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कहानी- अंतिम निर्णय (Short Story- Antim Nirnay)

"मैं सोच रही थी, यह बात तुम कहोगे ही. बहुत समय लगाया इस बात को कहने में. जानती थी. इसी बात से तुम मुझे डराओगे, झुकाओगे पर अब सुन लो, तुम स्वेच्छा से तलाक़ ले सकते हो."

जीवन में ऐसा भी पल आएगा, उसने सोचा न था. वह ऐसे पल आ कर रुक गई थी, जिस पल उसे निर्णय लेना अनिवार्य हो गया था. निर्णय उसके पक्ष में भी हो सकता था और विपक्ष में भी. उसके निर्णय से उसका भावी जीवन प्रभावित होगा, पारिवारिक जीवन भी प्रभावित हुए बिना नहीं रहेगा, निर्णय के दूरगामी परिणाम भी होंगे, पर कुछ परिणाम तो तुरंत होंगे, जिसके लिए उसे तैयार रहना पड़ेगा.

जीवन में ऐसी परिस्थितियां क्यों आती है? अनचाही और अनपेक्षित स्थिति उसकी स्वयं की निर्मित तो नहीं है? क्यों वह दूसरे के हाथों की कठपुतली बने? कठपुतलीकार जैसे भी उसे नचाए, वह नाचती जाए? नहीं, वह कठपुतली नहीं बनेगी, पुरुष होने के नाते उसका पति हर बार उस पर अपना हक़ ही जमाता रहेगा? अपनी इच्छा-अनिच्छा के अनुसार उसे झुकाता रहेगा? नहीं, वह झुकेगी नहीं...

नीना सोचते-सोचते थक गई. उसे जीवन-पथ पर भी आश्चर्य होने लगा.

क्यों हम ऐसी जगह आकर रुक जाते हैं या रोक दिए जाते हैं? मनुष्य की इच्छा सर्वोपरि क्यों नहीं होती? क्यों हम अपनी इच्छानुसार कर्म नहीं कर सकते? दूसरों के मत, इच्छा और निर्णय के आगे झुकने वाली स्थिति क्यों पैदा हो जाती है?

इच्छानुसार कर्म नहीं कर सकते? सही-ग़लत, भला-बुरा, कर्तव्य-अकर्तव्य का निर्णय लेना, हमारा अधिकार क्यों नहीं रह जाता? दूसरों के मत, इच्छा और निर्णय के आगे झुक्ने वाली स्थिति क्यों पैदा हो जाती है?

नीना का विवाह हुए दो वर्ष से अधिक का समय बीत गया है. पिता की इकलौती संतान थी वह. अपनी मनमर्ज़ी से पढ़ी, समाज शास्त्र में एम.ए. पास हुई. विवाह हुआ उसी की पसंद से, उसे सरकारी नौकरी भी मिली. उसके पति ने नौकरी

छोड़ने की शर्त रखी, पर उसने नहीं मानी, क्योंकि विवाह के बाद आर्थिक रुप से पति पर निर्भर रहना उसे पसंद न था. पति मान गया. उसका पति एक गैरसरकारी कारखाने में असिस्टेंट मैनेजर के पद पर काम करता था. पर्याप्त कमाई थी. नीना के पिता और उसके सास-ससुर दूर गांव में रहते थे.

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विवाह के बाद दो वर्षों तक संतान नहीं होगी, पति के इस मत से वह सहमत हो गई थी और पति को सहयोग भी देती आई थी. परंतु अब तो वह गर्भवती हो चुकी थी. तीन माह का गर्भ उसके पेट में पल रहा था. पति चाहता था, भ्रूण-परीक्षण करवा लिया जाए. भ्रूण यदि लड़का हो तो उसे जन्म दिया जाए और लड़की हो तो

गर्भपात करवा लिया जाए. नीना इसके लिए तैयार नहीं थी. भ्रूण-परीक्षण हालांकि सरकार ने अवैध घोषित कर दिया था, पर लुके-छिपे कुछ डॉक्टर मनमानी फीस ले ही रहे थे.

नीना तो लड़की को जन्म देने में भी प्रसन्न थी, पर उसका पति नहीं चाहता था. लड़का ही हो, नीना की ज़िद नहीं थी, पर पति की थी. नीना पर उसका पति सुरेश ज़ोर डाल रहा था कि वह डॉक्टर के पास जा कर भ्रूण-परीक्षण करवा ले.

