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कहानी- मेडे (Short Story- Mayday)

Writer Sangita mathur New
संगीता माथुर

“... इन मेडे कॉल्स को नोटिस करो. इनकी निःशब्द आवाज़ को सुनो. उत्तर दो. किसी की मदद करने के लिए धन की नहीं, एक अच्छे मन की ज़रूरत होती है. हर मेडे कॉल को रनवे की दरकार नहीं होती. एक सुनने-समझने वाला दिल भी एक जान बचा सकता है.” कविता का चेहरा आंसुओं से तर था, पर पापा का सामीप्य, वरद हस्त पाकर परितृप्त भी.

बेचैन प्रकाश जी गलियारे में ही चहलकदमी कर रहे थे कि जेब में पड़ा मोबाइल बज उठा. व्यग्र  प्रकाश जी ने लपक कर कॉल रिसीव किया. बेटी कविता का फोन था, “ऑफिस पहुंच गई?”

“हां पापा, इतना ट्रैफिक होता है कि रोज़ ही देरी हो जाती है... और कैसे हैं आप? क्या कर रहे हैं?”

“ऐसे ही गलियारे में चहलकदमी कर रहा था. यह बता तू मैथिली के कॉन्टैक्ट में है क्या?”

“कौन मैथिली? मैथिली मिश्रा? कैंपस वाली?”

“हां वही.”

“कैंपस वाले बच्चों के ग्रुप में वह है तो सही. पर ऐसे अलग से बात नहीं होती. क्यों क्या हुआ?”

“उसके पापा रोज़ सुबह गुड मॉर्निंग मैसेज भेजते हैं. आज नहीं भेजा. मैंने भेजा तो उसका भी जवाब नहीं दिया. लास्ट सीन भी रात का दिख रहा है.”

“तो सो रहे होंगे. मैं चलती हूं, मीटिंग का टाइम हो गया है.”

फोन बंद हो गया था. प्रकाश जी स्वयं से बात करते हुए अंदर आ गए, “भला इतनी धूप चढ़े कौन सोता है? यह आज की पीढ़ी भी न इकट्ठा करने के लिए जी रही है. और हमारी पीढ़ी इकट्ठा रहने के लिए जीती रही. अरे पहले ख़्याल क्यों नहीं आया, कॉल ही कर लेता हूं.”

प्रकाशजी ने कॉल लगाया, लेकिन लंबी घंटी के बाद भी कोई प्रतिउत्तर नहीं मिला. शायद वॉशरूम में होगा. मैं भी नहा-धो लेता हूं. माला आती होगी.

सच में ऐसा ही हुआ. प्रकाश जी पूजा करके फारिग हुए और माला ने घंटी बजाई. 

“आज थोड़ा लेट हो गई साहब जी! अभी नाश्ता तैयार करती हूं.” माला रसोई में घुस तो गई, पर उसे आश्‍चर्य हुआ कि साहबजी ने आज यह भी नहीं पूछा कि क्यों लेट हुई? या अपने लिए भी चाय बना लेना. बस बेचैन मोबाइल ही देखते रहे. या कहीं फोन लगाते रहे.

“कविता बिटिया का फोन नहीं आया क्या?”

“आ गया था. पहुंच गई ऑफिस.” नाश्ता समाप्त कर प्रकाशजी अख़बार लेकर बैठ गए. माला ने नोट किया उनका मन पढ़ने में भी नहीं था.

“चाय बनाकर थरमस भर जाऊं साहब जी?”

“नहीं.”

माला के जाने के बाद प्रकाश जी ने मोबाइल जेब में रखा और नीचे धूप में टहलने निकल पड़े. कविता ने कह रखा है, “आजकल शाम से ही ठंडी हवा चलने लगती है पापा. इसलिए आप सुबह की गुनगुनी धूप में वॉक कर लिया कीजिए. पर गर्म कपड़े पहनकर.” 

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वॉचमैन राम सिंह ने उन्हें आते देख लिया था. हमेशा की तरह उसने सैल्यूट देकर प्रकाशजी का स्वागत किया. लेकिन प्रकाशजी बिना मुस्कुराहट बिखेरे निकल गए. उनकी उंगलियां मोबाइल टटोल रही थीं.

