ब्रह्मानंद शर्मा
लेखक तो लोगों के मनोभाव व मनोविज्ञान को अच्छी तरह समझते हैं. तुम क्यों नहीं समझ पा रहे? ख़ैर, मुझे लगा शायद अचानक से कही मेरी इस बात पर तुमने बिना सोचे-समझे रिएक्ट कर दिया होगा. तुम्हारे इस रिएक्शन को भूल समझकर उस बात को मैंने कुछ समय के लिए वहीं छोड़ दिया. लेकिन तुम शायद उस बात को नहीं भुला पा रहे थे.
ये भागते-दौड़ते, अपनी रोज़ी-रोटी के लिए दिनभर संघर्ष करते लोग... ये ऊंची-ऊंची इमारतें... बड़े-बड़े मॉल्स की चकाचौंध... कुल मिलाकर शहरी जीवन का कोई भी अंश तुम्हें पसंद नहीं था... “मैं तुम्हारी तरह मशीन नहीं बनना चाहता...” यही शब्द थे तुम्हारे. तुम्हारी हर बात याद है मुझे. कभी अचानक ढेर सारा प्यार उमड़ आता था तुम्हें, तो कभी बिना किसी बात के नाराज़ हो जाते तुम... अजीब स्वभाव था और शायद तुम्हारे स्वभाव की यही अस्वाभाविकता मेरे मन को भा गई थी. आज पुस्तक मेले में तुम्हारी क़िताब देखी, तो फिर से तुम्हारी यादों का मौसम ताज़ा हो गया. तुम्हारा वो आख़िरी फोन... वो आख़िरी शब्द... सब याद है मुझे... “कायर हो तुम और तुम जैसी कायर लड़की से मैं कोई संबंध नहीं रखना चाहता...” यही कहा था तुमने. “अरे मनीषा, तुम यहां?” पीछे से आई एक जानी-पहचानी आवाज़ ने चौंका दिया मुझे. “निर्मल, तुम?” मैं हैरान थी. “मैं अब यहीं शिफ्ट हो गया हूं.” “ओह! मैं तो पिछले काफ़ी वर्षों से कोलकाता में ही रह रही हूं. तुम्हारी नई क़िताब पर नज़र पड़ी, तो रुक गई.” “ओह! अब भी पढ़ती हो मेरी क़िताबें? और बताओ, कैसी हो? क्या कर रही हो आजकल?” “मैं ठीक हूं और अपने एक दोस्त के साथ मिलकर यहां एक ओल्ड एज होम चलाती हूं. मुझे ख़ुशी होती है, जब अपनों द्वारा ही त्यागे गए बुज़ुर्गों की अनुभवी आंखों में हल्की-सी ख़ुशी देने का कारण बन पाती हूं.” “मनीषा, अगर मैं भी तुम्हारे इस लक्ष्य से किसी भी तरह से जुड़ सकूं, तो ख़ुद को ख़ुशनसीब समझूंगा. कम से कम मेरे दिल का बोझ कुछ हद तक तो हल्का होगा.” “कैसा बोझ निर्मल?” “मैं तुमसे माफ़ी मांगना चाहता हूं.” “माफ़ी किस बात की? जो भी हुआ, परिस्थितियों व हमारी विभिन्न प्राथमिकताओं की वजह से.” “नहीं मनीषा, मैं जानता हूं कि मैं ग़लत था. तुम्हारा वो ख़त भी मिला था मुझे. तुमने सच कहा था कि हमारे रिश्ते में मैं ही मैं था... तुम्हारे बारे में तो सोचा ही नहीं मैंने. मुझे माफ़ कर देना. अब मेरे लेखन के साथ-साथ मेरे व्यक्तित्व में भी ठहराव, गंभीरता और परिपक्वता आ गई है शायद, इसीलिए इतनी आसानी से तुमसे माफ़ी मांगने का हौसला भी जुटा पा रहा हूं. मैंने बार-बार तुम्हारे उस ख़त को पढ़ा. जब मन-मस्तिष्क शांत हुआ, तो एहसास हुआ कि अपने ही कारण मैं तुम्हें हमेशा के लिए खोे चुका हूं, लेकिन तुम्हारे ही कारण मैं आज अपनी कमज़ोरियों को कुछ हद तक दूर करने के प्रयास मेें जुटा हूं. कितना कामयाब हुआ हूं, यह तो पता नहीं, पर...” “अरे निर्मल, आप यहां हैं, मैं कब से आपको ढूंढ़ रही हूं, मुस्कान को आइस्क्रीम खानी है, बहुत ज़िद कर रही है और आपकी सासूमां को मूवी देखनी है. जल्दी चलो अब.” ...