
उषा वधवा
पिछले दो दिनों से उनकी आंखों में अलग सा भाव देख रही हूं, जो मेरे परिचित नहीं हैं. चेहरे पर आदतन कठोर भाव होने पर भी उन बड़ी-बड़ी हल्की-भूरी आंखों में आर्द्रता है, जो हृदय की कोमलता को अनजाने ही प्रदर्शित करती है, अपने प्रति उन आंखों में पहली बार प्यार देख कर विचित्र सी अनुभूति होती है.

सर्दियों की ढलती दोपहरिया, छाया धीरे-धीरे बढ़ती हुई आधे लॉन को पार कर चुकी है. मैं भी धूप के पीछे-पीछे भागती लॉन के कोने तक जा पहुंची हूं. हवा में ठंडक काफ़ी बढ़ चुकी है, पर सोच रही हूं कि आलोक दफ़्तर से लौट आए, तभी भीतर जाऊं, अकेले अंदर जाने को मन ही नहीं होता. सूना घर काट खाने को दौड़ता है.
नया शहर और नए लोग, यहां आए हुए लगभग दो माह हो गए, पर औरों की तरह में पड़ोसियों से जल्दी घुल-मिल नहीं पाती, बस, यही सोचती रह जाती हूं कि क्या बात करूं उनसे? औरों को देखती हूं तो आश्चर्य के साथ-साथ ईर्ष्या भी होने लगती है कि कैसे लोग घंटों एक-दूसरे से बतियाते रहते हैं. मेरी भी इच्छा होती है कि किसी से मिलूं, बातें करूं, थोड़ी देर के लिए ही सही, मन तो बहल जाएगा, पर फिर वही प्रश्न आ खड़ा होता है- क्या बात करूंगी?
आलोक के घर लौटते ही घर में कितनी रौनक़ आ जाती है. बेजान सी खड़ी दीवारों, कुर्सी, मेजों में भी जान आ जाती है. सीटी बजाता हुआ वह कुर्सी-मेज को इधर-उधर करेगा, किवाड़ जोर से बंद करेगा, पूरा नल खोलकर ऊंचे स्वर में गाता हुआ मुंह-हाथ धोएगा. फिर चाय की प्यालियां बज उठेंगी और अपनी प्रिय बर्फी मुंह में रखता हुआ दफ़्तर की अनेक बातें कह सुनाएगा वह. किसको डांट पड़ी, किसकी तरक़्क़ी हुई, कौन छुट्टी पर गया. एक बात को अधूरी छोड़ दूसरी शुरू कर देता है. बहुत जल्दी रहती है उसे सब कुछ सुना देने की. यह भी नहीं जानना चाहता कि उसकी एक भी बात मेरे पल्ले पड़ी या नहीं, मैं तो उसकी ओर देखती हुई सिर्फ़ मुस्कुराती रहती हूं, मन तो मेरा कहीं और ही होता है. मेरे ख़्याल कहीं और होते हैं, पर वह अपनी ही मस्ती में बोलता जाता है. इन सब बातों के बीच अपर्णा की बात करना वह कभी नहीं भूलता. और उसका ज़िक्र आते ही मेरे खोए विचार एक ही झटके में वर्तमान में आ पहुंचते हैं. अपर्णा की हर बात मैं ध्यान से सुनती हूं. चाहे बेमतलब सी बात ही क्यों न हो, पर आलोक को उसका नाम लेने और मुझे उसका नाम सुनने में ही तृप्ति मिलती है. मैं उससे प्रतिदिन का हाल जान जाती हूं कि आज उसने कौन से रंग की साड़ी पहनी थी, कैसे बाल बनाए थे. कुल मिलाकर उसकी चर्चा का निचोड़ यही होता है कि वह बहुत ख़ूबसूरत लग रही थी. उसे कपड़े पहनने का अच्छा सलीक़ा है.
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जब आलोक देर से लौटने पर कहता है, "मां, आज देर हो गई, दफ़्तर में ऐन वक़्त पर ज़रूरी काम आ गया," अथवा "बॉस ने रोक लिया." तो मैं समझ जाती हूं कि वह समय उसने अपर्णा के संग पार्क की किसी वीरान बेंच पर अथवा रेस्टॉरंट की किसी कोने वाली मेज पर बिताया होगा.
अपर्णा उसकी मंगेतर है, उनके विवाह की तिथि भी तय हो चुकी है, फिर वह यह सब मुझसे क्यों छुपाता है? पगला! समझता है, मां पुराने दक़ियानूसी विचारों की है, इसलिए उन्हें विवाह से पूर्व यूं अकेले घूमने की इजाज़त नहीं देगी. इच्छा होती है, प्यार से उसके गाल पर चपत लगाकर कहूं कि तू मां से अपने मन की बात नहीं छुपा सकता. मैं सब कुछ जानते हुए भी अनजान होने का अभिनय करती हूं, ताकि तुझे शर्मिंदा न होना पड़े.