‘माला ने ठीक कहा था कुछ तो बात है साहब अनमने से हैं. किसी फोन कॉल को लेकर व्याकुल हैं. माला ने बताया था कि कविता बिटिया का कॉल तो आ गया था. कुछ तो अनहोनी हुई है. लौटते में पूछता हूं.’

प्रकाशजी वॉक करके लौटे, तो रामसिंह ने फिर सैल्यूट ठोका. प्रकाशजी कोई कॉल लगा रहे थे.

“सब ठीक है साहब जी?”

“हां ठीक है.” प्रकाशजी हाथ उठाकर आगे निकल गए थे.

ऊपर से तो ठीक ही लग रहे हैं साहब जी.  पर अंदर से बहुत परेशान लग रहे हैं.

बार-बार कॉल नो रिप्लाई आने पर प्रकाश जी ने थककर मोबाइल बंद कर दिया. खाना खाकर वे सो गए. शाम को आंख खुली तो फिर मोबाइल चेक किया और फिर उठकर टीवी चला दिया.

“अरे यह क्या? अहमदाबाद में प्लेन क्रैश! सारे के सारे यात्री मारे गए. उफ़! हे भगवान क्या-क्या दिखाएगा तू? पहले कोरोना, अब यह...” प्रकाशजी का मन बुरी तरह उखड़ गया था.

माला चुपचाप आकर, खाना बनाकर निकल गई थी. जाते वक़्त वह फिर रामसिंह के कान भर गई थी.

प्रकाशजी न्यूज़ चैनल बदलते जा रहे थे. पर हर जगह वही न्यूज़. वही धू धू कर जलता प्लेन. 2 मिनट पहले के हंसते-खिलखिलाते यात्री और फिर ज़ोरदार धमाका. प्रकाशजी का मोबाइल बज उठा. कविता का फोन था, “आ गई घर?”

“हां पापा! आप ठीक हैं? क्या चल रहा है?.. हां हां प्लेन क्रैश! सुना मैंने भी. अभी देखा भी! आप खाना खा लीजिए. क्या बनाकर गई है माला?.. अरे तो उठिए! देखिए क्या बनाया है? दवा बराबर ले रहे हैं ना?.. हां मैं ठीक हूं. खाना गरम है जब तक खा लीजिए. बाय, टेक केयर.”

प्रकाशजी ने बेमन से उठकर खाना खाया. कमाल है माला ने आज पूछा ही नहीं कि क्या बनाना है. पर उनकी पसंद के दम आलू, रोटी और नमकीन खिचड़ी भी बना गई है. भला मैं इतना सब खा सकता हूं? ज़रूर कविता ने निर्देश दिए होंगे. बाई, चौकीदार सबके नंबर ले रखे हैं उसने. और समय-समय पर सबसे उनकी ख़बर लेकर उन्हें निर्देश देती रहती है. प्रकाशजी का सवेरे से उद्विग्न मन बेटी के प्यार से थोड़ा शांत हुआ.

उसका बस चले तो नौकरी छोड़कर यहीं रहने आ जाए. या फिर हमेशा के लिए उन्हें ही साथ ले जाए. कितना आग्रह करती है वह साथ चलकर रहने का. बड़ी मुश्किल से वे उसे समझा पाते हैं, “बेटी, पेड़ गांव में ही रह जाते हैं. फल शहर चले जाते हैं.”

इस घर में उनकी आत्मा बसती है. चारों ओर ज्योति की यादें छितरी पड़ी हैं. ज्योति का नश्‍वर शरीर इस घर से विलग हुआ है, उसकी रूह तो यहीं बसती है. उन्हें हर वक़्त अपने आसपास ज्योति की उपस्थिति का आभास होता रहता है. यह सुकून उन्हें कहीं और नहीं मिल सकता. पत्नी के साथ बिताए मधुर पलों की यादों में डूबते-उतराते प्रकाश जी को अंततः नींद ने आ घेरा.

नींद में घंटी की आवाज़ ने खलल डाला. प्रकाश जी ने चौंककर आंखें खोलीं. शायद उन्हें वहम हुआ है. वे करवट बदलकर फिर लेटने लगे कि घंटी फिर बजी. साथ ही मोबाइल भी बजने लगा.

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‘कविता का फोन? इतनी रात गए?’ फोन रिसीव करते हुए वे बिस्तर से नीचे उतर गए.

“आराम से पापा! दरवाज़े पर मैं हूं बाहर.”

