जब से तुम गए हो, तभी से मैं बड़ी घुटन और मानसिक अवसाद में जी रही हूं. बार-बार एक ही बात मुझे बेध रही है कि तुम बच्चों के लिए अपना सब कुछ समर्पित कर देने के बावजूद मेरी परवरिश में कौन सी कमी रह रह गई कि मैं तुम लोगों को पूर्ण रूप से संतुष्ट नहीं कर पाई.

अनिरुद्ध मां का बारहवां सम्पन्न होने के बाद सुबह ही मेरठ से लौटा था. सीमा और बच्चे भी उसके साथ ही मेरठ गए थे, पर बच्चों की अनिश्चितकालीन स्कूल हड़ताल के कारण आते समय सीमा बच्चों के साथ अपने पीहर अलीगढ़ उतर गई थी.
घर लौटने के बाद भी मां की छवि बार-बार आंखों के समक्ष घूम जाती थी. मां इस तरह चली जाएगी, इसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती थी. मां की मृत्यु के सप्ताह भर पहले ही तो वह दशहरे की छुट्टियों में तीन दिनों के लिए मां से मिलकर आया था. दशहरे की छुट्टियों में मां ने उसे, उसकी बहन ऋचा और मौसी की लड़की नेहा को सपरिवार अपने पास बुलाया था. उन तीन-चार दिनों में सबके एकत्रित होने से घर में कितनी चहल-पहल हो गई थी. उन लोगों ने बहुत मौज-मस्ती की थी. मां तो सबको एक साथ देखकर भाव-विभोर हो गई थी. सबकी फ़रमाइशें पूरी करते-करते थक कर चूर हो जाती, पर उनके चेहरे पर कहीं भी शिकन तक नहीं आती. उस समय तो मां कितनी ख़ुश और प्रसन्न लग रही थी, भला उनको देखकर कौन अंदाज़ा लगा सकता था कि उनका अंतिम समय आ गया था.
मौसी से फोन पर मां के हार्ट अटैक का समाचार मिलते ही वह मेरठ के लिए रवाना हो चुका था, पर फिर भी अंतिम समय में मां से मिलना नहीं हो पाया. ऋचा तो उससे भी चार-पांच घंटे देर से पहुंची. मौसी से ही पता चला कि पिछली बार जिस दिन से वह मेरठ से रवाना हुआ, उसी दिन से मां एकदम उदास और ख़ामोश हो गई थी, लेकिन मौसी ने सोचा कि उसके तथा ऋचा के चले जाने से मां पुनः एकदम अकेली अनुभव करने लगी है, शायद दो-चार दिनों के पश्चात् ख़ुद ही सामान्य हो जाएगी. यही सोचकर मौसी ने मां की चुप्पी को गंभीरता से नहीं लिया, पर एक रात अचानक सीने में तेज दर्द होने के साथ जब उसे दिल का दौरा पड़ा और वह बेहोश होकर कोमा में चली गई तो स्थिति की गंभीरता का पता चला.
मां को पहले तो कभी हृदय रोग की कोई शिकायत नहीं थी, फिर अचानक यह जानलेवा दौरा कैसे पड़ा? डॉक्टरों का कहना था कि किसी बात का गहरा सदमा लगने के कारण मां का ब्लड प्रेशर अचानक बहुत बढ़ गया और मानसिक तनाव व डिप्रेशन के कारण उनको दिल का दौरा पड़ गया.
मां को किस बात का सदमा लगा होगा... बहुत सोचने और सबको पूछने पर भी वह पता नहीं कर पाया, हां मौसी ने यह ज़रूर बताया था कि अपनी मृत्यु के एक दिन पहले ही मां ने उसके नाम एक पत्र उनके नौकर के हाथ पोस्ट करवाया था, शायद उसमें उसने अपने मन की बात लिखी हो.