एक दिन सुरेश ने जब बहुत ज़ोर दिया तो नीना

खीझ उठी, "तुम्हें संतान के रूप में लड़की का जन्म क्यों पसंद नहीं है?"

"लड़की अपने साथ ज़माने भर के ख़र्च लेकर आती है." सुरेश ने अपने मन की बात कही नीना के प्रश्न के उत्तर में.

"और लड़का नहीं लाता?"

"ऐसा तो नहीं है, पर वह अपने दहेज में सारा ख़र्च वसूल कर लेता है."

"जैसे आपने मेरे पिता से वसूल कर लिया था?"

"यह तो जग की रीत है."

"तुम्हारा इतना पढ़ना-लिखना, इतनी शिक्षा और डिग्रियां व्यर्थ है, यदि ऐसे विचार रखते हो तो."

"क्यों अपनी पसंद के पीछे अपने घृणित इरादे

छिपा रहे हो?"

"कह दिया न कि मुझे लड़का चाहिए,"

"और लड़की नहीं चाहिए, यह भी कभी सोचा है कि हर दंपति यदि संतान के रूप में लड़के को ही जन्म देते रहेंगे, तो प्रकृति ने लड़‌कियों और लड़कों का जो अनुपात बनाया है, उसका संतुलन बिगड़ेगा नहीं?

मान लो ९९६ लड़के पैदा होते हैं तो १०० लड़कियां पैदा होती हैं. १६ लड़के जन्म के बाद मर जाते है. इन १६ लड़कों में हमारा भी लड़का हो तो? क्या करोगे फिर?"

"दूसरी बार भी वही करेंगे, भ्रूण-परिक्षण करवा कर लड़का ही पैदा करेंगे."

"मतलब हर बार प्रयत्न करते रहोगे. हर बार गर्भवती होने पर भ्रूण-परीक्षण करवाते रहोगे और लड़की हुई तो उसे मारते रहोगे? यही कहना चाहते हो न?"

"बिल्कुल सही है तुम्हारा सोचना."

"पर इसके लिए मैं कतई तैयार नहीं हूं और न भविष्य में तैयार होऊंगी."

"क्या तुम अपने पति की इच्छा की अवहेलना करती रहोगी? हिंदू पत्नी होने के बावजूद भी?"

"जब तक तुम लड़का और लड़की के बीच फ़र्क़ करते रहोगे, जब तक लड़के की ही कामना करते रहोगे. जब तक लड़के को लड़की से श्रेष्ठ समझते रहोगे, तब तक...”

"सच बताओ, क्या तुम्हे लड़‌के की कामना नहीं है?"

"कामना नहीं है, ऐसा मैंने कब कहा है? पर लड़का ही हो, मेरा ऐसा हठ नहीं है. और फिर, क्या संसार में तुम्हारी इच्छा ही सब कुछ है? क्या यह संसार तुम्हारी इच्छा से संचालित होता रहेगा?"

"संस्कार हमारी इच्छा से चले या न चले, हमें इच्छा करने का अधिकार है. क्यों हम यह अधिकार छोड़ दे?"

"कभी यह भी सोचा है, हर पति-पत्नी लड़के की ही कामना करते रहे और लड़के को हो जन्म देते रहें तो लड़कों का ब्याह किससे करोगे?" "लड़कियों की कमी नहीं है संसार में."

"पर तुम्हारी इच्छानुसार तो लड़कियों की कमी हो जाएगी समाज में. कहां से लाओगे बहू अपने लड़के के लिए?"

"अरे, बहुत रईस मूर्ख पड़े है इस संसार में जो लड़कियों को पैदा करते रहते हैं."

"मतलब, अभी भी तुम्हारी इच्छा है, किसी रईस मूर्ख की लड़की को बहू बनाकर मोटा दहेज वसूल करने की?"

" बिल्कुल सही है."

"ख़ूब अच्छे विचार है तुम्हारे अब मेरा भी अंतिम निर्णय सुन लो. मैं किसी भी शर्त पर भ्रूण-परीक्षण नहीं करवाऊंगी. लड़की की अपेक्षा लड़के को श्रेष्ठ समझने वाली मान्यता का विरोध करूंगी."

