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कहानी- प्रतिध्वनि (Short Story- Pratidhwani)

"मैं कभी भी उसे दुखी नहीं करना चाहता था. वह जब मेरी पत्नी बन कर आई, हर पल चहकनेवाली बुलबुल थी. धीरे-धीरे वह अपनी खोल के अंदर छुपती चली गई, परंतु उसका अंतर्मुखी होना मुझे क्यों नहीं दिखाई दिया? उसने हर बात, हर चीज़ मेरी इच्छा के अनुरूप किया, पर याद करने की कोशिश करता हूं, तो याद नहीं पड़ता कभी मैंने उसकी इच्छा या पसंद जानने की कोशिश की हो... कभी उसके रंग में रंगने की इच्छा भी मेरे मन में आई हो. कभी तुम्हारे मन में यह इच्छा आई विवेक कि तुम अपनी पत्नी की इच्छा के अनुरूप ढलो?”

नित्य की भांति वे थके क़दमों से धीरे-धीरे चलते हुए अपनी चिरपरिचित पत्थर की बेंच पर आकर बैठ गए. इस पार्क में आनेवाले लोग क्या, अब तो यहां के पेड़-पौधे, पक्षी यहां तक कि हवा भी उन्हें पहचानने लगी थी. और जानते थे कि सूर्योदय के साथ ही वे पार्क के दाहिने फाटक से प्रविष्ट होंगे और बिना दाएं-बाएं देखे सीधा इसी हरसिंगार के नीचेवाली पत्थर की बेंच पर आकर बैठ जाएंगे. एक घंटा यूं ही बिताकर बिना कुछ बोले, बिना घूमे-टहले सीधा उठकर दाहिने फाटक से बाहर निकल जाएंगे. इधर एक सप्ताह से उनकी इस दिनचर्या में थोड़ा-सा परिवर्तन आया है. अब उनके आने के आधे घंटे बाद, 35-36 की उम्र का एक युवक उन्हीं की बेंच पर बैठ कर अख़बार पढ़ने लगा है. आज उनको बेंच पर बैठे अभी पांच मिनट ही हुए थे कि वह दंपत्ति पार्क के गेट के अंदर आता दिखाई दिया. उन्होंने एक नज़र अपनी घड़ी पर डाली, फिर पार्क में चारों ओर देखा. अभी इक्का-दुक्का लोग ही पार्क में दिखाई दे रहे थे. उन्हें पास आता देखकर वे विपरीत दिशा में देखने लगे. 
“चलिए न, थोड़ा-सा टहल लीजिए.” अनुरोध भरा नारी स्वर उभरा.

“क्यों फ़ालतू में सुबह-सुबह मूड ख़राब कर रही हो!... यहां तक आ जाता हूं, यही बहुत है. डॉक्टर ने टहलने के लिए तुम्हें कहा है, मुझे नहीं... अब जाओ जल्दी टहलकर आओ. आज अख़बार भी नहीं मिला है.” पुरुष के स्वर में खीझ थी.

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“आज हम शायद जल्दी आ गए हैं. पार्क खाली-खाली-सा लग रहा है, इसीलिए...” उसने बात अधूरी छोड़ दी. पुरुष बेंच पर बैठता हुआ इत्मीनान से बोला, “चिन्ता की कोई बात नहीं है. मैं हूं न यहीं.” सांवली-सी, तीखे नयन-नक्श व गोल-मटोल शरीरवाली वह स्त्री बिना बात आगे बढ़ाए स्वयं आगे बढ़ गई. घुंघराले बालोंवाला वह श्यामवर्णी पुरुष बेचैनी से बेंच पर बैठ, पहलू बदलने लगा.

“अख़बार के बिना मन नहीं लग रहा क्या?”

“जी... जी हां.” उसने चौंककर उनकी ओर देखा.

“क्या शुभ नाम है आपका?”

“मुझे विवेक सिंह कहते हैं. वैसे आप मुझे ‘तुम’ कहकर ही संबोधित करें, तो मुझे ख़ुशी होगी. आप मेरे बुज़ुर्ग जैसे हैं.” “अरे! कैसा संयोग है! मेरा नाम भी विवेक ही है... विवेक मेहरा.”

