मां ने सबसे पहले रूपा से प्रश्न किया, "अपना सारा सामान लाई हो ना? वहां गहने और रुपया छोड़ा तो नहीं ना? आजकल ज़माना बहुत ही ख़राब है बहू के जाते ही सास सारा माल दबा लेती है."
"अरे मां, चिंता मत करो सब लाई हूं. अपना और सासू मां का भी थोड़ा-बहुत पहनने का मांगा था फिर लौटाई नहीं. सब ले आई मां."
"बस बेटा, अब जब तक वह हीरे का हार ना लाए, वापस नहीं जाना है, समझी ना!"
"हां मां, जैसा तुम बोलोगी वैसा ही होगा."
अभी-अभी ससुराल आई रूपा उपहार में मिली वस्तुओं को इस तरह हाथ से झपट कर ले रही थी, मानो वह थोड़ी-सी भी देर कर देगी, तो उसका उपहार शायद कोई और ले लेगा. ससुराल से मिले गहनों को भी उसने समेट कर अपनी आलमारी में रखकर ताला लगा दिया और चाबी भी छुपा कर रख दी. पैसे की हवस में रूपा शायद यह भूल गई कि यह परिवार भी तो अब उसी का है. जितने भी दिन वह ससुराल में रही उसे अपने पति और परिवारवालों की, अच्छी बात भी बुरी लगती रही. वह किसी ना किसी तरह उनसे पीछा छुड़ाने का रास्ता देख रही थी. कोई कारण न मिलने पर उसने एक दिन अपने पति से हीरे का हार लाकर देने की ज़िद पकड़ ली. पति के लाख समझाने पर भी वह नहीं मानी.
शादी के दौरान अत्यधिक व्यय हो जाने के उपरांत एक मध्यमवर्गीय पति हीरे का हार कहां से ख़रीद सकता है. पति के मना करने पर रूपा को अवसर मिल ही गया, नाराज़ होकर घर छोड़ जाने का. अपना सारा सामान, रुपए-पैसे, गहने-कपड़े सभी एक संदूक में भर कर रूपा ने अपने मायके की ओर प्रस्थान किया. पति के रोकने का भी उस पर कोई असर नहीं हुआ.
अपनी ज़िद और दौलत के मोह तथा मां की सिखाई सीख ने उसे कुछ भी और सोचने ही नहीं दिया. शाम तक वह अपने घर पहुंच गई. उसे देखते ही मां अत्यंत हर्षित हो गई. उसे गले से लगा लिया.
मां ने सबसे पहले रूपा से प्रश्न किया, "अपना सारा सामान लाई हो ना? वहां गहने और रुपया छोड़ा तो नहीं ना? आजकल ज़माना बहुत ही ख़राब है बहू के जाते ही सास सारा माल दबा लेती है."
"अरे मां, चिंता मत करो सब लाई हूं. अपना और सासू मां का भी थोड़ा-बहुत पहनने का मांगा था फिर लौटाई नहीं. सब ले आई मां."
"बस बेटा, अब जब तक वह हीरे का हार ना लाए, वापस नहीं जाना है, समझी ना!"
"हां मां, जैसा तुम बोलोगी वैसा ही होगा."
"अगले ही महीने तुम्हारे भाई की भी तो शादी है. सब तैयारियां करनी है, कामकाज में मेरा हाथ बंटाना." मां ने कहा.
"हां मां, काम तो हो जाएगा, भाभी के लिए गहने बनवा लिए क्या?"
"अभी नहीं, तैयार ही ले लेंगे. एक-दो दिन का काम है चिंता मत करो." मां ने कहा.
रूपा ने अपने सारे गहने, रुपया-पैसा सब अपनी मां को रखने के लिए दे दिया.
शादी का समय नज़दीक आ गया, पर मां गहने लेने नहीं गई. एक दिन रात को रूपा ने अपनी मां को पापा से कहते हुए सुना, "अजी तुम चिंता ना करो गहनों की, रूपा के गहने हैं ना. वह तो वापस आ गई है, क्या करेगी इतने गहनों का? वही गहने हम बहू को दे देंगे. आख़िर हमारा एक ही बेटा तो है सब कुछ घर में ही रहेगा."
"रूपा भी कभी-कभी वही पहन लेगी. अब और पैसा रुपया कहां से लाएंगे गहनों के लिए? इतना आ गया है अपना काम चल जाएगा. बेटे की शादी भी इज़्ज़त से हो जाएगी और यदि दामाद पांच-छह लाख का हीरे का हार ले आए, तो बस फिर क्या रूपा के पास भी गहना हो ही जाएगा."
रूपा को अपने कानों पर यक़ीन नहीं हो रहा था. किंतु वह बिना सोचे-समझे ग़लत क़दम उठा चुकी थी. अब हीरे के हार की लालसा सदा के लिए उसके दिल से जा चुकी थी.
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