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कहानी- धुंआ (Short Story- Dhuaan)

दोनों ने प्रेम विवाह किया है. अथाह प्रेम था उनके बीच. शादी हुए अभी केवल दो साल हुए हैं, तो एक तीसरी छाया उनके बीच आ गई... ग्रहण लग गया उनके प्रेम को, पर जब उस तीसरे को इस राज़ का पता चला तो???

किराए का मकान... दो कमरों का किराया, रहने वाले मात्र दो प्राणी... बगल में दूसरे किराएदार रहते हैं. उनके बच्चे हैं. ख़ुश रहते हैं. वक़्त मिलने पर मां-पिता के साथ सिनेमा-बाज़ार भी जाते हैं.

परंतु ये दोनों प्राणी सारा दिन गुमसुम उदास से रहते हैं. पता नहीं कौन सा कीड़ा उन दोनों के मस्तिष्क में एक साथ रेंग रहा है. पुरुष किसी ऑफिस में क्लर्क है. सुबह खा-पीकर घर से निकल जाता है. शाम ढले घर लौटता है. ऑफिस के बाद किसी यार-दोस्त के यहां जाता है या नहीं, कोई नहीं जानता, कहां जाता है, यह भी पता नहीं?

दोनों के बीच गिनी-चुनी बातें होती हैं; जैसे-पानी गरम है, नाश्ता तैयार है, टिफिन रख दिया है, खाना खा लीजिए आदि. ये दो-चार वाक्य स्त्री के ही मुख से निकलते हैं. पुरुष शायद ही कभी कुछ कहता हो.

शादी हुए कोई दो साल हुए हैं. बहुत प्यार करते हैं एक-दूसरे को, दोनों ने प्रेम-विवाह किया है. स्त्री का पिता डिप्टी कलक्टर है. समाज में रुतबा है. लड़की के निर्णय के सख़्त ख़िलाफ़ था, लेकिन वह भी कम नहीं थी. एक नंबर की ज़िदी... पिता के सारे गुण हैं उसमें, शादी की, तो अपने प्रेमी के साथ ही. हां, पिता का घर त्यागना पड़ा. क्या फ़र्क पड़ता है? आख़िर वह घर छोड़कर एक दिन तो प्रियतम के घर आना ही था.

हां, तो सारे नाते-रिश्ते तोड़कर वह सुखमय जीवन व्यतीत करने प्रिय के घर आ गई, पर कौन जानता था इतनी जल्दी उनके सुखमय जीवन में ग्रहण लग जाएगा.

घड़ी ने रात के दस बजाए. पुरुष ने चौंककर घड़ी की तरफ़ देखा. स्त्री को वह कोई पत्रिका पढ़ रही थी या पढ़ने का बहाना कर रही भी. पुरुष कुर्सी से उठकर पलंग के क़रीब आया. स्त्री ने पत्रिका से नज़रें हटाकर उसकी तरफ़ देखा. दोनों की नज़रें थोड़ी देर के लिए मिलीं.

"सोओगी नहीं?" पुरुष ने पूछा. वह पलंग पर बैठ गया था.

"हां," स्त्री ने पत्रिका को मेज पर पटक दिया, फिर परे सरक गई. पुरुष उसके बगल में लेट गया. दोनों चित लेटे थे. एक ही पलंग था. पहले भी यही एक पलंग था, परंतु तब इस पलंग पर दो शरीर एक जान सोया करते थे. आज दो शरीर दो प्राण सोते हैं. ऊपरी तौर पर कुछ भी नहीं बदला है, पर अंदर से दोनों में कितना बदलाव आ गया है- इस बात को दोनों ही गहराई से महसूस करते हैं.

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शांत झील के जल में भी तूफ़ान छिपा होता है.

कितने दिन बीत गए... स्त्री सोच रही है. पुरुष ने उसके शरीर को स्पर्श नहीं किया है. उसको अच्छी तरह याद हैं... पांच महीने हो गए हैं. वह यह भी जानती है, जो यंत्रणा दोनों भुगत रहे हैं, उसके ज़िम्मेदार भी वही हैं.

पुरुष के जीवन को नर्क बनाकर रख दिया है उसने, पर वह कर भी क्या सकती है? दिल के हाथों मजबूर है.

कमरे में लाइट जलती रहती है सारी रात. शायद अंधेरे से डर लगता है. कोई उठकर स्विच ऑफ नहीं करता. दोनों डरते हैं- कोई एक अंधेरे में खो न जाए. पुरुष को डर है-स्त्री उसे छोड़कर चली जायेगी. स्त्री को डर है कि पुरुष का प्यार न खो दे वह.

