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कहानी- आख़री सवाल (Short Story- Aakhari Sawal)

“सुबह का भूला? सुबह और शाम के बीच पंद्रह वर्षों का अंतराल नहीं होता मां. उस अंतराल की वेदना, उसकी चुभन, उसकी कसक का हिसाब मुझे कौन देगा मां? ये समाज..? परिवार..? या ख़ुद प्रभात? प्रभात तो एक पुरुष है, अच्छी तरह जानता है कि वो चाहे जिस तरह से नारी की अस्मिता को रौंद डाले, नारी हर परिस्थिति में उसे अंगीकार करने पर विवश ही होगी…"

नहाने के बाद गीले बालों को तौलिए से पोंछकर मानसी ने ड्रेसिंग टेबल पर रखी सिंदूर की डिबिया उठायी. फिर न जाने क्या सोचकर वापस रख दी. आज सुबह से ही उसके मन में हलचल-सी मची हुई थी. उसने आदमकद आईने में अपना अक्स देखा, तो आंखों में कुछ सवाल नज़र आए. क्या वो प्रभात के वापस आने पर ख़ुश है? चिरप्रतीक्षित और अभिलाषित चीज़ पाने की ख़ुशी इन आंखों में क्यों नहीं झलकती? क्यों छाया है एक वीरान सन्नाटा? जिसकी प्रतीक्षा में जीवन के पंद्रह बहुमूल्य साल यूं ही गंवा दिए, उसके आने की आहट मन को एक मधुर सिहरन से क्यों नहीं भर देती? क्यों आज वेदना और कुढ़न का आवरण मन पर छाया हुआ है?
मानसी ने दीवार पर टंगी घड़ी की ओर देखा. घड़ी की टिक-टिक के साथ समय सरकता जा रहा था… कुछ ही देर में प्रभात यहां पहुंच रहे होंगे. घर में सब कितने उत्साहित हैं. मानो गड़ा ख़ज़ाना मिल गया हो… और मैं? मेरी मनोदशा से किसी को क्या लेना-देना..? मानसी ने सोचा.
मानसी के मन में चल रहे बवंडर से अनजान परिवार के लोग प्रभात के स्वागत की तैयारियों में व्यस्त हैं. ऊपर अपने कमरे में अकेली बैठी मानसी ने गौर से आईने में अपना चेहरा निहारा. बालों में सफ़ेदी कहीं-कहीं से झांकने लगी है. चेहरे में अब वो लावण्य कहां रहा, जो कभी उसे गर्व से भर दिया करता था. गोरा भरा-भरा चेहरा अब सांवला और लंबोतरा-सा लगने लगा है. पिछले वर्ष ही तो पैंतीस वर्ष पूरे किए हैं उसने. क्या उम्र के इस पड़ाव में कोई उस साथी के साथ को सार्थक मान सकता है, जिसने जीवन की शुरुआत में ही दामन छुड़ा लिया हो. जीवन की उमंगें अब मृतप्राय हो चुकी हैं. वैसे भी जीवन की कठोर पाषाणी राह में नितांत एकाकी चलना… टूट कर गिरना… फिर उठना… अपनी हिम्मत से मंज़िल तक पहुंचना, क्या सब के नसीब में होता है..? पर मानसी ने कभी कठिनाइयों में आंसू नहीं बहाए. जीवन की हर विसंगति से लड़ी है वो, तभी तो आज एक मुक़ाम पर है और आज, जीवन के इस मोड़ पर प्रभात का आगमन? मानसी का मन क्षुब्ध हो गया. क्या करे..?
क्या न करे? दुनिया… समाज… परिवार… अपनी अस्मिता… अपनी भावनाएं किस-किस से लड़े मानसी और कैसे? कहते हैं, प्रभात का आगमन जीवन के हर अंधेरे को मिटा देता है, सर्वत्र प्रकाश ही प्रकाश होता है, पर क्या मानसी के जीवन में प्रभात का प्रथम आगमन एक नव जीवन की शुरुआत थी?
मानसी ने फिर से घड़ी की ओर देखा, 'चार बजकर तीस मिनट… यानी आधे घंटे में प्रभात यहां होगा. हे ईश्‍वर! मुझे शक्ति दे… ख़ुद से लड़ने की शक्ति… ज़माने से लड़ने की शक्ति… सही निर्णय लेने की शक्ति… अपनी अस्मिता की रक्षा करने की शक्ति…” उसने कांपते हाथों से एक बार फिर सिंदूर की डिबिया उठायी और फिर वापस रख दी. दोनों हथेलियों में चेहरा छिपाकर वो फूट-फूट कर रो पड़ी. न चाहते हुए भी मन विगत की ओर भागा चला जा रहा था.
