मनुष्य का जीवन बड़ा अनमोल है व भाग्य से ही प्राप्त होता है. यदि इसका कुछ हिस्सा बिल्कुल अपने लिए, अपनी तरह से जी लिया जाए, तो यह ग़लत तो नहीं कहलाएगा न? वैसे तुम्हारी आधुनिकता की परिभाषा में मेरा यह कृत्य समा पाएगा या नहीं, यह मैं नहीं जानती. पर मेरी बेटियों का हठ, आग्रह और इच्छा भी यही है. जीवन के सुनहरे क्षणों को मैंने रिया व सपना के भविष्य की ख़ातिर होम कर दिया, इसका उन्हें एहसास है. अब जीवन के शेष दिन मैं अपने लिए जीऊं, यही मेरी व मेरी बेटियों की भी कामना है.
संपूर्णा की पूजा की घंटी ही भास्कर के लिए रोज़ सुबह के अलार्म का काम करती थी. पर आज शायद कुछ गहरी ही नींद लग गई थी. बिस्तर से उठते हुए भास्कर ने घड़ी पर नज़र डाली. आठ बज रहे थे. इस समय संपूर्णा किचन में नाश्ता बनाने में व्यस्त होती है, इसके बाद तैयार होकर उसे दस बजे तक पढ़ाने के लिए कॉलेज पहुंचना होता है, पर आज किचन से किसी भी तरह के खटपट की आवाज़ न सुनकर भास्कर देखने के लिए किचन की ओर मुड़े ही थे कि हरी काका चाय की ट्रे लेकर आ गए. साथ में एक लिफ़ाफ़ा थमाते हुए बोले, “बहूजी ने यह चिट्ठी आपको देने के लिए कहा है.”
“चिट्ठी..!” आश्चर्य से लिफ़ाफ़ा खोलकर सो़फे पर बैठकर भास्कर चिट्ठी पढ़ने लगे…
प्रिय भास्कर,
वैस ‘प्रिय’ शब्द से इस पत्र की शुरुआत करना पत्र के मैटर के साथ बहुत बड़ा विरोधाभास होगा, परंतु क्या करें. ऐसी आदत-सी पड़ गई है कि कोई भी पत्र हो, आरंभ में ‘प्रिय’ अथवा ‘पूज्य’ स्वयं ही लिख जाता है. ख़ैर!
पत्र देखकर तुम अवश्य चौंक गए होगे कि एक ही घर में रहते हुए मुझे पत्र लिखने की क्या आवश्यकता आ पड़ी. ऐसी क्या बात है, जो मैं आमने-सामने नहीं कह सकती थी.
दरअसल, बात ही कुछ ऐसी है, जो सामने कहने पर अकारण बहस का रूप ले सकती थी, जो मैं कतई नहीं चाहती थी. निर्बाध रूप से अपना पक्ष तुम्हें समझा पाने का ‘पत्र’ ही मुझे सही माध्यम प्रतीत हुआ. अतः आशा है कि इस पत्र को तुम ‘मैं’ यानी संपूर्णा मानकर पूरा पढ़ने का कष्ट करोगे.
असल मुद्दा यह है कि कल सुबह मैं तुम्हारा घर हमेशा के लिए छोड़कर जा रही हूं, तुम्हें मेरी सीधी-सपाट बात से शायद गहरा धक्का लगे, पर पूरा पत्र पढ़ोगे तब कहीं कुछ ग़लत नहीं लगेगा. तुम निश्चित रूप से यह सोच रहे होगे कि आज इस उम्र में अचानक मुझे यह कदम उठाने की क्या आवश्यकता आ पड़ी.
सच तो यह है कि यह कदम मैं आज से पंद्रह वर्ष पूर्व ही उठाना चाहती थी, जब तुमने अपने संबंधों को नकार दिया था. स्वीकार तो शायद तुमने मुझे कभी किया ही नहीं था, क्योंकि मैं व मेरा रहन-सहन दोनों ही तुम्हारे साथ तुम्हारी तथाकथित मॉडर्न सोसायटी में मूव करने के क़ाबिल नहीं थे.
दो बेटियों की मां बनाकर तुमने अपने पति के कर्तव्यों की इतिश्री मान ली थी. वह कर्तव्य भी तुम मुझ पर किए गए एहसानों में से ही एक मानते थे.
