फिल्म- भुज: द प्राइड ऑफ इंडिया
कलाकार- अजय देवगन, संजय दत्त, शरद केलकर, सोनाक्षी सिन्हा, नोरा फतेही, एमी विर्क, महेश शेट्टी
निर्देशक- अभिषेक दुधैया
रेटिंग- **
देशभक्ति पर कई फिल्में बनी है, कुछ यादगार रहे हैं, तो कुछ ने अपनी गहरी छाप छोड़ी और लोगों को प्रभावित किया. इसी फ़ेहरिस्त में है अजय देवगन की फिल्म भुज- द प्राइड ऑफ इंडिया. यह साल 1971 भारत-पाकिस्तान के बीच हुए युद्ध के समय की ख़ास घटना, जब कच्छ भुज की हवाई रनवे को पाकिस्तानी वायुसेना द्वारा नष्ट कर दिया गया था पर आधारित है. तब माधापुर गांव की तीन सौ महिलाओं ने मिलकर तीन दिन के अंदर उस हवाई पट्टी को ठीक करके बनाया था. फिल्म का केंद्र बिंदु यही है. सभी कलाकारों द्वारा उम्दा अभिनय करने और एक अच्छे विषय के होने के बावजूद कुछ तकनीकी यानी टेक्निकल कमियों के कारण फिल्म इतनी अच्छी नहीं बन पाई, जितना बन सकती थी.
अजय देवगन की फिल्मों से लोगों को ख़ास उम्मीद रहती है. ख़ासकर कुछ बढ़िया देखने की, फिर चाहे वो कॉमेडी हो, देशभक्ति हो या फिर चाहे कोई गंभीर विषय ही क्यों ना हो, दर्शक पसंद करते हैं. लेकिन इस बार अजय भी फिल्म को संभाल नहीं पाए.
साल 1971 के आठ दिसंबर को पाकिस्तान के साब्रे जेट्स ने 14 नापालम बम भारत के भुज स्थित एयरफोर्स बेस पर गिराए थे. इन धमाकों से भारतीय सेना का रनवे बर्बाद हो गया था, जिसके चलते सारे हवाई ऑपरेशंस में बाधा आ गई. पाकिस्तान की तरफ़ से किया गया दूसरा हमला इतना ख़तरनाक था कि भारतीय सेना को बीएसएफ (बॉर्डर सेक्योरिटी फोर्स) से मदद लेनी पड़ी थी. पाकिस्तान ने भुज हवाई अड्डे पर जो एयर स्ट्राइक किया था, इससे भुज का रनवे बर्बाद हो गया था. पाकिस्तान से लड़ने और उसे करारा जवाब देने के लिए इस हवाई पट्टी का ठीक होना बहुत ज़रूरी था, वरना वायुसेना की मदद नहीं मिल सकती थी. विश्वसनीय सूत्रों से पता चला कि पाकिस्तान एक बार फिर अपने अट्ठारह सौ सैनिकों के साथ हमला करनेवाला और यहां भुज के हवाई अड्डे पर मात्र 120 जवान थे. ऐसे में भुज एयरबेस के इंचार्ज स्क्वॉड्रन लीडर विजय कार्णिक जिसकी भूमिका अजय देवगन निभा रहे हैं, बेहद परेशान हो जाते हैं. आख़िर कैसे दुश्मनों का मुक़ाबला किया जाए. तब वे इसके लिए भुज के क़रीब माधापुर गांव के स्थानीय लोगों से मदद मांगते हैं. इसमें उनकी मदद करती हैं सुरेंदरबन जेठा माधरपाया, जिसकी भूमिका में सोनाक्षी सिन्हा है. पहले थोड़ी ना-नुकर के बाद वहां के लोग मान जाते हैं. पर समस्या यह भी थी कि गांव के अधिकतर पुरुष कमाने के लिए बाहर गए हुए रहते हैं, तो केवल महिलाएं, बुज़ुर्ग और बच्चे ही हैं. सोनाक्षी के समझाने पर सभी स्त्रियां मदद करने तैयार हो जाती हैं. दिन-रात एक करते हुए 72 घंटे में हवाई पट्टी को बना देती हैं, जो काबिल-ए-तारीफ़ है. उस समय यह घटना काफ़ी सुर्ख़ियों में रही थी. इसी वजह से भारतीय वायुसेना को पाकिस्तानियों को खदेड़ने में मदद मिली थी. भारत यह युद्ध जीता था, जिसके बाद बांग्लादेश का जन्म हुआ.
