हम लोग कहकहे लगाते हुए आगे बढ़ रहे हैं. पद्मा और कामराज मेरे साथ हैं. कामराज बड़ा दिलचस्प आदमी सिद्ध हुआ है. वह हमें हमीरपुर बांध दिखाने ले जा रहा है, जो नज़दीक है, लेकिन यूं नहीं... इस तरह तो आप कुछ भी न समझ पाएंगे मुझे कुछ पीछे लौटना होगा. पहले मैं आपको अपने बारे में बताऊंगा और फिर हमीरपुर आने के बारे में.... कामराज और पद्मा के बारे में.
मेरा नाम किशोर है. मैं इन्कमटैक्स ऑफिस में क्लर्क हूं. यह काम मेरी इच्छा के ख़िलाफ़ है, मगर अपनी इच्छा के ख़िलाफ़ आदमी को न जाने क्या-क्या करना पड़ता है. अगर ऐसा न हो और हर आदमी हर काम अपनी ख़्वाहिश के मुताबिक ही कर सके, तो ये दुनिया कुछ से कुछ हो जाए. दरअसल, मुझे साहित्य से लगाव है. बहुत सी कहानियां लिखी हैं मैंने, जो अक्सर पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रही हैं. मैं बहुत भावुक और एकांत प्रिय इंसान हूं और कामकाज के अंदाज़ के मुताबिक शायद इसीलिए आज हमीरपुर आया हूं, जबकि मैं ख़ुद नहीं जानता कि असली वजह क्या मैं और है? बहरहाल में ये अर्ज करने जा रहा था कि जिस मकान में मैं रहता हूं, उस मकान के सामने ही प्रोफेसर जयराज का मकान है उस मकान की दूसरी मंज़िल पर एक कमरा है. उस कमरे की खिड़की और मेरे कमरे की खिड़की बिल्कुल एक दूसरे के सामने हैं. ये कोई ख़ास बात तो नहीं है, मगर एक दिन जैसे ये खिड़की जगमगा उठी और मैं तो जैसे आश्चर्यचकित ही रह गया.
हां, यह खिड़की प्रोफेसर जयराज के मकान की उन तमाम खिड़कियों में से एक है, जिनकी श्रीमती जी अक्सर मुझसे किताबें मांगकर पढ़ा करती हैं और मेरी कहानियां भी चाव से पढ़ती है. उन्हें सिर्फ़ एक लड़का है- डॉक्टर कामराज की शादी हाल ही में हुई है. मैं उस ज़माने में बाहर गया हुआ था. इसलिए शादी पद्मा से हुई है.
पद्मा! जिसका नाम आते ही में एक अनिर्वचनीय प्रफुल्लता से भर जाता हूं. हां. उसे मैंने पहली बार इसी खिड़की पर देखा था और मुझे यह समझने में देर नहीं लगी थी कि ये पद्मा है. निःसंदेह, वह पद्मा ही है, जिसकी वजह से मुझे यहां आना पड़ा है और वो लड़की, जो एक बीवी है, मेरी जिंदगी में बड़े अजीबोगरीब तरीक़े से दाख़िल हुई है.
उस दिन मैं अपने कमरे में स्टोव पर चाय बना रहा था. मैं तन्हा आदमी हूं. शादी हुई नहीं और पिता दूसरे शहर में रहते हैं... हां, केतली में पानी खौल रहा था. जाने किस धुन में बगैर कपड़ा हाथ में लिए हुए केतली पकड़ ली मैंने. गर्म केतली ने अपना असर दिखाया और उफ़ करके मैं जो उछला, तो केतली छिटक कर फ़र्श पर जा गिरी और पानी के छींटें मेरे तमाम कपड़ों को ख़राब कर गए. खैरियत गुज़री कि जिस्म पर नहीं गिरे. कुछ उछल-कूद आड़े आ गई थी. ये मंज़र कहीं पद्मा अपनी खिड़की से देख रही थी. मेरी भी उधर नज़र उठ गई और फिर जैसे शर्मिंदगी की चादर ने मुझे ओर-छोर तक ढंक लिया. जाने क्यों उस अल्हड़ ने बड़ी चंचलता के साथ एक ज़ोरदार कहकहा लगाया और एकदम गायब हो गई. बस, फिर जैसे-तैसे मैं दफ़्तर तो पहुंचा, पर दिनभर और गई रात तक भी पद्मा का चेहरा नज़रों के सामने से नहीं हटा.
दो-तीन दिन तो ये हालत रही कि वो जब भी खिड़की पर नज़र आती, मुझे देखकर हंस पड़ती और खामख्वाह शर्मिंदगी के मारे बगले झांकने लगता, फिर उसकी हंसी और मेरी शर्मिंदगी कम होने लगीं, मगर मुस्कुराहट के दर्जे पर आकर गाडी रुक गई.