यह बात आलोक नहीं जानता कि मेरी भी हार्दिक इच्छा यही है कि आलोक अपर्णा को या जिससे भी वह विवाह करे, उसे अपने हृदय का सम्पूर्ण प्यार दे. ज़माने भर की ख़ुशियां दे, अपना मुंह खोल कर बेटे को कैसे बताऊं कि मैं इसी प्यार के लिए जीवनभर... जिसने पहली बार ही प्यार किया हो. मन ने कहा, चाहे पूरा दिन अख़बार में आंखें गड़ाए तुम उसी में डूबे रहो, पर इसी कमरे में उपस्थित रहो. बाहर माली से ही बात करते रहो, पर मेरे कानों से तुम्हारी आवाज़ टकराती रहे, "अब तो बूढ़े होने में कोई कसर बाकी नहीं, बाल सफ़ेद तो हो ही गए थे, अब ससुर भी बन जाएंगे." कहते हुए ठहाका मार कर हंस पड़े अमित. उनकी यह परिचित हंसी कानों से होती हुई मन के तारों को छू गई. आलोक ने भी उसी जोश में उनका साथ दिया और पूरा कमरा हंसी से गूंज उठा. मैं अपने सम्मुख बैठे उन दो पुरुषों को देखती रही, जिन्हें मैंने सर्वाधिक चाहा है. दोनों की शक्ल में कितनी समानता है. विवाह के समय अमित ठीक ऐसे ही लगते थे. पर दोनों बहुत अलग-अलग बातावरण में पले हैं.
आधुनिक ढंग की वेशभूषा और मुगलकाल में प्रचलित बालों का ढंग, आलोक उनमें से है जो 'मॉड' कहलाते हैं. वह लड़कियों को अपने बराबर अपना साथी मानता है. पर स्वयं को डिक्टेटर समझने वाले उसके पिता के विचार इससे सर्वधा विपरीत है.
पुरानी कहावत है कि डिक्टेटर अपनी प्रजा के हृदय में भय उत्पन्न कर सकते हैं, सम्मान अथवा प्यार नहीं. पर मैंने इस डिक्टेटर पुरुष को प्यार भी दिया है और सम्मान भी. प्यार शायद इसलिए कि मैंने जीवन में अन्य पुरुष को जाना ही नहीं और सम्मान इसलिए कि भोले किशोरी हृदय को पति का सम्मान करने की सीख अंकित की गई थी. विवाह साधारण ढंग से ही होने का निश्चय हुआ है. अधिक व्यय यदि सफल विवाह की कुंजी होती तो अधिक तामझाम को बुद्धिमता कहा जा सकता था.
बहुत अधिक भीड़ इकटठी न करने के बावजूद मैं चाहती हूं कि विवाह की सब रस्में पूरी की जाए. पुराने संस्कारों को चट से तोड़ देने की हिम्मत नहीं होती शायद.
बहुत देर से मैं देख रही हूं कि मुझसे काफ़ी दूर बैठे होने पर भी अमित की नज़रें मुझ पर ही टिकी हैं. दूसरी ओर मुंह करने पर भी उन नज़रों की तीखी चुभन अपने पूरे शरीर पर रेंगती महसूस करती हूं. अपने विवाह की यादें एकाएक स्मरण हो जाती हैं. बीच का इतना लम्बा फ़ासला पल में सिमट कर विलुप्त हो जाता है. यातनाओं से भरा लम्बा सफ़र मन को एक झटके में ही काट कर अलग कर देता है.
अमित मेरे ही पास आ रहे हैं. शायद कुछ पूछना, कुछ कहना चाहते हैं. पिछले दो दिनों से उनकी आंखों में अलग सा भाव देख रही हूं, जो मेरे परिचित नहीं हैं. चेहरे पर आदतन कठोर भाव होने पर भी उन बड़ी-बड़ी हल्की-भूरी आंखों में आर्द्रता है, जो हृदय की कोमलता को अनजाने ही प्रदर्शित करती है, अपने प्रति उन आंखों में पहली बार प्यार देख कर विचित्र सी अनुभूति होती है.
"विभा..." वह पुकारते हैं, मैं उन आंखों के उस विचित्र भाव को देखने का साहस नहीं कर पाती. सामने ही देखती हुई सिर्फ़ 'हूं' करती हूं.
"अब घर चलें." मैं चौंक कर देखती हूं. ज़रा भी नहीं समझती बात को.
"अभी से कैसे? विवाह की रस्में तो पूरी हो जाएं. कुछ चाहिए क्या?" मैं एक ही सांस में सब कह जाती हूं.
अमित कब मेरे हाथों को अपने हाथों में पकड़ लेते हैं, मुझे पता नहीं चलता. उस स्पर्श से सिमटने सिकुड़ने की मेरी अवस्था बीत चुकी है, पर अपनत्व और अधिकार भरा वह स्पर्श अच्छा लगता है. तभी अमित फिर से कहते हैं-
"यहां नहीं, अपने घर, मेरी सिर्फ़ कल की छुट्टी बाकी है."
- उषा वधवा

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