मेरी सास और बड़ी भाभी ने पूछा, "क्या हुआ?" मैंने दृढ़ स्वर में कहा, "बस! मुझे घर जाना है. ये मेरा अंतिम फ़ैसला है." सब हतप्रभ रह गए, पर मेरे विचारों में दृढ़ता आ चुकी थी भाभी. जब इंसान अपने विवेक से निर्णय करता है न तब उसे किसी का डर नहीं होता."
ये कोई कहानी नहीं है, जिसे पढ़कर आप एक तरफ़ रख दें, ये एक हक़ीक़त है… एक सच्चाई… एक यथार्थ, जिसे बहुत क़रीब से देखा है मैंने, महसूस किया है और भोगा भी है. आज ज़िंदगी की उस सच्चाई को तार-तार आपके सामने रख रही हूं.
अभी-अभी नीरा से हॉस्पिटल में मिलकर आ रही हूं, कल रात उसने बेटी को जन्म दिया है, दूसरी बेटी को… दूसरी.. हां दूसरी बेटी. वही नीरा, जो आज से पांच साल पहले मुझे ज़िंदगी के बारे में समझा रही थी, उस ज़िंदगी के बारे में जो प्रैक्टिकल होती है.
"प्रैक्टिकल लाइफ जीना सीखो भाभी, प्रैक्टिकल लाइफ." कॉलेज में पढ़नेवाली आधुनिक नीरा ने जब मुझे इतनी बेबाक़ी से कहा तो मैं फक्क रह गई. आज से पांच साल पहले जब मैंने अपनी दूसरी बेटी को जन्म दिया था, तब बिना किसी हिचक के उसने मुझसे पूछा था, "भाभी, टेस्ट नहीं करवाया था?"
"नहीं रे," मैं बोली.
"करवा भी लेती तो क्या होता? इसका गला घोंटती?" मैंने गोद में पड़ी अपनी नवजात बिटिया की तरफ़ इशारा किया.
"अरे भाभी, आजकल तो सब अपने हाथ में है. विज्ञान इतना आगे जा चुका है कि सब कुछ संभव है. फिर जब दो बच्चों का ज़माना है, तो क्यों न एक लड़का और एक लड़की ही हो?" नीरा बड़े बुज़ुर्गों जैसे समझानेवाले अंदाज़ में बोली.
मैं निरुत्तर ही रही. मैंने सोचा, अभी बच्ची ही तो है. ये क्या जाने सृजन कैसे होता है, वो भी मानव सृजन, पर उसकी प्रैक्टिकल लाइफ वाली बात कई दिनों तक मेरे दिमाग़ में घूमती रही. फिर मैं अपनी घर-गृहस्थी में व्यस्त हो गई. समय का पहिया तेज़ी से घूमने लगा.
इस दौरान नीरा की भी शादी हो गई. नीरा हमारे घर के सामने ही रहती थी और विज्ञान की छात्रा थी. तीन बहनों में वह मझली थी और भाई सबसे छोटा था. उसकी बड़ी बहन अंजू का विवाह तो एक वर्ष पूर्व ही हो चुका था. विवाह के बाद नीरा अपने ससुराल जयपुर चली गई थी. साल में एक-दो बार आती, तो मुझसे मिलकर घंटों अपने ससुराल की बातें करती.
मुझे उसकी बेबाक़ बातों में बहुत रस आता. कभी तो वह अपने ससुराल की बात करके चहकने लगती, तो कभी रुआंसी हो जाती. तब मैं उसे समझाती कि नए घर में सामंजस्य बिठाने में कुछ समय लगता ही है. यूं निराश मत हुआ कर. तुझ जैसी बोल्ड लड़की अगर यूं सोचेगी तो कैसे काम चलेगा? मेरे समझाने से वो फिर चिहुंक उठती और मेरे गले में बांहें डालकर कहती, "ओह भाभी, तुम सचमुच मेरी अच्छी दोस्त हो." मैं भी हंस पड़ती और कहती, "तुम भी तो मेरी अच्छी दोस्त हो न."
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विवाह के एक साल बाद नीरा ने एक प्यारी सी बिटिया को जन्म दिया. सवा महीने बाद वो अपनी बिटिया को लेकर मायके आई, तो मैं उसे मिलने गई. बहुत ख़ुश थी वो.