“आपसे मिलकर प्रसन्नता हुई सर.”

“तुम मुझे अंकल कह सकते हो.” “जी अंकल.” “मुझे तुमसे मिलकर ख़ुशी नहीं हुई... क्योंकि तुमने मेरे अतीत को कुरेद दिया है.” मेहराजी ने अपने सत्यवादी होने का परिचय दिया. “माफ़ कीजिएगा अंकल, मेरा ऐसा कोई इरादा नहीं था. फिर भी यदि आपका दिल दुखा है, तो मैं क्षमा चाहता हूं.” हतप्रभ-सा विवेक बोला.

“विवेक, बिन मांगे ही सलाह दे रहा हूं. जानता हूं आजकल की युवापीढ़ी को बुज़ुर्गों की सलाह भाती नहीं है. फिर भी तुम्हें सचेत करना चाहता हूं, क्योंकि तुम्हारे अंदर मुझे अपना अतीत दिखाई दे रहा है... बेटा, अपनी पत्नी को ज्वालामुखी बनने से बचा लो.”

“जीऽऽऽ! ...!” आश्‍चर्य, असमंजस और नाराज़गी एक साथ विवेक के चेहरे पर उभर आई. 
“बुरा लगा न?... जानता हूं...” गहरी दृष्टि से उन्होंने विवेक को देखा जैसे परख रहे हों. फिर ठहरे हुए शब्दों में बोलना आरंभ किया.

“बेटा, मुझे देख रहे हो. दो साल बाद मैं रिटायर हो जाऊंगा. आज जीवन के इस पड़ाव पर आकर मैं नितांत अकेला हो गया हूं.”
“आई एम सॉरी!” अंग्रेज़ी में कहे इन शब्दों के साथ ही विवेक का हमदर्दी भरा हाथ उनके घुटने पर आ टिका.

“नहीं, तुम ग़लत समझ रहे हो विवेक... मेरी पत्नी जीवित है और स्वस्थ है.” मौन विवेक सीधे उनकी आंखों में देखने लगा जैसे कुछ तलाश रहा हो.

