वस्त्रहरण
दौपदी का, हुआ था युगों पहले
धृतराष्ट्र के
द्यूत क्रीड़ागृह में
युगों के प्रवाह में नष्ट नहीं हुआ वो
द्यूत क्रीड़ागृह
अपितु इतना फैला
इतना फैला कि आज समूचा देश ही
बन गया है
द्यूत क्रीड़ागृह
दाँव पर लगती है
हर मासूम लड़की की ज़िंदगी
जिसने किया है गुनाह
सपने देखने का
किया है गुनाह
युगों के संवेदनहीन अंधत्व पर हंसने
और
अपनी शर्तों के साथ आत्मनिर्भर जीवन जीने का
युगों पहले कहा था
भीष्म ने सिर झुकाकर अग्निसुता से
धर्म की गति अति सूक्ष्म होती है पुत्री
नहीं है प्रावधान
धर्म में
रोकने का दुःशासन के हाथ
और मैं हूँ बंधा धर्म के साथ
विवश हूँ, क्षमा करो
और आज फिर वही
अनर्गल, नपुंसक विवशता
क़ानून की
मैं विवश हूँ, बंधा हूँ क़ानून के साथ
नहीं रोक सकता किसी नाबालिग के हाथ
पिंजरे में हैं मेरे अधिकार
और
वो है स्वतंत्र करने को, नृशंसता के सभी हदें पार
अभिभावकों, मंच पर आओ
‘ओ री चिरैया’ के गीत गाओ,
और दो आँसू बहाकर
घर जाकर
अपने आँगन की चिरैया के पर कतरकर
कर दो उसे पिंजरे में बंद
क्योंकि हम हैं विवश
अपराधियों को सड़कों पर
विचरने देने को स्वच्छंद
तो क्या
इक क्रांति युग में लाने की
सैलाब दिलों में उठाने की
अथक यात्रा ख़त्म हुई?
टूटी सारी आशाएँ?
मिट गए सभी भ्रम?
नहीं, नहीं, हम अग्निसुता, हम भैरवी
हम रणचंडी, हम माँ काली
हम इतने कमज़ोर नहीं
अभी नहीं मिटा है एक हमारा
उस परमशक्ति पर दृढ़ विश्वास
सह लेंगे हम उसी भरोसे
और कुछ वर्षों का वनवास
बाधा, विघ्नों में तप-तपकर
आत्मशक्ति को और प्रखरकर
पाएंगे हम पात्रता
हो उस महाशक्ति के हाथ हमारे रथ की डोर
फिर जोड़ेंगे महासमर
फिर होगा विप्लव गायन
देंगे फिर युग को झकझोर
शर शैया पर लेटेगा ही
इक दिन ये जर्जर क़ानून
मिटाने को अंधी संवेदनहीनता
जब होगा हर इक दिल में जुनून
लचर न्याय व्यवस्था को
जगत से जाना ही होगा
हम सबको संगठित तपस्या कर
नवयुग को लाना ही होगा…
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