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कहानी- पत्थर (Short Story- Patthar)

"मेरा पत्र पढ़ा था." निमि ने सीधा आक्रमण किया.

सोम के चेहरे का रंग एकबारगी बदला. मन की ग्लानि चेहरे पर उभरी, पर तुरन्त ही सामान्य हो गए. मुस्कुराते हुए बोले, "हां क्यों?"

निमि चिढ़ते हुए बोली, "तुम जानते हो, मैं मां बनने वाली हूं?"

ट्रेन की खिड़की से हवा का एक झोंका आकर निमि का मुंह धो गया. हवा की ये ठंडक अंदर तक सिहरा गई... बिल्कुल... सोम जैसी ठंडी... निष्क्रिय. वह कोलकाता जा रही है पर क्यों... शायद उलाहना देने... सोम को जलाने. सुनकर कितना छटपटाएगा सोमू. वह क्या कम छटपटाई है... कम जली है. पर ये किसी अपराध का

एहसास अंधेरे सा उसकी आंखों पर क्यों उतरता आता है. अपराध, कहां है अपराध... मां बनना हर औरत का स्वाभाविक, नैसर्गिक अधिकार होता है... मैं औरत हूं... विवाहित हूं... पर विवाह... मुंह में एक कड़वाहट घुलने लगती है विवाह के नाम पर...

पिछली गर्मियों में ही मां ने उलाहना दिया था, "कितने बरस हुए शादी को. पेट में एक पत्थर भी नहीं आया... कब तक हम तरसेंगे एक पोते का मुंह देखने के लिए. कुछ कहो तो फिर देखो गज़ भर की ज़ुबान कैसे चलती है आरी की तरह... मैं तो पहले ही समझती थी. छातियां देखीं है, मानो हैं ही नहीं... मुझे पता था कि ये एक पिल्ला भी जन ले बांझ, शक्ल से भी तो... अब घर के चाटो पढ़ाई-लिखाई का... सोचा था दूसरी..." मांजी के शब्द उसके कानों को छेदते रहे थे. अंदर तक वह खौल उठी थी. जी में आया कि कह दे, "अपने लाड़ले को नहीं देख पाती. सारा मेरा ही तो दोष है." ले जाकर स्वयं काउंटिंग की रिपोर्ट दे मारे उस बुढ़िया के मुंह पर और कोई होती तो कब की... क्रोध सिसकियों में बह रहा था. सारे शब्द होंठों पर दस्तक देते-देते मर गए थे. काश वह ऐसा कर सकती. किसी के साथ कहीं...

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रिपोर्ट देते समय बेचारगी डॉक्टर के चेहरे पर चमक आई थी, "सॉरी मिसेज़ थपलियाल, कुछ नहीं कर सकते हम. आप चाहें तो कोई बच्चा गोद ले लें या... नो होप एट ऑल नो..." उस काग़ज़ के टुकड़े की हवा में उसके सारे दीए बुझ गए थे. दिवाली उसके बाद फिर कभी नहीं आनी थी. सोम पास ही में खड़े थे अपना थका हाथ उसके कंधे पर टिकाए... शून्य में ताकते, मानो कुछ तलाश कर रहे हैं.

उस दिन के बाद सोम ने काफ़ी दिन तक उससे कोई बात नहीं की थी. न मालूम ये हार कर भी न हारने का दंभ था या अपने दोष की ग्लानि. उसे सोम का ये व्यवहार बहुत अखरा था. सहानुभूति की जितनी ज़रूरत उसे थी, उससे अधिक शायद सोम को थी. दोनों का दुख साझा था, पर अनुभूतियां शायद अलग थीं.

एक दिन चुपचाप खाते रहने के बाद वे हाथ पोंछने खूंटी पर टंगे तौलिए तक आए और दीवार की ओर मुंह करके बोले, मानो उससे नहीं दीवार से कह रहे हों, "निमि, आज थोड़ा-सा वक़्त मुझे दोगी खाने के बाद?" सोम ने पूछा था. वह कब की भरी बैठी थी. न जाने कैसे सामान्य न रह पाई, "क्यों, वक़्त क्या मेरी झोली में रखा है?"

वे थोड़ी देर चुप रहे, मानो उसके शान्त होने की प्रतीक्षा कर रहे हों, फिर बोले थे, "निमि प्लीज़ समझने की कोशिश करो." उससे क़रीब ४ इंच ऊंचे सोम हाथ लटकाए, मुंह झुकाए उसके पीछे खड़े हो गए थे.

झुंझलाती सी वह बेडरूम में चली आई थी और उसके पीछे-पीछे सोम भी.

"निमि सुन रही हो?" सोम ने दोनों के बीच बहने वाले मौन में पत्थर फेंका.

