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कहानी- अब आया ऊंट पहाड़ के नीचे (Short Story- Ab Aaya Unth Pahad Ke Neeche)

सभी ख़ुश हो उठे थे, पर विपुल से रहा नहीं गया, "पापा प्लीज़, अब यह सब बंद करो. ऐसा लगता है मानो हम कटोरा लेकर उनसे भीख मांग रहे हैं. हमने कभी चांदी की कटोरी में कुछ खाया भी है कि आप डिनर सेट की बात कर रहे हैं?" वर्तिका सिर झुकाए खाती रही. उसे अब उबकाई सी आ रही थी. उसे महसूस हुआ मानो किसी ने उसे भिखारियों की बिरादरी में बिठा दिया है.

उसने खिड़‌की से ही देखा था कि एक सफ़ेद मारूति वैन तेज़ी से दरवाज़े पर रुकी. कार के डोर घर्षण की आवाज़ करते खुले और एक के बाद एक उसमें से पांच आदमी उतरे. वर्तिका ने अभी-अभी लौटती हुई मारुति वैन को फिर देखा. देर तक उसका धुंआं हवा में लहराता रहा. इस आने और जाने के अंतराल में ही इतना कुछ घट गया.

क्षण भर में ही सर्वत्र सन्नाटा छा गया था. अब तक तो सब कुछ ठीक ही चल रहा था, लेकिन घंटे भर में ही चहकते परिवार पर मुर्दानी छा गई. पर्दे अभी भी उनके स्पर्शाघात से हिल रहे थे जो अभी-अभी यहां से गए थे, मेज पर पानी से भरे ग्लास अनछुए पड़े थे. इतना अपमान कभी किसी ने सहा नहीं था. सभी एक-दूसरे से नज़रें चुरा रहे थे, वर्तिका अपने कमरे से बाहर नहीं निकली. उसने खिड़की से ही देखा था कि एक सफ़ेद मारुति वैन तेज़ी से दरवाजे पर रुकी, कार के दरवाज़े घर्षण की आवाज़ करते हुए खुले और एक के बाद एक उसमें से ५ आदमी उतरे. वर्तिका ने अभी-अभी लौटती हुई मारुति वैन को फिर देखा. देर तक उसका धुंआं हवा में लहराता रहा, इस आने और जाने के अंतराल में ही इतना कुछ घट गया.
बाबू जी अब तक टाई की गांठ कई बार बांध और खोल चुके थे. विपुल बरामदे में बैठे उंगलियां बजा रहे थे. अम्मा जी बैठी-बैठी फ़र्श पर पड़ी दरारों को अपने पांवों से कुरेद रही थीं. मुकुल चाबी का गुच्छा हिलाते खिड़की के पास
खड़ा दूर कहीं शून्य में देख रहा था. सभी विचारों के मंथन में डूबे उस घटना को मानो भूलने की चेष्टा में लगे थे, ताकि उन्हें उस शर्मनाक एवं दुखद घटना के बारे में सोचने का अवसर न मिले पूरे परिवार को संवेगात्मक तनाव से घिरा देख वर्तिका चुपचाप रसोई में चली गई.
सबसे पहले सन्नाटा तोड़ा था विपुल ने, "मैंने पहले ही कहा था, हमें सीमा के अंदर रहना चाहिए, आप लोगों ने जिस तरह वर्तिका के परिवारवालों से भीख मांगी थी, वह मैं भूला नहीं हूं."

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"भीख कैसी? हर लड़के के पिता की कुछ मांग होती है इच्छा होती है. आख़िर वह बेटे के ब्याह में अपनी इच्छाएं पूरी नहीं करेगा तो कब करेगा? फिर हर लड़की का पिता जानता है कि उसे ये मांगें पूरी करनी ही है. मैंने क्या कुछ अनोखा किया है?" बाबूजी दहाड़ उठे थे, वर्तिका सब्ज़ी बना रही थी, पर उसके कान इधर ही थे. अचानक मन में कसक सी उठी और यादों की परतें खुलने लगीं. उसे अपने सीधे-सादे पिता पर उस वक़्त बहुत क्रोध भी आया था. आख़िर यह विवशता उन्होंने क्यों ओढ ली? आज विपुल ने अपने पिता के सामने आईना रखने की हिम्मत कर ही ली. गर्व से तनी मूंछें आज झुक गई थीं. बेटे का पिता होना ये बहुत गर्व की बात समझते थे. इसी घमंड ने न जाने कितने संस्कारी एवं सम्मानित लड़कियों के पिता को आहत किया था.
