"तुम्हारा हर अपराध क्षम्य है सुभद्रा. यदि विवाहपूर्व किसी पर पुरुष से संबंध की बात भी बताओ, तो भी तुम्हारे प्रेम, तुम्हारी निष्ठा, तुम्हारे अपनत्व के सामने सब तुच्छ है. वैसे मेरा अन्तर्मन कहता है तुम्हारे जैसी पतिव्रता स्त्री जाने-अनजाने कोई अपराध कर ही नहीं सकती."
कौशल के ऑफिस के पते पर आया नरेन्द्र का तार सुभद्रा ने पढ़ा और उठाकर टी.वी. के ऊपर रख दिया. कौशल की उत्सुक दृष्टि सुभद्रा के चेहरे पर टिकी थी. किन्तु सुभद्रा के चेहरे पर शोक का कोई भाव नहीं था, बल्कि उसके चेहरे पर क्रोध और घृणा के भाव पढ़कर कौशल अवाक रह गया. वह जानता था कि सुभद्रा टी.वी. देखने का बहाना कर रही है.
विवाह के बाद सुभद्रा ने कभी अपने मां-पिता के पास जाने की उतावली नहीं दिखाई. जब कभी कौशल के साथ सुभद्रा देहरादून गई भी तो उसी के साथ लौट भी आई. अकेली न तो कभी गई और न ही वहां रही.
कौशल को शुरू-शुरू में आश्चर्य तो बहुत हुआ कि सुभद्रा कैसी लड़की है, जो मां-पिता के पास जाने और उनके पास कुछ दिन रहने का कभी आग्रह नहीं करती. पर उन्हें प्रसन्नता भी थी कि सुभद्रा ने पूरी तरह स्वयं को कौशलमय बना लिया था और अपने को घर-परिवार की ज़िम्मेदारियों में समेट लिया था. ऐसा भी नहीं कि सुभद्रा अपने घर-परिवार में सुखी न थी. कौशल और उसके माता-पिता के साथ वह बहुत ख़ुश थी तथा अपने किसी भी दायित्व के निर्वाह में कभी कोई कमी नहीं आने देती थी. कौशल के मां-पिता, रिश्तेदार और मिलनेवाले सभी सुभद्रा के स्वभाव तथा व्यवहार की प्रशंसा करते अघाते न थे.

कौशल को जब शाम चार बजे ऑफिस में नरेन्द्र का तार मिला तो उसने सोचा था कि सुभद्रा अपनी मां के आकस्मिक निधन का समाचार पाकर व्याकुल हो उठेगी और उन्हें देहरादून के लिए तत्काल रवाना होना पड़ेगा. आफिस छोड़ने से पहले कौशल तीन दिन के अवकाश के लिए अर्जी भी देते आया था. उसने तो यह भी सोच लिया था कि सुभद्रा को देहरादून छोड़कर स्वयं लौट आएगा.
मार्च का महीना होने से तमाम फाइनेन्शियल क्लोज़िंग्स की व्यस्तताओं के कारण उसे तो लौटना ही होगा, पर सुभद्रा कैसे लौट सकेगी? आख़िर उसकी मां का स्वर्गवास हुआ है. कौशल ने ऑफिस समय से कुछ पहले ही छोड़ दिया था. जब घर पहुंचा तो सुभद्रा टी. वी. पर कोई सीरियल देख रही थी.
कौशल ने बहुत हिचकिचाते हुए नरेन्द्र का तार सुभद्रा को दिया, लेकिन सुभद्रा ने बड़े तटस्थ भाव से तार पढ़कर टी.वी. पर रख दिया और फिर टी.वी. देखने लगी जैसे कुछ हुआ ही न हो.
कौशल अचम्भित सा सुभद्रा की इस तटस्थता को देखता रहा, पर उससे रहा न गया. सुभद्रा से बोला, "क्यों देहरादून चलना नहीं है क्या? तुम्हारी माताजी का आज प्रातः नौ बजे देहान्त हो गया है. उनके अन्तिम संस्कार के लिए वे लोग तुम्हारी प्रतीक्षा करते होंगे, अपनी मां के अन्तिम दर्शन करने की इच्छा नहीं है? नहीं जाओगी तो लोग क्या कहेंगे."
