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कहानी- यादें (Story- Yaaden)

हम किसी ग़लत राह पर चल पड़ें, उससे पहले दिशा बदल लेना बहुत ज़रूरी है. ऐसे संबंध अहं को तृप्त कर सकते हैं, कुछ समय के लिए जीने का सबब भी बन सकते हैं, लेकिन कभी न कभी अपराधबोध से ग्रसित करते ही हैं अनुराधा. समाज द्वारा बनाए नियम किसी कारण से बने हैं. हमें लगता है कि वे हमारी इच्छाओं का दमन करते हैं, हमें अपनी मर्ज़ी से नहीं जीने देते, पर वही समाज को उच्छृंखल बनाने से रोके हुए भी हैं.

यादों द्वारा हम अपनी ज़िंदगी के कुछ विशेष लम्हों को जीवित रखते हैं, जीवित भी और नूतन भी. समय के लंबे अंतराल के पश्‍चात् भी यूं लगता है, जैसे कल ही की बात हो. इन यादों से जुड़े व्यक्ति कभी अतीत का हिस्सा नहीं बनते, वे सदैव हमारे संग ही रहते हैं. बरसों बीत गए दिवाकर से मिले, पर आज भी यूं लगता है, जैसे वह मेरे आसपास ही मौजूद है- मेरी ज़िंदगी का एक अटूट हिस्सा बनकर. स्कूल यूनीफॉर्म के छूटते ही अनेक प्रतिबंध पीछे छूट गए थे. कॉलेज का प्रांगण आज जैसा स्वच्छंद न होकर भी स्कूली जीवन से बहुत भिन्न था. संस्कारों की दीवार, मर्यादाओं की लक्ष्मण रेखाएं सब सलामत थीं, पर कुछ था, जो बदल गया था, जो अच्छा लग रहा था. आकाश अधिक विस्तृत, धरती का दामन अधिक विशाल लगने लगा था. कक्षा का बहिष्कार कर फ़िल्म देखने न भी गए हों, लेकिन कभी-कभी ग़ैरज़रूरी-सी लगनेवाली क्लास छोड़ कैंटीन में बैठ कॉफ़ी तो पी ही लेते थे हम. इसी कैंटीन में मेरा दिवाकर से परिचय हुआ था, जो धीरे-धीरे ज़्यादा बढ़ गया था. मुझसे एक ही वर्ष सीनियर था वह. देखने में साधारण, पर मृदु,  कोमल व भावपूर्ण आंखें. जब वह अपनत्व से देखता, तो नज़रों से छू लेने सा एहसास होता. मज़ाक में कहता, “कैसी मीठी आवाज़ है तुम्हारी, सुबह मिश्री का घोल पीकर आती हो क्या?” और फिर बिना उत्तर की प्रतीक्षा किए कोई दूसरी बात छेड़ देता. न मुझे स्वीकृति में धन्यवाद देने की ज़रूरत होती और न ही नाराज़गी दिखाने की मोहलत ही मिलती. यौवन की दहलीज़ पर खड़ी, लड़कपन अभी बाकी था मुझमें और प्यार-मोहब्बत जैसे भारी-भरकम शब्दों से दूर ही थी मैं. चाहो तो मैत्री ही कह लो इसे. छात्रावास में रहने के कारण परेशानियां बांटनेवाला घर का कोई नहीं था, सो ज़रूरत पड़ने पर भावनात्मक संबल तलाशने उसी के पास जाती थी मैं. कभी कॉलेज में देर हो जाने पर मुझे हॉस्टल तक छोड़ देता. बस, इससे अधिक कुछ नहीं. अब सोचती हूं कि कभी उसने अधिकारपूर्वक कुछ कहा होता, जवाब मांगा होता, तो कितनी अलग होती मेरी कहानी! बीस वर्ष की होते ही माता-पिता ने अपनी इच्छानुसार मेरा विवाह तय कर दिया. आज की पीढ़ी शायद समझ ही न पाए उस माहौल को, जिसमें हम ब़ड़े हुए थे. विवाह तय करते समय लड़की की पसंद-नापसंद की बात तो दूर, यह जानने