Close

कहानी- अनाम रिश्ता (Short Story- Anaam Rishta)

इतने सारे प्रश्‍न और जवाबदेही से निर्मलाजी घबरा कर रोते हुए कहने लगीं कि वह चोर नहीं हैं. उन्हें सच में कुछ याद नहीं आ रहा है. वह सुबह तक यहां से ज़रूर चली जाएंगी. सुलभा से उनका रोना देखा न गया. उसने पुलिसवालों से कहा, “हम सुबह ख़ुद ही उन्हें छोड़ आएंगे.” पुलिस चली गई, लेकिन समर अभी भी असमंजस में ही था.

सुलभा और समर को एक महीना हुआ था इस नयी कॉलोनी में आए हुए. अभी ज़्यादा लोग नहीं बसे थे… और जो परिवार थे भी, अपने काम से काम रखते. हां, पड़ोस की लता आंटी अवश्य सुलभा को सचेत कर गयी थी, “किसी भी अन्जान व्यक्ति के लिए दरवाज़ा न खोलें.”
समर के माता-पिता का देहान्त हो चुका था. अपनी आगे की पढ़ाई उसने अपनी बुआ के यहां रहकर की थी. फिर बैंक में नौकरी लगने के बाद सुलभा से उसका परिचय हुआ था.
सुलभा उसे पहली ही नज़र में भा गयी थी. सुलभा की मां का देहान्त बचपन में ही हो गया था. मां विहिन सन्तान को पिता ने अपने स्नेह से सींचा था. सुंदर होने के साथ-साथ उसमें संस्कारों का भी मिश्रण था. पिता की तबीयत ख़राब होने के कारण उसे बैंक में कुछ काग़ज़ी कार्यवाही के लिए आना पड़ता था. समर की सहायता से समस्त कार्य निर्विघ्न रूप से हो गया, लेकिन प्रेम का अंकुर दोनों के ही हृदय में प्रस्फुटित हो चुका था.
सुलभा के पिता ने सहर्ष इस विवाह के लिए सहमति दे दी थी. कुछ रिश्तेदारों की मौजूदगी में दोनों परिणय-सूत्र में बंध गए थे.
जीवन निर्वाध गति से चल रहा था. शादी के डेढ़ सालों में नोंक-झोंक के सिवा और कोई झगड़ा नहीं था. इस बीच दो घटनाएं घटीं, सुलभा के पिता हृदयगति रुक जाने से काल के गर्त में समा गए और समर का स्थानान्तरण हो गया.
दिल्ली में कुछ दिन तो घर व्यवस्थित करने में लग गए. आसपास का शान्त माहौल सुलभा को बेहद सुकून देता. उस दिन बुधवार था. समर के ऑफ़िस जाने के बाद घरेलू कामों को निपटा कर सुलभा बरामदे की आराम कुर्सी पर बैठी मैगज़ीन के पन्ने पलटने के साथ ही अपने विचारों में खोई थी कि तभी एक आहट ने उसे चौंका दिया.

यह भी पढ़ें: अब बेटे भी हो गए पराए (When People Abandon Their Old Parents)