पहले तो मैंने कोई तवज्जो नहीं दिया. पर अब ये उसका दस्तूर बन गया कि वो जब खिड़की पर नज़र आती, उसकी नज़रें मेरी तरफ़ होतीं और कभी मुस्कुराती हुई और कभी संजीदा नज़रों से देखती हुई. यहां तक कि मुझे निगाहें मिलाना मुश्किल हो जाता. तब मैं भी अपने सीने में एक धड़कता हुआ दिल रखता हूं. लिहाज़ा सोचने लगा कि ये प्रेम की शुरुआत तो नहीं है कहीं. और ये कि मुझे इस मुस्कुराहट से आगे बढ़कर कुछ करना चाहिए... मगर मेरे लेखकीय बड़प्पन और गंभीरता आड़े आ रहे थे आगे बढ़ने की हिम्मत अपने में नहीं पाता था. और वहां ये आलम कि मैं कमरे में बैठा लिख रहा हूं और वो खिड़की पर खड़ी तस्वीर बनी एकटक देख रही है. अब जो मेरी नज़रें उठती हैं, तो पहले तो उसके चेहरे पर मुस्कुराहट पैदा होती है और फिर ख़ूबसूरत से दांतों की बिजली चमक कर मेरे होशोहवास गुम कर देती है. मगर यक़ीनन मेरे चेहरे पर मुस्कुराहट की हल्की सी तह भी नहीं जम पाती. दरअसल, ये हद से ज़्यादा एहतियात पसंदी और शक्की फ़ितरत के बिना पर होती है. ज़रूरी तो नहीं कि अगर वो मुस्कुराकर देखती रहती है, तो आशिक ही हो गई है. मुमकिन है मेरी तन्हाई और संजीदगी पर उसे रहम आता हो. मुमकिन है मुझे देखकर भी मेरी ही किसी कहानी में खो जाती हो. वो मेरी अक्सर कहानियां पढ़ चुकी है. ऐसी सूरत में अगर मैं उसके इस व्यवहार को मोहब्बत समझते हुए जवाबी कार्रवाई शुरू कर दूं, तो उसकी नज़र में मेरी क्या इज़्ज़त रह जाएगी? यही न कि वो मुझे भी आम आदमियों की तरह दिलफेंक समझने लगे. नहीं, यह मुझसे गवारा नहीं होगा.
हां, पद्मा के सिलसिले में ये ज़रूर हुआ है कि एक ऐसा दिल, जो पद्मा की हर मुस्कुराहट पर झूम उठता है, ऐसी आंखें जो उसे तलाश करती रहती हैं, ऐसा ज़ेहन जो उसके बारे में सोचता रहता है, ये जानते हुए भी कि वो शादीशुदा है, मैं उससे मोहब्बत करने लगा हूं. और ये भी चाहता हूं कि कभी हम दोनों एक दूसरे के क़रीब बैठकर मोहब्बत भरी बातें करें, सितारों भरे आसमां में साथ-साथ उड़े.
मैंने शायद बताया नहीं कि यहां हमीरपुर आने की दावत ख़ुद पद्मा ने ही दी थी मुझे. एक बार ऐसा मौक़ा आ गया था. लेकिन मैं पहले हमीरपुर से पद्मा के ताल्लुक के बारे में बता दूं आपको. आप देख रहे हैं कि ये एक छोटा सा खू़ूबसूरत गांव है शहर से कोई आठ मील दूर उत्तर में पहाड़ों से घिरा हुआ एक भव्य डैम है और पुलिस प्रशिक्षण केंद्र भी. चूंकि ख़ूबसूरत जगह है. इसलिए शहर वालों की बेहतरीन तफरीहगाह है. कामराज यहां की सरकारी डिस्पेंसरी में डॉक्टर है. पद्मा उसके साथ अब यहीं रहने लगी है, मगर हफ़्ते में वो एक दिन के लिए शहर ज़रूर जाती है और मेरे कमरे को मुकाबिल वह खिड़की जगमगा उठती है. ऐसे ही एक दिन जब वो शहर में थी, मैं अपने दफ़्तर जा रहा था. रास्ता उसके दरवाज़े के सामने से होकर गुज़रता है. क़रीब पहुंचने पर मुझे उसकी आवाज़ सुनाई दी और मैं रुक गया. "... कोई किताब पहुंचा दीजिएगा?" उसने मुझे पहली बार मुखातिब किया.
"ज़रूर फ़िलहाल तो मैं दफ़्तर जा रहा हूं. वापसी पर ख़्याल रखूंगा. वैसे अभी तो आप रहेंगी यहां?" मैं बहुत हिम्मत करके पूछता हूं.
"हां, शायद। कल या परसों जाएंगे."
