
अलका 'सोनी'
“इन सब की क्या ज़रूरत थी मेमसाब?" वह गदगद स्वर में बोली. “ज़रूरत थी सोमा. भगवान जब मुस्कुराने की वजह दें तो उस मुस्कान को सब में बांटना चाहिए." संगीता जी ने उसके हाथों को प्यार से पकड़ते हुए कहा.
कोलकाता शहर के भीड़-भाड़ से दूर , शांत और हरे-भरे वातावरण में बसी एक कॉलोनी है, सुगम पार्क. बेहद साफ़-सुथरी. जहां ज़िंदगी हर सुबह मुस्कुराती थी. दफ़्तर जाते अधिकारी और कर्मचारी, विद्यालय जाते; चिड़ियों से चहकते बच्चे. घर के अंदर बनते विभिन्न व्यंजनों की ख़ुशबू माहौल को और भी ख़ूबसूरत बना देती थी.
इसी कॉलोनी में एक बंगला है शर्मा जी का. आजकल उनके बंगले की रौनक़ वहां से गुज़रते लोगों का ध्यान खींच ले रही थी. कारण बराबर मेहमानों का आना -जाना और बंगले की सजावट. जो कुछ दिलजलों को भीतर ही भीतर चुभ भी रही थी.
“तेरी मेमसाब के बंगले में बड़ी गहमा-गहमी है आजकल!! आख़िर क्या बात है सोमा? तू तो वही रहती है दिनभर.” शर्मा जी के बंगले के आउट हाउस में रहने वाली सोमा के घर आई रिंकी ने एक दिन कौतूहल वश पूछ ही लिया.
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“अरे वो साहब के बेटे पीयूष की नौकरी लग गई है किसी बड़ी कम्पनी में. फिर उसकी शादी भी हाल ही में होने वाली है. बस इसी की तैयारी चल रही है. बड़ा अच्छा बच्चा है पीयूष.“ सोमा ने मुस्कुराते हुए कहा.
“अब दोनों बाप-बेटे बड़े अधिकारी बन गए."
लेकिन उसकी यह मुस्कुराहट उसकी दोस्त रिंकी को रास नहीं आई.
“तू क्यों ख़ुश हो रही है जैसे तेरे ही लड़के की नौकरी लग गई हो! ये बड़े लोग हैं. इन्हें हम लोगों से कोई मतलब नहीं होता.“ रिंकी ने सोमा को सुलगाने की कोशिश की.“
“ऐसा न बोल रिंकी. साहब और मेमसाब दोनों बहुत अच्छे हैं. हमारे घर कोई कमी नहीं रखते. मेरे विक्की को पढ़ने में भी उन्होंने बहुत मदद की है. इसलिए उनकी ख़ुशी, मेरी ख़ुशी है.” सोमा की बातों से संतुष्टि झलक रही थी. रिंकी वहां से चुपचाप चली गई.
उसके जाने के बाद सोमा भी बंगले की ओर चली गई.
“अरे सोमा तुम्हारी प्रतीक्षा ही कर रही थी. फ्रीज से सब्ज़ी निकल कर तू खाने की तैयारी कर. मैं बस दो मिनट में आ रही हूं." सोमा को आते देख संगीता जी ने कहा.
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“जी मेमसाब." कहकर सोमा फ्रीज से सब्ज़ी ले किचन चली गई.
लेकिन जाने क्यों रिंकी की बातें उसके ज़ेहन से नहीं हट रही थीं. शायद इंसानी स्वभाव होता ही ऐसा है कि कड़वी बातें भूलने की कोशिश में और भी याद आती हैं. फिर भी ख़ुद को संयत करते हुए सोमा काम निपटाने लगी. इतने में पीयूष आ गया वहां.
“मासी आज क्या बना रही हो आप?" कहते हुए वहीं किचन के रैक पर बैठ गया.
सोमा को याद आने लगा कि यह तो पीयूष की फेवरेट जगह हुआ करती थी. छुटपन में भी वह इसी तरह, "क्या बना रही हो मासी" कहकर यहीं किचन में बैठ जाया करता था. जब तक कि वह उसे आलू की करारी भाजी कटोरी में नहीं दे देती थी. याद करते हुए वह वात्सल्य भाव से मुस्कुरा उठी.
“अभी तक बड़ा नहीं हुआ तू पीयूष! अब तो तेरी शादी भी हो जाएगी." कहकर सोमा उसके लिए आलू की वही भाजी बनाने लगी.
“क्या बात हो रही है मासी और बेटे में!" उनकी बातों में अपनी जगह बनाते हुए संगीता जी भी किचन में दाख़िल हो गई.
फिर सोमा और संगीता जी ने मिलकर भोजन तैयार किया.
“ठीक है मेमसाहब. अब जाती हूं मैं." कह कर सोमा ने विदा लेना चाहा.
"रुको थोड़ी देर. मैं अभी आई." कहकर संगीता जी बेडरूम में चली गईं.
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लौटीं तो हाथों में कुछ पैकेट्स व लाल रंग की एक डिब्बी थी. जिसे उन्होंने सोमा को थमा दिया. इससे पहले कि सोमा कुछ बोलती, संगीता जी बोल उठीं, “सोमा तुमने इस घर को और पीयूष को वर्षों से सम्हाला है. अब जब हमारे पीयूष की भी नौकरी लग गई है और शादी भी होने वाली है. इस ख़ुशी में तुम्हारा भी तो हिस्सा बनता है. ये कुछ कपड़े हैं तुम सबके लिए. पीयूष की तरफ़ से. साथ ही यह सोने के बूंदे तुम्हारे लिए, शादी में पहनना."
सोमा निःशब्द थी. उसकी आंखों में ख़ुशी के आंसू थे.
“इन सब की क्या ज़रूरत थी मेमसाब?" वह गदगद स्वर में बोली.
“ज़रूरत थी सोमा. भगवान जब मुस्कुराने की वजह दें तो उस मुस्कान को सब में बांटना चाहिए." संगीता जी ने उसके हाथों को प्यार से पकड़ते हुए कहा.
“जैसे ईश्वर बांट रहे हैं. है न मेमसाब! मुस्कुराने की और प्यारी सी वजह देकर." कहकर सोमा हंस पड़ी.
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