वर्तिका के बी. ए. पास करते ही उसका ब्याह विपुल से तय हो गया था. सब कुछ तय होने के बाद भी विपुल के पिता नित नई मांग पेश करते गए. उन्होंने बहुत चालाकी से काम लिया. पहले उन्होंने वर्तिका के पिता को चाशनी में पगी अपनी बातों के शब्द जाल में फंसा लिया और फिर मंगनी हो जाने पर उन पर दबाव डालना शुरू कर दिया. वर्तिका के पिता उनकी मांग पूरी करने को विवश थे, क्योंकि मंगनी हो चुकी थी. जगहंसाई वे सह नहीं सकते थे, इसलिए इस दलदल में धंसने के सिवा कोई चारा नहीं था उनके पास.
वर्तिका पिता की संपत्ति लेकर इस घर में आ गई, लेकिन उनकी दी गई संपत्ति वर्तिका के भाग्य में न आई. उसकी आंखों के सामने दहेज के उसके सारे सामान उसकी ननव के ब्याह में दे दिए गए. उसका हृदय आर्तनाद कर उठा. इसी दहेज को जुटाने में उसके पिता कंगाल हो गए थे और उसके ससुर ने मुफ़्त मिले इन सामानों को कितनी सहजता से अपनी बेटी को दे दिया था. आज उसकी समझ में आ गया कि क्यों बेटी का ब्याह, बेटे के ब्याह के बाद क्यों किया जाता है. हां, विपुल की आंखों में तैरती विवशता उसने देखी थी, पर वह भला क्या कर सकता था? पिता के रौबीले व्यक्तित्व के आगे किसी की नहीं चलती थी.
लड़की होने का दुख उसे सालता रहा. उसके जन्म के समय से ही माता-पिता का आत्म बल घटता गया. जैसे-जैसे वह बड़ी होती गई, असुरक्षा की भावना से ग्रसित उसके माता-पिता उस पर हिदायतों के बोझ लादते गए. फिर उसने बेटे का पिता होने की वजह से अपने चाचा का आत्म बल बढ़ते देखा था. उनका पुत्र अतुल अपने पिता का दाहिना हाथ था. पिता को दिनोंदिन ज़िम्मेदारियों से वह मुक्त करता गया. उनकी तुलना में दहेज की व्यवस्था में जुटे अपने पिता की याद आते ही उसका मन द्रवित हो उठता, दोनों भाइयों के व्यक्तित्व में भी अंतर आ गया.

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अपने पिता की आर्थिक तंगी देख उसे अपने ससुर पर बेहद क्रोध आता. जब वही सब मुकुल के भावी ससुरालवालों के साथ भी दुहराया जाने लगा, तो वह क्रोध में उफनती विपुल के पास जा पहुंची, "क्यों जी, आप लोग लड़कीवालों की विवशता का इतना अनुचित लाभ क्यों उठाते हैं? द्रौपदी के चीर की तरह इनकी मांग बढ़ती जा रही है. आप लोग अपनी मांग एक ही बार लड़कीवालों के सामने क्यों नहीं रखते? अगर वे आपकी मांग पूरी करने में समर्थ नहीं होंगे, तो बात वहीं ख़त्म हो जाएगी. इस तरह जाल बिछाना शोभा नहीं देता. आप बाबूजी को समझाते क्यों नहीं?"
"बाबूजी को समझाना आसान नहीं है. उनके अहं ने हम सब के व्यक्तित्व को बौना बना दिया है. इस बार वे तगड़ी राशि ऐंठने के चक्कर में हैं."
"मैं भी समझ रही हूं, इस बार के दहेज से वे छोटी ननद की शादी करेंगे."
दहेज की अग्रिम राशि के रूप में पांच लाख रुपए वर्तिका के ससुर ने वसूल लिए थे. वर्तिका रसोई में चाय बना रही थी, तभी बरामदे में अम्मा जी भनभनाती हुई बाबूजी के पास पहुंची, "क्यों जी, यूं ही जोड़ते-तोड़ते रहेंगे या कुछ अपनी बेटियों के लिए भी सोचेंगे? आख़िर उनके भाई की शादी है. उनकी चाह भी तो पूरी करनी होगी. ब्याह में पहनने के लिए उन्हें भी तो कुछ गहने चाहिए?"
"हां, मैं यह तो भूल ही गया था. ऐसा करो, बहू के साथ तुम सभी जाकर गहनों का ऑर्डर दे आओ. नई बहू के लिए गहने ख़रीदते वक़्त मैं दोनों बेटियों के भी गहने लेता आऊंगा. "
वर्तिका भी सभी के साथ आभूषण विक्रेता के पास गई थीं. वहां पहुंचकर वर्तिका को महसूस हुआ कि मानो उसकी कोई अहमियत नहीं. बहुत देर तक वह उपेक्षित सी खड़ी रही और फिर सास की अनुमति लेकर नए वर्ष के कार्ड्स ख़रीदने पास की दुकान में चली गई.