की कोशिश भी नहीं की जाती थी कि वह अभी विवाह करना चाहती भी है या नहीं. बहरहाल ख़ुशियों की उम्मीद लिए मैंने अपने नए जीवन में प्रवेश किया और उम्मीद तो सभी करते हैं न ख़ुुशियों की! सभी की उम्मीदें पूरी हो जाती हैं क्या? और हो सकती हैं क्या? लोगों की दृष्टि में यदि पति अपने व्यवसाय को पूरी तरह समर्पित है, तो यह उनके गुणों की श्रेणी में आता है, पर मेरे लिए क्या बच गया था जीवन में? पति ने पहले ही दिन बता दिया था कि घर में शिशु की किलकारियां गूंजने की कोई संभावना नहीं, जबकि मुझे अपनी किशोरावस्था से ही बच्चों से बेहद लगाव था. आस-पड़ोस के बच्चों को उठा लाती और घंटों उनके संग खेला करती. अपने माता-पिता के दबाव में आकर ही विवाह किया था इन्होंने और अब इसकी पूरी ज़िम्मेदारी अपने माता-पिता पर डाल किसी भी प्रकार की आत्मग्लानि से भी पूर्णतः मुक्त थे वे. बहुत बड़ी अपेक्षाएं नहीं थीं मेरी ज़िंदगी से. बस, एक सामान्य इंसान की तरह मैं ज़िंदगी को भरपूर जीना चाहती थी और इन सबसे बढ़कर मैं मां बनना चाहती थी. मुझे किसी चीज़ की कमी नहीं थी. पहनने-ओढ़ने और खाने को भरपूर था घर में, पर न कोई पहना देखनेवाला और न कोई खिलानेवाला. हर दिन के अंत में यही लगता, ‘चलो एक दिन और कट गया’. सब सुविधाओं के बावजूद भावनात्मक कोने सभी खाली थे मेरे मन के. समय को तो गुज़रना ही होता है, सो वह गुज़र रहा था. हम मनुष्यों के दुख-दर्द से सरोकार रखना वैसे भी समय का स्वभाव कभी रहा ही नहीं है. पढ़ने का शौक़ तो मुझे पहले से ही था और अब तो पुस्तकें ही मेरी एकमात्र संगिनी बन गई थीं. बाहर न निकलने के कारण दोस्ती भी कम ही लोगों से थी. अतः दिन का अधिकांश समय कुछ न कुछ पढ़ती रहती. शहर में हर वर्ष पुस्तक मेला लगता, सो वहीं से मैं अपनी पसंद की ढेर सारी पुस्तकें ख़रीद लाती. ज़िंदगी का रास्ता ऐसा सपाट नहीं होता, जिसमें दूर तक देखा जा सके. अनेक अंधे मोड़ होते हैं इसमें, कभी भी कहीं भी मुड़ जाती है ज़िंदगी- बिना किसी पूर्व चेतावनी के. मेरी नीरस उदास ज़िंदगी में भी कोई मोड़ आ सकता है, ऐसा मैंने कब सोचा था? पुस्तक मेला आरंभ हुआ, तो सदैव की भांति मैं इस वर्ष भी गई. यही एक जगह थी जहां चाहकर भी पति आपत्ति नहीं कर पाते थे. अपनी पसंद की पुस्तकें ख़रीद मैं कुछ नव प्रकाशित काव्य संग्रह देख रही थी कि मैंने महसूस किया कि कोई मेरे समीप आकर खड़ा हुआ है. लेकिन मैंने उधर ध्यान नहीं दिया. सहसा उसने मुझे मेरे नाम से पुकारा ‘अनुराधा’, वह नाम जिसे मैं लगभग भूल ही चुकी थी और जिस नाम के साथ ही मेरी पूरी पहचान, मेरी अस्मिता कहीं बहुत पीछे छूट चुकी थी. अब मैं स़िर्फ श्रीमती जैन थी- राजीव जैन की पत्नी. अतः मुझे कुछ समय लगा यह चेत आने में कि मुझे ही संबोधित किया गया है. यह भी पढ़ें: 21 जून, अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस पर विशेष- सेलिब्रिटीज़ योगा सीक्रेट्स पूरे पंद्रह वर्ष पश्‍चात् देख रही थी उसे- फिर भी कितना अपना-सा लगा था वह. पूरा एक कालखंड ही बीत चुका था, पर कुछ था जो आज भी वहीं रुका हुआ था इंतज़ार में, बिजली के किसी तार की तरह, जो मौक़ा पाते ही फिर से जुड़कर जीवंत हो उठा था. हमने पुस्तक मेले का एक और चक्कर लगाया और उसके साथ ही बीत चुके वर्षों का भी. मेले से बाहर निकल हम ढलती दोपहरी में बैठे भुने चने-मूंगफली खाते रहे और बातें करते रहे. बातें थीं, जो ख़त्म ही नहीं हो रही थीं- पुरानी यादों का अंतहीन सिलसिला. कितनी अजीब बात है न कि पंद्रह वर्ष के वैवाहिक जीवन में याद करने लायक, याद करके ख़ुुश होने लायक एक भी बात नहीं थी मेरे पास. जबकि कॉलेज के तीन वर्ष अनेक यादों का भंडार थे, जिनकी चर्चा मात्र से ही मन प्रफुल्लित हो उठा था. शहर में होनेवाले सांस्कृतिक कार्यक्रमों में दिवाकर अक्सर ही जाया करता. नाटकों का मंचन, कवि सम्मेलन, मुशायरा, कला दीर्घाएं, पुस्तकों का विमोचन- मेरी भी इन सब में रुचि थी, लेकिन पति को ये सब समय की बर्बादी लगते थे और मैं मन मसोसकर रह जाती. पर अब मैंने निश्‍चय किया कि अच्छा कार्यक्रम होने पर अवश्य जाया करूंगी. शुरू में इन्होंने मेरे अकेले बाहर जाने पर आपत्ति की, तो मैं कभी बहन, कभी किसी सहेली को पकड़ ले जाती, पर धीरे-धीरे मेरे भीतर आत्मविश्‍वास आने लगा और मैं अकेली ही जाने लगी. मैंने दिवाकर से सायास मिलने का कार्यक्रम कभी नहीं बनाया, पर इन जगहों पर प्रायः उससे मुलाक़ात हो ही जाती. हम कभी पढ़ी हुई पुस्तक पर चर्चा करते, तो कभी देखे हुए नाटक पर. ऊपरी तौर पर सब कुछ सामान्य था, कुछ भी तो अनुचित नहीं हो रहा था, लेकिन यदि मैं कहूं कि मैं उसकी ओर आकर्षित नहीं हो रही थी, तो यह सत्य नहीं था. वर्षों से उपेक्षा सहता मेरा मन दिवाकर का अपनत्व पाकर पिघलने लगा था. प्यार पाने और प्यार देने की भूख व्यक्ति की नैसर्गिक भूख है, हो सकता है मुझमें कुछ अधिक ही हो. मैंने ख़ुद को रोकने की बहुत कोशिश की, पर पानी के तेज़ प्रवाह में जैसे बेकाबू हो बहता ही चला जा रहा था मेरा मन. मेरे पास अपने वैवाहिक जीवन में प्राप्त ख़ुशियों के वे चंद स्तंभ भी तो नहीं थे, जिन्हें मज़बूती से पकड़ मैं ख़ुद को बहने से रोक पाती. संस्कारों की अदृश्य दीवारें भी बस अदृश्य ही रह गईं. विधाता ने ग़लती से मेरे भीतर एक की जगह दो मन रख दिए थे क्या? पहला जब तर्क करता कि यह अनुचित है, पागलपन है, तो दूसरा प्रश्‍न करता ‘मुझे ख़ुुशियां पाने के लिए एक और जीवन मिलेगा क्या?’ पहला जब सही-ग़लत की पहचान कराता, दिवाकर से मिलने पर चेतावनी देता, तो दूसरा उसकी बात पूरी तरह से अनसुनी कर अपने ही मन की करता. जीवन के उस मोड़ पर पहली बार जाना कि क्या होती है प्यार की अनुभूति? कितना सुखद होता है एक ऐसे व्यक्ति का साथ, जो कई स्तरों पर आपसे जुड़ा हो? पहली बार जाना कि प्यार वह शय है जिसे महसूस ही किया जा सकता है, पारिभाषित नहीं. उस दिन कालीदास जयंती के अवसर पर उनके प्रसिद्ध नाटक ‘अभिज्ञान शाकुन्तलम्’ का मंचन था. दिवाकर भी आया हुआ था और संयोग से हम साथ-साथ ही बैठे थे. अति कुशल अभिनय ने पात्रों को एकदम सजीव बना दिया था. गंधर्व विवाह का दृश्य देख मैंने कहा, “उस समय की स्त्री को अपना वर स्वयं चुनने का, बिना माता-पिता की अनुमति के विवाह तक कर लेने का अधिकार था. स्त्री की अस्मिता का सम्मान किया जाता था. इतनी छूट तो आज भी बहुत कम युवतियों को है. पिता कण्व ऋषि के लौट आने की प्रतीक्षा तक नहीं की शकुन्तला ने, पर न स़िर्फ इस विवाह को स्वीकारा गया, बल्कि उनकी संतान को भी पूरा सम्मान मिला. भरत राजा बने और उनकी पीढ़ियों ने शासन किया. आज के माता-पिता कितना भी आधुनिक होने का दावा कर लें, उनमें से अधिकांश बेटियों का भविष्य तय करना आज भी अपना ही  अधिकार समझते हैं.” यह भी पढ़ें: मोटापा कम करने के १० योगासन वर्षों से दबी मां बनने की मेरी इच्छा एक बार फिर बलवती हो उठी. किसी के प्यार का बीज मेरी कोख में पले, मेरी गोद में खेले बस इतना ही तो चाहा था मैंने और मेरा हाथ पासवाली कुर्सी पर बैठे दिवाकर के हाथ पर जा पड़ा. शायद मैंने उसे हल्के-से दबा भी दिया. सब कुछ पलभर में ही हो गया. सच मानो! सच यह भी है कि वही हमारा एकमात्र स्पर्श था. महाभारत की एक कथानुसार बालक देवव्रत अपनी तीव्र बाण वर्षा द्वारा गंगा की धारा रोक पाने में सक्षम थे. वही देवव्रत, जो बाद में भीष्म पितामह कहलाए. मेरे उद्वेग, मेरे प्रेम के प्रवाह को दिवाकर ने रोका था- देवव्रत बनकर. ‘अभिज्ञान शाकुन्तलम्’ देखे बहुत दिन बीत चुके थे. उस दिन के बाद से दिवाकर से मुलाक़ात नहीं हुई थी. स्वयं पर अभी भी इतना अनुशासन रखा हुआ था कि न तो मैं उसे फ़ोन करती, न ही उससे ऐसी अपेक्षा ही रखती. हालांकि इस बार मैं बहुत व्याकुल हो रही थी उससे बात करने के लिए और अगले किसी कार्यक्रम की प्रतीक्षा में थी, लेकिन उससे पहले दिवाकर का फ़ोन आ गया. कॉफ़ी हाउस में बुलाया था. मेरे मन की मुराद पूरी हो गई, पर थोड़ा भयभीत भी थी, क्योंकि इस तरह पहले कभी नहीं मिले थे हम. जब मैं पहुंची, तो दिवाकर पहले से ही वहां बैठा मेरी प्रतीक्षा कर रहा था. मैं सामने वाली कुर्सी पर जाकर बैठ गई, लेकिन उसने कोई प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की. काफ़ी देर के पश्‍चात् गहन समाधि से मानो जागकर उसने पूछा, “कैसी हो राधा?” उसने टटोलती निगाहों से मेरी ओर देखा, तो एक बार फिर निगाहों द्वारा छू लेने का मृदु एहसास महसूस किया मैंने, किंतु उस नज़र में कुछ और भी था- उदासी? पर वह किसलिए? मैं कुछ कह पाती, इससे