कितनी गहमागहमी और ख़ुशी का माहौल था मानसी के विवाह के दिन. पांच भाई-बहनों में सबसे छोटी मानसी सबकी लाड़ली थी. इंटर पास करते ही पिता ने प्रभात के साथ उसका विवाह तय कर दिया था.

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“लड़का इंजीनियर है… लाखों में एक… मेरी मानसी के तो भाग खुल गए…” पिता कहते नहीं थकते थे. पर विवाह की रात ही मानसी की पुष्पित आशाओं पर तुषारापात हो गया, जब प्रभात ने सपाट स्वर में उससे कहा, “ये शादी मेरी मर्ज़ी के ख़िलाफ़ हुई है. वैसे मैं जानता हूं… इसमें तुम्हारा कोई दोष नहीं, फिर भी न चाहते हुए भी मुझे अपने माता-पिता की इच्छा के आगे झुकना पड़ा. अगर मां ने आत्महत्या की धमकी नहीं दी होती तो….”
अवाक मानसी के पैरों तले जैसे ज़मीन खिसक गयी. प्रेम, मनुहार और समर्पण के स्वप्न में खोई मादक आंखों से आंसू बहने लगे. पल भर में सब कुछ बदल गया. उसने भीगी पलकें उठाकर देखा, प्रभात सोफे पर अधलेटा लगातार सिगरेट फूंके जा रहा था. मन की बेचैनी चेहरे पर स्पष्ट थी. मानसी ने धीरे से अपने आंसू पोंछ लिए. ‘कोई बात नहीं, भले ही इनकी मर्ज़ी से शादी नहीं हुई हो, मैं अपने प्रेम से इन्हें वश में कर लूंगी…’ सोचते-सोचते कब उसकी आंख लग गयी, पता ही नहीं चला.
सुबह आंखें खुलीं तो देखा प्रभात कमरे में नहीं थे. संकोचवश वो किसी से कुछ पूछ भी नहीं पायी. पर उसे लगा जैसे घर में एक अजीब-सा सन्नाटा छाया हुआ है. लगता ही नहीं जैसे कल ही नववधू इस घर में आयी हो. घर के हर सदस्य के चेहरे पर एक अजीब-सी चुप्पी थी. पर शाम को मानसी को हर एक प्रश्‍न का जवाब मिल गया, जब उसने अपनी बड़ी ननद को अपनी मां से ये कहते हुए सुना कि प्रभात इस शादी के कारण घर छोड़कर चला गया.
उसकी सास बैठी रो रही थी और बड़ी ननद बिलखते हुए कह रही थी, “मां, मैंने कहा था न… प्रभात की मर्ज़ी के ख़िलाफ़ कुछ मत करो… वही हुआ जिसका डर था. प्रभात तो बचपन से ही ज़िद्दी है, पर किसी ने मेरी बात नहीं मानी. लाख रोकने पर भी वो चला गया…देखना अब वो शायद ही कभी लौटकर घर आए. न जाने बेचारी मानसी का क्या होगा….?”
मानसी कटे पेड़ की तरह बिस्तर पर ढह-सी गयी. आंखों के सामने घना अंधेरा छा गया था.
फिर सब कुछ अनचाहा घटता गया. पगफेरे की रस्म के लिए भाई के साथ मायके आयी मानसी फिर लौटकर ससुराल नहीं गयी. ससुरालवालों ने मानसी की विदाई पर ज़ोर डाला था, पर आंतरिक पीड़ा से विकल, रोती-बिलखती बेटी की दशा ने पिता के हृदय को वेदना की ज़ंजीर से बांध लिया था. “नहीं, मेरी मानसी अब तभी वहां जाएगी, जब प्रभात आदर-सम्मान के साथ इसे वहां ले जाएगा… अन्यथा नहीं.” उन्होंने कहा तो मानसी के जेठ बिफर कर बोल पड़े थे, “प्रभात का ग़ुस्सा आज नहीं तो कल ठंडा हो ही जाएगा… वो ख़ुद ही वापस लौट आएगा. क्या तब तक बेटी को घर पर बिठाएंगे? समाज क्या कहेगा? आपके साथ-साथ हमारी भी बदनामी होगी.”
“मैं इन ओछी बदनामियों की परवाह नहीं करता. मानसी प्रभात के साथ ही वहां जाएगी. ये मेरा आख़री फ़ैसला है…” कहते-कहते मानसी के पिता क्रोध और वेदना की मिली-जुली अभिव्यक्ति के कारण हांफ से उठे थे.