'मां' का गरिमामय पद पाकर कौन ख़ुश नहीं होता! अब उसकी बातों का दायरा उस नन्हीं गुड़िया के इर्दगिर्द सिमट गया था. मैं नीरा में परिवर्तन के स्पष्ट लक्षण देख रही थी. मां की पदवी पाकर उसका चेहरा भी ओजमयी हो गया था.
दो महीने के प्रवास के दौरान नीरा से कई बार मिलना हुआ. कभी वो अपनी बिटिया को सड़क पर प्रेम से घुमाते हुए मिल जाती, तो कभी छोटी सी बात से घबराकर डॉक्टर के पास भागती हुई दिख जाती और कभी अपने पापा के पीछे स्कूटर पर बैठकर बिटिया को कहीं सैर करवाने ले जाती हुई दिख जाती. दो महीने कैसे बीत गए, पता ही नहीं चला और नीरा के ससुराल जाने का समय आ गया.
नीरा ससुराल चली गई. अब सामनेवाले घर से बच्चे की किलकारियों की गूंज नहीं आती थी. नीरा की एक बहन, भाई और माता-पिता ही दिखाई देते. समय अपनी गति से चल रहा था कि अचानक नीरा के परिवार पर दुर्भाग्य की गाज गिर पड़ी. नीरा की बड़ी बहन अंजू के पति की मोटर साइकिल दुर्घटना में मृत्यु हो गई. नीरा के बूढ़े माता-पिता तो जैसे जड़ हो गए. तेरहवीं के बाद अंजू के माता-पिता उसे अपने घर ले आए. अब ससुराल में उसके लिए बचा ही क्या था, बाल-बच्चे थे नहीं. अंजू इस अप्रत्याशित दुख से टूट गई थी. सामनेवाले घर में रहते हुए भी बहुत कम दिखाई देती थी. मैं भी उससे मिलने की कम ही कोशिश करती थी.
नीरा भी इस दुख में शामिल होने आई थी. लेकिन कुछ दिन रहकर लौट गई. बहन के दुख से उसकी हंसी गायब हो गई थी. इस बार उससे ख़ामोश मुलाक़ात ही हो पाई थी. क्रूर नियति को कोसने के लिए हमारे पास शब्द भी नहीं होते थे और मैं ख़ामोश ही नीरा के पास से उठ आया करती.
नीरा की बिटिया डेढ़ साल की हो गई थी. उसकी ठुमक-ठुमक चाल सबको लुभानेवाली थी. परंतु घर में सभी के दिल में दुख इतनी गहराई तक समा गया था कि चेहरे पर ख़ुशी के भाव आ ही नहीं पाते थे. फिर नीरा का मायके आना कुछ कम हो गया. बेटी को स्कूल में डाल दिया. ख़ुद भी किसी प्राइवेट स्कूल में नौकरी करने लगी. नीरा रूपी पौधा अब ससुराल के आंगन में अपनी जड़ें फैला चुका था.
मैं भी अपनी घर-गृहस्थी में व्यस्त थी. यूं ही एक साल बीत गया था. इस बीच नीरा मायके आई. मिलने पर पता चला कि दूसरे शिशु के आगमन के लिए आई है. अब वह कुछ सामान्य भी लग रही थी.
बीस दिन हो गए थे नीरा को आए. आज सुबह उसकी मम्मी आई थीं यह बताने कि नीरा को रात को बेटी हुई है. वह कुछ बुझी सी लग रही थीं. मैं मन ही मन बुदबुदा उठी, "बेटी! बेटी हुई है!! उसके तो बेटा होना चाहिए था." मेरा मन बोल रहा था, लेकिन मेरे होंठ नीरा की मम्मी से पूछ रहे थे, "नीरा ठीक है न? और बिटिया?"
"हां! सब नॉर्मल है." नीरा की मां ने झट पीठ कर ली और पीठ दिखाते हुए जाते-जाते कहने लगीं, "नीरा ने कहा था भाभी को ज़रूर बता देना. हॉस्पिटल जाना है, इसलिए अभी जल्दी में हूं."
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नीरा की मां के जाते ही मैंने गेट बंद किया और बरामदे में आकर धम्म से कुर्सी पर बैठ गई. मेरे मस्तिष्क में नीरा की बातों की फिल्म तेज़ी से चलने लगी. कितनी बेबाक़ी से मुझे प्रैक्टिकल लाइफ के बारे में बता गई थी, जब मेरी दूसरी बिटिया हुई थी. कितना लंबा-चौड़ा भाषण दिया था कि आजकल तो सब संभव है, सब कुछ हाथ में है, प्रैक्टिकल लाइफ जीना सीखो और अब… ख़ुद के दूसरी बेटी हुई है. मैं तो आश्वस्त थी कि नीरा के दूसरा बच्चा बेटा ही होगा.