निमि जैसे फट पड़ी हो, "और क्या बहरी हूं, मैं ही तो रह गई हूं... सबकी सुनने के लिए बांझ जो हूं, तुम्हारी बनाई बांझ, और तुम्हारी मां... वह बुढ़िया सारा दोष मेरे माथे मढ़ती रहेगी. अपने लाड़ले में उसे दोष क्यों दिखने लगा... बोलो सोम बोलो, इसमें मेरी क्या ग़लती है. तुम मुझे मां नहीं बना सकते तो मैं..." उसका चेहरा तमतमा आया.

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"सुन लो सोम, और नहीं सुन सकती मैं. और क्यों सुनूं मैं? जिसकी ग़लती हो वह सुने... तुम सुनो सोम तुम. सब मुझे जला रहे हैं, मेरा अस्तित्व बिखर रहा है. अब अगर किसी ने कुछ कहा तो मैं... मैं वह रिपोर्ट, उसके मुंह पर मार दूंगी."

सोम ने उसके आंसू नहीं पोंछे. छलछलाते स्वर में बोले, "रोओ और रोओ. सारी परेशानी तुम्हें ही है, मुझे कोई तकलीफ़ नहीं है, क्योंकि मेरे सामने कोई नहीं है जिसके आगे रो सकूं, जिसे धमकी दे सकें. जो कुछ है उसमें मैंने कुछ ग़लत किया है? माना सच्चाई कड़वी है पर..." वे उठे और खिड़की पर जाकर खड़े हो गए. कुछ देर खड़े रहकर वे एकाएक पलटे, "आख़िर तुम चाहती क्या हो. क्या... यही कि सबके सामने तुम मुझे इतना जलील करो कि मैं आत्महत्या कर..."

"बेकार की बातें मत करो सोम, मैं जानती हूं, तुम हार कर भी अपनी हार मानने को तैयार न होगे. हार तो सिर्फ़ मुझे माननी है. सबके ताने मुझे सहने है और बाद में आत्महत्या भी मुझे ही करनी है, क्योंकि तुम पुरुष हो पुरुष खोखले दीमक लगे पेड़ जैसे, फिर भी हो तो पुरुष, पर मैं नहीं मरूंगी... ज़िंदगी ऐसे नहीं छोडूंगी. क्यों ढोऊं मैं तुम्हारा बोझ?"

सोम अब तक टुकुर-टुकुर ताकते रहे थे.

"उसकी ज़रूरत नहीं निमि, मैं ख़ुद ही सबको बता दूंगा कि..."

"देखो सोम..."

"बीच में मत बोलो निमि. मुझे कहने दो. काफ़ी चुप रखा है मैंने अपने आपको. तुम अपना अलग अस्तित्व चाहती हो, अपना अधिकार चाहती हो तो क्या उसके लिए मुझे जलील करना ज़रूरी है. माना ममत्व तुम्हारी चाह है, तुम्हारा अधिकार है. मैं तुम्हें कुछ नहीं दे सका तो भी तुम्हें स्वतंत्रता है. तुम चाहो तो हम पति-पत्नी भी बने रहें और..." सोम ने थूक निगला, "तुम... तुम किसी और से अपना ये हक़ वसूल कर सकती हो."

"सोऽऽ म..." निमि चीखी, मानो उसका मुंह ही नोच डालेगी.

सोम निश्छल थे.

"हर्ज ही क्या है? ये घर भी बच जाएगा और तुम भी..."

"बस करो... बस करो... मुझे जलाने आए हो? सिर्फ़ इसलिए तुम ऐसा कह रहे हो कि बाद में मुझे भरे समाज में बदचलन ठहरा सको, अपनी हीनता, मुझे हीन बनाकर छिपा सको... यहीं न..." वह हांफ उठी थी.

"तुम समझने की कोशिश करो निमि... मैं... मैं तुम्हें तुम्हारा अधिकार लौटा रहा हूं... अपने आपको मिटाकर भी तुम्हें... तुम्हे बचाय्ए रखने की कोशिश कर रहा हूं." सोम हाथों में चेहरा छुपाकर रो पड़े थे.

सोम थोड़ी देर बाद उठे और बिना कुछ कहे उठकर चल दिए. निमि को इस बेचारे पुरुष पर एकदम से बहुत तरस आया. जी किया, हाथ पकड़ कर रोक ले, उनकी गोद में सिर डालकर जी भरके रो ले, पर ऐसा कुछ नहीं हुआ.

कुछ दिनों में सोम ने अपना ट्रांसफर कोलकत्ता करा लिया. निमि कटकर रह गई. लगा उसकी उपेक्षा की गई है. पहले तो सोचती थी, जैसा है उसी पर संतोष कर लेगी, पर अब आहत मन से तड़प कर सोचा, 'वह जिएगी, भरपूर जिएगी." और एक दिन कुंती के जैसे उसने एक सूर्य का आह्वान कर लिया. इसमें ममत्व इतना प्रबल नहीं था, जितना कि प्रतिशोध. सूर्य ने अनुर्वरा भूमि में अपने बीज छिटका दिए. निमि के शरीर में एक प्रकाश पुंज चमक उठा... एक सूर्य निमि में प्रवेश कर गया था.

