने लगी और स्वार्थी होने में अब किसी को बुराई नहीं नज़र आती.
रिश्तों को कैसे बचाया जाए? दरअसल हम ही यह तय करते हैं कि हम और हमारे रिश्ते हर पल, हर घड़ी कैसे रहेंगे? अगर हम अपने रिश्तों को बदलना चाहते हैं, तो सबसे पहले हमें बदलना होगा. वक़्त के साथ हम बदले, तो हमारे रिश्ते भी बदल गए और अब अगर इन रिश्तों को संभालना है, तो भी हमें ही बदलना होगा. * रिश्तों को वक़्त दें. * साथ में समय गुज़ारें. * स्पेस दें, भरोसा करना सीखें. * कॉम्प्रोमाइज़ करना सीखें. * सहनशीलता न खोएं. * सामने वाले की कुछ ग़लतियों व आदतों को नज़रअंदाज़ करना भी सीखें. * प्यार और सम्मान की भावना बनाए रखें. ऐसा नहीं है कि टूटती वर्जनाओं का नकारात्मक प्रभाव ही हुआ है, बल्कि बहुत-से सकारात्मक बदलाव सामाजिक तौर पर भी और व्यक्तिगत तौर भी हमने महसूस किए, लेकिन शायद हमने अपनी आज़ादी को अलग दिशा दे दी, यही वजह है कि इसका ख़ामियाज़ा हमारे रिश्ते भुगत रहे हैं. अगर रिश्तों को संभाल लिया जाए, तो वर्जनाएं टूटने पर भी रिश्ते नहीं छूटेंगे.
- गीता शर्मा
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