ट्रेन के दो घंटे लेट होने के कारण घर पहुंचते ही वह नहा धोकर ऑफिस चला गया. शाम को जब घर लौटा तो लेटर बॉक्स से कई दिन की एकत्रित डाक निकाली. एक लिफ़ाफ़े पर मां की हस्तलिपि थी. मां ने अपने पत्र में क्या लिखा होगा, इसी उत्सुकता से उसने लिफ़ाफ़ा खोला तो मां का लिखा एक विस्तृत पत्र मिला. वह एक ही बार में पूरा पत्र पढ़ गया. मां ने लिखा था-
मेरठ
२०.८.९९
प्रिय अनिरुद्ध शुभाशीष!
आज अचानक मेरा पत्र पाकर शायद तुम्हें आश्चर्य होगा. कई वर्षों से मेरी लिखने की आदत सी छूट गई है. आज भी पत्र लिखने के पूर्व मन में कई विचार आ रहे थे. तुम्हें अपने मन की बात कहूं या नहीं, इसी ऊहापोह में तीन-चार दिन निकल गए. पर आज मैं स्वयं को रोक नहीं पाई और तुम्हें पत्र लिखने बैठ ही गई.
यह भी पढ़ें: पैरेंट्स के आपसी रिश्ते तय करते हैं बच्चे का भविष्य (Relationship Between Parents Decides The Future Of The Child)
जब से तुम गए हो, तभी से मैं बड़ी घुटन और मानसिक अवसाद में जी रही हूं. बार-बार एक ही बात मुझे बेध रही है कि तुम बच्चों के लिए अपना सब कुछ समर्पित कर देने के बावजूद मेरी परवरिश में कौन-सी कमी रह गई कि मैं तुम लोगों को पूर्ण रूप से संतुष्ट नहीं कर पाई.
तुम्हारे जन्म से लेकर आज इस पल तक मैंने तुम्हारे हित में सोचने-समझने और चिंता करने में ही व्यतीत किया है. अब तक तो मैं इसी भ्रम में जी रही थी कि मैं उन सौभाग्यशाली माताओं में से एक हूं, जिनके बच्चे उनसे पूर्ण संतुष्ट और प्रसन्न रहते हैं, पर उस दिन तुम्हारी बातों को सुनकर मैंने अनुभव किया कि मेरी सोच कितनी त्रुटिपूर्ण थी.
तुम्हारी एक छोटी सी बात ने मुझे पुनः अपने जीवन की डायरी को पढ़ने के लिए विवश कर दिया. आज जब अपने अतीत के पृष्ठों को पलटती हूं तो मेरा सारा जीवनवृत्त एक चलचित्र की तरह मेरी आंखों के समक्ष जीवन्त हो उठता है.
मेरा बचपन बहुत सहज और सरल था. एक भाई और दो बहनों में सबसे छोटी होने के कारण घर में मुझे सभी का भरपूर प्यार मिला. मेरे पिताजी मिलिट्री में थे, अतः हमारी शिक्षा-दीक्षा सैनिक स्कूल में हुई, घर में भी सैनिक वातावरण होने के कारण हम बहुत अनुशासन और अंकुश में रहे. इस तरह अपने अभिभावकों के मार्गदर्शन, परस्पर स्नेह और आत्मीयता के वातावरण में बचपन कब पंख लगाकर उड़ गया, पता ही नहीं चला.
जब मैंने बी.ए. कर लिया तो घर में मेरी शादी की बात चलने लगी. उन्हीं दिनों किसी शादी में तुम्हारे दादा-दादी ने मुझे देखा तो तुम्हारे पापा के लिए मेरा हाथ मांगा. तुम्हारे पापा का व्यक्तित्व और रोबदाब देखकर मेरे अभिभावक इतने अभिभूत हो गए कि उन्होंने बिना पूरी तहक़ीकात किए इस रिश्ते के लिए अपनी स्वीकृति दे दी. वास्तव में तुम्हारे पापा का व्यक्तित्व था भी इतना प्रभावशाली कि मैं स्वयं को बहुत भाग्यशाली समझने की भूल कर बैठी. पर मेरी ख़ुशियां बहुत ही क्षणिक थीं.
