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कहानी- अपना घर (Short Story- Apna Ghar)

पूनम अहमद

नेहा के बिना कहे भी स्पष्ट था कि एक लंबे समय के लिए उस घर में उन दोनों का रहना मुश्किल था. कितने चाव से वे अपना सब कुछ समेट कर यहां आए थे. रिटायरमेंट के बाद अपना घर बनाना तो दूर, यहां वो अपनी पहचान ही खो बैठे थे. बेटे-बहू के व्यस्त जीवन में उनका कौन-सा स्थान है, वे समझ नहीं पा रहे थे.

मुंबई सेंट्रल पर ट्रेन रुकी तो मोहन शास्त्री अपनी पत्नी नंदिता के साथ ट्रेन से उतरकर खड़े हो गए. स्टेशन पर एक दूसरी ही दुनिया लग रही थी. लगा कहां जा रहे हैं सब. अपने-अपने घर या अपने घर से दूर? सभी को जल्दी थी. अचानक दोनों की नज़र अपने बेटे राजीव और बहू नेहा पर पड़ी. दोनों ने उनके पैर छुए, तो नंदिता ने तो बहू नेहा को गले ही लगा लिया. नंदिता नेहा से नया संबंध जोड़ने के लिए अति उत्साहित थी. पिछले महीने ही शामली में विवाह के एक हफ़्ते बाद ही राजीव नेहा के साथ मुंबई वापस आ गया था. रिश्तेदारों की भीड़ और नए-पुराने रीति-रिवाज़ों की भीड़ में नंदिता का बहू से केवल औपचारिक रिश्ता ही बन पाया था. फोन पर भी ज़्यादा बात राजीव ही करता था.
स्टेशन से ठाणे तक लगभग एक घंटे की ड्राइव में नेहा चुप ही थी. मोहनजी और राजीव तो वैसे भी आपस में कम बोलते थे, बस नंदिता ही सबसे कुछ न कुछ बात करती रहती थी. राजीव और उससे बड़ी प्रिया जब स्कूल जाते थे, उनकी स्कूल की बातें बिना सुनें उसे चैन नहीं आता था.
नंदिता कार से बाहर देख रही थी. तेज़ रफ़्तार गाड़ियां जिस अनुशासन से अपनी-अपनी लाइन में फर्राटे से भाग रही थीं, नंदिता को किसी दौड़ प्रतियोगिता की आवाज़ आने लगी. अब वे ख़ुद भी तो उस दौड़ का हिस्सा थे. घर पहुंचकर मोहनजी और नंदिता नहा-धोकर खाना खाकर आराम करने लगे. राजीव-नेहा के नए घर में लेटते ही नंदिता को अपना शामली का घर याद आ गया, जहां उन्होंने जीवन का एक बड़ा हिस्सा बिताया था. मोहनजी के रिटायर होने पर राजीव के विवाह के बाद वे अपना घर बेचकर यहां आ गए थे. प्रिया दिल्ली में थी. दोनों जीवन-संध्या की यह बेला बेटे-बहू के साथ बिताना चाहते थे. समय की धुरी पर चलता अतीत में खोया मन कब निश्‍चेष्ट हो गया, पता ही नहीं चला.
नेहा का समय ऑफिस और घर के कामों में बीतता था. नंदिता ने कहा, “बेटा, घर के कामों की चिंता मत किया करो. काफ़ी काम तो मेड कर ही जाती है, बाकी मैं कर ही लूंगी. पूरा दिन खाली तो रहती हूं.” लेकिन नेहा उन्हें कोई ज़िम्मेदारी नहीं सौंपना चाहती थी. सब काम ख़ुद करना पसंद करती थी. अपनी गृहस्थी में उसे किसी का हस्तक्षेप पसंद नहीं था और सास का तो बिल्कुल भी नहीं.