सुभद्रा ने सामान्य बने रहकर केवल यही कहा, "मुझे कहीं नहीं जाना. न मुझे किसी के कुछ कहने की चिंता है. मां ने मुझे नौ महीने कोख में रखा था और जन्म दिया था, इसलिए उसके जीवित रहते देहरादून चली भी जाती थी. अब वह नहीं रहीं तो मेरे लिए सारे रिश्ते-नाते ख़त्म हो गए. उनके अन्तिम संस्कार के लिए कोई मेरी राह नहीं देखेगा. उन्होंने तार भी इसीलिए दिया होगा कि लोग क्या कहेंगे. नाते-रिश्ते मन के होते हैं, इस विचार से नहीं कि लोग क्या कहेंगे. ऐसे रिश्ते वैसे भी अधिक दिन तक नहीं चलते. जिन रिश्तों को टूटना ही है वे कल टूटे या आज टूटे, क्या फ़र्क पड़ता है?"
"क्यों बाबूजी और नरेन्द्र से तुम्हारा कोई रिश्ता नहीं?"
"नहीं, बिल्कुल नहीं."
"ऐसा क्यों सोचती हो सुभद्रा? मैं देखता हूं कि खून के रिश्तों में आपस में जैसा प्यार होता है, वैसा तुम लोगों में नहीं है. बाबूजी और नरेन्द्र मेरे साथ भी बहुत ठंडेपन से ही व्यवहार करते हैं. तुम से तो कभी बात करते ही नहीं देखा बाबू जी को. तुम तो उनकी सबसे बड़ी संतान हो. पहली संतान तो सभी को प्यारी होती है चाहे वह लड़की हो या लड़का, पर तुम्हारे घर में ऐसा कुछ नहीं दिखता. मैं केवल तुम्हें दोष नहीं देता सुभद्रा, लेकिन तुम्हारे घर के लोगों में मैंने यह विचित्रता देखी है. ऐसा भी नहीं कि तुम्हारे बाबूजी उन रिजर्व्ड टाइप के लोगों में से हों, जो अपनी सन्तान से अधिक घुलते-मिलते नहीं, क्योंकि तुम्हारी छोटी बहन और उसके बच्चों से तो वे बड़े प्यार से बात करते हैं. नरेन्द्र से भी ख़ूब खुलकर उनकी बातें होती हैं. उनके व्यवहार में अन्तर हमारे और हमारे बच्चों के साथ ही न जाने क्यों है?"
"आप क्या समझते है, क्या अम्मा मुझे, आपको या हमारे बच्चों को प्यार करती थीं? मैं अच्छी तरह जानती हूं औरों में तथा अम्मा के व्यवहार में केवल इतना अन्तर था कि वे बोलती ढंग से थीं, बस. मुझे उस घर में कभी किसी ने प्यार नहीं किया. मैं बचपन से ही उस घर में अवहेलित-उपेक्षित ही रही हूं.
ऐसा भी नहीं कि बाबूजी और अम्मा लड़की होने के कारण मेरी उपेक्षा करते हों. आख़िर सुषमा भी तो लड़की है, उस पर तो बचपन से ही ख़ूब प्यार उड़ेला जाता रहा है."
सुभद्रा की आंखों में आंसू छलछला आए थे.
उसकी पीड़ा कौशल से छिप न सकी.
कुछ देर सुभद्रा चुप रही. फिर बोली, "मेरे बचपन ने कभी खिलौने नहीं देखे. यदि कभी कोई खिलौना मांगा भी तो बदले में बाबूजी और अम्मा के थप्पड़ ही मिले. सुषमा ने यदि कभी कोई बेकार की चीज़ भी मांगी, तो वह उसे दी गई, किन्तु मेरी पीड़ा की कभी किसी ने परवाह नहीं की. माता-पिता के व्यवहार में इस भेदभाव को देखकर मेरा बाल-मन कितना घायल हुआ होगा, यह जानने की कोशिश भी किसी ने नहीं की. देखने-दिखाने में भी सुषमा न तो मुझसे सुन्दर थी और न पढ़ने में ही मुझसे होशियार, जो कुरूप या बुद्धू होने के कारण अम्मा और बाबूजी मुझसे नफ़रत करते. इसके अलावा मुझे तो घर के काम धन्धे में भी अम्मा का हाथ बंटाना होता था और सुषमा को तो आज तक घर का कोई काम आता ही नहीं.
सुषमा मुझसे तीन साल छोटी है. आपने भी देखा होगा कि वह आज तक मेरा नाम लेकर ही मुझे पुकारती है और हमेशा तू तड़ाक से ही बोलती है. उससे कभी किसी ने नहीं कहा कि बड़ी होने के नाते वह मुझे दीदी कहकर सम्बोधित करें और आदर से बात करे. उसकी झूठी शिकायतों पर मैं ही पिटी."