शादी के तुरंत बाद ही मुझे पता चला कि तुम्हारे पापा को विवाह जैसे बंधनों में बंधने की कभी कोई चाह नहीं थी. मुझसे विवाह करना तो मात्र एक सामाजिक मजबूरी और अपने अभिभावकों की इकलौती संतान होने के कारण उनकी इच्छाओं को पूरा कर अपना कर्तव्य निभाने की विवशता थी. हमारी शादी की रात ही उन्होंने मुझे स्पष्ट कर दिया था कि उनका जीवन अपने अध्यापन और लेखन को ही समर्पित है और मैं उनसे गृहस्थी चलाने में विशेष सहायता की अपेक्षा न रखूं तो बेहतर होगा. तुम्हारे पापा की स्वयं के प्रति इतनी बेरुखी और उदासीनता देखकर में हतप्रभ रह गई थी. अपनी मजबूरी, अपने कर्तव्य की बलिवेदी पर उन्होंने मुझे क्यों चढ़ाया, यह मैं चाहकर भी उनसे नहीं पूछ पाई. शादी के दूसरे दिन से ही तुम्हारे पापा ने विश्वविद्यालय जाकर अपनी दैनिक जीवनचर्या शुरू कर दी थी. मेरे प्रति भी उनका कोई दायित्व है, इसकी परवाह उन्होंने पहले ही दिन से करना छोड़ दिया. इस तरह एक अनजान शहर में अनजाने लोगों के बीच मैंने अपना जीवन सफ़र प्रारंभ किया और मन में प्रण किया कि अपने त्याग, समर्पण और निःस्वार्थ सेवा से तुम्हारे पापा को अपना बनाने में सफलता प्रास कर लूंगी, पर वह तो मेरे भावुक मन की आत्म प्रर्वचना मात्र थी. ऐसा यथार्थ में कब होता है? जिस रिश्ते की नींव ही खोखली हो, उस पर बुलंद इमारत खड़ी करने का सपना देखना मूर्खता ही तो होती है.

इस बीच एक दिन तुम्हारे आगमन की सूचना ने जहां मेरे सूने मन के आंगन में फिर से आशा की किरणें बिखेरीं, वहीं तुम्हारे पापा ने इसे अपने भावुक क्षणों की लापरवाही मानकर तुम्हारे आगमन का मार्ग अवरुद्ध करने का हर संभव प्रयास किया.
मेरी अनिच्छा के बावजूद वे मुझे डॉक्टर के पास ले गए. पर शायद ईश्वर को मुझ पर रहम आ गया, तभी तो उस लेडी डॉक्टर ने मेरे अनुरोध को स्वीकार करते हुए गर्भपात के लिए मेरी शारीरिक अवस्था उपयुक्त न होने का बहाना बनाकर तुम्हारे आगमन का मार्ग प्रशस्त करा दिया. इस तरह तुम्हारे पापा की इच्छा के विपरीत तुम्हें इस जग में लाने में मैं सफल हो पाई. मुझे पूरी उम्मीद थी कि तुम्हारे सुन्दर-सलोने मुखड़े, मासूम किलकारियों और नन्हीं-नन्हीं प्यारी हरकर्ते तुम्हारे सख्त हृदय पिता को घर-परिवार के बंधन में बांध लेंगी, पर ऐसा नहीं हुआ. वे तुमको कभी-कभार खिलाते ज़रूर थे, पर तुम्हारे प्रति अपनी छोटी-छोटी ज़िम्मेदारियां भी उन्होंने कभी नहीं निभाई. बीमार पड़ने पर चाहे तुम्हें डॉक्टर के पास ले जाना हो, तुम्हारे लिए बाज़ार से दूध का डिब्बा या दवाई लाना हो या समय-समय पर तुम्हारा टीकाकरण करवाना हो, सब कुछ मुझे ही करना होता था.
यह भी पढ़ें: पुरुषों की आदतें बिगाड़ सकती हैं रिश्ते (Bad Habits Of Men Can Ruin Your Relationship)
जब तुम तीन साल के हुए तो तुम्हें किस स्कूल में भर्ती करवाया जाए, इस विषय में मैंने तुम्हारे पापा से सलाह-मशविरा करना चाहा, क्योंकि कम-से-कम शिक्षा से संबंधित बातें तो उनके क्षेत्र और रुचि से संबंधित थी, पर तब भी उन्होंने कोई रुचि नहीं ली.
