“समय बदल रहा है यारों... वर्तमान राजनीति में महिला पत्रकारों की ही धूम है.” सुकांत के दिल की कड़वाहट मानो ज़ुबान पर आ गई थी. “साफ़-साफ़ क्यों नहीं कहते कि उसने हमारे शर्मा साहब को शीशे में उतार रखा है.” मदन ने व्यंग्य किया.
सुकांत आज ऑफ़िस जल्दी पहुंच गया था. कई लेखों की ‘प्रूफ़ रीडिंग’ जो करनी थी. दरअसल जिस दैनिक पत्र के लिए वो काम करता था, उसमें ‘आपकी सोच’ नाम से एक ‘कॉलम’ जोड़ा जाना था. इसके तहत बहुचर्चित मुद्दों पर आम लोगों के विचार प्रकाशित करने की योजना थी. पाठकों ने इस संदर्भ में कई पत्र भेजे थे और उन्हीं में उलझकर उसका पूरा समय निकला जा रहा था. संपादक दिनेश शर्माजी सुकांत को बहुत मानते थे, तभी तो यह महत्वपूर्ण दायित्व उसे ही सौंपा था. पर अकेले इतना तामझाम संभालना कठिन था, इसीलिए उसका हाथ बंटाने के लिए किसी सहायक की नियुक्ति करने की भी सोची थी दिनेशजी ने. सुकांत ने जेब से सिगरेट का पैकेट निकाला. उन काग़ज़ों में सिर खपाने से पहले, मानो तनाव को भी सिगरेट के साथ ही फूंक देना चाहता था. काग़ज़-पत्र अपनी मेज़ पर जमाकर वो काम शुरू करने ही वाला था कि शर्मा सर का विनोदी स्वर सुनाई पड़ा, “कहो गुरु, कैसी कट रही है?” सुकांत हड़बड़ाकर उठा. सामने शर्माजी किसी अपरिचित युवती के साथ खड़े थे. “जी, ठीक ही है.” वह थोड़ा झेंपते हुए बोला. “हम तुम्हारी सहायता के लिए साक्षी को ले आए हैं. आज से ये काम में तुम्हारी मदद करेंगी.” “थैंक यू सर... तब तो तेज़ी से हम अपना लक्ष्य पूरा कर सकेंगे.” “बहुत ख़ूब! डटे रहो इसी तरह... पर पहले इनसे मिलो, ये हैं साक्षी चंद्रा. राजनीति शास्त्र में एम. ए. हैं. फ़िलहाल पत्रकारिता में डिप्लोमा कर रही हैं और साक्षी, आप हैं सुकांत देसाई, हमारे सब एडिटर.” “नाइस टू मीट यू, साक्षीजी.” औपचारिकतावश उसके मुंह से निकला, बदले में साक्षी ने हाथ जोड़ दिए. तभी कुछ सोचकर उसने दिनेश से पूछा, “पर सर, ये यहां काम करेंगी तो अपनी पढ़ाई कैसे पूरी करेंगी?” “उसकी चिंता मत करो. इन्होंने ईवनिंग क्लासेज़ ज्वाइन कर रखी है.” “तब तो ठीक है.” कहते हुए सुकांत साक्षी को कनखियों से देखकर हंस दिया. उसको देख, वह भी हौले से मुस्कुरा उठी. सुकांत को रोमांच हो आया. किसी का सुहाना साथ हो, तो मेहनत-मशक्कत भी बोझ नहीं लगती. संपादकजी के जाते ही वह ढेरों सवाल पूछ बैठा था, ‘कहां पढ़ती हैं?... पढ़ाई के साथ नौकरी का विचार कैसे आया? दोनों कार्यों को एक साथ कैसे निभा सकेंगी? आदि... ’ साक्षी ने सहजता से उन सभी प्रश्नों का उत्तर दिया था. सुकांत को विश्वास हो गया था कि ‘मिस चंद्रा’ उसके लिए एक अच्छी सहायिका साबित होगी. पहले ही दिन दोनों ने मिलकर ढेर-सारा काम निपटा लिया. साक्षी की विद्वता और लगन से बहुत प्रभावित हुआ था सुकांत. धीरे-धीरे साक्षी उसके जीवन का अभिन्न अंग बनती चली गई. साथ काम करना, साथ-साथ चाय पीना और भोजन करना. दूसरे पुरुष सहकर्मी उन्हें ईर्ष्या से देखते. सुकांत भी फूला न समाता. इतना सब होते हुए भी न जाने क्यों साक्षी ने उसके और अपने बीच एक अदृश्य विभाजन रेखा खींच रखी थी, जिसका वो अतिक्रमण नहीं करने देती. बातचीत सदा मर्यादित ही रहती थी. जब भी सुकांत अपनी सीमा को लांघकर, उसके