पांच महीने पूर्व की बात है यह. पुरुष ने महसूस किया- स्त्री गुमसुम खोई-खोई सी रहती है. स्त्री को वह बेपनाह प्यार करता था. उसे उदास नहीं देख सकता था. कारण पूछ बैठा, "कई दिनों से देख रहा हूं. तुम खोई-खोई सी रहती हो. क्या बात है? कोई तकलीफ है?"

"नहीं, कुछ भी तो नहीं." स्त्री ने टालने के भाव से कह दिया.

पुरुष कैसे मानता? ज़िद कर बैठा, "मैं साफ़ देख रहा हूं. तुम्हारे चांद जैसे मुखड़े को ग्रहण लग गया है, कितना पीला पड़ गया है. फिर भी कहती हो, कुछ भी नहीं हुआ है.”

स्त्री ने पुरुष की आंखों में गहरे तक झांककर देखा वहां प्यार का अथाह सागर लहरा रहा था. वह डूब गई उसमें, "मैं तुम्हें बहुत प्यार करती हूं."

पुरुष हंसा, "यह कोई नई बात नहीं है. बहुत पहले से जानता हूं."

"परंतु यह प्यार ही तो मेरी उदासी का कारण है."

"मैं समझा नहीं." पुरुष एक कदम पीछे हट गया, "प्यार तुम्हारे उदासी का कारण किस तरह बन सकता है?"

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"कोई तीसरा हमारे बीच आ गया है. वह मुझे तुमसे छीन लेना चाहता है." स्त्री ने नज़रें झुकाकर कहा. पुरुष की तरफ़ देखने की हिम्मत नहीं थी उसमें, परंतु वह सब कुछ कह देना चाहती थी.

पुरुष का चेहरा फक पड़ गया. उसके मुंह से कोई शब्द नहीं निकला. अपलक स्त्री को ताकता रहा. स्त्री ने आगे कहा, "मुझे माफ़ कर देना. मैं तुम्हें धोखा नहीं दे सकती, क्योंकि मैं तुम्हें प्यार करती हूं, परंतु पता नहीं मेरे दिल को क्या हो गया है? मैं जब-जब उसे देखती हूं, पागल हो जाती हूं, कैसा आकर्षण है उसमें ख़ुद नहीं जानती. कई बार चाहा तुमसे सब कुछ कह दूं, परंतु हिम्मत नहीं जुटा पाई. आज तुमने पूछा, तो कहने की हिम्मत कर सकी.

पुरुष धम् से कुर्सी पर बैठ गया. उसके मस्तिष्क में हथौड़े से बज रहे थे. कुछ सोचने-समझने की शक्ति खो चुका था. बस अपलक पत्नी को निहार रहा था.

कई पल गुज़र गए. वह थोड़ा सामान्य हुआ. पत्नी पर उसे क्रोध नहीं आया. शायद असीम प्यार की स्थिति में मनुष्य क्रोध करना भूल जाता है. स्त्री उसकी जीवनसंगिनी ही नहीं, प्रेरणास्त्रोत भी है. उस पर वह क्रोध कैसे कर सकता है? बस इतना ही पूछा, "कौन है वह?"

स्त्री को थोड़ा संबल प्राप्त हुआ. पुरुष का संयत स्वर सुनकर उसका भय कुछ कम हुआ. बोली, "उसका कोई दोष नहीं है. वह तो यह भी नहीं जानता कि मैं उसे प्यार करती हूं."

"तो..." पुरुष का मुह आश्चर्य से खुला रह गया.

"प्यार केवल मेरी तरफ़ से है. नहीं जानती शायद मन ही मन वह भी मुझे प्यार करता हो, परंतु आज तक उसने मुझसे कुछ भी नहीं कहा, न ही उसके हाव-भाव से पता चलता है कि वह मुझे प्यार करता है. परंतु मैं हर वक़्त उसी के बारे में सोचती रहती हूं. उसी के सपने देखती हूं, चाहती हूं, उसे याद न करूं, परंतु पता नहीं मैं इतनी कमज़ोर क्यों हूं?"

पुरुष के लिए यह स्थिति कितनी कष्टदायक थी कि उसकी पत्नी किसी अन्य पुरुष को प्यार करें.

"परंतु वह है कौन?"

"अनूप..."

"अनूप..." पुरुष ने बस इतना ही कहा.

अनूप उनके पड़ोस में रहता है. इन दोनों के कमरों से जुड़ा उसका कमरा है. पच्चीस वर्ष का युवक है तथा किसी मासिक पत्रिका के कार्यालय में स्टॉफ लेखक के रूप में कार्य करता है. उसकी रचनाएं विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में निकलती रहती हैं. पड़ोस में रहने से प्रगाढ़ता होनी स्वाभाविक है, स्त्री की रुचि साहित्य में अधिक है. अनूप तथा उसके बीच अक्सर साहित्यिक चर्चाएं होती रहती हैं. अनूप की आवाज़ में दर्द है, कशिश है तथा सामने वाले को सम्मोहित करने की उसमें शक्ति है.