शायद यह निर्मल की पत्नी है, यह सोच ही रही थी कि इतने में निर्मल ने हमारा परिचय करवाया. निर्मल और मैंने एक-दूसरे के फोन नंबर्स लिए और फिर हमने विदा ली. मैं वहां से लौटकर आ तो गई, लेकिन यूं इतने सालों बाद हुई अचानक मुलाक़ात मुझे फिर से उन्हीं यादों की ओर ले गई, जिन्हें दिल के न जाने किस कोने में मैं दफ़न कर चुकी थी. वो ख़त... वो आख़िरी ख़त... जो निर्मल को मैंने लिखा था. याद है मुझे... ‘निर्मल, तुम्हारे ग़ुस्से को मैं समझ सकती हूं, लेकिन मैं जानती हूं कि मैं कायर नहीं हूं, क्योंकि ज़िंदगी से, अपनी ज़िम्मेदारियों से मुंह मोड़कर मैं नहीं भाग सकती और न कभी भागूंगी. मेरे माता-पिता की बूढ़ी हो चली आंखें मुझमें उम्मीद ढूंढ़ती हैं... उनके चेहरों पर उम्र की जो सिलवटें उभर आई हैं, उनमें उनका दर्द और डर मुझे साफ़-साफ़ नज़र आता है कि ज़िंदगी के इस मोड़ पर मैं उन्हें बीच में ही छोड़ दूंगी. वो भले ही मुझसे कुछ न कहें, लेकिन एक बेटी होने के नाते मैं उनके मौन को समझ रही हूं. वो यह कभी नहीं चाहेंगे कि उनकी ख़ातिर मैं अपनी दुनिया न बसाऊं, लेकिन कहीं न कहीं उन्हें यह डर तो है कि अपनी दुनिया बसाने के जोश में मैं कहीं उन्हें न भूल जाऊं. निर्मल, तुम्हारे लेखन में संवेदनशीलता, गंभीरता और परिपक्वता तो है, लेकिन तुम्हारे व्यक्तित्व से यह तमाम ख़ूबियां नदारद हैं. मैंने स़िर्फ इतना चाहा था कि हमारी शादी के बाद भी मैं अपने माता-पिता की देखभाल करती रहूं, क्योंकि इस उम्र में उन्हें मेरी सबसे ज़्यादा ज़रूरत है और तुम्हारे भी पैरेंट्स नहीं थे. लेकिन इस बात पर तुमने जिस तरह से रिएक्ट किया, उसने मुझे तुम्हारे बारे में फिर से सोचने पर मजबूर कर दिया. बचपन में हमारे पैरेंट्स हमें उंगली पकड़कर चलना सिखाते हैं... हमारे चेहरे पर मुस्कान लाने के लिए जीवनभर बिना किसी शिकायत के संघर्ष करते हैं, लेकिन जब हमारी बारी आती है, तो हमें स़िर्फ अपने सपने, अपनी ज़िंदगी और अपनी सुविधाएं नज़र आती हैं. जिन हाथों को थामकर हम आगे बढ़ते हैं, उनकी कांपती उंगलियों को जब हमारे मज़बूत सहारे की ज़रूरत होती है, तब हम इतने असंवेदनशील और ग़ैरज़िम्मेदार कैसे हो जाते हैं कि इन्हें बोझ समझकर रास्ते पर, किसी मेले की भीड़भाड़ में या किसी ओल्ड एज होम में छोड़ देते हैं? इनकी उम्र के सूनेपन और अकेलेपन को हम क्यों नहीं समझ पाते? इनकी कांपती ज़िंदगी के दर्द को हम अपने सपनों की अंधी-धुंधली दुनिया में देख ही नहीं पाते. निर्मल, इन हालात में जब ज़िंदगी के सबसे कठिन मोड़ पर तुम्हें मेरा साथ देना चाहिए, तब तुमने मेरे सामने ढेर सारी शर्तें रख दीं. शादी के बाद मुझे क्या करना है, क्या नहीं, पूरी लिस्ट जैसे तैयार थी तुम्हारे पास, लेकिन तुम अपनी मर्ज़ी से कुछ भी करने को स्वतंत्र हो. हर शर्त तुम्हारी, हर ज़िद तुम्हारी... इस रिश्ते में तो बस तुम ही तुम हो, मैं कहां हूं? लिखते नारीवाद पर हो तुम, तुम्हारे ज्ञान ने तुम्हें अच्छा लेखक तो बना दिया, लेकिन तुम्हारा अहंकार, तुम्हारी वही पुरुषवादी सोच तुम्हें एक अच्छा इंसान न बना पाई. मेरी बातें आज तुम्हें कड़वी लगेंगी, लेकिन जब तुम ख़ुद पिता बन जाओगे, तब शायद तुम्हें अपनी इसी सोच पर शर्म आए, क्योंकि अपने बच्चों से किस तरह की और कितनी उम्मीदें होती हैं यह तुम शायद पिता बनने के बाद ही समझ सको. मैं किसी ऐसे इंसान से शादी नहीं कर सकती, जो मेरा और मेरे माता-पिता का सम्मान न करता हो. लेकिन यह भी साफ़ कर दूं कि ज़िंदगी में जब कोई ऐसा शख़्स मिल जाएगा, तो ज़रूर शादी करूंगी, इसलिए अलविदा! हमेशा के लिए.’ मैंने इस आख़िरी ख़त के ज़रिए निर्मल से अपने सारे रिश्ते ख़त्म कर लिए थे. आज इस बदले हुए निर्मल को देखकर हैरानी भी हुई और ख़ुशी भी. यक़ीन नहीं हो रहा, यह वही निर्मल है... मन फिर से बीते व़क्त की डोर को पकड़ने लगा... “निर्मल, हम शादी के बाद बड़ा-सा घर लेंगे. हम दोनों ही ठीक-ठाक कमाते हैं, तो घर भी बड़ा होना चाहिए, ताकि मैं, तुम और मम्मी-पापा सब मज़े से रह सकें.” “मनीषा, तुम पागल हो क्या? तुम्हारे मम्मी-पापा हमारे साथ...? शादी के बाद मैं हम दोनों की ज़िंदगी में किसी का भी हस्तक्षेप बर्दाश्त नहीं करूंगा. कान खोलकर यह बात तुम सुन भी लो और समझ भी जाओ.” पहली बार तुम्हारा यह रूप देखकर मैं हैरान रह गई थी. तुम तो जानते थे कि मेरे पैरेंट्स की ज़िम्मेदारी मुझ पर है, उनकी देखरेख करनेवाला कोई भी नहीं. अपनी संतान के होते हुए दूसरे रिश्तेदारों या नौकरों के भरोसे तो नहीं छोड़ सकती थी उन्हें. लेखक तो लोगों के मनोभाव व मनोविज्ञान को अच्छी तरह समझते हैं. तुम क्यों नहीं समझ पा रहे? ख़ैर, मुझे लगा शायद अचानक से कही मेरी इस बात पर तुमने बिना सोचे-समझे रिएक्ट कर दिया होगा. तुम्हारे इस रिएक्शन को भूल समझकर उस बात को मैंने कुछ समय के लिए वहीं छोड़ दिया. लेकिन तुम शायद उस बात को नहीं भुला पा रहे थे. “मनीषा, तुम बच्ची नहीं हो, जो हर बात अपने पैरेंट्स से पूछकर करती हो. अपने निर्णय ख़ुद लो और उनको बस इंफॉर्म कर दो.” जब भी मैं तुमसे कोई बात शेयर करती और अपने पैरेंट्स का ज़िक्र करती, तो तुम इसी तरह की बातें करते. और उस दिन तो तुमने हद ही कर दी, जब हमने शादी करने का निर्णय गंभीरता से लिया. “मनीषा, मैं तुम्हें अपनी जीवनसंगिनी के रूप में देखना चाहता हूं. बस, अब जल्दी से आकर मेरा घर और मुझे संभाल लो.” “ठीक है निर्मल, बस अब जल्दी से मेरे मम्मी-पापा से आकर मिल लो और फिर तुमने भी तो नया पब्लिकेशन हाउस जॉइन किया है. अब हमें नए शहर में शिफ्ट करना होगा, तो उस हिसाब से मुझे अपने पैरेंट्स को भी वहीं शिफ्ट करने का इंतज़ाम भी तो करना है.” “बस करो यह बकवास मनीषा, शादी हम दोनों को करनी है. तुम्हें मैं पसंद हूं, तो तुम्हारे पैरेंट्स कौन होते हैं मुझे पसंद-नापसंद करनेवाले? रही बात उनके शिफ्ट होने की, तो वो क्यों शिफ्ट होंगे?” “निर्मल, इसमें हर्ज ही क्या है? वो अलग रहेंगे, मगर एक ही शहर में होंगे, तो मुझे भी तसल्ली रहेगी.” “मनीषा, तुम अगर मुझसे प्यार करती हो और मेरे साथ रहना चाहती हो, तो जितना जल्दी हो सके, अपना फाइनल डिसीज़न बता दो- तुम्हें अपने पैरेंट्स और मुझमें से एक का ही साथ मिलेगा, यह बात तुम समझ जाओ. मैं कल बैंगलुरू शिफ्ट हो रहा हूं. हमारे नए घर का पता भी तुम्हें दे रखा है, बहुत देर मत करो निर्णय लेने में. अगर तुम्हारी हां है, तो कल एयरपोर्ट पर मुझे छोड़ने आ जाना... वरना...” कितनी आसानी से उस काग़ज़ के टुकड़े पर पता लिखकर तुम वहां से चले गए थे. एक बार भी मुझे समझने की कोशिश नहीं की. ऐसे भावनाविहीन इंसान के साथ कैसे रहूंगी ज़िंदगीभर? नहीं, मैं नहीं जाऊंगी कल एयरपोर्ट. यही मेरा अंतिम निर्णय है. मेरे माता-पिता और तुम्हारे प्यार के बीच अगर किसी एक को ही चुनने की शर्त तुम मेरे सामने रखोगे, तो एक बार नहीं, हर बार मेरा यही निर्णय होगा. अगले दिन तुमने बैंगलुरू पहुंचकर मुझे फोन पर कायर और न जाने क्या-क्या कहा था... पर मैंने अपना मन कठोर करके तुम्हारी हर बात को चुपचाप सुन लिया था, क्योंकि मैंने निर्णय ले लिया था और यह मेरा अंतिम निर्णय था.अधिक शॉर्ट स्टोरीज के लिए यहाँ क्लिक करें – SHORT STORIES
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