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नंदिता को घर के कामों से अलग-थलग रखने में नेहा का नंदिता के प्रति सेवाभाव होता, तो बात और थी, पर नेहा बिल्कुल नहीं चाहती थी कि नंदिता किसी भी रूप में उसके घर-संसार से जुड़े. प्रत्यक्षतः वह इतना ही कहती, “नहीं मम्मीजी, कोई काम होगा, तो बता दूंगी. आप लोग बस आराम करें.” वे दोनों उसके लिए केवल मेहमान थे और एक सीमा के बाद अनचाहे भी. ऐसा भी नहीं कि यहां उसके कोई और रिश्तेदार थे, उसके माता-पिता भी नेहा के विवाह के बाद अपने बेटे के पास अमेरिका चले गए थे.
नेहा के बिना कहे भी स्पष्ट था कि एक लंबे समय के लिए उस घर में उन दोनों का रहना मुश्किल था. कितने चाव से वे अपना सब कुछ समेट कर यहां आए थे. रिटायरमेंट के बाद अपना घर बनाना तो दूर, यहां वो अपनी पहचान ही खो बैठे थे. बेटे-बहू के व्यस्त जीवन में उनका कौन-सा स्थान है, वे समझ नहीं पा रहे थे. वातावरण की औपचारिकता उन्हें दमघोंटू लगने लगी थी. नेहा के व्यवहार में ऐसा कुछ नहीं था, जिसकी वे आलोचना कर सकें, पर जिस अपनेपन की उन्हें आशा थी, जो भावनात्मक संबंध जोड़कर वे दोनों के जीवन का अंग बनना चाहते थे, उसे पूरी तरह से नेहा ने नकार दिया था. नेहा उस घर की एकछत्र मालकिन थी. ऐसी स्थिति में एक-दो महीने ही वहां रहा जा सकता था, लेकिन हमेशा के लिए नहीं.
नंदिता सोचती कैसी विडंबना थी, बात कुछ भी नहीं थी फिर भी बहुत बड़ी थी. अपने बेटे से कैसे कहे कि तुम्हारी पत्नी ने तुम्हारे माता-पिता को तुमसे अलग-थलग करने का एक अत्याधुनिक और संभ्रांत तरीक़ा खोज निकाला है. तुम्हारे घर में उसे हमारी उपस्थिति बिल्कुल सहन नहीं है. क्या सचमुच राजीव नेहा के इस अभिजात्यपूर्ण व्यवहार में छुपी मानसिकता समझ नहीं पाता? नेहा अभी ऑफिस में थी. राजीव थोड़ा जल्दी घर आ गया था. ऐसे अवसर कम ही होते थे. नंदिता ने बात छेड़ दी, “सोच रहे हैं थोड़े दिन प्रिया के यहां हो आएं.” नंदिता को लगा राजीव रुकने के लिए कहेगा, राजीव ने कुछ नहीं कहा, क्योंकि वह जानता था कि घर में सब कुछ असहज था. इससे पहले कि दिलों का तनाव बाहर आए, उनका जाना ही ठीक था. वह सोच रहा था जीवनभर का साथ तो पत्नी के साथ ही निभाना है फिर उन दोनों का मन भी तो नहीं लग रहा है. उनसे रुकने के लिए न कह पाने की असमर्थता का अपराधबोध था उसे, पर इतना ही बोला, “हां, ठीक है, चले जाइए, फिर यहां आना ही है.” बिना कहे बहुत-सी बातें समझ आ जाती हैं ख़ासकर अपनों के बीच.
राजीव ही उन्हें स्टेशन छोड़ने आया, नेहा ऑफिस चली गई थी. राजीव ने मां के हाथ में कुछ रुपए ज़बर्दस्ती रख दिए. मां की आंखों में आंसू देख न जाने कहां से उसकी आंखों में भी आंसू पलकों पर ही ठहर गए. पैर छूने झुका तो मोहनजी ने उसे गले लगाते हुए सारे गिले-शिकवे पीछे छोड़ दिए.
अगले दिन दोनों प्रिया और दामाद विनय के घर में थे. प्रिया के जुड़वां बच्चों सौरभी और सुरभि के साथ पूरा घर अस्त-व्यस्त था. प्रिया की नौकरी की व्यस्तता और जुड़वां बच्चे, आया बच्चों को संभालने में लगी रहती थी, घर की साफ़-सफ़ाई का किसी को ध्यान नहीं था. आते ही नंदिता ने बेटी की बिखरी गृहस्थी संभाल ली. घर का कायापलट हो गया. प्रिया की ख़ुशी का तो ठिकाना नहीं था, सब काम समय पर होने लगे, आया भी ज़्यादा ध्यान से काम करने लगी, छोटे बच्चों की देखभाल नाना-नानी की स्नेह-छाया में हो रही है, इस बात से विनय और प्रिया दोनों ख़ुश थे. विनय ने सोचा अगर ये दोनों यहीं रह रहे हैं, तो आया की क्या ज़रूरत है? उसने अपने मन की बात नंदिता के सामने रख दी, तो उसने भी सोचा विनय ठीक कह रहा है कि जो देखभाल घर के लोग करते हैं वह नौकर कहां कर सकते हैं. जबकि मोहनजी का सोचना था कि इस उम्र में पूरी तरह से बच्चों और घर के काम संभालना मुश्किल है, पर वे चुप रहें. धीरे-धीरे घर और बाहर के सारे काम दोनों के कंधों पर ही आ पड़े. शुरू-शुरू में तो मुंबई के खालीपन के बाद यह व्यस्तता उन्हें अच्छी लगी, परंतु फिर बोझ लगने लगी. आया के जाने के बाद नंदिता अकेली कितना कुछ कर सकती थी, उसने स्वयं आगे बढ़कर सारी ज़िम्मेदारी ली थी. वह किसी से कहती भी तो क्या?
प्रिया और विनय आराम से अपनी सामाजिक और सांस्कृतिक ज़रूरतों को पूरा करने में लगे रहते. हर शाम नंदिता या तो उन दोनों के दोस्तों की आवभगत में लगी रहती या वे दोनों बच्चों से बेख़बर बाहर घूमते रहते. प्रिया बिल्कुल भूल गई थी कि मां सालों से आर्थराइटिस की मरीज़ है और पिता ब्लड प्रेशर के और इस उम्र में इतनी व्यस्तता और ज़िम्मेदारियां उनके बस की बात नहीं है. किसी ने नहीं सोचा कि रहने-खाने की सुविधा ही जीवन का उत्कर्ष नहीं है, उसके अलावा भी दोनों की कुछ ज़रूरतें या आशाएं हो सकती हैं.
मोहनजी को शामली का अपना घर याद आता है. सुबह उठकर गर्म चाय के साथ नंदिता के साथ न्यूज़पेपर पढ़ना और कई ख़बरों पर बातें करना, जो उनके रिटायर्ड जीवन का एक हिस्सा हो गया था, अब असंभव था. कैसे फंस गए थे वे और नंदिता यहां. यह एक दूसरी ही जेल थी. जहां उन्हें लगता कि उनसे बेगारी करवाई जा रही है. अपनी ऐसी सोच पर मोहनजी को शर्म आती, “छिः कितने स्वार्थी हो गए हैं वे इस उम्र में.” पर चाहते हुए भी मोहनजी ऐसे जीवन में स्वयं को ढाल नहीं पा रहे थे.

