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कहानी- अर्द्धांगिनी (Short Story- Ardhangini)

मेरे स्वर की दृढ़ता ने मुकुल की ज़ुुबां पर ताला लगा दिया था. मेरे प्रति बढ़ती उनकी अवहेलना और बेपरवाही भी मुझे अपने निश्‍चय से नहीं डिगा पाई. प्रसूति करवाने आई सासू मां को भी जब मेरे निर्णय का पता चला, तो वे खफ़ा होकर उल्टे पैरों लौट गईं. अपनों की बेरूखी मुझे तोड़ अवश्य चुकी थी, पर झुका नहीं सकी थी.

कक्षाध्यापिका ने सांची की फर्स्ट रेंक की बधाई देते हुए रिपोर्ट कार्ड पकड़ाया, तो मैं ख़ुुशी से झूम उठी, पर उसके पापा का उत्साह तो देखते ही बनता था. सांची को कंधों पर बैठाकर वे तो भंगड़ा ही करने लगे थे. आसपास बैठी सारी अध्यापिकाएं और अभिभावक हमें देखकर मुस्कुरा रहे थे. कुछ तालियां भी बजाने लगे थे. मैंने सकुचाते हुए मुकुल को मुख्यद्वार की ओर खींचना आरंभ किया, “सब देख रहे हैं. बेटी एच केजी में ही फर्स्ट आई है, कोई आईआईटी टॉप नहीं कर लिया है.”
“अरे वो भी कर लेेगी.” मुकुल का उत्साह कम होने का नाम ही नहीं ले रहा था. मैं भी यह सोचकर मुस्कुरा उठी थी कि हो लेने दो ख़ुश! हम मध्यमवर्गीय लोगों की ज़िंदगी में ये छोटी-छोटी ख़ुशियां ही तो रस घोलती हैं. बच्चे अच्छे नंबर ले आएं, किसी इनामी कूपन में 500-1000 का पुरस्कार निकल आए, पेट्रोल भरवाने जाएं और पता चले वह सस्ता हो गया है… और यही छोटी-छोटी ख़ुशियां यदि अप्रत्याशित हों, तो आनंद दोगुना-चौगुना हो जाता है.
“अच्छा मेरी रानी बिटिया को क्या प्राइज़ चाहिए?” सांची को कंधे से उतारकर स्कूटी पर आगे खड़ा करते हुए मुकुल ने उत्साह से पूछा, तो मेरा माथा ठनक गया. आंखों के सामने सांची के खिलौनों का ढेर आ खड़ा हुआ. कहीं से एक नई बार्बी डॉल फुदकती हुई आई और इठलाकर उस ढेर पर बैठ गई. खिलौनों विशेषकर गुड़िया की शौकीन सांची के पास लगभग 25-30 गुड़िया एकत्रित हो चुकी थीं. हर गुड़िया चाहे वह किसी भी अवस्था में हो- लूली, लंगड़ी, अंधी, कानी सांची की दुलारी थी. मुझे उनकी छंटनी करने तो क्या इधर-उधर रखने की भी अनुमति नहीं थी.


“मुझे लाल रंग की कार चाहिए.” सांची का स्वर कानों में पड़ा, तो मैंने थोड़ी राहत महसूस की, चलो गुड़िया तो नहीं मांगी.
थोड़ी ही देर में हवा से बातें करती हमारी स्कूटी खिलौने की सबसे बड़ी दुकान के बाहर खड़ी थी.
“इतनी महंगी दुकान में आने की क्या ज़रूरत थी?” मैं मुकुल के कान में
फुसफुसाई. पर उत्साह के अतिरेक में मुकुल कुछ भी सुनने को तैयार न थे. सांची को फिर से गोद में उठाते हुए वे सीना ताने बड़े से कांच के दरवाज़े से अंदर प्रविष्ट हो चुके थे.
“बिटिया के लिए लाल रंग की कार दिखाइए. इसकी फर्स्ट रैंक आई है.”
मुकुल के ऑर्डर करते ही सेल्सगर्ल ने छोटी-बड़ी, बैटरी ऑपरेटेड, रिमोट चालित जाने कितनी तरह की कारों का ढेर लगा दिया.
“बोलो गुड़िया, कौन-सी पसंद आई?” सेल्सगर्ल ने दुलार से पूछा.
सांची पापा की ओर पलटी, “ये वाली नहीं, बड़ी वाली लाल कार जैसी मिश्रा अंकल के पास है.”