"आप यहीं क्यों नहीं रहती?" मैं जाने कैसे सवाल कर बैठा, वो मुस्कुरा देती है.
"वहां भी तो अपना घर है..." फिर एक लम्हा रुकने के बाद बोली, "आप आइए किसी दिन. हमीरपुर तो बहुत सुंदर मनोरम स्थल है."
"जी-हां, आऊंगा किसी दिन..." मैं मन के उल्लास को दबाते हुए कहता हूं. वो मुस्कुरा देती है. मैंने भी इस मुस्कुराहट का साथ दिया था. फिर वह घर में चली जाती है और में दफ़्तर... उस दिन मैं बहुत ख़ुश था, मगर मोहब्बत का यक़ीन मुझे उस दिन भी नहीं हुआ था. सही बात तो ये है कि जब तक ज़ुबान से इकरारे मुहब्बत न कर लिया जाए. मैं तो भरोसा नहीं कर सकता. हालांकि ये भी जानता हूं कि कोई लड़की चीख-चीख कर इसका एलान नहीं करेगी. बहरहाल उस दिन मैं बहुत ख़ुश था.
फिर उसी रात एक दिलचस्प वाक्या पेश आया. रात आधी से ज़्यादा गुज़र चुकी थी. मैं अपनी मेज़ पर बैठा लिख रहा था. अचानक मुझे एहसास हुआ कि सामने के कमरे में रोशनी हो गई है. मैं उधर देखता हूं पद्मा दीवार का सहारा लिए खड़ी है उसका एक हाथ स्विच बोर्ड पर है... चेहरे पर मुस्कुराहट है.. और हैं एकटक निगाहें! मैं लिखना बंद कर देता हूं, मगर फौरन ही कमरे में अंधेरा हो जाता है मेरा दिल बुझ जाता है जैसे मैं खाली खाली नज़रों से देखता रह जाता हूं और फिर लिखने के लिए झुकता हूं कि उसी समय फिर कमरा रौशन हो जाता है और मैं देखता हूं कि पद्मा ज्यों की त्यों उन्हीं पैरों पर खड़ी है मुझे अपने क़रीब तक खींच लेने या मेरे क़रीब तक खिंच आने के आकर्षण में विहवल सी... और मैं उस रात बार-बार इसी नतीजें पर पहुंचता रहा कि यक़ीनन यह मुहब्बत है. खुदा ने हमें एक दूसरे के लिए ही बनाया है.
"हां, पद्मा के सिलसिले में ये जरूर हुआ है कि अगर दरमियान से इस खुद्दारी को हटा दिया जाय, तो एक ऐसा दिल, जो पद्मा की हर मुस्कराहट पर झूम उठता है, ऐसी आंखें जो उसे तलाश करती रहती है, ऐसा जेहन जो उसके बारे में सोचता रहता है ये जानते हुए भी कि वो शादीशुदा है, मैं उससे मोहब्बत करने लगा हूं और ये भी चाहता हूं कि कभी हम दोनों एक दूसरे के करीब बैठकर मोहब्बत भरी बातें करें, सितारों भरे आसमां में साथ-साथ उड़े."
लेकिन अगले दिन खिड़की बंद थी. मेरा दिल बेतरह धड़क उठा. पद्मा हमीरपुर चली गई है. क्या करूं? कैसे पंख लगाकर उडूं? मेरे भीतर का प्रकृतिस्थ सिद्ध पुरुष और उसकी सारी गंभीरता अचानक फनां हो गई और उस दिन मुझे पहली बार मोहब्बत की बेकरारी का एहसास हुआ और हमीरपुर जाकर पद्मा से मिलने की बेचैनी में मैं रात भर जैसे निर्मिमेष पलकों से बंद खिड़की ताकता रहा था.
... और इस वक़्त हम यह भव्य डैम देख रहे हैं. ये कामराज भी बड़ा अजीब आदमी है. आप देख ही रहे हैं कि वो कैसे-कैसे नतीजे सुना रहा है. मगर मुझे तो पद्मा का मुस्कुराता हुआ चेहरा मंत्रमुग्ध किए दे रहा है... चलते-चलते वह अगल-बगल या आगे-पीछे हो जाती है, तब भी उसकी तस्वीर निगाहों में नृत्य करती रहती है. दरअसल, मैं दोहरी भूमिका निभाते हुए कामराज के कहकहों का भी साथ दे रहा हूं.