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नंदिता थककर रात को बेड पर लेटती, तो सोचती मां की कोख से जन्म लेनेवाले, उसके खून के अंश ही सब कुछ जानते हुए भी अनजान बने रहने का स्वांग करें, तो ऐसे रिश्तों का क्या करे कोई? दिन-रात, जाने-अनजाने कितनी ही किरचें ह्रदय को छलनी करती रहतीं. दोनों कुछ ही महीनों में अपना अस्तित्व ही भुला बैठे हैं. फिर सोचती अपने बच्चों के लिए इस शरीर को थोड़ा कष्ट हो भी गया, तो क्या! घर में सुख-शांति तो है.
एक दिन मोहनजी से रहा नहीं गया. तो उन्होंने बेटी से कह दिया, "बेटा, अब तुम्हारी मम्मी से इतना काम नहीं होता, रोज़ दर्द से सो भी नहीं पाती वह.”
प्रिया तुनककर बोली, “मम्मी ने ख़ुद ही काम करना शुरू किया था, मैंने नहीं कहा था उन्हें. मेरा घर जैसा था, ठीक था.” घर तो प्रिया का ही था, वे दोनों तो मेहमान ही थे. प्रिया ने विनय से आया को वापस बुलाने की बात की, तो विनय का मूड ख़राब हो गया. ख़ैर, आया आई, तो नंदिता ने चैन की सांस ली, लेकिन विनय का व्यवहार बहुत बदल गया, जिसे महसूस कर मोहनजी और नंदिता का मन एकदम उचट गया.
अचानक एक दिन मोहनजी ने प्रिया से कहा, “कुछ ज़रूरी काम है, हम दोनों कल सहारनपुर जा रहे हैं.” नंदिता हैरान हुई पर उस समय कुछ नहीं पूछा. प्रिया ने सपाट स्वर में कहा, “ठीक है.” नंदिता किचन में काम करते हुए सोच रही थी, नेहा के रूखे स्वभाव और उपेक्षापूर्ण व्यवहार होते हुए राजीव अकेला कब तक संबंध निभा पाएगा! समय और स्थान की दूरियां रिश्तों के बीच वैसे ही आ जाती हैं. बेटी-दामाद से भी कोई उम्मीद करना बेकार था. रात को सोते समय नंदिता ने पूछा, “यह सहारनपुर का क्या चक्कर है?”
“नंदिता, याद है मेरी पहली नौकरी की शुरुआत वहीं से हुई थी और हमारा पहला घर भी वहीं था, इसलिए सहारनपुर कह दिया.”
“मतलब वहां कोई काम नहीं है?”
नंदिता की आंखों का गीलापन उसके गालों पर महसूस करते हुए मोहनजी ने उसे हल्के से छुआ, उस स्पर्श में सहभागिता का एक एहसास था.
“नंदिता, बहुत बड़ा काम है मकान ढूंढ़ना, है न?” सच ही तो है, नंदिता ने सोचा. जीवन का एक बहुत बड़ा सच, जिसे वे इस उम्र में भी नकार नहीं पाए थे. एक अपने घर की तलाश! इस बार वे अपना घर किसी हालत में नहीं छोड़ेंगे, रात के अंधेरे में भी दोनों ने एक-दूसरे के चेहरे के भाव पढ़ लिए थे.

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