मुकुल का चेहरा फक्क पड़ गया था. मानो ख़ूब फूले गुब्बारे से अचानक किसी ने हवा निकाल दी हो. सेल्सगर्ल हमें अजीब-सी नज़रों से घूरने लगी थी.
मैंने बात संभालनी चाही, “बेटे, वो भी ले लेंगे. अभी इनमें से एक पसंद कर लो.”

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“नहीं, मुझे बड़ी वाली ही चाहिए, सच्ची मुच्ची की…” सांची ठुनकने लगी, तो मुकुल उसे समझाते हुए बाहर ले जाने लगे. मैं भी सेल्सगर्ल से क्षमायाचना कर बाहर निकल आई. सांची का ठुनकना रूदन में तब्दील हो चुका था. किसी तरह मैंने उसे गोद में लिया और घर की राह पकड़ी. घर आने तक उत्साह का बुलबुला फुस्स हो चुका था. मुझे सांची से ज़्यादा मुकुल पर ग़ुस्सा आ रहा था. वह तो बच्ची है, पर इन्हें क्या ज़रूरत थी इतना अतिउत्साही होने की? अभी कुछ कहूंगी, तो फिर उनका वही प्रायश्‍चित वाला आलाप आरंभ हो जाएगा. मैं खून का घूंट पीकर रह गई थी. लेकिन कुछ दिनों बाद अतिउत्साही मुकुल ने जब बताया कि प्लॉट ख़रीदने के लिए जमा पैसों से उन्होंने लाल रंग की
बड़ी-सी कार बुक करवा ली है, तो मैं ग़ुस्से से आगबबूला हो उठी थी. पर मुकुल अविचलित बने रहे और अपना वही प्रायश्‍चित वाला आलाप दोहराने लगे, “तुम तो सब कुछ जानती हो. मेरे उस घोर अपराध का यह एक छोटा-सा प्रायश्‍चित ही मान लो.”
बड़ी होती सांची भी अब पापा की यह कमज़ोर नस समझने लगी थी. इसलिए अपनी समस्त उचित-अनुचित मांगें वह पापा से ही पूरी करवाने लगी थी. स्कूल के स्किट में उसे सिंड्रेला का पार्ट करना था, तो उसने चुपके से पापा से सिंड्रेला जैसी ड्रेस, जूते, वैसा ही हेयरकट और मेेकअप की फ़रमाइश कर दी. दिल से मजबूर पापा ने हामी भी भर दी. दस हज़ार से ऊपर का बिल देखकर मेरा पारा चढ़ गया था. लेकिन मुकुल के सदाबहार प्रायश्‍चित वाले डायलॉग के आगे मुझे मौन साधना पड़ा. मुकुल के विचारों से सहमत न होते हुए भी अक्सर मैं यह सोचकर मौन साध लेती थी कि बेटी की नज़रों में पापा का सम्मान बना रहे. यदि उसे वह सब पता चल गया तो? पिता की क्या इज़्ज़त रह जाएगी बेटी की नज़रों में? नहीं… नहीं… ऐसा कभी नहीं होगा. मैं होने ही नहीं दूंगी.
अतीत की सोच ने मन भारी कर दिया. यह तब की बात है, जब सांची मेरे पेट में थी. मुकुल ने मेरी देखभाल में कोई कसर नहीं छोड़ रखी थी. मैं उनका प्यार देखकर अभिभूत थी. अजन्मे बच्चे को लेकर स्वाभाविक ही है हम पति-पत्नी के मध्य ढेर वार्तालाप चलता रहता था. मुकुल को हमेशा… हम अपने बेटे का यह नाम रखेंगे… उसका वहां एडमिशन करवाएंगे… उसे यह बनाएंगे, वह पढ़ाएंगे जैसी बातें करते देखकर मैंने एक दिन उन्हें टोक दिया था, “आप इतने विश्‍वास से कैसे कह सकते हैं कि बेटा ही होगा? बेटी भी तो हो सकती है.”
“सवाल ही नहीं उठता. हमारे खानदान में आज तक पहली संतान लडका ही पैदा हुई है.” मुकुल ने अपने दादा, परदादा ओैर उससे भी आगे की पीढ़ियों तक के उदाहरण गिना दिए थे.
“तब तो इस बार यह रिकॉर्ड टूटने वाला है. पक्का बेटी ही होगी.” मैंने मसखरी की थी. लेकिन मुकुल गंभीर हो उठे थे, “मज़ाक में भी ऐसी बात मत कहना. मैं अपनी खानदानी परंपरा के विरूद्ध नहीं जा सकता.” मैं उनका रूख भांप घबरा उठी थी.