इस घटना के बाद मानसी के जीवन में जैसे सुख का प्रवेश निषेध हो गया. ज़िंदगी कभी-कभी ऐसा दर्द दे जाती है, जिसे सह पाना बेहद कठिन होता है. और ये दर्द हथेली पर उगे उस फोड़े से कम पीड़ादायक नहीं होता, जो अपनी टीस से सर्वांग को सिहरा देता है. मानसी जानती थी कि ज़िंदगी बहुत बड़ी नियामत है, इसे यूं ही गंवा देना अच्छी बात नहीं है, पर पीड़ा की अधिकता के कारण आंसू बेइख़्तियार आंखों से बहने लगते थे.
उसे धैर्य बंधाती मां भी फूट-फूट कर रो पड़ती थी. बेटी को बार-बार पति के पुनरागमन का विश्‍वास दिलाती मां भीतर ही भीतर किसी अनहोनी की आशंका से भी कांप उठती थी. अगर प्रभात नहीं लौटा तो… कैसे काटेगी मानसी पहाड़ जैसा जीवन? ये प्रश्‍न मां के हृदय को वेदना से मथ डालता था.
दरवाज़े पर होनेवाली हर आहट पर, हर दस्तक में मानसी प्रभात को तलाशती रहती. मन बार-बार कहता, वो ज़रूर आएंगे, पर नियति को कुछ और ही मंज़ूर था. एक दिन मानसी को प्रभात का पत्र मिला. पढ़कर वो हतप्रभ रह गयी. सारी आशाएं पल भर में मिट्टी के ढेर की तरह ढह गयीं. उसकी दशा ठीक उस परकटे परिंदे की तरह हो गयी, जो उड़ने की अदम्य लालसा लिए पेड़ की डाल पर बैठा ही था कि बहेलिये ने उसके पंख कतर डाले. प्रभात ने बिना किसी संबोधन के लिखा था-
“मैं जानता हूं…. तुम्हारे साथ अच्छा नहीं हुआ. पर मैं खुद को दोषी नहीं मानता. अपने भीतर समाहित ‘मैं’ का भी कुछ मूल्य होता है या नहीं? मैं कहीं और शादी करना चाहता था, पर मां के दबाव के कारण तुम से शादी करनी पड़ी. क्या मुझे अपनी ख़ुशियां पाने का हक़ नहीं..? किसी भी दबाव से परे… किसी के हस्तक्षेप से अलग… जीवन को अपने ढंग से जीना ही आनंद देता है. हो सके तो मुझे माफ़ कर देना… मैं शायद तुम्हारे लिए बना ही नहीं था. तुम्हें पत्र लिखने का उद्देश्य यही है कि तुम भी आज से स्वतंत्र हो… मैंने तुम्हें हर बंधन से मुक्त किया.”
मानसी गश खाकर गिर पड़ी. मां ने उसके हाथ से चिट्ठी लेकर पढ़ी तो वो भी सन्न रह गयी. इस अप्रत्याशित घटना से अवाक रह गए मानसी के पिता और बड़े भाई क्रोध से भरे उसके ससुराल पहुंचे. चिट्ठी पढ़कर प्रभात के घर में भी सबको सांप सूंघ गया. दूसरे ही दिन मानसी और प्रभात के पिता मुंबई के लिए निकल गए, जहां एक फर्म में प्रभात कार्यरत था. पर निराशा ही हाथ लगी. एक सहकर्मी से पता चला कि प्रभात ने ये नौकरी छोड़ दी है और अपनी पत्नी के साथ कहीं और चला गया है.
पत्नी के साथ…? ये दूसरा वज्रपात था, जिसे सुनकर मानसी के पिता संज्ञाशून्य से हो गए. किसी तरह घर तो लौट आए, पर सप्ताह भर के भीतर ही हृदयाघात से उनकी मृत्यु हो गयी. बेटी की पीड़ा सहन करने में असमर्थ पिता ने दुनिया से ही विदा ले ली थी. मानसी पर तो जैसे दुखों का पहाड़ ही टूट पड़ा था. जिस पिता की प्रेरणा से उसमें जीने की उमंग पैदा हुई थी, वो उसे मंझधार में छोड़ गए थे. मानसी टूट गयी थी. दुख और अपमान की पीड़ा का दंश सर्पदंश से कम होता है क्या?