जहां तक सवाल है इस असली घटना में कई चीज़ों का योगदान रहा था, जैसे- महिलाओं ने उस पूरी जगह को गोबर से लिप दिया था, ताकि पाकिस्तानी अगर देखें, तो उन्हें दिखाई ना दे. ऐसी छोटी-छोटी कई बातें थी, जो फिल्म में दिखाई नहीं गई है. वैसे भी फिल्म की शुरुआत होने से पहले ही इस बात की घोषणा कर दी गई थी कि यह फिल्म भुज की उस घटना से प्रेरित है, लेकिन बाकी कई चीज़ें फिल्मों के हिसाब से बनाया गया है.
अजय देवगन विजय कार्णिक की भूमिका में प्रभावित करते हैं. वैसे भी किसी ऑफिसर की भूमिका में वे बेहद जंचते हैं. उनकी पर्सनैलिटी पर ये भूमिकाएं शानदार लगती हैं. अजय फिल्म की जान है. संजय दत्त ने रणछोड़दास पग्गी की भूमिका निभाई है, जो एक जासूस है और भारतीय सेना की मदद करता है. उसमें इतनी काबिलियत है कि वह रेत में पैरों के निशान देखकर समझ सकता है कि यहां से भारतीय सेना गुजरी थी कि पाकिस्तानी सेना. संजय दत्त की काबिलियत को यहां पर अलग ढंग से दर्शाया गया है और उन्होंने भी अपनी भूमिका के साथ न्याय किया है. एक दूसरी जासूस के रूप में नोरा फतेही भी हैं. नोरा भारतीय जासूस बनकर पाकिस्तानी कमांडर के घर में होनीवाली मीटिंग्स के बारे में भारत की इंटेलिजेंस एजेंसी को ख़बरें देती रहती हैं. नोरा के भाई को पाकिस्तानी सेना ने मार दिया था. वे देश की सेवा करने के साथ पाकिस्तानी फौज से अपने भाई की मौत का प्रतिशोध भी लेना चाहती है.
सोनाक्षी सिन्हा की एंट्री ज़बर्दस्त है, जब वे तेंदुए को मार गिराती हैं. सोनाक्षी का एक्सप्रेशन लोगों को वैसे ही प्रभावित करता रहा है. इस फिल्म में उन्होंने गुजराती स्त्री की भूमिका बख़ूबी निभाई है. एमी विर्क ने फ्लाइट लेफ्टिनेंट विक्रम सिंह बाज की भूमिका के साथ न्याय किया है और वे अपनी छाप छोड़ने में सफल रहे. शरद केलकर मिलिट्री अफसर आर. के. नायर के रोल में ख़ास अंदाज़ में नज़र आते हैं और प्रभावित करते हैं.
फिल्म की कहानी-पटकथा चार लोगों ने मिलकर लिखी है, जिसमें निर्देशक अभिषेक दुधैया के अलावा रितेश शाह, रमन कुमार, पूजा भावोरिया हैं. पर फिर भी वह बात नहीं बन पाई. निर्देशक अभिषेक दुधैया की यह पहली फिल्म होने के बावजूद उन्होंने कुछ दृश्य को छोड़ दिया जाए, तो उनका निर्देशन औसत दर्जे का ही रहा. जबकि वे टीवी सीरियल के काफी जाने-माने निर्देशक रहे हैं. लेकिन फिल्म के मामले में वे अपनी पहली कोशिश में उतने कामयाब नहीं रहे.
गाने भी ठीक-ठाक ही हैं. गांव की स्त्रियों के सामने सुनाई गई कविता बढ़िया है. लेकिन मराठी नायक पर पंजाबी गाना फिल्मकार किरकिरी कर डाली. क्लाइमेक्स में बजनेवाला गाना बचकाना लगता है. कह सकते हैं कि एक अच्छे विषय पर बेहतरीन फिल्म बन सकती थी.