"देखो, तुम सीमा से बाहर जा रही हो."

"मैं सीमा से बाहर नहीं जा रही हूं, तुम जा रहे हो. मैं अपनी सीमा में ही हूं और रहना भी चाहती हूं. तुम सीमा तोड़ना चाहते हो. पुरुष हो न? इसलिए ही न? पति की इच्छा के आगे पत्नी झुकेगी नहीं. और जब समस्त स्त्री जाति का अनादर किया जा रहा हो, तब तो बिल्कुल नहीं झुकेगी."

"तुम्हारा अंतिम निर्णय है यह?"

"हां."

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"इस बात पर मैं तुमसे तलाक़ लेना चाहूं तो भी?"

"मैं सोच रही थी, यह बात तुम कहोगे ही. बहुत समय लगाया इस बात को कहने में. जानती थी. इसी बात से तुम मुझे डराओगे, झुकाओगे पर अब सुन लो, तुम स्वेच्छा से तलाक़ ले सकते हो."

"तुम तलाक़ के लिए तैयार हो?"

"मैं तो इस बात पर तलाक़ नहीं लेना चाहती. तलाक़ तो तुम लेना चाहते हो."

"कैसे पालन-पोषण करोगी उस जीव का, जो तुम्हारे गर्भ में पल रहा है?"

"मुझे डराने का प्रयत्न मत करो. मैंने सोच लिया है, मां बनूंगी और अपनी संतान का पालन-पोषण करूंगी, पर उसकी हत्या के लिए मैं कभी तैयार नहीं होऊंगी."

"अकेले अपनी संतान की परवरिश कर लोगी?"

"फिर कह रही हूं डर मत दिखाओ. मैं पीछे हटने वाली नहीं हूं. वैसे भी संतान के लिए मां ही सब कुछ करती है. पति पुरुष होने पर भी आख़िर करता क्या है? सिर्फ़ पैसा कमा कर ही लाता है न? घर के सारे काम तो स्त्री ही करती है न?

मां इस धरती पर न होती तो पुरुषों की क्या दुर्गत होती? तुम भी तो किसी मां की ही संतान हो न? तुम्हारी भी मां है न?" नीना ने क्रोध के आवेश में यह सब कह डाला.

नीना और सुरेश के बीच इस शीतयुद्ध की तैयारी बहुत दिनों से चल रही थी. दोनों ने अपने-अपने पक्ष के समर्थन में तर्क जुटाकर रखे थे जो बोल दिए गए थे. तर्कों की समाप्ति क़रीब-क़रीब दोनों की हो चुकी थी. वार्ता का दौर समाप्त हो चुका था. अब दोनों पक्षों की ओर से कर्म करने की बारी आ गई थी. पहल कौन लेता है, यही देखना है.

सुरेश संपूर्ण स्त्री जाति का अपमान, निरादर करने पर तुल गया था. पुत्र प्रेम की कामनावश और नीना स्त्री जाति को अपमान से, निरादर से बचाने का प्रयास कर रही थी. सफलता किसे मिलेगी, यह कहना कठिन है.

"तुम भी पुरानी मान्यताओं से ऊपर नहीं उठ सकते?"

"मेरी शिक्षा और मान्यता का प्रश्न मत उठाओ. संतान के रूप में मुझे लड़का पसंद है. बस, इसके सिवाय कुछ नहीं."

कुछ दिनों तक पति-पत्नी में इस विषय पर कोई विशेष बातचीत नहीं हुई.

और फिर एक दिन सुरेश ने नीना से कहा, "अब मैं अपने फ़ैसले को क्रियान्वित करने जा रहा हूं."

"किस फ़ैसले को?" नीना ने पूछा.

"वकील से पूछ लिया है? सलाह ले ली है? तलाक़ के लिए जै कारण हैं, उनमें से किसी एक पर भी तुम तलाक़ नहीं ले सकते हो?"

"हा़, यह बात तो है."

"तो फिर..?"

"आपसी समझौते से तलाक़ हो सकता है. हमारे अपने-अपने पक्षों की ओर से दो-दो संभ्रांत व्यक्तियों के गवाह के रूप में हस्ताक्षर मात्र होंगे."