क्या पता उसका यही गुण स्त्री को भा गया हो.

तब से पांच महीने बीत गए हैं.

स्त्री सोचती है. पुरुष के मुख पर फिर हंसी दिखाई नहीं दी. वह भी कहां हंसती है? दोनों ही एक यन्त्रणा के दौर से गुज़र रहे हैं. क्या यह कभी ख़त्म होगी?.. कोई नहीं जानता. अनूप अब भी उनके पड़ोस में रहता है, परंतु उसे यह नहीं पता कि उसकी वजह से दो प्राणी एक आग में जल रहे हैं. उनके जीवन को वह राहु की तरह डस रहा है.

स्त्री अक्सर सोचती है- इस तरह कब तक ज़िंदा रहा जा सकता है?

दोनों अब भी चित लेटे हैं. दोनों की आंखों से नींद कोसों दूर है. नींद आएगी भी या नहीं, इसका कोई ठिकाना नहीं, परंतु समय धीरे-धीरे खिसकता जा रहा है. घड़ी ने ग्यारह बजा दिए हैं. रोज़ की तरह समय बीतता जा रहा है.

अचानक स्त्री पुरुष की तरफ़ करवट बदलती है, परंतु दोनों के बीच अब भी लगभग एक फुट का अंतर है.

"सुनिए." वह कहती है.

"क्या हमारा जीवन इसी तरह व्यतीत होगा?"

"मैं क्या कह सकता हूं?" पुरुष के शरीर में थोड़ी हलचल होती है.

"हमें कोई निर्णय लेना होगा."

अचानक पुरुष भी करवट बदल लेता है. दोनों के चेहरे आमने-सामने आ जाते हैं.

"कैसा निर्णय?" पुरुष पूछता है.

"कोई भी निर्णय, जिससे आप ख़ुश हो सकें. आख़िर इस तरह घुट-घुटकर जीने से तो कुछ हासिल नहीं होगा. हम अपने जीवन को नर्क से भी बदतर बनाते जा रहे हैं. क्या ऐसा कोई रास्ता नहीं है, जिससे हमारा जीवन फिर से सामान्य हो सके."

"है ऐसा एक रास्ता."

"क्या?"

"तुम अपने-आपको ख़ुश रखा करो. मैं तुम्हारी ख़ुशी में अपनी ख़ुशी तलाश कर लूंगा."

"परंतु यहां रहकर मैं अपने को ख़ुश नहीं रख सकती. अनूप को अपने ख़्यालों से नहीं निकाल पाऊंगी."

"तो फिर..?" पुरुष संशय से पूछता है.

"हम यह मकान छोड़कर कहीं और चले."

"परंतु इतनी जल्दी मकान कहां मिलेगा?"

और इसके बाद शब्द चूक जाते हैं. यह मकान भी कितनी मुश्किल से मिला था. न जाने कितने लोगों के पास जा-जाकर पुरुष ने मिन्नतें की थीं, तब जाकर कहीं यह दो कमरों का मकान प्राप्त हुआ था. इस महानगरी में जो भी एक बार किसी मकान में घुस गया, फिर निकलने का नाम ही नहीं लेता जोंक की तरह चिपक जाता है.

पर स्त्री बहुत ज़िद्दी है. एक बार जो ठान लेती है, करके ही रहती है. यहां तो ज़िंदगी-मौत का सवाल

है. कुछ न कुछ तो करना ही पड़ेगा. दूसरे दिन सुबह पुरुष तथा स्त्री में सामान्य बातें होती हैं, पहले दिन की अपेक्षा कुछ ज़्यादा.

खा-पीकर पुरुष ऑफिस चला गया. स्त्री ने जल्दी से दो-एक छोटे-मोटे काम निपटाए, कमरा बंद कर बाहर आई. अनूप का कमरा बगल में ही था. दरवाज़ा खुला था. वह अन्दर घुस गई.

अनूप अभी ऑफिस नहीं गया था. स्त्री उसके पास जाकर बोली, "मैं आपसे कुछ बातें करना चाहती हूं. क्या आपके पास कुछ समय होगा?"

वह मेज पर बैठा कुछ लिख रहा था, बोला, "हां, हां, क्यों नहीं? आइए, बैठिए."