इस तरह जब-जब उनसे एक पिता का दायित्व निभाने का प्रश्न उपस्थित होता, वे हमेशा ख़ुद को अलग कर देते. इस बीच जब ऋचा के आगमन का अंदेशा हुआ, तो एक बार फिर तुम्हारे पापा ने उसके आगमन का मार्ग भी अवरुद्ध करने का भरसक प्रयास किया, पर तब तक विवाह के पांच साल व्यतीत हो जाने के बाद मुझमें इतनी हिम्मत आ गई थी कि मैं ऐसा कोई भी ग़लत कदम उठाने के लिए स्पष्ट इनकार कर दूं.
तुम्हारे पापा अपने क्षेत्र में बहुत नाम कमा रहे थे, जैसे-जैसे वे यश, सफलता और कीर्ति की ऊंचाइयों को छू रहे थे, वैसे-वैसे मुझसे और तुम बच्चों से और भी दूर होते जा रहे थे.
मैं समाज और रिश्तेदारों की नज़रों में बहुत भाग्यशाली स्त्री समझी जाती, जिसे ऐसे सम्मानित बौद्धिक व्यक्तित्व के धनी शख्सियत की पत्नी होने का सौभाग्य मिला था. पर हक़ीक़त क्या थी, यह मेरे सिवाय और कौन जानता था. गृहस्थी चलाने के लिए मुझे कितनी आर्थिक मानसिक परेशानियां झेलनी पड़ती होंगी, इसकी परवाह करने की भी उन्होंने कभी ज़रूरत नहीं समझी.
विवाह के सात वर्ष तक मेरी गृहस्थी की गाड़ी इसी प्रकार घिसटती रही. इस बीच तुम्हारे दादा-दादी का निधन हो गया. इसके बाद तो तुम्हारे पापा का जो थोड़ा बहुत घर के प्रति सम्मान था, वह भी समाप्त हो गया.
उन्हीं दिनों उन्हें कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय द्वारा आयोजित एक सेमिनार में अपना रिसर्च पेपर पढ़ने का निमंत्रण मिला. वे बहुत उत्साह से अपनी विदेश यात्रा की तैयारी में संलग्न हो गए. विदेश जाते समय मुझे यही आश्वासन देकर गए थे कि तीन सप्ताह के बाद पुनः स्वदेश लौट आएंगे, पर वहां जाने के दूसरे सप्ताह बाद ही उनका समाचार मिला कि उनके रिसर्च पेपर को इतना सराहा गया कि विश्वविद्यालय की ओर से न केवल उन्हें डॉक्टरेट की मानक उपाधि से सम्मानित किया गया, बल्कि उसके बाद तो उन्होंने घर से नाता ही तोड़ लिया. मैंने कई बार उनसे फ़ोन और पत्रों के द्वारा संपर्क भी करना चाहा, पर उन्होंने 'अपना घर ही बदल लिया था.
लेक्चररशिप का प्रस्ताव भी दिया गया. जिस पद को पाने के लिए लोगों को सिफ़ारिशें लेकर लम्बी लाइनें लगानी पड़ती थीं, उस पद की नियुक्ति के लिए ख़ुद विश्वविद्यालय द्वारा प्रस्ताव रखा जाना, निःसंदेह उनके लिए बहुत गर्व की बात थी.
इस तरह उन्हें विदेश में बस जाने का अवसर मिल गया. शुरू-शुरू में साल भर तक तो पत्रों और फोन द्वारा वे हमारी कुशलता का समाचार लेते रहे. दो-चार बार घर ख़र्च के लिए राशि भी भिजवाई, पर उसके बाद तो उन्होंने घर से नाता ही तोड़ लिया. मैंने कई बार उनसे फोन और पत्रों के द्वारा संपर्क भी करना चाहा, पर उन्होंने अपना घर ही बदल लिया था. बाद में विदेश से लौटे उनके किसी मित्र से पता चला कि उन्होंने अपनी किसी सहयोगी प्रोफेसर से विवाह करके वहीं बसने का फ़ैसला कर लिया था. बिना किसी पूर्व सूचना के तुम्हारे पापा द्वारा अचानक इस तरह मुंह मोड़ लेना मुझे बहुत भारी पड़ा. समझ में नहीं आ रहा था कि तुम बच्चों को लेकर मैं कैसे घर-परिवार चलाऊंगी.