“जानता हूं, सोच रहे हो कैसे उलझे हुए व्यक्तित्व के इंसान से पाला पड़ा है. इससे बात करूं या नहीं.... है न? मेरे ये स़फेद बाल देख रहे हो? ये पिछले दो सालों में इतने स़फेद हो गए. सच तो यह है कि इन्हीं दो सालों में मैंने जीवन को जाना है, ज़िंदगी को पहचाना है.” विवेक ने ध्यान से उनके स़फेद बालों की ओर देखा. उन श्‍वेत बालों में उनकी लंबी-चौड़ी काया को गरिमायुक्तकर दिया था. विवेक की नज़रें उनके बालों से फिसलकर उनकी आंखों पर ठहर गई थीं. उन गहरी काली आंखों में दर्द का सागर हिलोरे मार रहा था. इससे पहले कि विवेक उस दर्द के सागर में डूब जाए, मेहराजी की ठहरी हुई गंभीर वाणी ने उसका ध्यान आकर्षित कर लिया. “पिछले कुछ दिनों से तुम्हें और तुम्हारी पत्नी को देख रहा हूं. तुम्हारे जीवन में अपने जीवन की प्रतिध्वनि सुन रहा हूं, महसूस कर रहा हूं, इसीलिए आनेवाले तूफ़ान से तुम्हें आगाह करना चाहता हूं. जो मेरे साथ हुआ वो तुम्हारे साथ न हो, इसलिए अभी से संभल जाओ और जीवन की ख़ुशियों को दोनों हाथों से बांधकर सहेज लो. अभी नहीं चेतोगे, तो ख़ुशियां मुट्ठी में बंद रेत की तरह फिसल जाएंगी और पता भी नहीं चलेगा.”
“आपकी भावना की कद्र करता हूं अंकल... आप जो भी कहना चाह रहे हैं खुलकर बताइए, प्लीज़.” विवेक सिंह के चेहरे पर से कठोरता की परत उतरकर अनुरोध की कोमलता फैल गई. उसके चेहरे पर नज़रें टिकाए हुए मेहरा साहब अतीत के गलियारे में उतरने लगे. “बेटा, मैं बचपन से पढ़ाई में काफ़ी अच्छा था. खेल-कूद का भी चैम्पियन था. जो मिलता घर, बाहर या स्कूल, हमेशा मेरी प्रशंसा ही करता. धीरे-धीरे शायद यह धारणा मेरे अंदर बैठ गई कि मैं सबसे योग्य हूं. पढ़ाई करते ही एक बड़ी कंपनी में मैनेजर हो गया, फिर मैनेजिंग डायरेक्टर और आज चेयरमैन हूं. अपनी योग्यता, मेहनत और लगन के बल पर ही मैंने सफलता की इस ऊंचाई को प्राप्त किया है. मेरी पहचान एक योग्य, कर्मठ प्रशासक, सफल नेतृत्व देनेवाले अधिकारी के रूप में है. इसी मुकाम को पाने का सपना देखा था मैंने. आज वो सपना पूरा हो गया है. पर बेटा, क्या यही सपना था मेरा?... बोलो, क्या मैं बस यही चाहता था?” “जी... मैं कैसे बता सकता हूं? मेरा तो आज ही आपसे परिचय हुआ है...” विवेक सिंह असमंजस की स्थिति में बोला. “बता सकते हो बेटा... क्योंकि हर इंसान का सपना एक ही होता है. बस, उसका थोड़ा-थोड़ा रूप बदल जाता है... जैसे कोई डॉक्टर बनना चाहता है, कोई इंजीनियर, कोई प्रशासक, कोई व्यापारी.... लेकिन हर किसी का सपना एक ही होता है कि वह अपने काम में महारत हासिल करे, अपनी एक पहचान बनाए और सफलता की ऊंचाइयों को छू ले, है न?”
“हां अंकल, यह तो बिल्कुल सही कह रहे हैं आप. सपना तो सब यही देखते हैं.” विवेक सहमति में सिर हिलाता हुआ बोला. “अच्छा विवेक, यह बताओ ये सब क्या हम स़िर्फ अपने लिए करते हैं?” “स़िर्फ अपने लिए क्यों अंकल? हम अपने लिए, अपने परिवार, अपने मां-बाप, अपने बीवी-बच्चों सबके लिए इन उपलब्धियों को पाना चाहते हैं. हमारी हर छोटी-बड़ी सफलता में सबसे ज़्यादा यही लोग ख़ुश होते हैं.” “बिल्कुल ठीक कह रहे हो विवेक. दरअसल, यही जीवन का सच है जिसे हम जान ही नहीं पाते या जानने की कोशिश भी नहीं करते... विवेक, जिस सपने की बात हम कर रहे थे, उस सपने या लक्ष्य से आगे भी एक लक्ष्य है, जो हमारे जीने का मक़सद है.” “अंकल, क्या है वह मुख्य लक्ष्य?”
“इन अपनों की ख़ुशी.” दोनों कुछ पल मूक एक-दूसरे की आंखों में देखते रहे. फिर अपने स़फेद बालों पर हाथ फेरते हुए वे बोले, “सुनने में बात बड़ी साधारण लग रही है न? लेकिन इन दो सालों में मैंने जाना है कि यही जीवन का सत्य है. विवेक, इन अपनों का सुख, इनकी ख़ुशी ही है, जो हमारी अंतरात्मा को तृप्ति देती है... हमारा पद, मान-सम्मान, सफलता सब हमें इसीलिए अच्छा लगता है, क्योंकि उससे ये ‘हमारे अपने’ ख़ुश होते हैं... विवेक, मेरे पास बहुत बड़ा पद है, मोटर, गाड़ी, बंगला, नौकर-चाकर, नाम, बैंक बैलेंस सब है. लेकिन ये सब मेरे किसी काम के नहीं हैं, क्योंकि इनका सुख उठानेवाला कोई नहीं है. जानते हो, मेरा ऑफिस से वापस घर जाने का मन ही नहीं होता है... किसके लिए लौटूं? उस विशाल कोठी के लिए या उसमें रखे फर्नीचर के लिए? विवेक, घर दीवारों से नहीं, परिवार से बनता है और जीवन रिश्तों से सजता है.”