वर्तिका को आश्चर्य होता कि दहेज के रुपयों को देख सभी
अपनी अपनी सोच रहे हैं. नई दुल्हन के लिए भी गहने-कपड़े ख़रीदने है. यह बात कोई क्यों नहीं सोच रहा? सिर्फ़ अपनी मांग की फ़ेहरिस्त तैयार करने में सभी लगे है. मुकुल के भावी ससुर ने अपनी पढ़ी-लिखी लड़की को साजो-सामान के साथ विदा करने का दावा किया था और नगद पांच लाख की अग्रिम राशि वे पहले ही दे चुके थे. लेकिन मुकुल के पिता की मोटी चमड़ी पर अब किसी दया-रहम की बात का असर नहीं होता था.
मुकुल भी बेहद ख़ुश या कि पिता ने तो आज तक सुख-सुविधा के सामान उसे दिए नहीं, लेकिन आज बिना मेहनत के ही दहेज के रूप में मुफ़्त का माल हाथ आ रहा है. उस पर मावी वधू तृष्णा बेहद सुंदर तथा शांत एवं शिष्ठ थी. मुकुल अकेले में बार-बार उसकी तस्वीर को देखता. रात में खाने की मेज पर मुकुल के पिता ने कहा, "एक बात मुझे समधीजी को फोन पर कह देनी चाहिए थी कि मेरे बेटे के लिए चांदी का डिनर सेट भी होना चाहिए, अन्यथा मेरा बेटा वहां खाना नहीं खाएगा."
सभी ख़ुश हो उठे थे, पर विपुल से रहा नहीं गया, "पापा प्लीज़, अब यह सब बंद करो. ऐसा लगता है मानो हम कटोरा लेकर उनसे भीख मांग रहे हैं. हमने कभी चांदी की कटोरी में कुछ खाया भी है कि आप डिनर सेट की बात कर रहे हैं?" वर्तिका सिर झुकाए खाती रही. उसे अब उबकाई सी आ रही थी. उसे महसूस हुआ मानो किसी ने उसे भिखारियों की बिरादरी में बिठा दिया है.
तर्क-वितर्क ने घर में एक हंगामा ही खड़ा कर दिया. विपुल और वर्तिका एकदम अकेले पड़ गए. बाबूजी ने मूंछों पर ताव देते हुए कहा, "अरे, यही अवसर होता है, जब कोई भी लड़की का पिता इनकार नहीं कर सकता." बाबू जी ने खाना खत्म किया और कमरे में फोन करने चले गाए. विपुल तथा वर्तिका अपने कमरे में चले गए.
परिवार के बाकी सदस्य खाने की मेज पर बैठे ख्याली पुलाव पकाते रहे. सभी को इंतज़ार था एक सुखद सुबह का.

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रोज़ को तरह उस दिन भी सबेरा हुआ था, लेकिन बादलों ने आज सूर्य को अपने आंचल में छिपा रखा था, सभी को आज मुकुल के भावी ससुर के फोन का इंतज़ार था, कुछ लोग पूर्वानुमान लगा रहे थे कि शायद अग्रिम नगद राशि की तरह वे लोग पहले ही डिनर सेट भी घर पहुंचा दें. वर्तिका की छोटी ननद रिनी मचल उठी.
"पापा, एक दिन में भी उसमें खाऊंगी."
"एक ही दिन क्यों बेटी, तुम उसमें रोज-रोज खाना. आख़िर मुकुल के दहेज में जो कुछ आएगा, वह तो मैं तुम्हें ही दूंगा." बाबूजी ने भाव विभोर होकर कहा. मुकुल उखड़ गया, "मैं अपनी एक चीज़ भी किसी को छूने नहीं दूंगा. पापा को तुम्हारे दहेज के सामान ख़ुद ख़रीदने होंगे. मैं विपल भैया नहीं हूं." फिर तो उस वाद -विवाद ने महाभारत का रूप ले लिया. आरोप-प्रत्यारोप का भयंकर आदान-प्रदान हुआ मुकुल ने अपने पिता की धज्जियां उड़ाने में कोई कसर नहीं छोड़ी. उसने अपनी मां से कहा- "आपने तृष्णा के लिए आभूषण भाभी से पसंद क्यों नहीं कराए? तृष्णा उनकी कलात्मक रुचि के गहने पहनेगी या आपकी पसंद के पुराने फैशन के? गहनों की ख़रीदारी में कलात्मक अभिरुचि का होना आवश्यक है."