तुम्हारी नज़र में मैं हिंदी की व्याख्याता केवल बहनजी टाइप औरत थी, जो ग़लती से पत्नी के रूप में तुम्हारे गले की घंटी बन गई थी, क्योंकि तुम आधुनिक थे, तुम्हारा रहन-सहन कहीं से मुझसे मेल नहीं खाता था. तुम्हारी विज्ञापन कंपनी की अत्याधुनिक मॉडल्स की तुलना में तुम्हें मेरा बहनजी टाइप लगना भी स्वाभाविक था.
मैं भी तो तुम्हारे मन मुताबिक़ स्वयं को कभी ढाल नहीं पाई. मेरी इस असमर्थता के पीछे मेरे बचपन का पारंपरिक परिवेश, माता-पिता की शिक्षा का प्रभाव या कह लो मेरी फैशन व आधुनिकता के मामले में पिछड़ेपनवाली मानसिकता जो भी समझो… मैं मजबूर थी भास्कर.
तुम्हारा और मेरा अपने-अपने माता-पिता के प्रति आज्ञाकारी होना ही शायद हमारे विवाह का कारण बना था. यदि विवाह पूर्व तुम मुझे देख लेते तो शायद यह विवाह हो ही न पाता. पर तुम्हारे माता-पिता के यह कहने पर कि लड़की ख़ूब पढ़ी-लिखी है, तुमने मुझे आधुनिक मानकर विवाह के लिए हामी भर दी थी. हां, पढ़ी-लिखी तो मैं तुमसे भी अधिक ही थी. पीएचडी की डिग्री थी मेरे पास, व्याख्याता के पद पर कार्यरत थी मैं. पर आधुनिकता की परिभाषा हम दोनों के लिए भिन्न-भिन्न रही… हम दोनों ही विवश थे.
जिस दिन तुमने मुझे तुम्हारे व वृषाली के संबंधों के बारे में बताया था, तब मैं स्तब्ध रह गई थी. कितनी ईमानदारी से स्पष्ट शब्दों में तुमने समझा दिया था मुझे कि मैं पति के रूप में तुमसे कोई अपेक्षा न रखूं, क्योंकि अब तुमसे मैं और अधिक झेली नहीं जा रही थी. हां, तुमने मुझे घर से निकाला नहीं था. यह कहकर कि पत्नी का दर्ज़ा प्राप्त होने के नाते तुम यहां रह सकती हो, खा-पी सकती हो, पहन-ओढ़ सकती हो, सुख-सुविधाओं को भोग सकती हो.
तुमने तलाक़ भी नहीं मांगा था मुझसे, क्योंकि वृषाली ने तुम्हारे समक्ष शादी की कोई शर्त भी नहीं रखी थी. वह भी तो बिल्कुल तुम्हारी तरह आज़ाद ख़याल, अत्याधुनिक लड़की थी. तुमने तो मुझे यह तक कह दिया था कि मैं भी यदि चाहूं तो किसी और को अपना सकती हूं, तुम्हें कोई ऐतराज़ नहीं होगा.
परंतु मेरा चुप रह जाना, तुम पर रोक न लगाना, विरोध न जताना… तुम्हारा घर न छोड़ना… इन सबसे शायद तुमने यही मान लिया था कि तुम्हारे मुझ पर किए गए एहसानों तले मैं दबकर रह गई हूं. तुमने मुझे घर से बेदखल भले ही नहीं किया था, पर तुम्हारे दिल से तो मैं निकल ही चुकी थी. मैं आत्मनिर्भर थी. तुम्हारे घर में रहना मेरी ऐसी कोई मजबूरी भी नहीं थी, पर केवल रिया व सपना के प्रति मेरे कर्तव्यों ने मेरे कदम रोक दिए थे.
उन दिनों रिया सात व सपना दस साल की थी. तुम्हारे घर छोड़ देने से मुझ पर परित्यक्ता का लांछन लग जाता और मान लो यदि लोग मुझे सही मान भी लेते तो ऑटोमेटिकली तुम चरित्रहीन साबित हो जाते. दोनों ही स्थितियों में नुक़सान तो हमारी बेटियों का ही होता.
बढ़ती उम्र के नाज़ुक दौर में यदि वे कुंठाग्रस्त हो जातीं, तो उनके प्रगति के मार्ग अवरुद्ध हो जाते. सामान्य बच्चों की तुलना में वे निश्चित रूप से पिछड़ जातीं. रिया और सपना ही तो मेरे जीवन का ध्येय शेष रह गई थीं. उनका मानसिक विकास निर्बाध रूप से होना आवश्यक था.