“अरे तू इतनी रात गए?” प्रकाश जी की नींद उड़न छू हो गई. उन्होंने लपककर दरवाज़ा खोल दिया. कविता उनसे लिपट गई और देर तक कसकर लिपटी रही. प्रकाश जी ने अपना कुर्ता गीला होता महसूस किया तो बेटी को झटके से अलग किया.

“क्या हुआ? ठीक तो है? एकदम कैसे आ गई? अभी शाम को बात हुई तब तो तूने आने का कुछ नहीं बताया?”

“आपको सकुशल देख लिया. मेरी सांस में सांस आ गई. बहुत भूख लगी है. पहले खाना खा लूं. फिर इत्मीनान से बात करते हैं.”

“अच्छा तो वह खाना तेरे लिए बना है? वैसे अच्छा किया तू आ गई. आज सवेरे से ही मन ठीक नहीं है. एक तो मिश्रा की चिंता अभी तक बनी हुई है. फोन ही नहीं उठा रहा है. ऊपर से यह प्लेन क्रैश!”

“आपकी व्याकुलता अपनी जगह सही है पापा. मिश्रा अंकल को स्ट्रोक आ गया था. वह घर में बेहोश पड़े मिले. मैथिली ने सही वक़्त पर पड़ोसी को भेज दिया था. उसने खिड़की के रास्ते अंदर घुसकर उन्हें संभाला और अस्पताल ले गया. अब वे ख़तरे से बाहर हैं. मैथिली भी उनके पास पहुंच गई है. मैंने अभी रास्ते में कैब में उससे बात की थी. आपका बहुत एहसान मान रही थी.”

“मेरा?”

“हां पापा. सुबह मैंने आपकी चिंता पर ध्यान नहीं दिया था और मैथिली से बात नहीं की थी. लेकिन दिन में चौकीदार काका के फोन ने मुझे विचलित कर दिया.”

“क्या? रामसिंह ने तुम्हें कॉल किया?”

“हां, उन्होंने बताया कि आप वैसे तो शारीरिक रूप से फिट नज़र आ रहे हो. लेकिन मानसिक रूप से बहुत परेशान हो. बार-बार मोबाइल देख रहे हो. फोन कर रहे हो. पूछने पर परेशानी भी नहीं बता रहे. माला भी उन्हें ऐसा ही कुछ बता गई थी. उन्हेें आपकी बहुत चिंता हो रही थी.”

“अरे इतना तो मैंने सोचा ही नहीं.”

“आप सबके बारे में सोचते हैं, तो वे भी तो आपकी चिंता करेंगे ना पापा. लोग भले ही पहचानते नाम से हों, लेकिन याद तो रखते हैं. याद नहीं आपने उनकी नौकरी बचाई थी. जब वे गांव गए हुए थे. एक दूसरे चौकीदार ने सोसायटी अध्यक्ष को बरगलाकर ख़ुद उनकी नौकरी हथियानी चाही थी. वह तो आपने समय रहते रामसिंह काका को कॉल करके पूछ लिया कि वह अब तक लौटा क्यों नहीं? और तब उन्होंने बताया कि वह बीमार थे. अस्पताल में भर्ती थे. उसी दिन छुट्टी मिली थी. और अगले दिन ही वे आ गए थे और अपनी नौकरी बचा ली थी.

माला दीदी की भी तो आप कितनी मदद करते रहते हैं! वक़्त-बेवक़्त दवा, बच्चों की फीस के पैसे... बिना कहे ही आप उनकी बेबसी, दुख भांप लेते हैं और आगे बढ़कर मदद कर देते हैं.”

“वह सब छोड़! मुझे मिश्रा से मिलने जाना है. व्यर्थ ही मैंने इतनी देर कर दी. उसे कुछ हो जाता, तो मैं ख़ुद को कभी माफ़ नहीं कर पाता.”

“अंकल ठीक हैं पापा. हम सवेरे उनसे मिलने चलेंगे. अभी सो जाते हैं.” कविता बाबा के पास ही लेट गई. लेकिन दोनों की आंखों से नींद कोसों दूर थी.

