किसी भी प्रकार के गर्भनिरोधक के बिना एक साल तक प्रयास करने के बाद भी गर्भधारण करने में अक्षमता को बांझपन या वन्ध्यत्व कहा जाता है. भारत में क़रीबन 10-15% जोड़ों को बांझ पाया गया है. शादी के बाद जब भी किसी जोड़े को बच्चा नहीं हो पा रहा हो, तब उसके लिए महिला को दोषी मानने की प्रवृत्ति समाज में बड़े पैमाने पर पाई जाती है. प्रसूति, बच्चों के पालन-पोषण को मां की ज़िम्मेदारी मानने की प्रथा के कारण बांझपन की ज़िम्मेदार भी महिला को ही मानने की परंपरा पुराने समय से चलती आ रही है. इस पर इंदिरा आईवीएफ के सीईओ और सह-संस्थापक डॉ. क्षितिज मुरड़िया ने महिलाओं के बांझपन से जुड़ी ग़लतफ़हमियां को लेकर कई उपयोगी जानकारियां दीं.
जब किसी महिला को गर्भधारणा नहीं हो रही हो, तो उसके शरीर को चुड़ैल ने घेरा है या उसने कुछ पाप किए हैं… ऐसी कई ग़लत-सलत बातें कही और फैलाई जाती हैं. वैज्ञानिक ज्ञान के आभाव के कारण लोग पारंपरिक और आध्यात्मिक इलाज की ओर जाते हैं और कुछ न कुछ करके राहत पाने की कोशिश करते हैं.
2021 की शुरुआत में, महिला के बांझपन के इलाज का एक भयानक मामला सुर्ख़ियों में आया था. उत्तर भारत राज्य में एक 33 वर्षीय महिला के बांझपन की वजह उसमें शरीर में घुसी हुई बुरी आत्मा बताते हुए उस बुरी आत्मा को शरीर में से निकालने के लिए जादू करने वाले एक आदमी ने महिला को इतना पीटा कि बाद में उस महिला ने दम तोड़ दिया. भारत के दूसरे राज्य से ऐसी घटना सामने आई है, जहां बच्चा पैदा करने में असमर्थ महिलाओं की पीठ पर चढ़कर मंत्र-जप करने वाले पुजारी इलाज करते है.
महिलाओं पर लगाया गया यह बेबुनियाद, असंगत दोष उन सबसे बड़े मिथकों में से एक है, जो आज तक मौजूद है. चिकित्सकीय परीक्षणों से यह साबित किया गया है कि बांझपन का कारण पुरुषों और महिलाओं दोनों में से किसी के भी शरीर में हो सकता है. अनुसंधान ने भी अधिकांश कारणों का पता लगाने में मदद की है.
पुरुषों में डायबिटीज़ और संक्रमण (सिफलिस, क्लैमाइडिया) जैसी बीमारियों की वजह से शुक्राणु की गुणवत्ता और मात्रा प्रभावित हो सकती है. महिलाओं में पॉली-सिस्टिक ओवरी सिंड्रोम/बीमारी, एंडोमेट्रियोसिस, डायबिटीज़ और अपर्याप्त थायरॉइड स्तर ऐसी कई समस्याएं हो सकती हैं. हार्मोनल असंतुलन, प्रजनन अंगों की अनुचितता और आनुवंशिक दोष पुरुषों और महिलाओं दोनों में हो सकते हैं. इसलिए पुरुषों में प्रजनन क्षमता में समस्याओं के कारण भी जोड़े को बच्चा पैदा करने में असमर्थता हो सकती है, इसका उल्टा भी हो सकता है. इसका मतलब यह भी है कि महिला और पुरुष के जोड़े में, दोनों में से किसी की भी सदोष प्रजनन प्रणाली बांझपन का कारण बन सकती है.
आज कई महिलाएं अपने अनुभवों के बारे में बात करने के लिए आगे आ रही है. यह जानकारी धीरे-धीरे ज़्यादा से ज़्यादा लोगों तक पहुंच रही है. उल्लेखनीय बात है कि फराह खान, डायना हेडन, मोना सिंह जैसी हस्तियों ने आगे आकर, आज तक भीतर ही भीतर दर्द सह रही महिलाओं को, वैज्ञानिक रूप से सिद्ध हुई जानकारी के आधार पर अपने बोझ को दूर करने की हिम्मत दी है. इस तरह की कहानियों ने कई महत्वाकांक्षी महिलाओं को उनकी तरह और भी कई हैं यह भावनिक आधार प्रदान करने में मदद की है. इससे उन्हें उनके बच्चा न हो पाने की समस्या से निपटने के साथ-साथ उनके काम में भी प्रोत्साहन मिला है.
