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कहानी- दूसरा पति (Short Story- Doosara Pati)

- एम. के. महताब

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"प्रत्येक गैरतमंद स्त्री भावुक होती है. चड्‌ढा के घर में मैं अपने स्वाभिमान को ठेस लगते नहीं देख सकती थी, इसलिए अपनी गैरत से समझौता नहीं कर सकी. इसके पश्चात मुझे अनुभव हुआ कि इस संसार में स्त्री किसी की होकर ही जी सकती है. जब तक वह अविवाहित होती है, चारों ओर मृगतृष्णा दिखाई देती है. कई द्वार खुलते नज़र आते हैं.

आज उसने कुछ महत्वपूर्ण काग़ज़ात पर फिर ग़लत हस्ताक्षर कर दिए थे. सुंदरता अलग चीज़ है, शारीरिक आकर्षण अलग बात है. बातों की मधुरता का अपना स्थान है, परंतु कार्यालय के नियम अपने हैं. बार-बार यह त्रुटि सहन नहीं की जा सकती. आख़िर मुझे भी तो किसी को उत्तर देना होता है. हो सकता है कि इस लड़की को कोई मानसिक रोग हो, परंतु ऐसी कोई बात दिखाई तो नहीं देती. दो घंटे पहले तो वह मेरे पास बैठी हंस-हंस कर बातें कर रही थी. इस बीच में उसके घरेलू जीवन का ज़िक्र भी आया था. उसमें किसी कटुता की भी उसने बात नहीं की थी.

रीता सरीन से बातें करने में भले ही आनंद आता हो, किन्तु ग़लत हस्ताक्षर होने से काग़ज़ फिर लौट कर आ सकते हैं. कुछ बड़े अधिकारियों के बिलों के भुगतान की बात थी और उनका नज़ला मुझ पर गिर सकता था.

मैं हस्ताक्षर करने से पूर्व रीता के हस्ताक्षरों को भली-भांति देख लेता हूं. मैं जानता हूं कि वह जान-बूझकर ऐसा नहीं करती. परंतु न जाने उस पर क्या दौरा पड़ता है कि वह बीस-बीस काग़ज़ों पर रीता चड्‌ढा के नाम से हस्ताक्षर किए जाती है.

दो मास पूर्व उसने पूरे कार्यालय के वेतन बिलों पर रीता चड्‌ढा के नाम से हस्ताक्षर कर दिए. बिल वापस आ गए. लोगों को वेतन समय पर नहीं मिला. हल्ला हुआ और मुझे डिप्टी सेक्रेटरी से डांट सुननी पड़ी.

सरकारी कार्यालयों के नियम के अनुसार जहां बड़ा अफ़सर छोटे को और छोटा अपने से छोटे को डांट पिलाने में ही अपना बल समझता है. मैं भी अपना क्रोध रीता सरीन पर उतार सकता हूं और मैंने उसे डांटने के लिए ही अपने कमरे में बुलाया था. वह मेरे चेहरे के बदलते रंगों को देख कर भांप गई थी कि मामला क्या है. वह जितनी सुंदर है, उतनी ही डरपोक भी है. डर के मारे उसका गुलाबी रंग पीला पड़ रहा था. आंखों में भय के साये झलक रहे थे और होंठ कांप रहे थे. शायद मेरे स्टेनो ने उसे मेरे पास भेजने से पहले ही सारी बात बता दी थी. वह मेरे सामने बैठी

कभी अपनी हथेलियां मलती, कभी उंगलियां उलझा कर बल देती. वह कुछ कहना चाहती थी, किन्तु कह नहीं पा रही थी. डिप्टी सेक्रेटरी ने मुझे जो कुछ कहा था, उस पर मुझे बहुत ग़ुस्सा आ रहा था और मैं वह ग़ुस्सा रीता सरीन पर उतार देना चाहता था.

किन्तु अपने सामने बैठे इस निर्बल सुंदर शरीर के चेहरे के बदलते रंग, उसकी गर्दन से फिसल कर गोद में आ गिरे रेशमी दुपट्टे एवं परेशान बालों को देख कर मुझे अपने क्रोध पर काबू पा कर सोचना पड़ा कि क्या दोष केवल रीता सरीन का ही है?

