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कहानी- विदेश में बसे बेटे की बुज़ुर्ग मां (Short Story- Videsh Mein Base Bete Ki Bujurg Maa)

“सच कहूं तो अमेरिका में अरविंद के घर में स्वर्ग जैसा सुख था, पर वतन की याद सताती रहती थी. तेरे काका ने तो यहीं आख़िरी सांस ली थी, अब मैं भी यहीं अपने दिन पूरे करना चाहती हूं. थोड़ा कामकाज रहेगा, तकलीफ़ होगी, पर वतन में रह कर वह सब सह लूंगी.”

सुबह के आठ बजे थे. अहमदाबाद की हवा में हल्की सी उमस थी. चाय का खाली कप एक ओर रख कर बकुल ने अख़बार हाथ में लिया ही था कि तभी मोबाइल बज उठा.

“बकुला, चाय-नाश्ता हो गया?” अरविंद आचार्य ने फोन पर पूछा.

अरविंद अमेरिका के कैलिफोर्निया में रहता था. सालों पहले रतनपुर की गलियों में दोनों साथ खेल कर बड़े हुए थे, इसलिए आज भी उनकी दोस्ती गहरी थी.

“हां, चाय पी ली, अख़बार उठाया और तेरा फोन आ गया.” बकुल ने मुस्कुराते हुए कहा, “बता, क्या बात है?”

“यहां निमुबा ने तो घर सिर पर उठा लिया है." अरविंद ने थकी आवाज़ में कहा, “मैंने बहुत समझाया, वीणा ने भी मनाया, पर मानती ही नहीं हैं. कहती हैं कि अब मुझे अमेरिका में नहीं रहना. रोज़ रात को अपने रतनपुर का हवेली जैसा घर याद आता है. कहती हैं कि अब बाकी ज़िंदगी अपने वतन की मिट्टी में ही बितानी है. उनकी यह हालत देख कर अब यहां रोकना ठीक नहीं लगता. तू तैयार रह, एक-दो दिन में उन्हें फ्लाइट से अहमदाबाद भेज रहा हूं. तू एयरपोर्ट से उन्हें ले कर रतनपुर पहुंचा देना.”

“नो प्रॉब्लम,” बकुल ने तुरंत कहा.

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“मेरा रतनपुर वाला घर तो पंद्रह साल से बंद पड़ा है, वैसे भी उसकी मरम्मत करवाने की सोच रहा था. निमुबा को वहां ले जा कर सब इंतज़ाम कर दूंगा. तू बेफिक्र रह.”

चार दिन बाद पैंसठ साल की निमुबा अहमदाबाद पहुंचीं तो बकुल एयरपोर्ट पर हाज़िर था. उसने उन्हें अपने घर ला कर ठहराया और अगले दिन रतनपुर ले कर चला गया.

अरविंद का पैतृक घर हवेली जैसा बड़ा था. जब बकुल निमुबा को वहां ले गया तो उनकी आंखों में आंसू आ गए.

“बकुला,” उन्होंने कहा, “सच कहूं तो अमेरिका में अरविंद के घर में स्वर्ग जैसा सुख था, पर वतन की याद सताती रहती थी. तेरे काका ने तो यहीं आख़िरी सांस ली थी, अब मैं भी यहीं अपने दिन पूरे करना चाहती हूं. थोड़ा कामकाज रहेगा, तकलीफ़ होगी, पर वतन में रह कर वह सब सह लूंगी.”

लेकिन वह तकलीफ़ आसान नहीं थी. दो-तीन दिन में बकुल को समझ में आ गया कि गांव में अब घर के काम के लिए नौकरानी मिलना बहुत मुश्किल है. उसने घर की मरम्मत का काम शुरू करवाया और ख़ुद अपने रिश्तेदार के यहां ठहरने लगा.

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निमुबा ने आसपड़ोस की औरतों की मदद से घर की सफ़ाई कराई और ख़ुद ही रसोई संभाल ली. बकुल सामान ला कर देता था, लेकिन कपड़े और बर्तन साफ़ करने के लिए कोई नहीं मिल रहा था. इस उम्र में यह सब निमुबा के लिए कठिन था.

पांचवें दिन गांव में ख़बर फैल गई कि रतनपुर की सुथार गली में रामजी मिस्त्री की बहू नयना विधवा हो गई है. चालीस वर्ष की उम्र में उसके पति को हार्टअटैक हुआ था और वह गुज़र गया था. ससुरालवालों ने उसे घर से निकाल दिया. दो छोटे बेटे, एक दस साल का, दूसरा आठ साल का ले कर वह भाई-भाभी के सहारे यहां आ गई थी. पर उनका घर भी तंगहाली में था.