डैम बड़ा ख़ूबसूरत, मज़बूत और ऊंचा बनाया गया है. एक तरफ़ पहाड़ों से घिरा हुआ पानी मौजे मार रहा है और दूसरी तरफ़ ऊंचाई से नीचे गिरकर शोर मचा रहा है... हम लोग आगे बढ़ रहे हैं. कामराज मुझे कह रहा है, "किशोर, इस डैम के पानी को रोकने और निकालने वाले दरवाज़ों का सिस्टम ऑटोमैटिक है. जब पानी एक निश्चित निशान तक आने लगता है, तब ये दरवाज़े ख़ुद-ब-ख़ुद खुल जाते हैं. ज़्यादा पानी बाहर निकल जाता है और फिर दरवाज़े स्वतः बंद हो जाते हैं. इस तरह इस बांध के टूटने का ख़तरा बाकी नहीं रह जाता."
"अच्छा!" मुझे ताज्जुब होता है.
"हां, आओ मैं समझाऊ ये सब कैसे होता है." वो जवाब देता है और डैम की छत के किनारे की डेढ़ फीट चौड़ी और क़रीब दो फीट ऊंची दीवार पर चढ़ जाता है. इस तरह वो इस बलंद डैम के बिल्कुल किनारे पर खड़ा हो गया है. नीचे गहराई में शोर मचाता हुआ पानी गिर रहा है
"ये देखो." वो डैम की दीवार के सहारे नीचे बने हुए उन कुओं की तरफ़ इशारा करके कहता है, जिन्हें देखकर मुझ पर भय सा छा जाता है. उनमें लोहे की मोटी-मोटी ज़ंजीरों से बंधे हुए वजनी ड्रम पड़े हुए हैं. ये ज़ंजीरें छत के नीचे से दीवार के सुराखों से बाहर निकली हैं. कामराज बड़े मैकेनीकल ढंग से इस ऑटोमेटिक सिस्टम के बारे में बता रहा है, मगर मेरी समझ में कुछ नहीं आ. रहा..
मैं तो महसूस कर रहा हूं कि यहां इस बुलंदी पर हवा तेज़ है और... और कामराज मात्र डेढ़ फीट चौड़ी दीवार पर खड़ा है, जिसके नीचे भारी-भारी चट्टानें हैं. शोर मचाता हुआ पानी है. हवा का एक झोंका, पैरों की ज़रा सी गलत जुम्बिश... अचानक मैं पद्मा की स्वप्निल आंखों में खो जाता हूं. उसका ख़ूबसूरत बंगला सामने ही नज़र आ रहा है और मेरे दिल में छपा हुआ चोर मुस्कुरा दिया हो, जैसे.. हवा और तेज हो जाए. पद्मा, उसकी मांग का सिदूर, माथे की बिदिया... सब फिर मेरी आंखों में घूम जाते हैं. मैं कामराज की तरफ़ देखता हूं. वो बातों में मशगूल है. हवा तेजी से चल रही है. पानी भयानक शोर मचा रहा है और मेरा दिमाग़ जैसे फटा जा रहा हो. वो कुछ और समझाने के लिए थोड़ा सा आगे झुकता है. मैं हाथ आगे बढ़ाता हूं.
नहीं! मैं शैतान नहीं हूं. मेरा ज़मीर मुर्दा नहीं है. मैं कामराज को धक्का नहीं देता, बल्कि उसका हाथ पकड़ कर नीचे उतार लेता हूं...
"चलो भई, ऐसा मालूम होता है, जैसे ये ऑटोमेटिक सिस्टम तुमने ही ईजाद किया हो." मैं एक दयालु दुश्मन के से भाव से कहता हूं. वी मुस्कुरा देता है और पद्मा की तरफ़ देखने लगता है. फिर मुझसे मुखातिब होता है, "सूर्यास्त का दृश्य यहां से बड़ा ख़ूबसूरत नज़र आता है." किशोर, मैं ओर पद्मा अक्सर टहलते हुए इधर निकल आते.
"ठीक है, आप लोग टहलिए. दिन सूर्यास्त के फेर में है और मुझे शहर पहुंचना है." मैं जैसे दिल पर पत्थर रखकर कहता हूं. मेरी इस अचानक वापसी पर कामराज भी हतप्रभ है और पद्मा भी! उसके तो चेहरे का नूर ही उड़ गया. उसकी आखों में शिकायत है या शायद कुछ अचानक सो जाने की तड़प... पर वे डबडबा ज़रूर आई थीं मैंने पलट कर देख लिया है...
और अब हकीकत में सूर्य अस्त हो गया है, पर मेरे भीतर जैसे एक नए सूर्य ने जन्म लिया है, सो अंधेरे के बावजूद रास्ता बहुत साफ़ चमक रहा है. हां, मुझे जल्दी पहुंचना है और आज ही रात किसी को बगैर बताए वह कमरा छोड़ देना है, जिसके मुकाबिल यह खिड़की है, जिसमें पद्मा फिर दिखाई दे सकती है रोशनी में नहाई हुई सी वैसे इस वक़्त मेरी आंखें खारे जल में ज़रूर डूब गई हैं.
- ए. असफल