पूर्व ही उसने कहा, “तुमसे एक ज़रूरी बात करनी थी अनु... मैंने अपना यहां से तबादला करवा लिया है... मुझे लगता है यही हम दोनों के हित में है...” मैं बेचैन हो गई उसकी बात सुनकर. उसने मेरी उत्तेजना भांप ली थी. उसने हाथ से मुझे शांत हो जाने का इशारा किया मानो मेरे उद्वेग को हथेली से ही रोक लेगा. बोला, “मैं समझ रहा हूं तुम्हारे मन को और तभी ऐसा किया है. हम केवल मित्र बनकर रह सकते, तो बात अलग थी, पर लगता नहीं कि ऐसा हो पाएगा. हम किसी ग़लत राह पर चल पड़ें, उससे पहले दिशा बदल लेना बहुत ज़रूरी है. ऐसे संबंध अहं को तृप्त कर सकते हैं, कुछ समय के लिए जीने का सबब भी बन सकते हैं, लेकिन कभी न कभी अपराधबोध से ग्रसित करते ही हैं अनुराधा. समाज द्वारा बनाए नियम किसी कारण से बने हैं. हमें लगता है कि वे हमारी इच्छाओं का दमन करते हैं, हमें अपनी मर्ज़ी से नहीं जीने देते, पर वही समाज को उच्छृंखल बनाने से रोके हुए भी हैं.” लंबा अरसा बीत चुका है उस मुलाक़ात को. अच्छा हुआ मैं अपने मन की बात उस समय स्पष्ट रूप से दिवाकर से कह नहीं पाई. क्या सोचता वह मेरे बारे में? दिवाकर के सुलझे-संयत व्यवहार ने मेरे उन्माद पर रोक लगा दी थी. उस समय तो मैं बहुत हताश हुई थी, पर अब उससे उबर चुकी हूं मैं. उन्मादी लहरें एक बार फिर जाकर सागर में विलीन हो गई हैं. आजकल मैं बहुत व्यस्त रहती हूं. हरदम बच्चों से घिरी हुई. किसी की मां-सी हूं और किसी की मौसी. अपना पूरा खाली समय एक अनाथाश्रम में बिताती हूं. उन बच्चों के खिले चेहरे मुझे पूर्णतः तृप्त कर देते हैं. आवश्यक तो नहीं कि स़िर्फ अपनी कोख से जन्मे बच्चों पर ही प्यार उड़ेला जाए. जो बच्चे अपने नैसर्गिक प्यार से वंचित रह जाते हैं, बिना किसी क़सूर के, उनमें प्यार बांटकर, उनके उदास चेहरों पर मुस्कुराहट लाकर जीवन परिपूर्ण हो गया है मेरा. दिवाकर ने कहा था, “अपनी इच्छानुसार जीने को तो किसी को नहीं मिलता अनु. मुझे मिला क्या? पर जीवन वह नहीं है, जैसा जीने की हम कल्पना करते हैं, जैसा हम जीना चाहते हैं. जीवन वह जीना होता है, जैसा हमें मिलता है. उसमें सुंदर रंग भरकर हम कितना संवार पाते हैं, यह हम पर निर्भर करता है. सांस लेने भर को जीना नहीं कहते अनु. जीवनदाता का अपमान है यह. समय काट देनेवाली सोच बहुत घातक सोच है. हर पल का सार्थक उपयोग करके जियो राधा.” हां! वह कभी मुझे अनु बुुलाता था और कभी राधा. दिवाकर की यादों का उजास मेरे मन को ठीक उसी तरह आलोकित किए है, जैसे किसी मंदिर के गर्भगृह में निरंतर जलती एक लौ. वर्षों बीत गए उससे मिले, उसे देखे. यह भी नहीं जानती कि वह रहता कहां है? पर उसकी उपस्थिति का एहसास हर पल अपने आसपास महसूस करती हूं मैं. इस रिश्ते को क्या नाम दूं? नहीं जानती.         उषा वधवा

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