मुझे ऑफिस के लिए तैयार होना था, इसलिए उठकर जल्दी से काम निपटाने लगी. सोचा शाम को आते समय नीरा को हॉस्पिटल में मिलती आऊंगी.
शाम को लौटते समय नीरा को मिली. रूई सी गुड़िया एक तौलिए में लिपटी उसकी बगल में सोई थी. नीरा की आंखें मुंदी थीं, पर आहट से उसे मेरे आने का एहसास हो गया था. मैंने प्यारी सी गुड़िया को ख़ूब प्यार किया. नीरा की तबीयत पूछी, पर नीरा को इतनी अच्छी दोस्त मानते हुए भी यह पूछने की मेरी हिम्मत नहीं हुई कि 'क्या तूने टेस्ट नहीं करवाया था? तूने क्यों नहीं प्रैक्टिकल लाइफ को अपनाया?'
थोड़ी देर बाद मैंने औपचारिकता पूरी करके कहा, "अच्छा चलूं नीरा." तो नीरा ने मेरा हाथ पकड़ लिया और भावविह्वल होकर कहा, "भाभी, कुछ पूछोगी नहीं मुझसे?" मैंने अनजान बनते हुए कहा, "किस बारे में नीरा?"
"मैंने आपको प्रैक्टिकल लाइफ का पाठ पढ़ाया था न एक बार, तुम भूल गईं भाभी? क्या अब तुम मुझसे नहीं पूछोगी कि मैं क्यों नहीं जी सकी वो प्रैक्टिकल लाइफ."
मैं हैरान थी कि ऐसी बिंदास लड़की भी अपनी कही बात को याद रख सकती है, क्योंकि बेबाक़ बात कहनेवाले अक्सर अपनी बात कहकर भूल जाते हैं. मैंने झिझकते हुए पूछा, "ऐसी क्या बात है नीरा?"
"भाभी, मैंने देख लिया है कि इंसान के चाहने से कुछ नहीं होता. हम सब सांयोगिक शक्तियों के आधीन हैं." मैं नीरा का चेहरा टकटकी लगाकर देख रही थी. मुझे विश्वास नहीं हो रहा था कि यह वही नीरा है- बेबाक़, बिंदास, अल्हड़, मस्त.
"भाभी! आपने मुझसे पूछा नहीं कि तुमने टेस्ट नहीं करवाया? मैंने तो तुमसे कैसे स्पष्ट पूछ लिया था." मैं उसकी बात सुनकर अवाक् रह गई, पर फिर भी पूछ नहीं पाई.
उसने कहना शुरू किया, "भाभी! अंजू के पति की मृत्यु ने हम सबको हिलाकर रख दिया था. मौत के दुख से थोड़ा उबरे, तो अंजू के गर्भ में पल रहे बच्चे का ख़्याल आया, तब सब रिश्तेदारों ने उसे गिराने की ही सलाह दी. हालांकि अंजू बिलकुल नहीं चाहती थी. वो अपने पति की निशानी को दुनिया में लाना चाहती. मैं भी थोड़ा बहन के मामले में भावुक हो गई थी. पर फिर वही सबने प्रैक्टिकल लाइफ का वास्ता दिया. मैं भी कशमकश में थी, आख़िर मेरे प्रैक्टिकल लाइफ वाले विचार को बल मिला और मैंने अंजू को गर्भ गिराने के लिए मना लिया.
अपने पति की मौत का दर्द झेल चुकी अंजू को मैंने एक और मौत का दर्द झेलते हुए देखा था. पर इतनी लंबी पहाड़ सी ज़िंदगी के लिए यह उचित भी था. मैं अंजू को हर पल, हर क्षण यही तर्क देकर समझाती कि प्रैक्टिकल लाइफ में बहुत कुछ करना पड़ता है.
अभी एक साल भी न बीता था कि मेरे पांव भारी हो गए. मेरे विचारों से मेरे ससुरालवाले और मेरे पति भी परिचित थे, इसलिए मुझ पर टेस्ट करवाने के लिए ज़ोर देने लगे, जबकि मेरे मन में परिवर्तन का अंतर्द्वंद्व चल चुका था. मैंने बेमन से टेस्ट करवाया, तो भ्रूण लड़की का था. लड़के की अत्यधिक चाह रखने के कारण एक बार तो मुझे धक्का लगा, परंतु मैं बच्चा गिराने के हक़ में नहीं थी.