"ये लो…. भई क्या कहने हैं मेरे सपूत के! अभी घर में पत्नी आई भी नहीं और तरफ़दारी अभी से शुरू हो गई." अम्माजी चिढ़ गई थी.
वर्तिका अपने कमरे की खिड़की से सड़क पर आती जाती कारों को देख रही थी. तभी एक सफ़ेव मारुति वैन आकर दरवाज़े पर रुकी. कार के दरवाज़े एक घर्षण के साथ खुले और एक के बाद एक उसमें से ५ व्यक्ति उतरे. एक व्यक्ति ने सिगरेट का अंतिम कश लेकर सिगरेट फेंक दी. सबने एक-दूसरे से आंखों ही आंखों में कुछ कहा और अनुशासित एवं शालीन ढंग से चलकर दरवाज़े तक पहुंचे. वैन के रुकते ही घर में हलचल सी मच गई. आख़िर इतनी जल्दी डिनर सेट ख़रीद कर पहुंचाने भी आ गए? अम्माजी और वर्तिका नाश्ते-पानी के प्रबंध में लग गई. रिनी ने ट्रे में पानी के ग्लास मेज पर रख दिए. बाबूजी जान-बूझकर आंगन में टहलते रहे, ताकि कुछ देर उन्हें प्रतीक्षा में बैठना पड़े, आखिर ये लोग लड़कीवाले हैं.
बाबूजी मंद-मंद मुस्कुरा रहे थे. अतिथि बाहर बैठे इतनी देर से उनका इंतज़ार कर रहे थे, पर उन्हें इस बात की तनिक भी चिंता नहीं थी.
"अम्मा, अब बातें बंद भी करो. बैठक में अकेले अतिथि ऊब रहे होंगे. क्या सोच रहे होंगे हमारी शिष्टता के विषय में?" मुकुल अपनी अम्मा पर बरस पड़ा.
"इतनी जल्दी है तो तू ही चला जा. बड़ा आया शिष्टता सिखानेवाला. अभी से ससुरालवालों की पैरवी कर रहा है." मूंछों पर ताव देते बाबूजी ने मुकुल को एक झाड़ लगाई, मुकुल खिसिया कर रह गया.
वर्तिका रसोई में पत्ता गोभी काट रही थी. वह अपना सारा आक्रोश पत्तों पर उतार रही थी. क्यों हम इन रूढ़ियां में बंधे हैं? आख़िर लोग इस कुप्रथा को समाप्त करने के लिए आगे क्यों नहीं बढ़ते? आज की लड़कियां पढ़ी-लिखी होती हैं, फिर उनके साथ भी दहेज की चाह क्यों? पत्तों को वह यूं कतर रही थी मानो आज वह इस कुप्रथा को समाप्त करके ही दम लेगी. वह प्रायः सोचती कि उसके पिता जैसी विवशता अच्छी चीज़ नहीं. उन्हें डट कर इन लोगों का सामना करना चाहिए था. उसने भी तो हिम्मत नहीं की. अगर आज के लड़के-लड़कियां ही डटकर दहेज प्रथा का बहिष्कार करें, तो फिर लोग अपने आप ही घुटने टेकने लगेंगे. काश! कोई ऐसा कर पाता. तृष्णा भी अब वर्तिका बनकर जीवन बिताने को बाध्य हो जाएगी. लड़की होने का दंड आजीवन भुगतना पड़ेगा उसे भी. विपुल में हिम्मत नहीं थी, पर मुकुल में हिम्मत होने के बावजूद दहेज की चाहत है.
जब एक दिन रिनी के रिश्ते के लिए उसे किसी की देहरी पर सिर पटकना पड़ेगा, तब इस वर्ष एवं अपमान की पीड़ा महसूस करेगा. सब्ज़ी काटने के बाद वह बरामदे में आई. जहां से बैठक की बातें सुनी जा सकती थी. हवा के झोंकों से पर्दे हिलते तो अंदर का दृश्य भी दिखाई पड़ता. उसे वहीं पर रुकना अच्छा लगा.
बैठक में कुछ देर सभी चुनाव संबंधी बातें करते रह. चुनाव की बातें कुछ लंबी होने लगी, तो विषय बदलकर मौसम पर आ टिका. वर्तिका को लगा, दोनों पक्ष अपनी बात शुरू करने के मनसूबे बांध रहे हैं. बेचैनी दोनों पक्षों को है, पर शुरुआत करने की हिम्मत कोई जुटा नहीं पा रहा है. अचानक तृष्णा का बड़ा भाई कुछ कहने को कसमसाया, उसने एक बार चारों ओर देखा और फिर कहना शुरू किया, "हम लोग अपनी विवशता बताकर आपसे क्षमा मांगने आए हैं."