उन्हीं दिनों दीदी ने मुझे बड़ा सहारा दिया. अपना हर संभव सहयोग दिया, केवल आर्थिक रूप से ही नहीं, मानसिक रूप से भी जीवन की लड़ाई को लड़ने का साहस दिलाया. पढ़ने में तो शुरू से ही मेरी बहुत अधिक रुचि नहीं थी. हां, बचपन से ही मुझे ब्यूटी केयर का शौक था. अपने छोटे-मोटे साधनों से ही किसी भी महिला का सौन्दर्य किस तरह निखारा जाए, यह गुण शायद विधाता ने मुझे जन्मजात प्रतिभा के रूप में दिया था. दीदी ने मुझे अपनी इसी रुचि को जीविनोपार्जन का माध्यम बनाने की प्रेरणा दी.

मैंने एक साल का ब्यूटीशियन का विधिवत प्रशिक्षण लिया. उसके पश्चात् दीदी की जान-पहचान और सहयोग से बैंक से दस हज़ार रुपए की वित्तीय सहायता लेकर अपने घर के बाहर वाले कमरे को पार्लर बनाकर अपने करियर की शुरुआत की. हालांकि इतनी राशि दीदी मुझे स्वयं अपने पास से भी दे सकती थीं, पर वे चाहती थीं कि ब्याज पर ली गई राशि को समय पर चुकाने के लिए मुझे प्रारंभ से ही अपने लक्ष्य के प्रति पूर्ण समर्पित होकर कार्य करना होगा और अपने व्यवसाय के प्रति यही प्रतिबद्धता भविष्य में मेरे लिए लाभदायी होगी.
वास्तव में दीदी की यही दूरदर्शिता मेरे जीवन की आधारशिला बनी. ईश्वर की कृपा और मेरी मेहनत से शीघ्र ही मेरा पार्लर लोकप्रिय होने लगा. स्थानीय गर्ल्स कॉलेज के पास ही घर होने के कारण मुझे पार्लर के प्रचार-प्रसार में भी विशेष राशि ख़र्च नहीं करनी पड़ी. इस तरह घर बैठे ही मेरी आय का स्रोत खुल गया.
इस तरह दीदी की प्रेरणा से अपनी रुचि को अपना व्यवसाय बनाकर मैंने अपने संघर्ष के दिनों को केवल हिम्मत से ही नहीं जिया, बल्कि तुम बच्चों की अच्छी से अच्छी परवरिश करने का प्रयास भी किया.
जिस दिन तुम्हें एम.बी.ए. की डिग्री मिली और ऋचा ने स्नातक की पढ़ाई पूरी करके फैशन डिजाइनिंग को करियर बनाया, वे घड़ियां मेरे जीवन के लिए अविस्मरणीय थीं. मुझे इस बात पर गर्व था कि तुम्हारे पिता की अनुपस्थिति में भी तुम लोगों के व्यक्तित्व के विकास में किसी प्रकार की कमी नहीं रही थी. मेरे एकाकी जीवन में
हमसफ़र बनने का प्रस्ताव प्रत्यक्ष, अप्रत्यक्ष रूप से कई लोगों ने भेजा, पर मैं अपने व्यक्तिगत जीवन की ख़ुशहाली की बलिवेदी पर तुम बच्चों की ख़ुशियों को कैसे चढ़ाती? मैं जानती थी कि अकेली होने पर जितनी निष्ठा और त्याग से मैं तुम दोनों का दायित्व निभा पाऊंगी, उतना शायद किसी और के साथ बंधने पर नहीं कर पाऊंगी. इसके बाद तो सब कुछ तुमने देखा-सुना ही. तुमने और ऋचा ने अपने-अपने जीवन साथियों का चयन किया. मुझे तो केवल अपने निर्णय की सूचना भर दी. मैं नहीं कहती कि तुम लोगों के इस गोपनीय आचरण को देखकर मुझे ज़रा भी बुरा नहीं लगा, मन में एक कसक ज़रूर उठी थी कि काश, तुम लोग मुझे अपने विश्वास में लेकर एक बार तो अपने मन की बात करके देखते. क्या मैं तुम्हारे मार्ग में बाधक बनती?