माता-पिता के विच्छेद का बाल मन पर प्रतिकूल प्रभाव ही पड़ता है. मेरे अलग रहने के निर्णय से रिया व सपना में हीनभावना पनपने का भय था. इस उम्र में अपरिपक्व मस्तिष्क सही-ग़लत के बीच भेद जानने-समझने में असक्षम होता है. हो सकता है वे उस व़क़्त मुझे ही ग़लत मान बैठतीं. पिता से दूर करने का, पिता के प्यार से वंचित करने का मुझ पर आरोप भी लगातीं. बच्चों के स्वस्थ विकास के लिए माता-पिता दोनों के स्नेह की छाया अनिवार्य होती है. मैं अपनी बच्चियों को उनके हक़ से वंचित कैसे कर सकती थी भला?
फिर लड़कियों का जीवन भी तो कांच-सा नाज़ुक होता है. अलग रहकर यदि मैं उन्हें पढ़ा-लिखाकर बड़ा कर भी लेती, तब भी उनके विवाह के समय परेशानी आ सकती थी, क्योंकि समाज चाहे कितना भी अत्याधुनिक होने का दम भर ले… शादी-ब्याह जैसे मामलों में माता-पिता का मान-सम्मान, नाम, इ़ज़्ज़त सब कुछ बहुत महत्व रखता है, विशेषकर लड़कियों के मामले में. यही सब सोचकर उस व़क़्त मैं तुम्हारे घर में रुक गई थी.
आज हमारी दोनों बेटियां आत्मनिर्भर हैं व अपने-अपने पतियों के साथ ख़ुश हैं. उनकी ज़िम्मेदारियों से निवृत्त होने के साथ ही मेरा इस घर से संबंध भी ख़त्म हो जाता है.
हां, अब यह बता दूं कि मैं कहां जा रही हूं और क्यों जा रही हूं? तो पहले प्रश्न का उत्तर है कि अवधेषजी को तो तुम अच्छी तरह जानते हो, जो मेरे साथ ही हिन्दी के प्रो़फेसर हैं, जिन्हें तुम पंडितजी कहते हो… तो उन्हीं अवधेषजी व मैंने यह तय किया है कि जीवन के अंतिम पड़ाव पर शेष दिन हम एक साथ रहकर गुज़ारेंगे.
रहा दूसरा प्रश्न ‘क्यों’? तो तुम्हें यह स्पष्ट बता दूं कि मैं तुमसे कोई तलाक़ नहीं चाहती हूं, क्योंकि मेरा अवधेषजी से विवाह करने का कोई विचार नहीं है और न ही दैहिक आकर्षण या आवश्यकता के तहत मैंने उनके साथ रहने का निर्णय लिया है. यदि देह ही प्रमुख होती, तो तुम्हारा घर मैं पंद्रह वर्ष पूर्व ही छोड़ चुकी होती.
समाज को समझाने के लिए न मैं इस झूठ का सहारा लूंगी कि मैं अवधेषजी को अपना धर्मभाई मानती हूं. हां, तुमसे भी ये झूठ नहीं कहूंगी कि हम दोनों केवल अच्छे मित्र ही हैं, क्योंकि वास्तव में हम केवल मित्र ही नहीं हैं, बल्कि उससे बढ़कर हैं एक-दूसरे के लिए.
हमने पाया है कि मन की धरा पर भावनात्मक स्तर पर हम दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं. एक-दूसरे के लिए स्त्री-पुरुष नहीं, बल्कि केवल इंसान हैं, जिनके बीच आत्मीयता का सेतु स्थापित हो चुका है. इन आत्मिक संबंधों को कोई नाम दे पाना कठिन होगा. हां, तुम सही मायने में हमें साथी कह सकते हो.
मनुष्य का जीवन बड़ा अनमोल है व भाग्य से ही प्राप्त होता है. यदि इसका कुछ हिस्सा बिल्कुल अपने लिए, अपनी तरह से जी लिया जाए, तो यह ग़लत तो नहीं कहलाएगा न? वैसे तुम्हारी आधुनिकता की परिभाषा में मेरा यह कृत्य समा पाएगा या नहीं, यह मैं नहीं जानती. पर मेरी बेटियों का हठ, आग्रह और इच्छा भी यही है. जीवन के सुनहरे क्षणों को मैंने रिया व सपना के भविष्य की ख़ातिर होम कर दिया, इसका उन्हें एहसास है. अब जीवन के शेष दिन मैं अपने लिए जीऊं, यही मेरी व मेरी बेटियों की भी कामना है.