निजी जीवन में ताकझांक करना चाहता, वह चतुराई से बात को मोड़ देती. समय बीतता गया. साक्षी का व्यक्तित्व उसे बेहद रहस्यमय लगने लगा. पढ़ाई का बोझ वहन करते हुए भी वो कार्यालय का हर अनुबंध समय से पूरा करती. उसका कार्यकौशल तो निखरता ही जा रहा था. यहां तक कि सुकांत को भी उससे असुरक्षा महसूस होने लगी थी. सुकांत ने शिद्दत से महसूस किया कि उसकी सहायिका ही उसकी राह का कांटा बनने जा रही थी. पहला आघात उसको तब लगा, जब दिनेश सर ने संपादकीय टिप्पणी लिखने के लिए, उसे अनदेखा कर साक्षी का चयन किया. फिर तो एक के बाद एक ऐसी घटनाएं होती ही रहीं. तब उसके कलेजे पर सांप लोटता और पैरों के नीचे से ज़मीन सरकती हुई जान पड़ती. सुकांत देसाई की गिरती हुई साख दूसरे लोगों को भी नज़र आने लगी. एक दिन तो हद ही हो गई. ‘प्रचार विभाग’ से मदन और रवि चले आए उसके जले पर नमक छिड़कने के लिए. रवि बोला, “सुना है, नेताजी के इंटरव्यू के लिए मिस चंद्रा को भेजा जा रहा है.” “हां, सुना तो मैंने भी है.” सुकांत ने कुढ़ते हुए जवाब दिया. “पर इंटरव्यू के लिए तो हमेशा तुझे भेजा जाता था.” मदन ने चुटकी ली. “समय बदल रहा है यारों... वर्तमान राजनीति में महिला पत्रकारों की ही धूम है.” सुकांत के दिल की कड़वाहट मानो ज़ुबान पर आ गई थी. “साफ़-साफ़ क्यों नहीं कहते कि उसने हमारे शर्मा साहब को शीशे में उतार रखा है.” मदन ने व्यंग्य किया. “तभी तो संपादक महोदय चुपचाप कमरा बंद किए उसके साथ बैठे रहते हैं.” रवि अब नीचता पर उतर आया था. सुकांत को यह बात बहुत अटपटी लगी. उसे पता था कि रवि की बात निराधार थी, फिर भी वो उनकी अनर्गल हंसी में शामिल हो गया. हालांकि कहीं न कहीं उसकी आत्मा उसे कचोट रही थी, लेकिन पुरुष मानसिकता उस पर ऐसी हावी हुई कि भले-बुरे का ज्ञान नहीं रहा. एक स्त्री का आगे निकल जाना, दकियानूसी सोच को गवारा न हो सका. ‘कल की छोकरी’ पुरुष सत्ता को चुनौती देने चली थी, यह बात भला वे कैसे स्वीकार कर पाते! एक दिन यूं ही सब बैठे बतिया रहे थे. न जाने कब, साक्षी को मुद्दा बनाकर छींटाकशी की जाने लगी. शुरुआत मेहरा ने की, “खाते-पीते घर की लड़की है. कोई कमी नहीं. तब काहे को खटती है दिन-रात?” “अजी खटना काहे का! प्रोजेक्ट के बहाने शर्मा के साथ आवारागर्दी करती रहती है.” मदन ने अपना रंग दिखा ही दिया. अलबत्ता उसका अपना चरित्र कितना स्याह या स़फेद था, यह भी सब जानते थे. “वो सब हटाओ, उसकी उम्र की बात करो. तीस की हो गई है, पर ब्याह की कोई चर्चा ही नहीं.” छिछोरे वार्तालाप ने सुकांत को भी लपेटे में ले लिया था. “तूने उससे कहा नहीं अभी तक कि हुज़ूर... खड़े हैं हम भी राहों में, क्यों?” निरंजन दत्त ने रसिकता से आंख दबाते हुए पूछा. इस पर रवि ठठाकर हंसा, “वाह, क्या ख़ूब कही बॉस!” हंसी-ठट्ठे के बीच न जाने कब कैंटीन की संचालिका लता बेन आकर खड़ी हो गईं. सुकांत को लक्ष्य कर बोलीं, “औरों की जाने दें देसाई बाबू, आप कब से गॉसिप में शामिल होने लगे? एक शरीफ़ घर की लड़की के बारे में ऐसी बातें. छी... छी!” ये सुनकर सभी सकते में आ गए और चुपके से खिसकने लगे. लता बेन ने भवें टेढ़ी कीं और आख़िरी वार किया, “वैसे सुकांत बाबू, दूसरों की इतनी परवाह करने की बजाय