  “अंकल, आपके दर्द को मैं महसूस कर रहा हूं. लेकिन जानना चाहता हूं, कौन-सा तूफ़ान आपकी बगिया को उजाड़ गया?” विराट अंबर पर से दृष्टि हटाए बिना मेहरा साहब बोले, “तूफ़ान बहुत भयंकर था, किंतु इतने दबे क़दमों से आया कि मैं जान ही नहीं सका... नौकरी में लगते ही मेरी शादी हो गई. सुंदर-सुशील पत्नी की सबने तारीफ़ की. सबका उसकी तारीफ़ करना मुझे अच्छा लगा, क्योंकि वह मेरी थी. किंतु मन के किसी कोने में यह भाव भी था कि मैं इतना योग्य हूं, तो मुझे अच्छी पत्नी मिलनी ही चाहिए थी. जिसकी सब तारीफ़ कर रहे थे, उसकी तारीफ़ में मेरे मुंह से एक शब्द भी शायद ही कभी निकला होगा. मेरे मुंह से अपने लिए प्रशंसा के बोल सुनने के लिए या फिर मेरी ख़ुशी के लिए वह पूरी तरह से मेरे रंग में रंगती गई. वह एक आदर्श गृहिणी, सुघड़ बहू, ममतामई मां के रूप में मिसाल बन गई. परंतु मेरा पुरुष अहम् कभी प्रशंसा के दो बोल नहीं कह पाया. यद्यपि उसके चेहरे पर छाई मृदुल मुस्कान मुझे मोह लेती थी. बच्चों के बीच खिलखिलाती वह बहुत सुंदर लगती थी. मैं उसे हमेशा ख़ुश देखना चाहता था, परंतु मेरा हाव-भाव यही दर्शाता था कि वह अच्छी है, तो कौन-सी बड़ी बात है. अच्छा तो उसे होना ही चाहिए, आख़िर मेरी पत्नी जो है.” मेहरा साहब विवेक की ओर मुड़े और बोले, “आज जैसे तुमने अपनी पत्नी के साथ टहलने की इच्छा का गला घोट दिया था, मैं भी ऐसा ही था. मेरी पत्नी को संगीत पसंद था और मुझे बिलकुल नहीं. वह जब भी संगीत सुनती, मैं यह कहकर बंद करवा देता, क्या हल्ला मचा रखा है. वह कुछ गुनगुनाती तो मेरे मुंह से निकलता, क्यों बच्चों की पढ़ाई डिस्टर्ब कर रही हो? अब सोचता हूं विवेक, तो लगता है ऐसा मैंने क्यों किया?..."
"मैं कभी भी उसे दुखी नहीं करना चाहता था. वह जब मेरी पत्नी बन कर आई, हर पल चहकनेवाली बुलबुल थी. धीरे-धीरे वह अपनी खोल के अंदर छुपती चली गई, परंतु उसका अंतर्मुखी होना मुझे क्यों नहीं दिखाई दिया? उसने हर बात, हर चीज़ मेरी इच्छा के अनुरूप किया, पर याद करने की कोशिश करता हूं, तो याद नहीं पड़ता कभी मैंने उसकी इच्छा या पसंद जानने की कोशिश की हो... कभी उसके रंग में रंगने की इच्छा भी मेरे मन में आई हो. कभी तुम्हारे मन में यह इच्छा आई विवेक कि तुम अपनी पत्नी की इच्छा के अनुरूप ढलो?”
“अ... क... कभी ऐसे सोचा नहीं.” अपने घुंघराले बालों में बेमतलब उंगलियां फेरते हुए विवेक बोला. “यही... बेटा यही... हम अपनी जीवनसंगिनी को, वो क्या कहते हैं, अंग्रेज़ी में, ‘फॉर ग्रान्टेड’ ले लेते हैं. और आज मैं मुड़कर देखता हूं, तो पाता हूं कि उसने जीवन में जब-जब मेरा साथ चाहा, मैंने उसे रुपया और दूसरे का हाथ पकड़ाया है... अब अगर अंत में उसने पूर्ण रूप से मेरा साथ छोड़ने का निर्णय ले लिया, तो क्या ग़लत किया?” “ये आप क्या कह रहे हैं?” ''एक कड़वी हक़ीक़त बयान कर रहा हूं.” कुछ पल ठहरकर वे पुन: बोलने लगे. “... जीवन छोटी-छोटी घटनाओं का जमावड़ा है. धूप-छांव हर एक के जीवन में आता है. मिल-बांटकर इस लुका-छुपी के खेल को खेलें, तो एक सुंदर यादों का गुलदस्ता तैयार होता है. परंतु मेरी तरह अपनी ही दुनिया में जो जीता है, वह स्वयं अपनी हरी-भरी बगिया को बियावान बनानेवाला माली सिद्ध होता है.”
अतीत उन पर अब पूरी तरह से हावी हो गया था. अत: विवेक को मौन श्रोता होना ही ठीक लगा. वे सुदूर क्षितिज की ओर देखते हुए कहने लगे, “उसे फिल्में देखने का शौक़ था और मुझे नाम कमाने का. वह जब भी फिल्म देखने की बात करती, मैं व्यस्तता की बात कर उसे रुपये पकड़ाकर सहेलियों के साथ देख आने की नेक सलाह दे देता... जब मेरे आंगन की दो कलियां यानी मेरी बेटियां जन्मीं, उस समय मेरी सहचरी को सबसे ज़्यादा यदि कुछ चाहिए था, तो वो था मेरा साथ. किन्तु मैंने क्या दिया जानते हो? रुपये देकर उसे एक बार अपने मां-बाप के पास, दूसरी बार भी उसके मां-बाप के पास पहुंचा दिया. बेटियां मेरी जन्मीं, वंश-बेल मेरी फूली, परंतु सारी भागदौड़, सारा तनाव दूसरों ने झेला, अपनी ज़िम्मेदारी दूसरों के कंधों पर रखकर मैं बाप बन गया. इतना ही नहीं, ये कलियां जब मेरे आंगन में कुहुकने लगीं, तब मेरा मन मोर नाच उठा. उनकी तोतली बोली, उनकी खनकती हंसी मेरा मनोरंजन थी, परंतु उनकी बीमारी, उनके स्कूल की सारी ज़िम्मेदारी मेरी सहचरी की थी. मेरी ज़िम्मेदारी बस उसे पैसे देना और गाड़ी देना थी... उसके परिवार में कोई भी शादी-ब्याह या ग़मीं पड़ी, मुझे कभी भी छुट्टी नहीं मिली. शुरू-शुरू में अकेले बच्चों के साथ वह चली जाती थी. फिर कार्ड या फोन आते ही बहाने बनाने लगी. एक बार मैंने टोका था, किसी की परीक्षा तो है नहीं, चली जाओ न बच्चों के साथ, थोड़ा मन बहल जाएगा. कुछ पल मेरी ओर देखकर उसने सपाट चेहरे के साथ कहा था, ‘अकेले अच्छा नहीं लगता.’ उस पल इन शब्दों में छुपे दर्द को मैं महसूस नहीं कर पाया. पर बेटा, आज ये सब मेरा सीना छलनी करते हैं. विवेक, मैंने उसे प्यार किया है. आज भी करता हूं. उसने मुझे छोड़ दिया, परंतु मुझे उससे कोई शिकायत नहीं है... दरअसल, मैं शिकायत करने की स्थिति में ही नहीं हूं. ये तो मेरी सज़ा है और इसे मैंने सिर झुकाकर स्वीकार लिया है. अब तो बस दिन-रात यही दुआ करता हूं कि वह जीवन के शेष दिनों को अपने ढंग से जीए और संगीत जो उसकी आत्मा में रचा-बसा था, उसका पूरा आनंद उठाए.” “लेकिन अंकल, उन्होंने आपको छोड़ा क्यों? वो आपके प्यार को क्यों नहीं समझ पाईं?” 