“आप पढ़े-लिखे होकर यह कैसी बचकानी बात कर रहे हैं? लड़का या लड़की होना क्या हमारे हाथ में है?”
“मेडिकल साइंस इतनी प्रगति कर चुका है कि अब तो यह सचमुच हमारे हाथ में ही है. मैंने अपने एक परिचित डॉक्टर से बात कर ली है. हम कल ही जाकर लिंग परीक्षण करवा आएंगे.”
“और लड़की हुई तो?” मैंने सहमते हुए पूछा था.
“आजकल के ज़माने में एक या दो ही बच्चे होते हैं. मैं कोई ख़तरा मोल नहीं लेना चाहता. क्या पता पहला ही आख़िरी बच्चा हो. इसलिए लड़का हुआ तो ही हम उसे
जन्म देंगे.”
“वरना…”
“सब कुछ मेरे ही मुंह से क्यों सुनना चाहती हो? तुम भी तो पढ़ी-लिखी हो.”


“इसीलिए अपना निर्णय सुना रही हूं. मैं कोई परीक्षण नहीं करवाऊंगी. मैं हर हाल में इस बच्चे को जन्म दूंगी. चाहे इसके लिए मुझे कोर्ट में ही क्यों न जाना पड़े?” एक पल झिझकने के बाद मैंने अपना निर्णय सुना दिया था. न जाने कहां से उस व़क्त मुझमें इतना साहस और बुद्धि आ गई थी.
मेरे स्वर की दृढ़ता ने मुकुल की ज़ुुबां पर ताला लगा दिया था. मेरे प्रति बढ़ती उनकी अवहेलना और बेपरवाही भी मुझे अपने निश्‍चय से नहीं डिगा पाई. प्रसूति करवाने आई सासू मां को भी जब मेरे निर्णय का पता चला, तो वे खफ़ा होकर उल्टे पैरों लौट गईं. अपनों की बेरूखी मुझे तोड़ अवश्य चुकी थी, पर झुका नहीं सकी थी. जब प्रसव वेदना शुरू हुई, तो मैंने फोन करके कैब बुलानी चाही, लेकिन मुकुल मुझे गाड़ी में लादकर अस्पताल ले गए. बेमन से ही सही पर अंत तक साथ बने रहकर सारी औपचारिकताएं निबाहते रहे. कहना मुश्किल था कि वह दिखावटी दुनियादारी थी, अजन्मी संतान के लड़का होने की आस थी या चार बरस के मधुर दांपत्य संबंध का बचा-खुचा असर था… पर मैं देख सकती थी कि मेरी असह्य प्रसव वेदना ने उन्हें हिला दिया था. शायद वे यह महसूस कर पा रहे थे कि जन्म बेटे का हो या बेटी का- स्त्री को प्रसव वेदना समान ही सहनी पड़ती है. अर्द्धबेहोशी की हालत में मैं इतना ही देख पाई थी कि मुकुल मेरे पास पालने में लेटी बच्ची को गोद में उठा रहे थे. नर्स उन्हें बिटिया होने की बधाई दे रही थी. लेकिन उनका ध्यान उसकी ओर था ही नहीं. वे तो सावधानी और नज़ाकत से हाथों में संभाले रूई के गोले समान अपने अंश को एकटक निहार रहे थे. उस समय उनकी आंखों से बहते प्यार और आत्मीयता ने मुझे सांची के सुरक्षित और विश्‍वसनीय हाथों में होने के सुकून से भर दिया था. मैं इत्मीनान से आंखें मूंदकर गहन निद्रा में डूब गई थी.

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इसमें कोई शक नहीं कि सांची के लालन-पालन को लेकर मुकुल ने मेरे विश्‍वास को बनाए रखा. किंतु अपराधबोध से ग्रस्त उनका हृदय कभी-कभी अति पर उतर आता है. तब ख़ुद को काबू में रखना मेरे लिए बहुत दूभर हो जाता है.
उम्र बढ़ने के साथ-साथ सांची समझदार होती चली जा रही थी. इंजीनियरिंग की उच्च शिक्षा के लिए कॉलेज चयन की बात आई, तो सांची ने एक सामान्य-सा कॉलेज चुना. मैंने कारण पूछा, तो उसका जवाब था, “बाकी कॉलेजों की फीस बहुत ज़्यादा है. फिर हॉस्टल आदि के भी ख़र्चें होंगे. बेकार इतने पैसे ख़र्च करने से क्या फ़ायदा? डिग्री ही तो लेनी है.”