भाभी ने सब के सामने साफ़ कहा, “हम तो शाम का खाना सोचते हैं, तुम तीनों को कैसे पालें? दस दिन में कोई ठिकाना देख लो, नहीं तो गांव के पादर पर भमरियो कुआं है ही.”

यह सुन कर बकुल के दिमाग़ में बिजली सी कौंध आई. उसे अरविंद की दरियादिली और निमुबा की परिस्थिति दोनों मालूम थीं. उसने नयना से कहा, “अगर तू तैयार हो तो निमुबा के साथ रह कर उनकी सेवा कर सकती है. मैं अरविंद से बात करूंगा, अगर वह मान जाए तो तेरा और तेरे बच्चों का ठिकाना बन जाएगा.”

नयना तो लाचार थी, उसने तुरंत हामी भर दी. बकुल ने फोन लगाया और पूरी बात अरविंद को समझा कर कहा, “गरीब नयना अगर निमुबा की सेवा करे तो दोनों का भला होगा."

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अरविंद ने सुनकर कहा, “मैं ख़ुद पांच-छह दिन में भारत आ रहा हूं.”

कुछ दिनों बाद अरविंद रतनपुर पहुंचा. उसने मां से बात की. निमुबा का स्वभाव तो ख़ुद अन्नपूर्णा जैसा था, गांव की एक दुखियारी बेटी अपने बच्चों के साथ उसके सान्निध्य में रहे, इसमें उन्हें क्या आपत्ति होती?

उन्होंने कहा, “भगवान ने मुझे बेटी का सुख नहीं दिया, अब नयना मेरे घर आ जाएगी तो बुढ़ापे में वही मिल जाएगा.”

अगले दिन अरविंद ने नयना को घर बुलवाया. बकुल भी साथ था.

अरविंद ने कहा, “यह मेरी मां हैं, अब तेरी भी मां हैं. मैं तो अमेरिका में रहूंगा, पर तू चौबीसों घंटे इनके साथ रहेगी. इन्हें किसी बात की तकलीफ़ नहीं होनी चाहिए. कोई ज़रूरत पड़े तो बकुलभाई हैं ही, दो घंटे में पहुंच जाएंगे. तेरे दोनों बेटे पढ़-लिखकर कमाने लगें, तब तक का सारा ख़र्च मैं उठाऊंगा. बदले में तू बेटी बन कर मेरी मां की सेवा करेगी.”

नयना कुछ बोल न सकी. उसकी आंखें नम थीं. वह झुक कर अरविंद के पैरों पर गिर पड़ी. अरविंद ने बैंक जा कर निमुबा और नयना के संयुक्त नाम से बीस लाख रुपए का सावधि खाता खुलवाया, ताकि हर महीने का ब्याज उनके ख़र्च में आता रहे.

पति की अकाल मृत्यु के बाद टूटी हुई नयना अब नई ऊर्जा के साथ जीवन की डोर थामे निमुबा की सेवा में लग गई. सात दिन रह कर अरविंद अमेरिका लौट गया.

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बकुल बीच-बीच में अहमदाबाद से आता-जाता रहा. अब नयना पूरे मन से निमुबा की सगी मां की तरह देखभाल करती थी. उसके दोनों बेटे भी उन्हें नानी कहने लगे थे.

बकुल ने आगे कहा, “यह घटना पंद्रह-सोलह साल पुरानी है. उस समय भगवान ने मुझे निमित्त बनाया था, यह मेरा सौभाग्य था. नयना की कहानी सुनते ही मुझे उपाय सूझा और अरविंद ने अद्भुत उदारता दिखाई. आज भी जब मैं रतनपुर जाता हूं तो निमुबा और नयना से मिलने ज़रूर जाता हूं.

नयना मुझे भी बड़े भाई की तरह सम्मान देती है. हवेली जैसी वह कोठी अब चकाचक रहती है. अरविंद अमेरिका में सुखी है और यहां उसकी मां व नयना अपने बेटों के साथ ख़ुशहाल हैं.

आज 80 साल की उम्र में भी निमुबा जोश से भरी हैं. बड़े लड़के ने बारहवीं में अच्छे अंक पाए तो निमुबा ने उसे मोटरसाइकिल दिलवाई. अब वह मैकैनिकल इंजीनियर बन गया है. छोटा बेटा धंधुका कॉलेज में कामर्स पढ़ रहा है.

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एक अभागिनी विधवा के जीवन में सुख का उजाला लाने में मैं जरिया बन सका, यही मेरे लिए सबसे बड़ी संतोष की बात है.”

बकुल सोनी जब सारी बात सुना रहे थे तो उनके कहे हर पात्र, हर दृश्य मानो मेरी आंखों के सामने सजीव हो उठे थे.

- वीरेंद्र बहादुर सिंह 

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Photo Courtesy: Freepik

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