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हां! महसूस किया जाता है... वो उस प्यार को कैसे महसूस करती विवेक, जिसको मैं ही तब जान पाया, जब वो मेरे जीवन से दूर जा चुकी थी. वो तो जब तक मेरे साथ रही, अपने वजूद को मारकर मेरा प्रतिबिम्ब बनी रही. हर सांस मेरे लिए जीती रही. तुम्हें आश्‍चर्य होगा, किंतु अतीत की ओर पलटकर देखता हूं, तो पाता हूं कि मुझसे दूर जाने और अपनी मर्जी से जीने की बात भी कभी मैंने ही उससे कही थी.”

“क्याऽऽऽ?” विवेक फटी-फटी आंखों से उन्हें देख रहा था. “मेरी दोनों बेटियों का चयन एक साथ हो गया था, एक का मेडिकल व दूसरी का इंजीनियरिंग में. उनके हॉस्टल चले जाने के बाद उसका समय नहीं कटता था. एक दिन शाम को उसने बताया कि जहां वह इंटरव्यूू देकर आई थी, उस स्कूल में संगीत शिक्षिका के पद पर उसकी नियुक्ति हो गई है. सच बताऊं, तो मुझे उसका नौकरी करने का विचार ही अच्छा नहीं लगा और मैंने खीझकर कह दिया, अभी नौकरी रहने दो. जब दोनों बेटियों को ब्याह लेना तब संन्यास ले लेना और आश्रम में जाकर जी भरकर गा-बजा लेना. जितना संगीत छूट गया है न, उस समय पूरा कर लेना... उस दिन के बाद उसने कभी नौकरी की बात नहीं की. परंतु जिस दिन मेरी छोटी बेटी की डोली बिदा हुई और घर मेहमानों से खाली हो गया, वह शान्ति से मेरे पास आई और बोली, “मैं तुमसे और तुम्हारी ज़िंदगी से दूर जा रही हूं. तुम्हें तो मेरी कभी भी ज़रूरत नहीं थी... बेटियों को थी, पर अब नहीं होगी. तुम भी यही चाहते थे कि मैं अपनी ज़िम्मेदारी निभा दूं, तो आज मेरी ज़िम्मेदारियां पूरी हो गईं... मेरी दस-बारह बच्चों से बात हो गई है, एक कमरा किराए पर ले लिया है. वहीं रहूंगी, उन्हें संगीत सिखाऊंगी. मैं अपनी संगीत की दुनिया में वापस जा रही हूं. ये तलाक़ के काग़ज़ हैं, मैंने हस्ताक्षर कर दिया है. तुम जब चाहो इस पर हस्ताक्षर कर दूसरी शादी कर सकते हो. मुझे तुमसे कोई शिकायत नहीं है... और वह चली गई.”

