तुम्हारे शहर की अजब कहानी है… काग़ज़ों की कश्ती है, बारिशों का पानी है…
मिलते तो हैं लोग मुस्कुराकर यहां, पर ये भी दिखावे की ही एक निशानी है…
चाशनी में लिपटे रिश्ते हैं, पर इनको अपना समझ बैठना महज़ एक नादानी है…
चेहरे पे चेहरा है, राज़ ये गहरा है… अपनों को ही ठगने की यहां रीत पुरानी है…
किसे अपना कहें, किसे पराया… यही तो सबसे बड़ी परेशानी है…
ज़ुबां है जुदा, आंखें हैं ख़फ़ा… ख़ाक हो गए ख़्वाब, सुनो ये दास्तान मेरी ही ज़ुबानी है…
बेलौस मुहब्बत हुआ करती थी कभी यहां भी… लेकिन अब खो सी गई उसकी जवानी है…
भीतर से बदरंग है सबकी काया… झूठा है बाहरी दिखावा, पर ये कहते हैं हमारा चेहरा नूरानी है…
कहने को रौनक़ें हैं, रातें भी गुलाबी हैं… पर वो इक शाम कहीं नज़र नहीं आती, जो तुम संग मुझे बितानी है…
- गीता शर्मा