आज भी उसके कानों में अपनी देवरानी के शब्द गूंज रहे थे, "पता नहीं कैसी मां है? पति तो पहले ही जा चुका है अब इकलौते बेटे को भी ख़तरे में डाल रही है." अंदर से शायद डर होगा कि जेठानी अकेली होगी, तो उन्हें न संभालना पड़े.
गीता की आंखों में ख़ुशी के आंसू थे और गला भावातिरेक में रुंधा हुआ था.
फोन पर लगातार बधाइयों का तांता बंधा हुआ था और वह भीगी आंखों से दीवार पर लगी पति की तस्वीर के सामने खड़ी थी, "देख लो… तुम्हारे बेटे ने तुम्हारे सपने को किन ऊंचाईयों तक पहुंचा दिया है."
आज जब चारों तरफ़ से बधाइयों के संदेसे आ रहे थे, तो बेटे के लिए गर्व होने के साथ-साथ गीता का मन इस समाज की दोहरी मानसिकता पर हंस भी रहा था. वाकई यहां पर चढ़ते सूरज को सब सलाम करते हैं डूबते को तो कोई भी नहीं पूछता.
आज भी उसके कानों में अपनी देवरानी के शब्द गूंज रहे थे, "पता नहीं कैसी मां है? पति तो पहले ही जा चुका है अब इकलौते बेटे को भी ख़तरे में डाल रही है." अंदर से शायद डर होगा कि जेठानी अकेली होगी, तो उन्हें न संभालना पड़े.
पति की मृत्यु के साल भर बाद ही जब बेटे का एनडीए में चयन हुआ था, तो गीता स्वयं भी बहुत पशोपेश में थी. इस परीक्षा में सफलता बहुत बड़ी उपलब्धि थी बेटे के लिए.
बेटे को देश सेवा में भेजने का विचार जहां उसे गौरवान्वित कर रहा था, वहीं फिर से कोई अनिष्ट ना हो, इस सोच ने उसे भी बहुत डराया था. परंतु बेटे की इच्छा के सामने उसने अपनी पशोपेश को ज़ाहिर नहीं होने दिया था.
पहले ही बेटा उसे बहुत बार समझा चुका था, पर मां का दिल बार-बार हिल ही जाता था.
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सदा से ही देश सेवा के लिए सेना में भर्ती होने के इच्छुक पति का स्वप्न अपने लिए तो पूरा नहीं हो पाया था, पर कब उनका यह अधूरा सपना उनके इकलौते बेटे का भी सपना बन गया गीता और उसके पति को आभास ही नहीं हुआ.
बचपन में सैनिक स्कूल में प्रवेश ना मिल पाने को शायद उसने एक चुनौती के रूप में स्वीकार किया था और धीरे-धीरे यह चुनौती उसके लिए एक जुनून बन गई थी.
पिता की मृत्यु के बाद जब उसने एनडीए की परीक्षा देने के लिए अपनी मां गीता से अनुमति मांगी थी, तो गीता बहुत घबराई थी.
पति को खोने का ज़ख़्म अभी ताज़ा था. कुछ और ग़लत ना हो जाए, यह विचार उसे बेटे को अनुमति देने से रोक रहा था.
एक क्षण के लिए गीता को भी यही लगा था कि कहीं ऐसा तो नहीं कि पिता की अधूरी इच्छा को पूर्ण करने की ज़िम्मेदारी अपने कंधों पर लेना चाहता है. परंतु बेटे के उत्तर ने उसके मन से यह बोझ उतार दिया था.