"तो तुमने अपने गवाह बटोर रखे होंगे?"

"पर मेरे गवाह? मेरी ओर से तो कोई गवाह बनने के लिये तैयार नहीं होगा."

"तलाक़ लेना है, तो गवाह की तैयारी भी करनी होगी."

"मतलब तुम्हारा, पैसा आदि देकर?"

"जैसे भी हो. यदि हम साथ-साथ नहीं रह सकते, भ्रूण-परीक्षण करवाने पर एकमत नहीं हो सकते, तो यह सब तो करना ही पड़ेगा."

"ठीक है, सोच कर बताऊंगी." नीना ने बात ख़त्म की.

नीना ने अपने दफ़्तर की सहेलियों से इस विषय पर बातचीत की. कुछ की राय थी, पति की इच्छा मान ली जाए. छोटी सी बात पर तलाक़ की नौबत न लाई जाए, पर कुछ दूसरी सहेलियों का मत यह था. पति की इच्छा के आगे झुक कर स्त्री जाति का अपमान न किया जाए. बात तलाक़ की आ जाती है तो तलाक़ ले लिया जाए.

नीना दुविधा में पड़ गई थी. क्या करें और क्या न करें? उसकी समझ में नहीं आ रहा था.

उस रात नीना ठीक से सो न सकी. उसे अपने दो वर्षों के वैवाहिक जीवन के सुख याद आने लगे. सुरेश उसे कितना प्यार करता था. भावी जीवन के सपनों का कितना सुंदर संसार दोनों ने मिल कर सजाया था, पर अब वही सुरेश सब कुछ मटियामेट करने पर तुल गया है. फिर दूसरा विचार उसके मन में आता, क्या वह अपने पति को तलाक़ दे दे? पति के बिना वह अपनी भावी संतान का, चाहे लड़की हो या लड़का हो, पालन-पोषण अकेले कर सकेगी? इतनी हिम्मत और साहस उसमें है? पर उस दिन बात-बात में उसने यह हिम्मत और साहस सुरेश के आगे दिखा दिया था. आज यह कमज़ोरी उसके मन में कहां से पैदा हो रही थी? परंतु पति के मर जाने के बाद विधवाएं अपनी संतान का पालन-पोषण स्वयं करती हैं कि नहीं? वह भी कर लेगी. हो सकता है, उसक गर्भ में लड़का ही पल रहा होगा. फिर पति से झगड़ा और तलाक़ किस बात के लिए? क्या वे एक बीच का रास्ता नहीं हो सकता है कि यदि वह लड़के को जला दे तो सुरेश उसे तलाक़ देने का विचार छोड़ दे? पर आज तो सुरेश इस बात की गारंटी चाहता है और उसी के लिए वह भ्रूण परीक्षण करवाना चाहता है. क्या वह मानेगा? कभी नहीं.

नहीं, नीना भ्रूण परीक्षण नहीं करवाएगी. स्त्री

जाति का अपमान और निरादर नहीं करेगी. स्त्री-प्रतिष्ठा के लिए वह अपना सब कुछ दांव पर लगा देगी.

दूसरे दिन दफ़्तर जाते समय सुरेश ने कहा, "आज दफ़्तर से लौटने के बाद तुम अपना आख़िर फ़ैसला बता देना."

"क्या तुम मुझसे तलाक़ लेकर दूसरा ब्याह रचाओगे?" नीना ने पूछा.

"अब प्रश्न तो तलाक़ का है. तलाक़ के बाद मैं क्या करूंगा और क्या नहीं करूंगा, इन बातों

का जानना तुम्हारे लिए ज़रूरी नहीं है." सुरेश ने कहा.

"नहीं, मैं यह कहना चाहती थी कि तुमने दूसरा विवाह किया और तुम्हारी दूसरी पत्नी भी मेरी जैसी ही निकली, तब क्या तुम उसे भी तलाक़ दे दोगे?"

"यह उस समय सोचा जाएगा." सुरेश ने अपनी बात ख़त्म की, फिर वे दोनों अपने-अपने दफ़्तर चले गए.