अपनी सारी पीड़ा को आत्मसात कर मानसी मां की सेवा में लग गयी थी. समय अपनी गति से चलता गया. धीरे-धीरे पंद्रह साल गुज़र गए. उच्च शिक्षा प्राप्त करने के बाद मानसी स्थानीय कॉलेज में प्रवक्ता बन गयी थी. दोनों भाइयों ने शादी करके घर बसा लिया था. इन पंद्रह वर्षों में बहुत कुछ बदल गया था. सबकी ज़िंदगी एक ढर्रे पर गतिमान थी. पर मानसी? क्या-क्या नहीं भोगा था उसने इन वर्षों में. तिल-तिल कर जली थी वो… सब कुछ सहा था उसने… भाभियों के व्यंग्य-ताने… भाइयों की अवहेलना… मां की पीड़ा… नौकरानियों से भी बदतर स्थिति… समाज के लोगों की प्रश्‍नवाचक निगाहें… जो उसके मन को तार-तार कर देती थीं… सब कुछ झेलती रही वो, उस दिन की प्रतीक्षा में, जब उसे एक पहचान मिली.
जिस दिन उसे कॉलेज में व्याख्याता का पद मिला वो दिन उसके लिए अविस्मरणीय बन गया. उसने ज़िंदगी से जूझकर अपनी मंज़िल पायी थी. जो लोग ताने देते नहीं थकते थे, उन्हें अब मानसी कर्मठ और जीवट लगने लगी थी. कभी-कभी मानसी के अधरों पर एक विद्रूप-सी मुस्कान आकर ठहर जाती. वो सोचती, समाज के लोगों के विचार कितने क्षणभंगुर होते हैं. समय, परिस्थिति और विचारधारा का अटूट संबंध है… शायद तभी समय और परिस्थिति विचारधारा को बदल कर रख देती है.
मां मानसी का नीरस और एकाकी जीवन देख कर मन ही मन जैसे अंगारों पर लोटती रहती. कल ही तो विह्वल होकर मानसी से कहा था मां ने, “मेरे बाद पहाड़ जैसा एकाकी जीवन कैसे जीएगी मेरी बेटी. सच कहती हूं, कभी-कभी तो जी करता है तेरा दूसरा ब्याह रचा दूं… टकरा जाऊं समाज की बनाई सारी रीतियों से.”
मानसी की आंखें पीड़ा की अधिकता से भर आयीं. उसने धीमे स्वर में कहा, “पहले ये तो बताओ मां, समाज मुझे क्या दर्ज़ा देता है? ब्याहता का, परित्यक्ता का या विधवा का..? मेरी तो कोई पहचान ही नहीं. कभी-कभी सोचती हूं, माथे पर बिंदिया, मांग में सिंदूर क्यों लगाती रही हूं वर्षों से…? क्यों जीती रही हूं दोहरी ज़िंदगी? विवाहिता के छद्म आवरण में लिपटे अपने कौमार्य को, अपने सपनों को क्यों छलती आयी हूं आज तक..?”

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कहते-कहते वो बिलख-बिलख कर रो पड़ी थी. परित्यक्ता शब्द जब किसी नारी के साथ जुड़ जाता है, तो वो किसी नासूर से कम पीड़ा नहीं देता. लाख जतन कर लिए जाएं, पर समाज एक नश्तर की तरह इस घाव को कभी भरने नहीं देता. क्या-क्या नहीं भोगा है मानसी ने. आज… पंद्रह वर्षों के बाद… ज़िंदगी के इस मोड़ पर प्रभात पुनः उसके जीवन में साधिकार प्रवेश चाहता है? और वो भी ऐसी स्थिति में, जब वो एक दुर्घटना में अपनी पत्नी और बच्चे को खो चुका है. आज जो सामाजिक संवेदना प्रभात के साथ है, वो वर्षों पहले मानसी के साथ नहीं थी. मां ने कहा था, “बेचारा…”
कल रात पहली बार मानसी ने घरवालों के सामने मुंह खोला, “मैं प्रभात के साथ नहीं जाऊंगी… अब बहुत देर हो चुकी है.” सब की आंखें हैरत से फटी रह गयीं. बड़े भैया ने क्रोध से कहा, “कुछ भी हो, तुम्हें उसके साथ जाना ही होगा… आख़िर वो तुम्हारा पति है.”
मानसी के परिवार वाले उसकी चुप्पी को स्वीकृति समझकर ख़ुशी-ख़ुशी प्रभात के आगमन की प्रतीक्षा करने लगे, पर मानसी ने मन ही मन दृढ़ निश्‍चय कर लिया कि अब वो कठपुतली की ज़िंदगी नहीं जीएगी. उसने जैसे अपने आपसे कहा, “अगर सूत्रधार की मज़बूत पकड़ से डोर नहीं खींच सकती तो क्या हुआ… अपने साथ जुड़ी डोर तो तोड़कर फेंक सकती हूं न… बस बहुत हो गया… अब मैं वही करूंगी, जो मुझे करना है. अपनी अस्मिता… अपने अस्तित्व… और बकौल प्रभात के मेरे भीतर समाहित ‘मैं’ का भी तो कोई मूल्य है न.”