अपने श्री भैया की शादी की चिंता करें. बत्तीस के तो हो ही गए होंगे. क्यों, है न?” सुकांत कटकर रह गया. लता बेन ने उसकी दुखती रग पर हाथ रख दिया था. बड़े भाई श्रीकांत शोधकार्य में ऐसे डूबे रहते थे कि विवाह उन्हें अपने रास्ते का रोड़ा जान पड़ता था. श्री भैया की ज़िद उसके भी ब्याह को स्थगित कर रही थी. मन में खटका हुआ. कहीं लता बेन ने पिताजी से उसकी चुगली कर दी तो? पिताजी कुछ बरस पहले इसी ऑफ़िस से रिटायर हुए थे और वे लता बेन के पुराने परिचितों में से एक थे. बड़ी मुश्किल से उस ख़याल को झटककर, अपने दिमाग़ से अलग कर पाया. लंच ब्रेक चल रहा था और साक्षी का कहीं अता-पता नहीं था. सुकांत ने ऊबकर कंप्यूटर ऑन कर दिया. सोचा, दोस्तों से ‘चैटिंग’ ही कर लेता हूं. पर भाग्य ने साथ नहीं दिया. इंटरनेट कनेक्ट नहीं हो पा रहा था. मन में आया, अब जब कंप्यूटर खोल ही दिया है तो कोई रचनात्मक कार्य कर लिया जाए. यूं भी अगले ह़फ़्ते कार्यालय में साहित्यिक गोष्ठी होनी थी. चलो, कुछ लिख मारते हैं. इसके पहले कि वो काम शुरू करता, उसकी निगाह एक नई फाइल पर पड़ी. लगता है ‘देवीजी’ ने कोई ताज़ा आर्टिकल तैयार किया है. ज़रा हम भी तो देखें. फ़ाइल खोलकर देखा तो आंखें खुली की खुली रह गईं. भोपाल त्रासदी पर बड़ा ही विचारोत्तेजक लेख था. लिखने के पहले विषय पर गहन शोध और मनन किया गया होगा, ऐसा जान पड़ता था. उसके मन में अनजाने ही एक दानव जाग उठा. कई दिनों से वह भी तो सोच रहा था इसी भांति कुछ लिखने को. पर कहां! यह लड़की तो उससे भी एक क़दम आगे निकल गई. उसके हाथों की कठपुतली, स्वयं अपनी सूत्रधार बनने चली थी. कुल मिलाकर यही कहा जा सकता था, ‘गुरु गुड़ ही रहे, चेला चीनी हो गया!’ ईर्ष्या के उन्माद में सुकांत कब उस फ़ाइल को डिलीट कर बैठा, उसे ख़ुद भी पता नहीं चला. थोड़ी देर बाद साक्षी आ गई. पहले तो डायरी में कुछ लिखती रही, फिर कंप्यूटर लेकर बैठ गई. लेख को ग़ायब पाकर वह विक्षिप्त-सी हो गई थी. बार-बार सर्च करने पर भी उसका अता-पता नहीं मिला, तो आंखों को छलकने से रोक न सकी वो. “क्या हुआ साक्षीजी?” सुकांत ने नकली सहानुभूति जताते हुए पूछा. “मेरा एक आर्टिकल मिसिंग है सुकांतजी. आज ही छपने के लिए देना था. मैंने प्रॉमिस किया था शर्मा सर से. पर अब...” “फिकर नॉट! हम किस मर्ज़ की दवा हैं? फटाफट लिखवा देते हैं. आप बस बता दें कि विषय क्या है?” सुकांत अब दूसरा ही नाटक खेलने लगा था. “सो नाइस ऑफ़ यू सर... पर इस लेख के लिए बहुत से डेटा की ज़रूरत है. मैं ही कोशिश करती हूं याद करने की कि मैंने उसमें क्या लिखा था.” तब शायद मिस चंद्रा को सुकांत ही सबसे बड़ा शुभचिंतक लगा होगा. उसकी ख़ुराफ़ात से अनजान वो जुट गई नए सिरे से अपने विचारों को आकार देने में. इंटरनेट से कुछ आंकड़े जुटाकर किसी भांति काम निपटा ही लिया था उसने. पर सुकांत मन ही मन हंस रहा था. चंद घंटों में भला क्या लिख पाई होगी? महज़ खानापूर्ति की होगी. अब देखते हैं कि जनाब शर्मा इसकी तारीफ़ों के पुल कैसे बांधते हैं? पर अगले ही दिन उसकी उम्मीदों पर पानी फिर गया. साक्षी के उस लेख को बहुत सराहा था दिनेशजी ने.

विनीता शुक्ला
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