परंतु वह खड़ी ही रही. खड़े-खड़े ही उसने अनूप को सब कुछ बता डाला. उसके प्रति अपना आकर्षण-प्यार; साथ-साथ पति-पत्नी के बीच बढ़ता हुआ तनाव... घुटती हुई ज़िंदगियां...

अन्त में उसने कहा, "मैं आपको भी प्यार करती हूं और उनको भी. उनसे मेरी शादी हुई है. एक पवित्र बंधन में बंध चुकी हूं, परंतु प्रेममय सागर में अचानक ज्वार उमड़ पड़ा, लहरें किनारों से पछाड़ खाने लगीं. अचानक गहरी शांति हो गई. उमड़ती लहरें अपने आप सो गई... कोई भी पुरुष किसी भी स्त्री के प्यार को पाकर नहीं नकार पाता... यही तो पुरुष की सबसे बड़ी निर्बलता होती है न... पर कुछ पुरुष उसके अपवाद भी होते हैं, जो किसी भी स्त्री के जीवन में प्यार के नाम पर, ज़हर नहीं घोल पाते, कभी नहीं कभी नहीं...

आपको भुला पाना भी मेरे लिए नामुमकिन है. कोई रास्ता नज़र नहीं आता है. मैं तो स्त्री हूं-कमज़ोर, दिल के हाथों मजबूर हो गई. आप पुरुष हैं- लेखक हैं- हज़ारों किताबें पढ़ी हैं. क्या कोई ऐसा रास्ता नहीं है कि..." स्त्री ने जान-बूझकर वाक्य अधूरा छोड़ दिया.

अनूप हक्का-बक्का रह गया. बोला, "मैं तो कभी सोच भी नहीं सकता था कि आप जैसी सुंदर स्त्री मेरे जैसे साधारण युवक से प्यार करेंगी?"

"सुंदरता ही हर वस्तु का मापदंड नहीं होती."

वह उठ खड़ा हुआ. उसकी आंखों में एक अजीब चमक थी. स्त्री को थोड़ा डर लगा... वह कुछ कर न बैठे. उसका दिल धड़क उठा. स्त्री कितनी डरपोक होती है. जिस पुरुष को वह प्यार करती है, उससे भी उसे डर लगता है.

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अनूप बोला, "अब आप जाइए. मैंं कुछ करूंगा."

"हां." वह कुछ सोचता सा बोला, "कितना ख़ुशनसीब हूं मैं कि आप जैसी सुंदर स्त्री का प्यार मुझे मिला. काश! मैं आपको अपने दिल में बसा सकता, परंतु नहीं, यह कभी संभव नहीं हो सकता. आप किसी की अमानत हैं... ब्याहता औरत हैं. मुझे कोई हक़ नहीं पहुंचता कि किसी के ख़ुशियों भरे चमन में आग लगाऊं, आपने किसी ऐसे रास्ते की बाबत पूछा है, जो आपके ग्रहणयुक्त जीवन को फिर से सामान्य बना सके.

मैं आपको रास्ता दिखाऊंगा, परंतु अभी नहीं. फिर कभी...."

स्त्री चली आई. मस्तिष्क में विचारों का डर समेटे.

दिन बीत गया. रोज़ की तरह रात के दस बजते हैं. पुरुष पलंग पर लेट गया है. स्त्री भी, परंतु आज भी चित नहीं लेटा है. दोनों के मुख आमने-सामने हैं. दोनों के शरीर के बीच मुश्किल से एक इंच दूरी है.

परंतु उनमें से किसी को पता नहीं है कि उसी समय घर के सामने एक जीप आकर रुकी है. शायद किसी कम्पनी की गाड़ी है. उससे अनूप के साथ दो अन्य युवक उतरते हैं. तीनों चुपचाप अनूप के कमरे में जाते हैं. थोड़ी देर बाद जब वह बाहर निकलते हैं, तो उनके हाथों में सामान से भरे बोरे होते हैं. अनूप के हाथ में एक सूटकेस तथा एक बैग हैं. सामान जीप के पिछले हिस्से में रखकर तीनों आगे जा बैठते हैं. जीप स्टार्ट होते ही ढेर सारा धुआं चारों तरफ़ फैल जाता है.

जीप चली गई है. धुआं अभी भी बिखरा है. थोड़ी देर बाद वह भी छंट जाएगा, तब वातावरण पहले की तरह साफ़-सुथरा हो जाएगा. हवा में एक ताज़गी होगी... ऐसी ताज़गी जो स्त्री-पुरुष के जीवन में एक नई स्फूर्ति, नया उत्साह तथा नया प्यार भर सकेगी.

परंतु उन दोनों को कभी नहीं मालूम हो पाएगा कि अनूप रातों-रात अपना कमरा छोड़कर कहां चला गया है.

- राकेश भ्रमर

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