नीना के मन में एक विचार आया, क्या वह अपनी सारी रिथति अपने पिता को समझा कर सुरेश पर तलाक़ न देने के लिए दबाव डलवाए? पर पिता को वह इस मामले में क्यों घसीटे? तलाक़ होने पर वह आर्थिक दृष्टि से आत्मनिर्भर होने के कारण पिता पर बोझ नहीं बनेगी. इस बात में

सुरेश ने जब अपने माता-पिता को नहीं घसीटा है तो वह भी अपने पिता को क्यों घसीटे? दिनभर वह सोचती-विचारती रही. अंतिम निर्णय क्या लिया जाए, वह तय नहीं कर पा रही थी. अंत में उसने सोचा, संध्या के समय घर लौटने पर जो भी होगा, जो भी परिस्थिति पैदा होगी, उसके अनुसार कदम उठाएगी. बहुत कुछ तो वह सोच चुकी है, तय कर चुकी है.

संध्या के समय जब वह घर लौटी तो सुरेश नहीं लौटा था. हाथ-मुंह धोकर उसने चाय बनाई. चाय पीकर वह अपने बिस्तर पर लेट गई.

सात बजे के क़रीब सुरेश घर आया. उसके

पास बहुत से पैकेट थे. खाने-पीने की सामग्री ढेर सारी थी. कुछ खिलौने भी थे.

नीना ने जब यह सब देखा तो वह कुछ भी समझ न पाई, केवल देखती भर रही.

सुरेश ने कहा, "उठो, देखो मैं क्या-क्या ले आया हूं."

हताश-निराश नीना बिस्तर से उठ तो गई, पर उसके मन में कोई उत्साह न था.

"तो तुम तलाक़ देने के लिए तैयार हो?"

"हां." बड़े ज़ोर से नीना ने कहा, जैसे सुरेश बहरा हो.

"पर श्रीमती नीना देवी, हमने अपना इरादा बदल दिया है. हम तुमसे तलाक़ नहीं लेंगे."

"यह सब क्या कह रहे हो? तुम्हारा दिमाग़ तो ठिकाने है न?"

"नीना देवी, हमारा दिमाग़ पूर्णतः संतुलित है. हमने कोई नशा भी नहीं किया है. आज पूरे दिन हमने दफ़्तर में ख़ूब सोच-विचार किया है. जो स्त्री, नारी जाति की इतनी बड़ी समर्थक हो, नारी जाति की प्रतिष्ठा की इतनी चिंता करती हो कि उसके लिए अपने पति को भी छोड़ देने के लिए तैयार हो जाती है, ऐसी पत्नी रुपी स्त्री को हम तलाक़ नहीं देंगे, हमारी संतान चाहे लड़का हो या लड़की हो. लड़के के लिए हम उसकी माता का त्याग नहीं करेंगे."

"यह भाषण कहां से सीख कर आए हो? बंद

करो यह नाटक."

"यह भाषण नहीं है और न यह हम कहीं से सीखकर आए हैं. हमारी अंतरात्मा ने यह सब कुछ समझा दिया है."

"अपना मुंह बंद करते हो या नहीं?"

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"नहीं, आज हम अपना मुंह बंद नहीं करेंगे. आज हम बहुत से खिलौने भी लाए हैं. उनसे हम खेलेंगे और तब तक खेलेंगे, जब तक इस घर में कोई बालक या बालिका उनके साथ खेलने के लिए नहीं आ जाती." सुरेश कहता ही गया.

नीना को लगा, यह शायद नाटक का अंतिम दृश्य देख रही हो.

सुरेश ने नीना को बिस्तर से उठाया और बांहों में भर लिया. नीना की आंखें छलछला आई थीं. वह कुछ भी बोल नहीं पा रही थी.

सुरेश ने कहा, "नीना, हो सके तो मुझे क्षमा कर देना, बहुत सख्ती बरती है तुम्हारे साथ. बहुत क्रूरता से व्यवहार किया है तुम्हारे साथ."

नीना ने हिम्मत जुटाकर कहा, "बंद करो अब अपनी बकवास."

नीना अपने पति की बांहों से अलग हुई. सुरेश ने एक खिलौना उठाया और नीना के कानों के पास लाकर ज़ोर से दबाया. खिलौने की आवाज़ सुन नीना घबरा गई, फिर दोनों ज़ोरों से हंस पड़े.

- डॉ. हीरालाल ठाकुर


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