बाबुजी को आंखों से क्रोध की चिंगारियां निकलने लगीं, "क्या मतलब है आपका, शादी करनी है या नहीं?" तृष्णा के भाई ने सविनय कहा, "वहीं तो कहने आया हूं, हम आपके यहां रिश्ता नहीं कर सकते." बाबूजी क्रोध से उफनते हुए खड़े हो गए.
"दिमाग़ तो ख़राब नहीं हो गया है आपका? विवाह के विन अब बचे ही कितने हैं. जब सब तय हो गया, तो अब अंत में आप रिश्ते को तोड़ने की बात कर रहे है?"
"बाबूजी, नाराज़ न हो, रिश्ता प्रेम से जुड़ता है, सौदेबाजी से नहीं. सुरसा के मुंह की तरह बढ़ती मांगों से अब हम थक चुके हैं. अब हमारी शक्ति नहीं रही. आपकी मांगों को अब हम लोग पूरी करने में असमर्थ है. क्योंकि ब्याह के बाद भी अगर यही सिलसिला रहा, तो हमारी बहन की ज़िंदगी तो बर्बाद हो जाएगी, इसलिए आज से रिश्ता ख़त्म ही समझिए."
बाबूजी को काटो तो खून नहीं. अपमान एवं क्रोध से आंखें लाल हो गई उनकी, पर मुंह से बोल नहीं फूटे. तभी दूसरा धमाका हुआ तृष्णा के छोटे भाई की ओर से, "बाबूजी, हमने आपको अग्रिम राशि के ५ लाख रुपए दिए थे, कृपया वह लौटा है, ताकि दीदी के लिए हम अन्यत्र रिश्ता तय कर सकें." बाबूजी ने उसे क्रोध से घूरा और फिर अंदर कमरे में आए.
रिनी ने घबराकर बाबूजी से पूछा, "गहनों के ऑर्डर दिए जा चुके हैं, उनका क्या होगा?" बाबूजी ने क्रोध में आकर
आलमारी पर लात मारी, रिनी सहमकर दूर जा खड़ी हुई.
बाबूजी ने आलमारी से रुपए निकाले और बैठक में जाकर
मेज़ पर रख दिए. आज उनकी मूंछें नीची हो गई थीं. शरीर की सारी शक्ति चुक गई थी. तभी दोनों भाइयों ने मिलकर रुपए गिनने शुरू किए. रुपये गिनने के बाद उन्होंने उन्हें अपने बैग में रखा और फिर सभी एक साथ ही खड़े हो गए. तृष्णा के बड़े भाई ने हाथ जोड़कर कहा, "बाबूजी हमें क्षमा करें. अब हमारे पास कोई और रास्ता था भी नहीं. आप भी दो बेटियों के पिता हैं, हमारी मजबूरी आप समझ सकते हैं." सभी एक साथ अभिवादन करके बाहर निकले और मारुति वैन में जा बैठे.
वैन जा चुकी थी. वर्तिका की समझ में नहीं आ रहा था कि
तृष्णा के परिवारवालों की हिम्मत की दाद दे अथवा ससुराल की प्रतिष्ठा मिट जाने के दुख में रोए. उसे आज फिर अपने कमज़ोर पिता की याद आई. बाबूजी का घमंड आज चूर हो चुका था. वर्तिका को लगा जैसे, 'अब आया ऊंट पहाड़ के नीचे.' लज्जा एवं ग्लानि से सभी के सिर झुके हुए थे.
ससुराल की प्रतिष्ठा मिटते देख वर्तिका की आंखें भर आईं. उसे बाबूजी का व्यवहार पसंद नहीं था, पर कोई उन्हें अपमानित कर जाए, यह भी वह सहन नहीं कर पा रही थी. उसके आंसू निकलते रहे, पर परिवार के लोग पाषाणवत् हो चुके थे. उसे एक यही संतोष था कि अब बाबूजी किसी लड़की के पिता को कभी परेशान नहीं करेंगे. बोझिल वातावरण को हटाने के उद्देश्य से उसने मेज पर खाना लगा दिया. सभी मेज पर आ चुके थे. सभी को अपने आचरण पर पश्चाताप था. वर्तिका इसी बात को सोचकर ख़ुश हो उठी कि ठोकर भले ही लगी हो, पर अब समझदारी आ गई है.

- लक्ष्मी रानी लाल

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