कौशल मुस्कुराए और सुभद्रा को समझाते हुए बोले, "तो तुम बचपन में सुषमा की तुलना में किए गए भेदभाव के कारण शोक के इन क्षणों में क्षुब्ध हो. जो चला गया, उससे कैसा ग़ुस्सा? कभी-कभी ऐसा होता है सुभद्रा कि माता-पिता को अपना कोई बच्चा बिना कारण ही अपने अन्य बच्चों की अपेक्षा अधिक प्रिय होता है. फिर यदि तुम्हारे अम्मा-बाबूजी ने तुम्हारे प्रति भेदभाव बरता और अपना दायित्व ठीक से नहीं निभाया, तो क्या तुम भी अपना दायित्व भुला दोगी? इस समय तो तुम्हारा यह दायित्व बनता है कि चाहे खड़े-खड़े ही सही, पर हो अवश्य आओ."
"मैंने कभी किसी को नहीं बताया, आपको भी नहीं, जबकि हमारी शादी को आठ साल हो गए हैं. शादी के दो महीने बाद जब आप और मैं कानपुर नानी के यहां गए थे, तभी से मुझे सब से नफ़रत हो गई है. सभी अपनी तात्कालिक सामाजिक प्रतिष्ठा के विषय में ही सोचते हैं. बच्चे के मन पर क्या प्रभाव पड़ेगा, वह बड़ा होकर कैसे तिल-तिल जलेगा, यह कोई नहीं सोचता. लोग अपनी सामाजिक प्रतिष्ठा तो बचा लेते है, लेकिन निष्कलुष, अबोध, निरपराध बच्चे का जीवन बर्बाद कर देते हैं."
कौशल ने गौर से सुभद्रा के मुख की ओर देखा. अपने मां-पिता के लिए तीव्र घृणा का भाव वहां विद्यमान था. कौशल ने सुभद्रा का यह रूप पहले कभी नहीं देखा था. उसे सुभद्रा सदैव एक गम्भीर, शान्त व गौरवमयी पत्नी और परिवार के प्रति निष्ठावान स्त्री ही प्रतीत हुई थी. कौशल ने आज जाना कि उस शान्त, निश्चल, निस्तब्ध समतल के नीचे एक धधकता हुआ ज्वालामुखी है, जिससे तरल तप्त लावा आज फूट पड़ने को तत्पर था. कौशल सुभद्रा के व्यक्तित्व के इस पक्ष को समझने की कोशिश करता रहा.
सुभद्रा एम.ए. पास, एक अति सुन्दर लड़की थी. जब सुभद्रा की शादी का प्रस्ताव आया तो कौशल के घरवाले फौरन तैयार हो गए थे. बहुत ही सादे ढंग से बिना किसी दान-दहेज के सुभद्रा का विवाह कौशल के साथ सम्पन्न हुआ था. तीन साल बाद सुभद्रा की छोटी बहन सुषमा की शादी हुई. उसके लिए खूब दान-दहेज दिया गया. शानो-शौक़त से शादी की गई सुषमा की. आधुनिक घर-गृहस्थी की कोई चीज़ ऐसी न थी, जो विवाह के अवसर पर न दी गई हो. यद्यपि सुभद्रा के बाबूजी से अपने लिए कुछ नहीं चाहिए था कौशल को, पर सुभद्रा के साथ किए गए इस भेदभाव को महसूस तो किया ही था उसने.
सच तो यह है कि एक फ़र्ज की तरह कौशल इन संबंधों को एकतरफ़ा निभाता आ रहा था, लेकिन आज अपनी मां की मृत्यु का समाचार पाकर सुभद्रा एक ही झटके में उन संबंधों की डोर को इस प्रकार तोड़ देगी, इसकी उसे तनिक भी उम्मीद न थी.
कौशल ने सुभद्रा को पुनः समझाने का प्रयास करते हुए कहा, "माना अम्मा और बाबूजी ने तुम्हें वह प्यार और अपनत्व नहीं दिया, जो तुम्हें मिलना चाहिए था, पर रहेंगे तो वे तुम्हारे माता-पिता ही न? मां की मौत से हुए दुख के कारण न सही,
औपचारिकता के निर्वाह के लिए तो तुम्हें देहरादून चलना ही चाहिए. फिर यदि तुम कहोगी तो आज के बाद फिर कभी वहां जाने के लिए नहीं कहूंगा."