“आपने रोका नहीं?”

“नहीं.”

“लेकिन क्यों?”
“जीवनभर अपने आपको, अपनी इच्छाओं को दबाते-दबाते वह ज्वालामुखी बन चुकी थी. इस ज्वालामुखी का बनना मुझे नहीं दिखाई दिया. किंतु फटना मुझे दिख रहा था. फटते हुए ज्वालामुखी को कोई रोक नहीं पाता. कोई हिम्मत भी नहीं करता. मैं नहीं कर पाया. उसने हमेशा हर काम मुझसे पूछ कर किया था. परन्तु उस दिन उसने कुछ पूछा नहीं. बस, अपना निर्णय सुनाया. मैंने उसके निर्णय के आगे सिर झुका दिया. बेटा वो मुझसे दूर रहते हुए भी मेरे दिल में रहती है. उसका वह छोटा-सा संगीत विद्यालय मेरा मंदिर है. मैं प्रतिदिन सुबह-सुबह वहां जाता हूं, अंदर नहीं जाता. शायद मुझे देखकर उसकी शान्ति भंग हो. और ऐसा मैं बिलकुल नहीं चाहता. प्यार का अर्थ तो मैं अब जाना हूं. काग़ज़ के टुकड़े पर हस्ताक्षर कर देने से प्यार नहीं समाप्त होता.” अपनी बात में वे इतना डूब गये थे कि विवेक सिंह की पत्नी का आना जान ही नहीं पाए.

“चलें?”

“अ... नहीं... वो... एक चक्कर तुम्हारे साथ टहल लेता हूं, फिर चलते हैं.” विवेक उठता हुआ बोला.

“सच?” पत्नी की आंखों की चमक विवेक से छुपी नहीं थी. आंखों ही आंखों में उसने बुज़ुर्ग का शुक्रिया अदा किया और पत्नी के साथ आगे बढ़ गया. आज पहली बार पार्क से बाहर जाते हुए मेहरा साहब के अधरों पर मुस्कान थी.

नीलम राकेश


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