“मानसी, नीचे आओ न… क्या कर रही हो इतनी देर से?” बड़ी भाभी ने पुकारा तो उसकी तंद्रा भंग हुई. न जाने कब से वो ख़्यालों में गुम थी. उसने अपनी सूनी मांग  को देखा, फिर कुछ सोचकर ड्रेसिंग टेबल की दराज से सिंदूर की डिबिया निकाली और थोड़ा-सा सिंदूर मांग में भर लिया.
कितना आसान होता है पुरुष के लिए बंधन तोड़ देना, पर स्त्री का तो सारा वजूद ही सिंदूर की लाल रेखा के साथ बंध जाता है. सिंदूर और भावना का बड़ा गहरा नाता है. भावना कोई खर-पतवार नहीं, जिसे सहज ही उखाड़ कर फेंक दिया जाए. भावना तो विशाल वट वृक्ष की तरह होती है, जिसकी जड़ें गहरे तक मन में जमी होती हैं.
मानसी तैयार होकर नीचे हॉल में चली आयी और नौकर से कहा, “ऊपर जाकर मेरा सामान नीचे ले आ… और हां, एक टैक्सी भी ले आना.”
“अच्छा… जाने की इतनी उतावली? अभी तक तो प्रभात आया भी नहीं है.” छोटी भाभी ने चुहल की तो मानसी ने निर्विकार भाव से कहा, “मां… मैं जा रही हूं… कॉलेज कैम्पस में ही मुझे एक क्वार्टर मिल गया है, अब मैं वहीं रहूंगी… मैं जानती हूं, न तो ये घर मेरा है और न प्रभात का… मैं अपने घर जा रही हूं. और हां बड़े भैया, प्रभात आएं तो कह दीजिएगा, मैंने तो उनके लिखे पत्र का अक्षरशः पालन किया है. अपने भीतर समाहित ‘मैं’ का मूल्य ज्ञात है मुझे… कभी उन्होंने जिस बंधन से मुझे आज़ाद करने की बात कही थी, आज उसी बंधन से मैं उन्हें मुक्त कर रही हूं.”
“तेरा दिमाग़ चल गया है क्या? लोग क्या कहेंगे?” बड़े भैया चीख पड़े.
“बेटी, सुबह का भूला अगर शाम को घर आ जाए तो उसे भूला नहीं कहते.” मां ने समझाना चाहा, तो मानसी बिफर कर बोली, “सुबह का भूला? सुबह और शाम के बीच पंद्रह वर्षों का अंतराल नहीं होता मां. उस अंतराल की वेदना, उसकी चुभन, उसकी कसक का हिसाब मुझे कौन देगा मां? ये समाज..? परिवार..? या ख़ुद प्रभात? प्रभात तो एक पुरुष है, अच्छी तरह जानता है कि वो चाहे जिस तरह से नारी की अस्मिता को रौंद डाले, नारी हर परिस्थिति में उसे अंगीकार करने पर विवश ही होगी. मां, आज तक मैंने आपके, भैया-भाभी के, समाज के और अपने मन में उठे हर प्रश्‍न का उत्तर दिया है, पर आज एक आख़री सवाल पूछती हूं… आख़िर स्त्री कब तक सहेगी? कभी तो विद्रोह का स्वर मुखर होगा ही… फिर शुरुआत मुझ से ही क्यों नहीं..? बोलो मां, शुरुआत मुझसे ही क्यों नहीं..?”
अपने आंसुओं को रोकने की नाकाम कोशिश करती हुई मानसी तेज़ कदमों से घर की दहलीज़ लांघ बाहर चली आयी. टैक्सी में बैठी तो न चाहते हुए भी अब तक अवरुद्ध अश्रु प्रवाह सारे बांध तोड़कर बह निकला. आंसू की हर बूंद एक ही सच्चाई को बयान कर रही थी कि नारी किसी भी बंधन को तोड़ना नहीं चाहती. हर बंधन में समा जाना ही तो नारीत्व है. पर आज की नारी अपनी अस्मिता और अपने वजूद को अहमियत देती हुई हर बंधन निभाना चाहती है, इनकी क़ीमत पर नहीं.

डॉ. निरुपमा राय

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