मैं अफ़सर हूं और मुझे तनख्वाह केवल इस बात की मिलती है कि कोई ग़लती मेरी कलम में से निकल कर नहीं जानी चाहिए. मुझे काग़ज़ात ऊपर भेजने से पूर्व उन की पूरी पड़ताल कर लेनी चाहिए थी. इसलिए मैंने इस कांप रही लड़की को चूर-चूर करने का इरादा छोड़ कर उसके लिए कॉफी मंगवाई.

हम दोनों कॉफी पी रहे थे. एक-दूसरे की ओर देख भी रहे थे, किन्तु चुप थे. उसे अपने अपराध का पता था, जो उसके चेहरे से साफ़ दिखाई दे रहा था. आख़िर उसने ही बात शुरू की, "सर, मुझे माफ़ कर दीजिए."

"किस बात के लिए?"

"जिस बात के लिए आपने मुझे बुलाया है."

"मैंने तो तुम्हे कॉफी पीने के लिए बुलाया है."

"नहीं सर." अब उसका भय कुछ कम हो गया था.

"रीता दोष मेरा है. तुम सेक्शन अफ़सर हो, मैं अण्डर सेक्रेटरी हूं. तुम्हारा इंचार्ज हूं."

हम इस प्रकार एकदम मामले की तह तक पहुंच गए, भले ही बात बीच में से आरंभ हुई थी.

"नहीं सर, काग़ज़ों पर हस्ताक्षर मेरे थे, उत्तरदायित्व मेरा था. दोष भी मेरा ही था. कौल बता रहा था, डिप्टी सेक्रेटरी ने आपको बुला कर सख्ती से कहा था. मैं आपसे क्षमा चाहती हूं."

"प्रश्न क्षमा का नहीं श्रीमती सरीन, इन आए दिन की ग़लतियों का है. मैं रोज़ कितनी ग़लतियां पकड़ सकता हूं? कुछ काग़ज़ मेरी नजर में से भी निकल जाते हैं. सरकारी काम है, मज़ाक नहीं. तुम जानती हो, एक दिन वेतन न मिलने पर दफ़्तर में कैसा हो-हल्ला हुआ था. तुम ध्यान से काम क्यों नहीं करतीं?"

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उसने कोई उत्तर नहीं दिया. हां, उसकी आंखों में आंसू आ गए और उन्हें देख कर मेरा बाकी क्रोध भी जाता रहा. वह कह रही थी, "सर मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा, यह क्या हो रहा है? मैं ऐसा क्यों कर रही हूं?"

"बात यह है श्रीमती सरीन कि यदि तुम्हें दूसरा नाम पसन्द नहीं था तो तुमने यह नाम क्यों अपनाया? यदि तुम्हारे दिमाग़ के किसी कोने में श्रीमती चड्‌ढा को ही किसी खूंटी से लटके रहना था, तो तुम श्रीमती सरीन बनी ही क्यों?"

मेरा वाक्य कुछ तीखा था. यह उसके विवाहित जीवन पर एक प्रहार था, जिसे वह सहन नहीं कर सकी और बच्चों की भांति रोने लगी. उसने अपना मुंह दोनों हाथों से ढंक लिया. इसलिए मैंने एकदम उससे सहानुभूति प्रकट करते हुए पूछा, "क्या मैं यह समझूं कि तुम अपने इस विवाहित जीवन से प्रसन्न नहीं हो?"

"नहीं, नहीं, ऐसा नहीं." वह अपने चेहरे पर बिखर आए बालों को पीछे की ओर करते हुए बोली.

"यदि ऐसा नहीं, तो फिर यह सरकारी फाइले क्यों ख़राब की जा रही हैं?"

"मैं क्षमा चाहती हूं."