लेकिन फिर भी इकलौते पुत्र को स्वयं से दूर भेजने का विचार उसे डरा रहा था, लेकिन यहां भी 17 वर्ष के उस किशोर ने अपनी मां को समझा दिया था, "अगर सभी ऐसा समझने लगेंगे, तो फिर कौन जाएगा सीमा पर रक्षा के लिए? देश सेवा का अवसर हर एक को नहीं मिलता… भाग्यशाली होते हैं वो लोग, जो इस योग्य समझे जाते हैं और अनहोनी तो कभी भी.. कहीं भी.. किसी के भी साथ हो सकती है. क्या अनहोनी के डर से हम सड़कों पर चलना बंद कर देते हैं? नहीं ना.. तो फिर सेना में भर्ती होना अपवाद कैसे हो गया? मुझे पता है पापा होते, तो आप इस विषय में दूसरी सोच भी अपने मन में ना आने देतीं, लेकिन अब स्थिति अलग है, फिर भी इस स्थिति से निपटना हम दोनों को ही है."
बेटे की समझदारी भरी बातें सुनकर गीता अपने मन के डर को भगाने में कामयाब हुई थी और हृदय तल से बेटे को आशीष दिया था और उसी आशीष का परिणाम था की प्रथम प्रयास में ही बेटे का चयन हो भी गया था.
उस वक़्त भी बधाइयों की कड़ी लगी थी, लेकिन उसके साथ-साथ बहुत से दबे-दबे स्वर भी सुनाई पड़े थे, उन लोगों के जिनके बच्चे असफल हुए थे.
पीठ पीछे बातें करनेवालों के भी दो गुट थे… एक गुट को स्वर्गवासी पति के बेटे से बहुत सहानुभूति थी, "जिसकी मां उसे ज़बरदस्ती पिता का सपना पूरा करने के लिए सेना में धकेल रही थी…" और दूसरे गुट को यह परेशानी थी कि "पति तो चला गया अब बेटे को भी भेज रही है, स्वच्छंद रहना चाहती होगी…"
कई उंगलियां गीता के चरित्र पर भी उठ गई थीं.
सब चीज़ों को नज़रअंदाज़ करके बेटे की ख़ुशी के लिए गीता ने बेटे को भेज दिया और स्वयं अपनी शिक्षिका की नौकरी में व्यस्त हो गई.
लगभग साढ़े चार साल बाद जब बेटे ने अपनी वायु सेना की ट्रेनिंग पूरी की और पासिंग आउट परेड में पूरी वर्दी पहनकर मां को सैल्यूट मारा, तो गीता का सिर फख्र से ऊंचा हो गया था.
वर्दी में सजे बेटे के पीछे स्वर्गवासी पति की आशीर्वाद देती हुई परछाईं दिखाई दे रही थी.
बीते वर्षों में सुनी हुई सारी कड़वी बातें और अपने ऊपर लगे सारे आक्षेप उस एक पल के सामने फीके पड़ गए थे. जहां स्वयं की नियुक्ति हुई बेटा गीता को अपने साथ ले गया, "बस मां, बहुत अकेला रह लिया आपने, नौकरी छोड़ो और मेरे साथ चलो."
गीता भी पूरे मान के साथ बेटे की दुनिया बसाने चल पड़ी.
समय के साथ-साथ बेटे का घर-परिवार भी बसा और वायु सेना में भी सीढ़ी दर सीढ़ी ऊपर चढ़ता गया, पर मां के सम्मान में ना तो कभी बेटे ने और ना ही कभी बहू ने अंतर आने दिया.
आज सुबह ही इस घोषणा के साथ कि इस बार गणतंत्र दिवस पर होनेवाली परेड में वायु सेना के शक्ति प्रदर्शन के लिए जो जहाज उड़ाए जाएंगे उनमें से एक पायलट.. गीता का बेटा भी होगा, गीता को सम्मान के सबसे ऊंचे सिंहासन पर बैठाने के लिए पर्याप्त था.
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पारिवारिक व्हाट्सएप ग्रुप में जैसे ही यह ख़बर बेटे ने डाली. बधाइयों के फोन शुरू हो गए थे और अब पीछे-पीछे उठनेवाले अस्फुट स्वर भी मौन हो चुके थे, क्योंकि गीता की तपस्या और उसके बेटे की सफलता की गूंज कहीं ज़्यादा दूर तक फैल गई थी.
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