हां, सपना-रिया की तुम फ़िक्र न करना मैंने उनके मन में तुम्हारे मान-सम्मान को बरक़रार रखने की पूरी कोशिश की है. उन्हें मैंने अच्छी तरह समझाया है कि तुम घर के बाहर जो भी करते रहे हो, पर उनकी मां के प्रति सारी व्यावहारिक ज़िम्मेदारियां तुमने बख़ूबी निभाई हैं. इतना ही नहीं, अपने असामान्य संबंधों की फ्रस्टेशन तुमने कभी बच्चियों पर नहीं निकाली. उनके लालन-पालन व प्यार के प्रति तुम्हारी निष्ठा शत-प्रतिशत रही है.
अब सपना व रिया उम्र के उस मुक़ाम पर पहुंच चुकी है, जहां वे इन सारी स्थितियों को सही-सही समझने की क्षमता रखती हैं. अतः उनसे भविष्य में सामना होने पर तुम्हें किसी प्रकार की शर्मिंदगी महसूस करने की आवश्यकता नहीं होगी. उन्हें तुमसे कोई शिकायत नहीं है, बल्कि उनके मन में तुम्हारी एक ग्रेट पापा वाली छवि ही स्थापित की है मैंने.
रही अपने संबंधों की बात तो मेरे चले जाने से तुम्हें शायद कोई ख़ास फ़र्क़ नहीं पड़ेगा, क्योंकि मेरा तुम्हारे घर में अब कोई रोल शेष रहा भी नहीं है. हां, पत्नी का स्थान निरर्थक रूप से ही सही, परंतु मेरी उपस्थिति से जो भरा हुआ था वह कल रिक्त हो जाएगा. हो सकता है इससे तुम्हारी सामाजिक प्रतिष्ठा पर आंच आए, परंतु बीते काल में जिस कुशलता व बुद्धिमानी से मैंने तुम्हारे सारे नाजायज़ कार्यों को ढांकने-छिपाने का कार्य किया है- आशा है तुम भी ऐसा ही कुछ अवश्य कर लोगे या शायद तुम्हारे आधुनिक परिवेश में इसकी आवश्यकता ही न पड़े.
शेष जीवन में यदि कभी मेरी सहायता की आवश्यकता महसूस हो, तो बेझिझक मेरे पास आ सकते हो तुम. एक मित्र की हैसियत से मैं हमेशा तुम्हारी मदद के लिए तत्पर रहूंगी. अवधेषजी को कभी आपत्ति नहीं होगी, इसका मुझे विश्वास है, क्योंकि उनकी सोच काफ़ी व्यापक है.
शुभकामनाओं सहित.
नीचे तुम्हारी लिखना तो ग़लत होगा, क्योंकि जब तुमने मुझे कभी अपनाया ही नहीं तो मैं तुम्हारी कैसे हो सकती हूं?
अतः केवल
संपूर्णा
पूरी चिट्ठी पढ़कर भास्कर ने चाय पर नज़र डाली, जो ठंडी हो चुकी थी. संपूर्णा होती, तो बिन कहे अब तक चाय गर्म कर रख जाती, अख़बार पढ़ते व़क़्त भी तो रखी चाय कई बार पीना भूल जाते थे भास्कर…
'संपूर्णा को मैंने पत्नी कभी नहीं माना, पर उसने तो पत्नी के कर्तव्यों से कभी मुंह नहीं मोड़ा था. मैंने उसे केवल शारीरिक रूप से ही नहीं, बल्कि मानसिक स्तर पर भी तो अकेला छोड़ दिया था. उसने मुझसे कभी कुछ नहीं मांगा, बल्कि जाने-अनजाने मैं ही उस पर इतना निर्भर हो गया था, यह अब महसूस हो रहा था.
संपूर्णा ने तो साबित कर दिया कि वह आदर्श पत्नी ही नहीं, आदर्श मां भी है. पर इन सबसे पहले वह इंसान भी तो है, उसे पूरा हक़ है अपने बार में सोचने का.. ख़ुश रहने का.'
एक लंबी सांस भरकर रह गए थे भास्कर. आख़िर उसे वापस बुलाते भी तो किस हैसियत से.
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