कुछ घबराहट और लता आंटी की हिदायत को ध्यान में रखते हुए सुलभा ग्रिल खोलकर गेट तक आयी. पहली ही नज़र में वो सुलभा को मां जैसी लगी, लेकिन अगले ही पल अपनी आवाज़ को कठोर बनाते हुए उसने आने का कारण पूछा.
महिला ने उत्तर दिया- उनका नाम निर्मला देवी है. दिल्ली में ही रहती हैं. किसी काम से बाहर गयी थीं, आज ही वापस लौटी हैं. स्टेशन पर ट्रेन लेट होने की वजह से उनके बेटे समय पर नहीं पहुंचे, वह अकेली घर जाने के लिए निकलीं और रास्ता भटक गयीं. उम्र बढ़ने के साथ याददाश्त कमज़ोर हो गयी है, कुछ देर बाद याद आ भी जाता है.
सुलभा का मन पसीज गया. गेट खोल कर उन्हें बरामदे की कुर्सी पर बैठाया और एक ट्रे में पानी और मिठाई लेकर आयी. निर्मलाजी ने एक मीठी मुस्कान के साथ सुलभा को देखा. सुलभा के साथ बातें करते हुए वह काफ़ी सहज हो चली थीं, लेकिन सुलभा का दिमाग़ कहीं और ही दौड़ रहा था. उसने मोबाइल से समर को संदेश भेज दिया कि वो जितनी जल्दी हो सके, घर आ जाएं.
संदेश मिलते ही समर आधे दिन की छुट्टी लेकर पौने चार तक घर पहुंचा. तब तक सुलभा और निर्मलाजी दोपहर का खाना निबटा चुकी थीं, समर ने एक सशंकित नज़र निर्मलाजी पर डाली और वहीं सोफे पर बैठकर वही कहानी सुनी, जो उन्होंने सुलभा को सुनाई थी. समर को उन पर विश्‍वास नहीं हो रहा था. वह शयनकक्ष में चला आया. उसने इशारे से सुलभा को भी बुला लिया. कुछ देर तक दोनों गहन विचार करते रहे, फिर कुछ सोचकर पुलिस को फ़ोन किया.
फ़ोन करके जैसे ही दोनों बाहर आए, निर्मलाजी तब तक डायनिंग टेबल पर गरमा-गरम भजिया और चाय रख रही थीं. उन्होंने कहा, “पहले नाश्ता कर लो, बातें तो बाद में होती रहेंगी.” नाश्ता ख़त्म होने से पहले ही पुलिस आ पहुंची. फिर बहुत सारे प्रश्‍न एक साथ निर्मलाजी को झेलने पड़े, जैसे- अब तक उनके बेटों ने पुलिस में रिपोर्ट क्यों नहीं करवाई? अगर ट्रेन लेट थी तो उनके बेटों ने पूछताछ विभाग से सम्पर्क क्यों नहीं किया? उनकी याददाश्त जब कमज़ोर है तो उन्हें अकेले यात्रा पर भेजने का क्या मतलब है…? इतने सारे प्रश्‍न और जवाबदेही से निर्मलाजी घबरा कर रोते हुए कहने लगीं कि वह चोर नहीं हैं. उन्हें सच में कुछ याद नहीं आ रहा है. वह सुबह तक यहां से ज़रूर चली जाएंगी. सुलभा से उनका रोना देखा न गया. उसने पुलिसवालों से कहा, “हम सुबह ख़ुद ही उन्हें छोड़ आएंगे.” पुलिस चली गई, लेकिन समर अभी भी असमंजस में ही था.

यह भी पढ़ें: गुम होता प्यार… तकनीकी होते एहसास… (This Is How Technology Is Affecting Our Relationships?)