खैर, तुम लोगों को अपनी-अपनी गृहस्थी में ख़ुश और संतुष्ट देखकर मेरे सारे गिले-शिकवे मिट गए. दिल्ली में तुमको बहुराष्ट्रीय कम्पनी में अच्छा जॉब मिल गया. सारी आवश्यक सुख-सुविधाएं उपलब्ध हो गईं तो तुमने मुझे भी अपने साथ दिल्ली चलकर रहने का आग्रह किया. मैंने स्थायी रूप से तुम्हारे साथ रहने का तुम्हारा प्रस्ताव अस्वीकार कर दिया, क्योंकि मैं जानती थी कि तुम्हारी गृहस्थी में मेरी उपस्थिति कुछ समय के लिए तो ज़रूर तुम्हें सुहा जाएगी, पर स्थायी रूप से मेरा रहना, मेरी कोई बात, मेरा कोई कदम, तुम्हारे व्यक्तिगत जीवन में तुम्हें शायद हस्तक्षेप लग सकता था. यही सब सोचकर चाहते हुए भी में तुम्हारे पास नहीं रह पाई. वैसे छुट्टियों में जब कभी मैं तुम लोगों के पास या तुम लोग मेरे पास आ जाते तो मन को बहुत सुकून मिलता.
अब तक तो अपनी इस जीवनयात्रा में मैं बहुत ख़ुश और संतुष्ट थी, क्योंकि तुम दोनों बच्चों को ख़ुशहाल जीवन देने का मेरा स्वप्न पूरा हो गया था. पर इस बार तुम आए तो तुम्हारी दो-तीन बातों ने मुझे बहुत पीड़ा पहुंचाई. एक बार उन बातों की पुनर्चर्चा भी मैं ज़रूर करना चाहूंगी. तुमने इस बार मेरे सामने यह प्रस्ताव रखा था कि में इस घर को विक्रय कर दूं, ताकि घर के विक्रय से आने वाली राशि से तुम दिल्ली में एक बड़ा फ्लेट ख़रीद सको. तुमको तो वैसे भी इस घर से कोई मोह नहीं था, इसलिए तुमने इतनी सहजता से अपना प्रस्ताव रख दिया, पर मैं तुम्हारे प्रस्ताव को तुरंत स्वीकार नहीं कर पाई.
तुम मुझसे अपने उस आशियाने को त्यागने को कह रहे थे, जिसकी एक-एक ईंट मेरे जीवन संघर्ष की साक्षी थी. इस घर में मैंने जीवन की धूप छांव, ख़ुशियां-ग़म बिताए थे. मुझे अपने इस छोटे से घर से असीम मोह हो गया था. फिर उम्र के इस मोड़ पर अपना घर, अपना शहर छोड़ना कितना कठिन होता है, इस बात का एहसास जब तुम हमारी उम्र में आओगे तब कर पाओगे. फिर भी मैंने तुम्हारे प्रस्ताव को एकदम से अस्वीकृत नहीं किया, केवल तुमसे यही कहा कि जीवन के इस सोपान पर मैं तत्काल कोई फ़ैसला करने के स्थान पर कुछ समय सोच-विचार करने के बाद ही निर्णय लूंगी, पर तुम्हारे पास तो इतना धैर्य और सब्र भी नहीं था कि मेरी भावनाओं की समझने का प्रयत्न करो. तुमने तो झट कह दिया, "मम्मी, आप इस उम्र में भी केवल अपने मन का सोचती हैं. वाक़ई, वृद्धावस्था में मनुष्य का दृष्टिकोण कितना आत्मपरक और एकाकी हो जाता है. आप लोगों में कितनी असुरक्षा की भावना आ जाती है कि अपनी संतान पर भी कोई विश्वास नहीं रहता. एक हमारे मकान मालिक शर्मा जी है, हमारे लिए कितना करते हैं, वे कहते हैं कि यदि तुम्हारा फ्लैट छोटा पड़ता हो तो आराम से मेरे कमरे में काम कर लिया करो, हमें कोई आपत्ति नहीं होगी. इतनी आत्मीयता, इतनी निःस्वार्थता आज कहां देखने को मिलती है, मेरी तो यही कामना है कि अगले जन्म में मुझे शर्मा दंपत्ति जैसे अभिभावक ही मिलें जो पराये होकर भी अपनी से बढ़कर हैं." तुम्हारी बातें उस दिन नश्तर की तरह मेरे हृदय को बेध गई. उस समय मेरे हृदय पर क्या गुज़री थी. मैं कभी भी शब्दों में व्यक्त नहीं कर पाऊंगी. बस, मेरे जीने का मक़सद उसी दिन समाप्त हो गया था. अब तो जो जीवन जीना है, वह एक मजबूरी ही है.