"मैंने कहा है कि प्रश्न क्षमा का नहीं, प्रश्न एक सरकारी अधिकारी के कल्याण का भी है. मैं इस विभाग का जन-कल्याण अधिकारी भी हूं. यदि सरकारी कर्मचारी सन्तुष्ट नहीं होंगे, तो स्वाभाविक है कि वह ग़लतियां करेंगे. उनका मन कहीं और होगा तो यहां काम नहीं होगा या ऐसा ही होगा. इसीलिए में यह जानाना चाहता हूं कि, तीन वर्ष से श्रीमती सरीन हो जाने पर भी तुम श्री चड्‌डा से सम्पर्क क्यों नहीं तोड़ सकीं? यदि इस शब्द से इतना ही लगाव था तो तुमने उसे छोड़ा ही क्यों?"

"चौधरी साहब! मैं बेबस हूं, मुझे स्वयं पता नहीं चलता कि मेरे मन में यह किस प्रकार का संघर्ष चल रहा है? मुझ पर यह दौरा क्यों पड़ता है?"

"मैं समझता हूं कि यदि स्थिति ऐसी है तो तुम्हें श्री चड्‌डा से अलग नहीं होना चाहिए था." मैंने उसके घरेलू जीवन में हस्तक्षेप करते हुए कहा.

"जब साथ रहने की कोई सूरत बाकी न रहे तो अलग होने के सिवा क्या उपाय है. उन्होंने कभी नहीं सोचा कि, मैं एक पढ़ी-लिखी ज़िम्मेदार सरकारी अधिकारी हूं. कितने लोग मेरे नीचे काम करते हैं. मेरा अपना वातवरण है और उसकी कुछ अपनी मांगे हैं, यदि उन्हें केवल मांस-हड्‌डी की गुड़िया और वेतन चाहिए था, तो यह बात उन्हें विवाह से पूर्व सोचनी चाहिए थी. वह मुझे नौकरी छोड़ने की अनुमति भी नहीं दे सकते थे, क्योंकि मैं उनकी बहुत सी आवश्यकताएं पूरी करती थी. मैंने प्रत्येक ढंग से निभाने का प्रयत्न किया, परन्तु उन्होंने कभी नहीं सोचा कि दिनभर दफ़्तर में कलम और हुकम चलाने वाली लड़की, शाम ढलते ही किस प्रकार एक बांदी बन सकती है. जब ऐसा करना पड़ता तो मेरे स्वाभिमान को ठेस लगती. इस सोच ने मेरे अन्दर उल्लंघन के भाव को जन्म दिया. हमारे बीच हाथापाई तक होने लगी.

शायद आप विश्वास नहीं करेंगे कि जिस दिन मेरा प्रमोशन हुआ था, उस दिन श्री चड्ढा ने मुझे थप्पड़ मारा था. संभव था कि मैं इस पर भी श्रीमती चड्‌ढा ही बनी रहती, परन्तु में यह सहन नहीं कर सकी कि मेरी अनुपस्थिति में मेरा खाली स्थान पूरा होने लगे. मैं संदेह की आग में जलने लगी. दिन-रात इस आग में जलते रहने से, अलग हो जाना ही अच्छा था.

यह जुदाई मेरे लिए एक विस्फोट से कम नहीं थी. मेरी मानसिक शान्ति और भी बिगड़ गई. पहले मैं जिस आग में स्वयं जलती थी, अब प्रत्येक व्यक्ति उस पर हाथ तापने का प्रयास करने लगा. शायद तलाक़ पा लेने वाली स्त्री को मुफ़्त का माल समझा जाता है, जिसे कोई भी लूट सकता है. उसके जीवन पर हर समय आंखें और उंगलियां उठती हैं. उसके भूत और भविष्य के बारे में प्रश्न खड़े होते रहते हैं. प्रत्येक व्यक्ति सहानुभूति के नाम पर निजी जीवन में हस्तक्षेप करने का यत्न करता है. शायद मेरी इस परेशानी को देख कर ही आप से पहले हमारे जो अण्डर सेक्रेटरी थे, उन्होंने एक दिन मुझे कहा था, "फूल को मुरझा जाना चाहिए या किसी के कोट के कॉलर की शोभा बने रहना चाहिए.".