एक ठंडी हवा का झोंका फिर अन्दर भटक कर आ छुपा. निमि ने पति को लिख दिया, "वह अब बांझ नहीं रही, सम्पूर्ण नारी हो गई है... अपनी प्रथम और अन्तिम सत्ता से सज्जित."

जब उसने पढ़ा होगा कि उसने किसी और को अपनी धरती में पुष्प उगाने की अनुमति दी है तो... तो शायद चीखने लगा होगा, चीखा करे.. उसे क्या कम सताया गया है... सबसे बदला लेगी... एक-एक करके... जितना जो जलेगा, जलाएगी.

सोम स्टेशन पर शायद उसे लेने नहीं आया होगा, कुढ़ रहा होगा. मेरी बला से... उसे जलाना ही तो है, पर...

ट्रेन एक झटके से रूक गई. सोम उसे उतरते ही दिख गया. एक क्षण को चौंकी पर ख़ामोश रही. सोम लपक कर पास आए.

"रास्ते में कोई दिक़्क़त तो नहीं हुई न... काफ़ी सर्दी है." उन्होंने अपना शॉल उसे ओढ़ा दिया.

निमि ने कुछ जवाब नहीं दिया. चुपचाप सोम के चेहरे की ओर ताकती रही. सोम रास्ते भर कुछ न कुछ कहते रहे थे, पर निमि बुत बनी रही थी.

घर पहुंच कर सोम ने चिंतित स्वर में पूछा था, "क्या बात है निमि, तुम्हारी तबीयत तो ठीक है न?"

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निमि अब भी कुछ नहीं बोली. एक बार सोम की ओर देखा... उसकी आंखों में वह नफ़रत ढूंढ़ने की कोशिश करती रही, जिसकी उसे आशा थी... ताकि वह उसे दुत्कार सके, अपने तथाकथित अपराध पर तर्क कर सकें. पर सोम की आंखें बिल्कुल भावशून्य थीं, घुली-धुली... बच्चों जैसी, निमि के चेहरे की नसें तन गईं.

"मेरा पत्र पढ़ा था." निमि ने सीधा आक्रमण किया.

सोम के चेहरे का रंग एकबारगी बदला. मन की ग्लानि चेहरे पर उभरी, पर तुरन्त ही सामान्य हो गए. मुस्कुराते हुए बोले, "हां क्यों?"

निमि चिढ़ते हुए बोली, "तुम जानते हो, मैं मां बनने वाली हूं?"

"अरे हां...", जैसे सोम को कुछ याद आया हो. चहककर बोले, "ये हुई न बात. क्या स्वीट चीज़ हो तुम भी निमि माई डार्लिंग." उन्होंने निमि को पास खींच लिया. सोम की सफ़ेद कमीज़ पर निमि की लिपस्टिक से दो होंठ उभर आए.

सोम को धक्का देकर वह अलग छिटक गई. उसके सारे विचार आंखें बन कर सोम के शरीर पर चिपकने लगे... अनगिनत आंखें. हर आंख एक तलाश में, पर उन्हें 'वह' नहीं मिला जो अपेक्षित था. पति को चहकता देख उसकी कुढ़न की पराकाष्ठा हो गई. तीव्र स्वर में, "जानते हो ये बच्चा तुम्हारा..."

".... नहीं है, यही न... क्या फ़र्क पड़ता है." वे हंस दिए.

"जानना चाहोगे किसका है?" वह उत्तेजना में उंगलियां मरोड़ रही थी.

"नहीं." गम्भीर स्वर उभरा, "तुम्हारा है, यही क्या काफ़ी नहीं है?" आख़िरी तीर भी खाली जाते देख निमि संयत न रह सकी. पागलों की तरह चीख पड़ी, "सोम, पत्थर हो तुम... पत्थर... प... त्य... र..."

मानो उसे दौरा पड़ा हो. हाथ बढ़ाकर उसने सोम की कमीज़ फाड़ दी, उनके चेहरे और नंगे सीने पर नाख़ूनों से लाल-लाल रेखाएं खुरच दीं. फिर बुक्का फाड़ कर रो पड़ी, "तुम... तुम सोम मुझसे नफ़रत भी नहीं कर सकते... बोलो... तुमने मेरी गर्दन पकड़ कर क्यों नहीं पूछा, बोल कहां से लाई इसे... क्यों नहीं गालियां दी तुमने मुझे पर... तुम पत्थर, तुम पर कुछ असर नहीं करता." वह सोम के सीने पर सिर रख रो रही थी. खड़े-खड़े सोम उसका सिर सहलाते रहे. फिर सावधानी से उसके हाथ पकड़ कर सोफे पर बिठा दिया.

"तुम्हारी तबीयत ठीक नहीं है. मैं कुछ दूध ले आता हूं पी लो... फिर चुपचाप सो जाना." वे दूध गरम करने अंदर चले गए.

निमि सिर झुकाए रोए जा रही थी. मानो सारे पाप, अपराध, शिकवे गिले धो डालेगी.

- अरविंद दुबे

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