यह भी पढ़ें: ज़िंदगी जीने के लिए ज़रूरी है स्पीड पर कंट्रोल (Importance Of Control And Speed In LIfe)
मेरे मन में तुम्हारे प्रति कोई रोष या द्वेष नहीं है. तुम्हारी पीढ़ी की मानसिकता से मैं परिचित हूं. बिना कुछ सोचे-समझे एक क्षण में निर्णय कर लेने की हड़बड़ाहट में कई बार अनजाने में ही अपने विचारों को अभिव्यक्त करते समय दूसरों की भावनाओं को नज़रअंदाज़ करने की तुम लोगों की आदत सी हो गई है. बस, मेरे जीवन की डायरी समाप्त होने को है. आज अपनी स्मृतियों की पोटली को बंद करते हुए मैं इसी निष्कर्ष पर पहुंची हूं कि इतने दिनों तक मैं जिस भ्रम में जी रही थी, आज वह टूट गया है. मैं समझती थी कि मैने अपना सम्पूर्ण जीवन तुम लोगों के लिए समर्पित कर दिया. पति की कसौटी पर चाहे खरी नहीं उतर पाई, पर तुम बच्चों के लिए तो मैं ही सब कुछ थी. पर अब मैं जान पाई कि वह तो मेरे भावुक मन की आत्म प्रवंचना थी. आज अपने पसंदीदा गीत की दो पंक्तियां बार-बार मुझे स्मरण हो रही हैं- मैंने चांद और सितारों की तमन्ना की पर मुझे रातों की स्याही के सिवाय कुछ नहीं मिला...
पत्र बहुत विस्तृत हो गया है. मैंने तुम्हारा बहुत समय लिया, क्षमा करना. आज अपने मन की बहुत सी बातें जो मैं प्रत्यक्ष में तुम्हें कभी नहीं कह पाती, उन्हें लेखन में अभिव्यक्ति देकर स्वयं को बहुत हल्का अनुभव कर रही हूं. तुम्हें यदि मेरी किसी बात से चोट पहुंची हो तो क्षमा करना. तुम बच्चे सदा सुखी और प्रसन्न रहो, यही मेरी कामना है. मेरे मन में तुम्हारे प्रति अब कोई क्षोभ या कड़वाहट नहीं है, अतः तुम किसी बात के लिए स्वयं को दुखी मत करना.
तुम्हारी मां
मां का पत्र पढ़कर वह जड़वत सा हो गया. उसने अनजाने में ही मां की भावनाओं को कितना आहत कर दिया था. मां के प्रति तो सदैव उसके मन में श्रद्धा और सम्मान रहा है. काश, यह पत्र उसको मां के निधन से पूर्व मिल जाता तो एक बार उनसे क्षमा तो मांग लेता वह. अब तो पश्चाताप और आत्मग्लानि के सिवाय वह कुछ भी नहीं कर सकता. मां ने अपने पत्र में भले ही उसे क्षमा कर दिया था, पर वह स्वयं जीवनभर इस अपराधबोध से मुक्त नहीं हो पाएगा.
- हंसादसानी गर्ग

अधिक कहानियां/शॉर्ट स्टोरीज़ के लिए यहां क्लिक करें – SHORT STORIES