मैंने भी अनुभव किया कि मेरे चारों ओर मकड़ी के जाले बनते जा रहे हैं. जहां भी पांव रखती हूं, कोई न कोई मकड़ा मुझे अन्दर खींचने के लिए तैयार दिखाई देता है. तब मैं महसूस करने लगी कि सुंदर अथवा आकर्षक होना यदि पाप नहीं तो, पाप को आमंत्रित करना अवश्य ही पाप है. मैं अपने आप में ही सिकुड़ने लगी. माता-पिता ने मेरी परेशानी को देखते हुए कहा, "रीता तुम अभी तीस वर्ष की ही हो, इतनी लंबी जीवन यात्रा कैसे पूरी होगी? जीवित रहने के लिए केवल नौकरी और वेतन हो तो काफ़ी नहीं..."

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मैंने सोचा था कि दफ़्तर में पद ऊंचा हो जाने से मैं सुरक्षित हो जाऊंगी, किन्तु क्षमा कीजिए चौधरी साहब, ऊंचे वर्ग के लोग तो और भी खुल कर खेलना चाहते हैं. दूसरे यह कि पुरुष का स्वभाव ही कुछ ऐसा है कि वो ज्यों-ज्यों उसकी पहुंच से दूर होती जाती है, वह उसके बारे में त्यों-त्यों अफ़वाहें और संदेह फैलाने की कृपा तेज कर देता है.

मैंने एक प्रकार से सन्यास ले लिया था. लोगों से हंसी-मज़ाक व मेलजोल बहुत कम कर दिया था. किन्तु यदि किसी अफ़सर ने दिन में दो बार बुला लिया तो शाम तक बरामदे में एक नई चर्चा सुनाई देने लगती. तलाक़ के पश्चात अठारह मास के इस जीवन में ऊब ही नहीं गई घबरा भी गई."

"तुम बहुत भावुक हो रीता." मैंने कहा.

"प्रत्येक गैरतमंद स्त्री भावुक होती है. चड्‌ढा के घर में मैं अपने स्वाभिमान को ठेस लगते नहीं देख सकती थी, इसलिए अपनी गैरत से समझौता नहीं कर सकी. इसके पश्चात मुझे अनुभव हुआ कि इस संसार में स्त्री किसी की होकर ही जी सकती है. जब तक वह अविवाहित होती है, चारों ओर मृगतृष्णा दिखाई देती है. कई द्वार खुलते नज़र आते हैं. परन्तु जब वह किसी द्वार से बाहर आ जाती है तो वह घर से बाहर फेंका हुआ रोटी का टुकड़ा बन जाती है, जिस पर कई लालची हाथ और आंखें लपकने लगती हैं."

"क्या केवल असुरक्षा के एहसास से तुमने दूसरी शादी कर ली?" मैंने पूछा.

"मेरी एक सहेली ने मुझे परामर्श दिया कि यदि तुम सन्यास में भी अपने आपको असुरक्षित समझती हो तो सन्यास क्यों ले रखा है. तुम अभी सुन्दर हो, जवान हो. अच्छा वेतन पाती हो. अब भी कई द्वार तुम्हारे लिए खुल सकते हैं. क्यों नहीं कोई अच्छा सा घर देख कर उसके अन्दर चली जाती. उस लड़की का एक भाई ओम सरीन दुबई में इंजीनियर था. पैतीस वर्ष का हो जाने पर भी कुंवारा था.

सावित्री एक दिन उसे हमारे घर ले आई. उसके व्यक्तित्व में कमाल का आकर्षण, बातों में दृढ़ता और प्रौढ़ता थी. जीवन व्यतीत करने के लिए वह बहुत अच्छा सहारा बन सकता था. एक घंटे की मुलाक़ात में वह हम पर एक गहरी छाप छोड़ गया. दो मास पश्चात जब वह दुबई से काम समाप्त करके लौटा, तो एक रविवार हमारे घर सादे से समारोह में मैंने अपने नाम के साथ सरीन का शब्द जोड़ लिया."

