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गीत- तन्हाई का ज़ख़्म (Geet- Tanhai Ka Zakham)

तन्हाई का ज़ख़्म
ज़ख़्म कोशिश दर कोशिश बढ़ता गया
ज्यों-ज्यों मैं तन्हाइयों से लड़ता गया
एक अनदेखी सी दौड़ लगी है हर कहीं
दौड़ते-दौड़ते मैं घर में ही पिछड़ता गया
किसी मुनासिब ख़त की ख़ातिर
मैं हर हवा का झोंका पढ़ता गया
मैंने तुझे एक क्षितिज समझकर
तेरी ओर चलता गया तेरी ओर चलता गया
आग के बीच कोई माकूल माहौल हो
यही देखने मैं सच के अंगार निगलता गया
हर शख़्स बस एक सांप की तरह,
ज़िंदगी की बीन पर इधर-उधर मुड़ता गया
ज़िंदा रहने के ऐवज़ में शर्त हमें ऐसी मिली
कि मैं रोज़ ही सूली उतरता-चढ़ता गया
‘बैरागी‘ किसी मखमली राह की उम्मीद में
बस कांटों से ही वास्ता बढ़ता गया
अमित कुमार
मेरी सहेली वेबसाइट पर अमित कुमार की भेजी गई कविता को हमने अपने वेबसाइट के गीत/ग़ज़ल संग्रह में शामिल किया है. आप भी अपनी गीत, ग़ज़ल, लेख, कहानियों को भेजकर अपनी लेखनी को नई पहचान दे सकते हैं…
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