बड़े आश्चर्य से सुभद्रा ने कौशल की ओर देखा. फिर अत्यन्त करुण स्वर में बोली, "यह सच है कि वह औरत जो आज मर गई, इसलिए मेरी मां थी कि उसने मुझे जन्म दिया था. वह जब तक जीवित रही, मैंने उस संबंध को निभाया और औपचारिकतावश देहरादून जाती रही. कभी मना नहीं किया. लेकिन अब, जब वह औरत मर गई है, तो क्या करूं मैं वहां जाकर? उसके अलावा और कौन है मेरा वहां? मैं तो कहती हूं, आप भी मत जाइए. आप भी किससे रिश्तेदारी निभाएंगे जब कोई अपना वहां है ही नहीं? आज से सब समाप्त. आज से बस आप, हमारे बच्चे और हमारा अपना परिवार, यही मेरी दुनिया है. इसके बाहर मेरा और कोई नहीं."
कौशल समझ ही नहीं पा रहा था कि सुभद्रा को हो क्या गया है? सुभद्रा की बातें उसे सामान्य नहीं लग रही थी. कहीं अपनी मां की मृत्यु के सदमे से ऐसी नहीं हो गई? उसने उसे नरेन्द्र का तार दिखाकर भूल तो नहीं की? सुभद्रा को कुछ हो गया तो उसका जीना ही मुश्किल हो जाएगा. कितना प्यार करता है कौशल सुभद्रा को, आज अनुभव कर रहा था वह.
कौशल प्यार से बोला, "सुभद्रा, मैं जानता हूं, मैं जैसा भी हूं तुम मेरे साथ हर हाल में ख़ुश हो. मैं यह भी मानता हूं कि तुमने सदैव विपरीत परिस्थितियों में भी मेरा साथ दिया है. कभी असन्तोष व्यक्त नहीं किया. तुम्हारे जैसी पत्नी पाकर मैं न केवल प्रसन्न हूं, बल्कि ख़ुद को भाग्यवान मानता हूं. तुम्हें पाकर संसार की समस्त
दौलत मुझे मिल गई है. तुम्हारे बाबूजी ने मुझे जो कुछ दिया, उसमें मैं पूर्णतः संतुष्ट हूं. उनसे मुझे कुछ नहीं चाहिए. यदि मुझे तुम्हारे जैसी पत्नी न मिलती तो हो सकता है मुझे उनका यह भेदभाव अखरता, लेकिन तुम्हें पाने के बाद मुझे अम्मा-बाबूजी से कोई शिकायत नहीं."
"छोड़िए आप भी क्या बात लेकर बैठ गए. थके-हारे ऑफिस से आए हैं. आप कपड़े बदलिए, मैं चाय लेकर आती हूं." और सुभद्रा तुरन्त उठकर रसोई की ओर चली गई.
कौशल समझ गया कि सुभद्रा बात को टालना चाहती है. वह अपने कमरे में कपड़े बदलने चला गया. उसने सोचा बाद में बात करेंगे. वह बैठक में लौटा, तो सुभद्रा चाय के साथ प्रतीक्षा कर रही थी. चाय पीते हुए दोनों में से कोई कुछ न बोला. थोड़ी ही देर में दोनों बच्चे खेलकर बाहर से लौट आए. कौशल ने बच्चों के सामने इस प्रसंग को पुनः शुरू करना उपयुक्त नहीं समझा, इसलिए वह बच्चों में रम गया और सुभद्रा रात के भोजन की तैयारी में जुट गई.
रात के साढ़े दस बजे बच्चों को सुला कर सुभद्रा अपने शयनकक्ष में आई. कौशल आंखें बंद किए कुछ सोच रहा था. सुभद्रा ने आहिस्ता से कहा, "आप सो गए क्या?"
कौशल ने आंखें खोलीं और स्नेहपूर्वक सुभद्रा को पलंग पर पास बैठाते हुए बोला, "मैं तो आंखें बंद किए तुम्हारी ही प्रतीक्षा कर रहा था और सोच रहा था कि कितना काम हो जाता है तुम्हारे लिए. कितनी बार कहा कि एक महरी लगा लो, पर तुम मानती ही नहीं. सुबह उठने से रात को सोने तक सारा समय काम में जुटी रहती हो. कभी सोचता हूं, मैंने तुम्हें क्या सुख दिया?"
कौशल अपनी बात पूरी कह भी न पाए थे कि सुभद्रा ने कौशल के मुंह पर हाथ रख दिया और बोली, "आपने मुझे क्या सुख दिया, यह तो मैं जानती हूं. अपना काम करने से भी कोई थकता है क्या? आपको और बच्चों को भेजने के बाद सारा दिन आराम ही तो करती हूं. दो हम, दो बच्चे, काम ही क्या होता है चार लोगों का. फिर मुझे तो अपना काम अपने हाथ से करने में ही सुख मिलता है. बस मेरी तो आपसे यहीं प्रार्थना है कि जीवनभर मुझे इसी प्रकार अपने हृदय के पास रहने दीजिए."