रात का खाना भी निर्मलाजी ने आग्रह करके ख़ुद ही बनाया और परोस कर खिलाया भी. एकल गृहस्थी करते हुए सुलभा और समर को ये सुख नहीं मिला था, इसलिए उन्हें भी अच्छा लगा.
सुबह 7.30 बजे समर की आंख खुली, सुलभा अभी तक सो ही रही थी. वह हड़बड़ा कर उठा और दूसरे कमरे में निर्मलाजी को न देखकर उसका शक और पुख़्ता हो गया.
उसने सभी क़ीमती चीज़ों पर सरसरी निगाह डाली, सब चीज़ें यथास्थान पर ही थीं. वह बगीचे में गया तो ठगा-सा रह गया. निर्मलाजी फूल चुन रही थीं. लज्जित होकर वह अंदर आ गया. तब तक सुलभा भी उठ गई थी. नाश्ते के बाद उन्हें निकलना था. जाते समय निर्मलाजी रोने लगीं, उन्हें सुलभा से स्नेह हो गया था. सुलभा की भी आंखें भर आईं.
समर के साथ गाड़ी में बैठकर वह रास्ता बताती जा रही थीं. एक बार फिर संदेह का बीज समर के मन में पनपा कि वह कहीं याददाश्त जाने का नाटक तो नहीं कर रही थीं?
एक गली के मुहाने पर उन्होंने कार रोकने के लिए कहा और बोलीं, “मैं यहां से चली जाऊंगी.” समर की इच्छा थी कि एक बार इनके भरे-पूरे परिवार को देखे, कम-से-कम इनके बेटों को तो एक बार हमारा धन्यवाद करना चाहिए.
निर्मलाजी चुपचाप एक ओर बढ़ने लगीं. समर ने भी कार मोड़ ली, लेकिन कुछ दूर जाने पर उसका मन नहीं माना और उसने कार वहीं मोड़ दी, जहां उसने निर्मलाजी को छोड़ा था. समर कार से उतरकर पैदल ही एक ओर चलने लगा. रास्ता वहीं खत्म होता था, इसलिए वह बढ़ता गया. अचानक उसके क़दम ठिठक गए. जिस तरह के घर का वर्णन निर्मलाजी ने किया था, वह एक वृद्धाश्रम था. गेट खुला हुआ था. समर आगे बढ़ा, तभी बगीचे में एक बेंच पर उसे निर्मलाजी कई वृद्धाओं से घिरी हुई दिखाई दीं.
वह ध्यान से उनकी बातें सुनने लगा. निर्मलाजी बोल रही थीं, “मैंने झूठ बोला, लेकिन उस एक दिन में मैंने अपने बचे हुए दिनों की सारी ख़ुशियां पा लीं. मेरे बेटों ने तो बोझ समझ मुझे यहां ला पटका, एक बार हालचाल भी नहीं लेते. कल दुखी मन से मैं यहां से भी चली गयी थी, लेकिन सुलभा और समर ने मेरी अतृप्त इच्छाओं को पूरा कर दिया. पर एक ही दुख है, मैंने उन भले लोगों से झूठ बोला, उन्हें धोखा दिया.” इतना कह कर वह रोने लगीं.
समर की भी आंखें भर आईं, वह आगे बढ़ा और निर्मलाजी के क़दमों के पास बैठ गया. अचानक समर को सामने देख वे चौंक गयीं. समर ने कहा, “किसने कहा आप बोझ हैं? मुझे और सुलभा को आपकी ज़रूरत है. अब आप हमारे साथ ही रहेंगी. किसी अनाम रिश्ते के साथ नहीं, बल्कि हमारी मां बनकर. मुझे तो आपके बेटों पर तरस आता है, जो इस ममतामयी मां को यहां छोड़ गए.
हमने भी आपको समझने में भूल की. चलिए, मैं आज ही अपनी मां को यहां से घर ले जाऊंगा.”
निर्मलाजी उठकर खड़ी हुईं और हंसते हुए बोलीं, “लोग तो बच्चे गोद लेते हैं और तू मुझ बूढ़ी को ले रहा है.” समर ने हंसते हुए निर्मलाजी का हाथ पकड़ा और कहा, “हां, और इस बच्चे को अब कभी झूठ नहीं बोलना पड़ेगा.” निर्मलाजी की सहेलियां उन्हें ख़ुशी से विदा कर रही थीं. सभी की आंखें नम थीं, मानो बोल रही हों- हममें से एक को तो इस अभिशप्त जीवन से मुक्ति मिली, वरना उम्र के इस मोड़ पर अपना घर होते हुए भी आश्रितों की तरह जीवन जीना कितना पीड़ादायक होता है…
निर्मलाजी सुलभा से मिलने को बेचैन थीं, समर ने भी गाड़ी की ऱफ़्तार तेज़ कर दी थी.

- रूपाली भट्टाचार्य

अधिक कहानियां/शॉर्ट स्टोरीज़ के लिए यहां क्लिक करें – SHORT STORIES

अभी सबस्क्राइब करें मेरी सहेली का एक साल का डिजिटल एडिशन सिर्फ़ ₹599 और पाएं ₹1000 का कलरएसेंस कॉस्मेटिक्स का गिफ्ट वाउचर.

Share this article