इधर मेरी सास और पति का दबाव मुझ पर बढ़ता जा रहा था, जबकि मैं टालने का प्रयास कर रही थी. मैंने बहुत ही दबे स्वर में विरोध किया, तो मेरी सास को आश्चर्य भी हुआ. यह बात उन्हें मेरे पुराने व्यक्तित्व के अनुरूप नहीं लगी. फिर मेरी सास, ननद और जेठानी ने मुझे न जाने क्या-क्या कह कर समझाया और मैं बेबस होकर उनके साथ नर्सिंग होम आ गई, डॉक्टर ने ज़रूरी जांच की और कुछ दवाइयां और इंजेक्शन लाने के लिए मेरे पति को पर्ची थमा दी.
इधर नर्स ने मुझे गाउन पहनाकर ऑपरेशन टेबल पर लिटा दिया. पर भाभी, मेरा अंतर्द्वंद्व जो बेजान सा हो गया था, अब हिलोरें लेने लगा. मेरे सामने अंजू के पति की मौत के दृश्य एक-एक करके उभरने लगे. बेजान अंजू, अंजू की चीखें, उसके अजन्मे बच्चे की जबरन मौत, अंजू की सिसकियां, मां की आहें, असमय बुढ़ा गए पिता का पथराया चेहरा, भाई की ख़ामोशी… क्या- क्या नहीं देखा मैंने. अंजू जो अपने बच्चे को नहीं गिराना चाहती थी… उसका दर्द मैंने क़रीब से महसूस किया और अब मैं खुद अपने बच्चे को गिराने जा रही हूं… अभी तो इतना दुख देख चुकी अंजू को टूटते-बिखरते देखा है… क्या अभी और कुछ बाकी रहा है, जो एक पाप और करने जा रही हूं…
भाभी! ऐसा लगा, जैसे मेरे मस्तिष्क पर हथौड़े चल रहे हों, बाहर सास, ननद, बड़ी भाभी और पति खड़े होंगे, इसकी कल्पना मैं कर रही थी. नर्स डॉक्टर के आने से पहले की तैयारी कर रही थी, शायद मेरे पति इंजेक्शन ले आए थे. एक क्षण के लिए विचारों का ज्वार तेज़ हुआ और मैं ऑपरेशन टेबल से उठ खड़ी हुई. नर्स पीछे घूमी तो उसके हाथ में इंजेक्शन था, बोली, "अरे! खड़ी क्यों हो गई? लेट जाओ."
"नहीं, मुझे नहीं करवाना ये सब, नहीं करवाना." मैं लगभग चीख पड़ी और ऑपरेशन गाउन पहने हुए ही बाहर निकल आई.
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बाहर मेरी सास और बड़ी भाभी ने पूछा, "क्या हुआ?" मैंने दृढ़ स्वर में कहा, "बस! मुझे घर जाना है. ये मेरा अंतिम फ़ैसला है." सब हतप्रभ रह गए, पर मेरे विचारों में दृढ़ता आ चुकी थी भाभी. जब इंसान अपने विवेक से निर्णय करता है न तब उसे किसी का डर नहीं होता."
मैं मूक बनी उसकी कहानी सुन रही थी. मेरी कलाई पकड़े उसके हाथ में पसीना आ रहा था. फिर उसने मेरे हाथ को झकझोर कर कहा, "भाभी, बोलो भाभी. मैंने सही निर्णय लिया ना. बोलो ना."
"हां नीरा, बिल्कुल सही निर्णय लिया है," मैंने कहा.
नीरा फूट-फूट कर रो पड़ी. मैंने कहा, "पगली, रोते नहीं, इतने आत्मविश्वास से निर्णय लेने के बाद रोना किस बात का?" मेरी आंखों से भी अश्रु धारा बह निकली थी.
"नहीं भाभी, मैंने आपको प्रैक्टिकल बनने की बात कह कर दुख पहुंचाया था ना. अब जान गई हूं, आप कितनी सही थीं और मैं कितनी पागल."
"हृट पगली, ऐसा नहीं सोचते. तूने तो यह निर्णय लेकर पूरी नारी जाति का मान बढ़ाया है." और मैंने आगे बढ़कर उसका माथा चूम लिया था.
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