"यह क्या कहती हो सुभद्रा? क्या तुम्हें मुझ पर कोई सन्देह है? मैंने तो तुम्हें सदा ही अपने आप
से अधिक प्यार किया है. सुभद्रा तुम्हें मेरे किस आचरण से ऐसा सन्देह हुआ है कि मैं तुम्हें अपने हृदय से कभी दूर करने की बात सोच भी सकता हूं?"
सुभद्रा का व्याकुल मन न जाने किन आशंकाओं से घिरा था. कुछ देर तक सोचती रही, फिर बोली, "यदि मुझसे अनजाने में कोई अपराध हो जाए तो आप मुझे क्षमा कर देंगे न?" क्या कोई अपराध किया है सुभद्रा ने? कौशल का मन यह मानने को तैयार न था. सुभद्रा जैसी स्त्री कोई अपराध कर ही नहीं सकती. कभी कोई छोटी सी भूल हो भी जाए तो वह पहले ही बताती है.
"तुम्हारा हर अपराध क्षम्य है सुभद्रा. यदि विवाहपूर्व किसी पर पुरुष से संबंध की बात भी बताओ, तो भी तुम्हारे प्रेम, तुम्हारी निष्ठा, तुम्हारे अपनत्व के सामने सब तुच्छ है. वैसे मेरा अन्तर्मन कहता है तुम्हारे जैसी पतिव्रता स्त्री जाने-अनजाने कोई अपराध कर ही नहीं सकती."
"इतना विश्वास है? लेकिन मेरी आपसे एक विनती है कि पर पुरुष से संबंध की बात यदि कभी आपको पता चले तो मुझे कतई
क्षमा मत करना. जाने-अनजाने पर पुरुष से संबंध रखनेवाली स्त्री अपने पति के प्रति सच्ची हो ही नहीं सकती. मैंने ऐसी औरतों को देखा है, तभी कहती हूं. मेरा अपराध तो सिर्फ़ इतना है कि मैंने उस स्त्री की कोख से जन्म लिया है, जो आज मर गई."

कौशल ने ग़ौर से सुभद्रा को निहारा. सुभद्रा के चेहरे पर अपराधबोध जन्य कालिमा नहीं थी, वहां थी सत्य और सच्चरित्रता की अदम्य दीप्ति, जिसे देखकर कौशल अभिभूत हो कर बोला, "इसमें तुम्हारा क्या अपराध? मैं कुछ समझा नहीं."
"मेरे प्रति अम्मा और बाबूजी की उपेक्षा का कारण यही था कि बाबूजी मेरे पिता नहीं थे. आज वह औरत मर गई, पर उसने मुझे न तो कभी नफ़रत का कारण बताया और न ही मेरे पिता का नाम. मुझे यह सब नानी से पता चला. बाबूजी ने गर्भवती औरत से धन के लोभ में विवाह किया था. मेरा अपराध यह है कि मुझे नहीं पता मैं किस कायर पुरुष की थी. नाजायज़ औलाद हूं. अब बताइए कि मैं ऐसी औरत की मौत पर शोक मनाने क्यों जाऊं? जबकि मैं तो हृदय से प्रसन्न व सुखी हूं. इसीलिए कहती थी कि आप भी किससे संबंध निभाएंगे वहां?"
कौशल ने क्रोध से फुफकारती सुभद्रा को अपने अंक में समेट लिया और चूमते हुए बोले, "पगली, इसमें तुम्हारा क्या अपराध? बस इतनी सी बात के लिए इतना परेशान थी. देखो, मैंने तुम्हारे खानदान या दान-दहेज से तो विवाह किया नहीं. मैंने तुम्हारा वरण किया है और तुममें कोई खोट या मिलावट मुझे तो दिखती नहीं. तुम मेरी हो, सिर्फ़ मेरी." सुभद्रा स्वयं को निरापद अनुभव कर रही थी. उसका प्रेम-पुलकित शरीर पति के सीने पर लुढ़क गया.
सुबह जब कौशल की आंख खुली तो इसने देखा कि सुभद्रा ड्रॉइंगरूम के फूलदानी मैं से बासी गन्धहीन फूल फेंक चुकी थी और उनके स्थान पर बगीचे से चुनकर लाए गए ताज़े सुगन्धित फूल महक रहे थे. सुभद्रा के जीवन की यह पहली सुहानी ख़ुशनुमा सुबह.
- श्रीमती कुलवन्त राजपूत
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