"किन्तु दफ़्तर में किसी को नहीं बताया?" मैंने पूछा.

"वह मेरा व्यक्तिगत मामला था. परन्तु एक दिन मेरी मांग में सिंदूर की लाली देख कर चारों ओर आग लग गई. लोग हाथ मिलाने और बधाई देने चले आ रहे थे. मैं हैरान थी कि इतने लोगों को मेरे जीवन में दिलचस्पी है.

हालांकि मैं इसे केवल अपना निजी मामला ही समझती थी. हां, इसका इतना लाभ अवश्य हुआ कि जो घटा हर समय मुझ पर छाई रहती थी, वह छंट गई. मेरा निर्णय ठीक ही था. बहुत से व्यक्ति, जिनके कंधों पर मुझे सर के स्थान पर प्रश्नचिह्न दिखाई देते थे, उन्हें अपने प्रश्न का उत्तर मिल गया था. कुछ अधिकारियों और मेरे बीच दूरी का जो पर्दा सा तन गया था, वह भी उठ गया. मैंने कार्यालय के जीवन में फिर पहले सी रुचि दिखानी शुरू कर दी. मानों पतझड़ के पश्चात फिर बसंत आ गई हो."

"और घरेलू जीवन."

"वह दफ़्तर से भी अच्छा है. एक स्वस्थ हंसता-मुस्कुराता जीवनसाथी रहने को अच्छा घर. आने-जाने को गाड़ी, प्रत्येक साज-सामान, खाते-पीते लोग, आने-जाने वालों का तांता लगा रहता है. अतिथि सेवा के कार्य से कुछ सोचने का समय ही नहीं मिलता."

"अर्थात तुम अब हर प्रकार से सम्पन्न हो?"

"यदि होती तो आप को शिकायत का अवसर कैसे मिलता?"

"इसका कारण?"

"मैं गत एक वर्ष से सोच रही हूं कि मैं इस वातावरण में ठीक नहीं बैठ सकी."

"परंतु अभी तो तुम अपने दूसरे पति की इतनी प्रशंसा कर रही थी."

"प्रत्येक अच्छी बात की प्रशंसा तो करनी ही

पड़ती है."

"फिर विघ्न कहां है?"

"ख़राबी यही है कि मैं धीरे-धीर सोचने लगी हूं कि मेरे दूसरे पति को भी मेरी कोई ज़रूरत नहीं थी. यदि वह 35 वर्ष पत्नी के बिना रह सकता था, तो अगले 35 वर्ष भी ऐसे ही गुज़ार सकता था. मैं उसकी पत्नी और घर की मालिक होने पर भी स्वयं को वहां असफल समझती हूं. जिसका न अपना कोई व्यक्तित्व, न अस्तित्व. दफ़्तर से समय पर लौट के जाऊं या न जाऊं, किसी को कोई चिन्ता नहीं. कभी किसी ने रोका-टोका नहीं. श्री चड्‌डा के यहां कितने ही लोग मेरे वेतन की प्रतीक्षा किया करते थे. यहां कभी किसी ने नहीं पूछा कि मुझे कितना वेतन मिलता है... और मिलता भी है या नहीं.

जबकि वहीं मेरे बारे में एक विवाद ज़ारी रहता था. मेरी छोटी-मोटी बातों पर हंगामे खड़े हो जाते थे. और यहां यह हालत है कि परिवार के कई सदस्यों को यह भी पता नहीं कि मैं कहां काम करती हूं. दिनभर दफ़्तर में ठाठ का जीवन गुज़ारने के पश्चात जब मैं घर लौटती हूं तो सेवक, मेरे सामने चाय-बिस्किट आदि लगा देता है. मानो मैं घर में नहीं, किसी रेस्तरां में चली आई हूं. सब लोग अपने कामों में व्यस्त दिखाई देते हैं. मैं भी पत्र-पत्रिका देखने लगती हूं.

रात को सब लोग खाने की मेज़ पर मिलते हैं. काम-धंधे की बातें होती हैं. कभी किसी ने मेरी दिनचर्या नहीं पूछी.