लेकिन यह स्थिति केवल सशक्त महिलाओं द्वारा दूसरी महिलाओं को सशक्त बनने के लिए मदद करने तक सीमित नहीं होनी चाहिए. हम यह बिल्कुल भी नहीं भूल सकते कि इस बदलाव का केंद्र महिला है, क्योंकि भेदभाव का खामियाजा उन्हें भुगतना पड़ता है. कलंक, लांछन दूर करने सबसे निचले स्तर से शुरू होनी चाहिए. माता-पिता, पति, ससुरालवाले, भाई-बहन, दूसरे रिश्तेदार, सहकर्मी, नियोक्ता और दूसरे कई लोगों की बरसों से चली आ रही सोच को मिटाना ज़रूरी है. इसके लिए सामुदायिक जागरूकता शिविर आयोजित करके, रेडियो, टीवी, समाचार पत्रों और यहां तक कि डिजिटल मीडिया जैसे अन्य चैनलों का उपयोग करके जानकारी का प्रसार किया जा सकता है. सेलेब्रिटीज़, पुरुष और महिला दोनों, द्वारा इसमें महत्वपूर्ण भूमिका निभाई जा सकती है.
संयुक्त राष्ट्र द्वारा शुरू की गई ‘हीफॉरशी’ जैसी पहल ने लैंगिक समानता को बढ़ावा दिया है, जिसमें सभी जेंडर्स के लोगों को महिलाओं के साथ एकजुटता दिखाने और बदलाव लाने का आह्वान किया गया है. पुरुषों में बांझपन की समस्या को सुलझाने का लक्ष्य रखते हुए हमने 1970 के दशक में हमारे संगठन की शुरूआत की. वह ऐसा दौर था जब इस विषय पर चर्चा भी नहीं होती थी और बांझपन का दोष सिर्फ़ और सिर्फ़ महिलाओं पर ही डाला जाता था. जागरूकता और जानकारी फ़ैलाने में इंदिरा आईवीएफ महत्वपूर्ण भूमिका निभाता आ रहा है. यह सरकार के 'बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ' अभियान में अभिन्न हिस्सा बनकर काम कर रही है. विभिन्न राज्यों में असंतुलित लिंगानुपात को कम करने के लिए कई कार्यक्रमों और शिविरों का आयोजन भी किया जाता है.
डॉ. क्षितिज मुरड़िया के अनुसार, मेरे डॉक्टरी जीवन में मुझे महिलाओं में बांझपन से जुड़ी कई ग़लतफ़हमियों का सामना करना पड़ता है. ऐसी ग़लतफ़हमियों की सच्चाई सभी के सामने आनी चाहिए. आम तौर पर जो मान्यता है उसके बिल्कुल उल्टा, जन्म नियंत्रण की गोलियों का लंबे समय तक इस्तेमाल करते रहने से प्रजनन क्षमता प्रभावित नहीं होती. महिलाएं 35 की उम्र के बाद भी गर्भवती हो सकती है, लेकिन उसके बाद प्रजनन क्षमता कम होने लगती है. अनुसंधान में भी पाया गया कि उम्र बढ़ने के साथ-साथ पुरुषों में भी प्रजनन क्षमता कम होती है. संभोग कितनी बार किया जाता है यह बात तब तक मायने नहीं रखती, जब तक ओव्यूलेशन के समय संभोग न किया जाए. अक्सर, कुछ जोड़ों में एक बच्चे के जन्म के बाद बांझपन आ जाता है. इसे द्वितीयक बांझपन कहा जाता है. अक्सर यह भी सुझाव दिया जाता है कि महिला के सामान्य स्वास्थ्य से कोई फ़र्क नहीं पड़ता, लेकिन सच बात यह है कि स्वस्थ जीवनशैली और उसके साथ बाहरी इलाज या उनके बिना भी प्रजनन क्षमता को बेहतर करने में मदद मिलती है.
दुनियाभर की महिलाओं ने भारी मात्रा में प्रगति करते हुए समाज में सकारात्मक परिवर्तन लाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है. लेकिन बांझपन से जुड़े कलंक और लांछनों को मिटाने के प्रयासों में केवल एक हितधारक का होना काफ़ी नहीं है. पूरे समाज को इसमें शामिल होना चाहिए. काफ़ी समय से, गहराई तक पहुंची हुई ग़लतफ़हमियों को जड़ों से उखाड़कर जिनके साथ भेदभाव किया जाता आ रहा है, उन्हें ऊपर उठने में सहयोग देने की आवश्यकता है.