“एक बात कहूं पापा, अब तक आपके सुबह-शाम के गुड मॉर्निंग, गुड नाइट वाले मैसेज से मुझे चिढ़ होती थी. सारी दुनिया को आप ये मैसेज भेजते रहते हो. आपके ऑफिस पहुंच गई, घर आ गई, लैंड हो गई... जैसे सवालों से भी मुझे खीज होती थी. लेकिन आज मुझे इन सबका महत्व समझ आ रहा है. मैथिली के पापा को स्ट्रोक आया था. महज़ आपकी चिंता दूर करने के लिए मैंने मैथिली को कॉल किया था और उनकी जान बच गई. जब मैंने उसे दोबारा कॉल किया तब वह फ्लाइट में चढ़ रही थी और बुरी तरह से रो रही थी. उसके रुदन ने मुझे हिला दिया. आपकी फ़िक्र होने लगी.

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अपने वे नहीं होते जो आपके रोने पर आते हैं. अपने तो वे होते हैं जो आपको रोने नहीं देते. जैसे आप हैं. उसके बाद वह प्लेन क्रैश वाली घटना! सबकी मौत... एक का बचना. ज़िंदगी कितनी क्षणभंगुर है न पापा! सब कुछ निस्सार लगने लगा. मैं रुक नहीं पाई. पहली फ्लाइट पकड़ कर आ गई. आप चिंता ना करें और अधीर ना हों, इसलिए पहले से नहीं बताया.” प्रकाश जी ने बेटी का हाथ थपथपा दिया.

“ज़िंदगी क्षणभंगुर ही नहीं अनप्रिडिक्टेबल भी है. एक परिवार कितने दायित्व पूरे कर, कितना सोच-विचार कर, पैसे जमाकर लंदन बसने जा रहा था और अपने गंतव्य तक पहुंचा ही नहीं. हम किसी दिन के लिए इतनी योजनाएं बना रहे होते हैं और वह दिन कभी आता ही नहीं.

एक लड़की देरी की वजह से फ्लाइट नहीं पकड़ पाई. ख़ूब परेशान, ग़ुस्सा हुई. बाद में समझ आया वह देरी नहीं, उस पर ईश्‍वर का वरद हस्त था. हम जो चाहते हैं वह हमेशा नहीं मिलता, क्योंकि ईश्‍वर हमारा भला कहीं और देख रहा होता है.

एक आदमी सीट सहित विमान से बाहर आ गिरा और ज़िंदा बच गया. ईश्‍वर ने उसे किसी उद्देश्य से ज़िंदा रखा है. प्लेन में सवार किसी भी यात्री को अंदाज़ा तक नहीं था कि यह उसका अंतिम दिन, अंतिम सांस होगी. इसलिए जो है, वह आज है. किसी परफेक्ट क्षण का इंतज़ार मत करो. अपने हर क्षण को परफेक्ट बनाओ. एक राज़ की बात बताऊं बेटी, मेडे कॉल्स स़िर्फ आसमान से नहीं आते. हमारे आसपास से भी आते हैं.”

“हैं!..” कविता की आंखें आश्‍चर्य से चौड़ी हो गईं.

“तुम्हारा कोई सहकर्मी एकदम शांत, चुपचाप रहने लगे. ख़ुद को सबसे काट ले, तो यह मेडे कॉल है. बच्चा या अभिभावक ऊपर से शांत दिखे, पर अंदर से उद्वेलित, असहज नज़र आए तो यह मेडे कॉल है. पड़ोसी प्रत्युतर में ना मुस्कुराए, सामने वाला आपके टेक्स्ट का जवाब ना दे या किसी में कोई अस्वाभाविक परिवर्तन नज़र आए, तो यह भी मेडे कॉल है.

लाख ज़माने भर की डिग्रियां हों हमारे पास, अपनों की तकलीफ़ नहीं पढ़ पाए तो अनपढ़ ही हैं हम.

दस्तक और आवाज़ तो कानों के लिए है. जो दिल को सुनाई दे, उसे ख़ामोशी कहते हैं. किसी विस्फोट, आपदा का इंतज़ार मत करो. इन मेडे कॉल्स को नोटिस करो. इनकी निःशब्द आवाज़ को सुनो. उत्तर दो. किसी की मदद करने के लिए धन की नहीं, एक अच्छे मन की ज़रूरत होती है. हर मेडे कॉल को रनवे की दरकार नहीं होती. एक सुनने-समझने वाला दिल भी एक जान बचा सकता है.” कविता का चेहरा आंसुओं से तर था, पर पापा का सामीप्य, वरद हस्त पाकर परितृप्त भी.

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