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श्री चड्ढा के यहां केवल मैं ही मैं थी. यहां मैं कुछ भी नहीं हूं. वहां मेरे जीवन में दिल की धड़कन थी. यहां मैं किसी हंगामें का भाग भी नहीं हूं. वहां सब लोग मेरी कृपा दृष्टि की ओर देखते थे, यहां घर के सब लोग छोटी भाभी को कुछ न कुछ देने की चिन्ता में रहते हैं. न कोई काम, न धंधा, सरीन जी को जब अवकाश हो तो भेंट हो जाती है. तब भी ऐसी बातें होती है, मानो स्टॉक एक्सचेंज में बात हो रही हो. कभी-कभी उनके साथ गाड़ी में आना-जाना होता है. तब भी वह मेरी ओर ध्यान देने की अपेक्षा सड़क पर आंख टिकाए रखते हैं कि कहीं कोई मुर्गी नीचे न आ जाए.

दफ़्तर आकर यों लगता है, मानो मैं अपने घर आ गई हूं, जहां कितने ही लोग मुझसे बात करने और आदेश लेने की प्रतीक्षा कर रहे हों. चौधरी जी यह नया जीवन इतना फीका और रसहीन है कि बेकरारी हरदम बढ़ती जा रही है. नया जीवन एक सुंदर परन्तु मि‌ट्टी के फल का सा है. चड्ढा जी के साथ जीवन एक संघर्ष था, परन्तु उस संघर्ष का भी अपना ही आकर्षण था.

अब मैं सोचती हूं कि मेरा हठधर्मी स्वभाव, मेरा स्वाभिमान, मेरा गुरूर ही फसाद की जड़ था. वहां मुझे कष्ट इस कारण होता था कि मैं एक ज़िम्मेदार व्यक्तित्व की स्वामी हूं. कितने लोग मेरे नीचे काम करते हैं. कितनी अच्छी तनख्वाह पाती हूं. परन्तु यह घर मेरे योग्य नहीं है. प्रत्येक व्यक्ति एक गाय को चूसने पर लगा हुआ है. किन्तु सरीनजी के यहां इस गाय को कोई गाय ही नहीं समझता, न किसी को मेरे दफ़्तरी वैभव का पता है, न मान का.

श्री चड्‌ढा भी गुणों से वंचित नहीं थे, परन्तु मेरे व्यक्तित्व का पर्दा मध्य में तना हुआ था. यदि ऐसा न होता तो वह राज मेरे हाथों से न निकलता. भूतकाल का यही भूत हर समय मुझे सताता रहता है. कई बार मैं इस भूत का हाथ झटक भी देती हू, परन्तु फिर मुझे न कुछ आगे दिखाई देता है न पीछे. अकेली... यात्रा और मंज़िल का कोई पता नहीं. कई बार घर जाने को मन नहीं चाहता. घबरा जाती हूं. कहां जाऊं, मैं अपने आप में एक प्रश्नचिह्न बन गई हूं."

रीता का रंग सुर्ख़ होता जा रहा था. मानो रक्त का दबाव बढ़ता जा रहा हो.

"परन्तु श्रीमती सरीन, यह भूत कितनी देर इस

कार्यालय में नाचता रहेगा. और फाइलें ख़राब करता रहेगा? इसे तो भगाना ही होगा, नहीं तो कभी कोई कठिन समस्या खड़ी हो जाएगी." मैंने कुछ रूखे होकर कहा.

रीता सरीन ने अपने हाथ में पकड़ी फाइल में से एक पत्र निकाल कर मेरे सामने रख दिया.

"परन्तु यह क्यों?" मैंने उसका त्यागपत्र पढ़कर हैरानी से पूछा.

वह कह रही थी,‌ "मैं कई रातें जाग-जाग और सोच-सोच कर इस निर्णय पर पहुंची हूं कि दोहरा जीवन ही मेरी समस्या का कारण है और यह पत्र ही इसका समाधान है."

अनुवादक: सुखबीर

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