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कविता- तीन तलाक़ एक अभिशाप! (Kavita- Teen Talak Ek Abhishap)

Kavita Teen Talak Ek Abhishap गड़ा हुआ सीने पे कब से पत्थर तीन तलाक़ का क्यों नहीं गिरने देती तुम, पाखंड निरे नकाब का बुरखे के भीतर से दो आंखें करती रही सवाल बेमोल हो गया है जीवन सारा, कर लो अब ख़्याल जिसने छीन ली आज़ादी तेरी, तुझको औरत जान क्यों करती हो ऐसे पाखंडी मौलवियों का मान आगे आओ बोलो जूझो, कर लो ख़ुद को आज़ाद तुम भी तो भारतवासी हो, छेड़ो गहन गरजता नाद गूंज उठे सारे जग में, मांगों हर औरत का मान सबक सीखा दो उनको, भूले तीन तलाक़ का मान... कंचन देवड़ा मेरी सहेली वेबसाइट पर कंचन देवड़ा की भेजी गई कविता को हमने अपने वेबसाइट के गीत/ग़ज़ल संग्रह में शामिल किया है. आप भी अपनी शायरी, गीत, ग़ज़ल, लेख, कहानियों को भेजकर अपनी लेखनी को नई पहचान दे सकते हैं… यह भी पढ़े: Shayeri  

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