“नहीं सांची, मैं तुम्हारी राय से असहमत हूं. हम एजुकेशन लोन लेंगे और अच्छे प्रतिष्ठित कॉलेज में तुम्हारा एडमिशन करवाएंगे, ताकि अच्छी नौकरी पाकर आर्थिक रूप से भी तुम्हारा भविष्य सुरक्षित हो सके.”
मुकुल विस्फारित नेत्रों से मुझे ताक रहे थे. हमेशा पति पर अपव्ययी होने और सांची को बिगाड़ने का आरोप लगाने वाली पत्नी का एक नया ही रूप उनके सम्मुख था. सांची के जाने की तैयारियों में हमने अपने आपसी मतभेद ताक पर रख उसके लिए जमकर ख़रीदारी की, ताकि अनजान जगह पर उसे कोई असुविधा न हो. दिल को मज़बूत करते, छुप-छुपकर आंसू पोंछते वह समय भी निकल गया. मुकुल की कमज़ोरी से वाकिफ़ मैंने उन्हें सख्त हिदायत दे दी थी कि सांची को हॉस्टल छोड़ते व़क्त वे ज़रा भी कमज़ोर न पड़ने पाएं, वरना सांची भी कमज़ोर पड़ जाएगी. हम तो फिर भी दो हैं, पर उस बेचारी के लिए अकेले ख़ुद को संभालना भारी पड़ जाएगा.
मुकुल ने कलेजे पर पत्थर रखकर मेरी हिदायत का पालन किया. अंत तक हम सांची के सम्मुख सामान्य बने रहकर उसे हिदायतें देते रहे, जिससे वह भी सामान्य बनी रही.
लौटकर घर में घुसते ही मैें घर व्यवस्थित करने में जुट गई थी. दबी-दबी सिसकियों की आवाज़ सुनाई दी, तो मैं चौंककर मुकुल की ओर पलटी. यकायक मानो लावा फूटकर बाहर निकल आया हो, मुकुल मेरे कंधे पर सिर रख फूट-फूटकर रो पड़े थे. मैं बुरी तरह घबरा उठी थी.
“क्या हुआ, आपकी तबियत तो ठीक है न? कहीं कुछ हो तो नहीं गया?” मैं बेचैनी में उनके हाथ, पैर, सीना टटोलने लगी.
“आपको मेरी क़सम आप ठीक तो हैं न?.. सांची को याद करके रो रहे हैं? और कोई बात तो नहीं है?”
मुकुल कुछ भी बोलने की स्थिति में नहीं थे, पर इशारों से उन्होंने मुझे आश्‍वस्त कर दिया कि वे ठीक हैं. मेरी सांस में सांस आई. दुनिया व्यर्थ ही स्त्रियों को अतिसंवेदनशील कहकर बदनाम करती है. इंसान और संवेदना का तो चोली-दामन का साथ हेै. उसमें पुरुष या स्त्री होना भला कहां बीच में आता है?
“सांची से आपका इतना जुड़ाव कभी-कभी मुझे बेतरह डरा देता है.” मैंने उनके कंधे सहलाते हुए उन्हें सांत्वना देने का प्रयास किया.
“क्या करूं? उसके प्रति जो घोर अपराध मुझसे होने वाला था. उसका अपराधबोध हर व़क्त कचोटता रहता है मुझे! बदले में ये छोटे-छोटे प्रायश्‍चित…” मुकुल अपना हमेशा वाला संवाद दोहराने को तत्पर थे. पर आज मैं चुप नहीं रह पाई. सारी सहानुभूति एक मिनट में ही हवा हो गई. बरसों का संचित आक्रोश ज़ुबां पर आ ही गया.
“माफ़ कीजिए मिस्टर मुकुल! आप बहुत बड़ी ग़लतफ़हमी में जी रहे हैं. आप कोई प्रायश्‍चित नहीं कर रहे हैं. सांची के लिए आपने जो किया है या कर रहे हैं, वो एक स्नेही पिता का मजबूर दिल आपसे करवा रहा है. और किसी भी पिता के लिए यह सब करना बहुत स्वाभाविक है. अपने बच्चे पर पैसा और प्यार लुटाकर आप कोई महान काम नहीं कर रहे हैं और न ही यह कोई प्रायश्‍चित है. यह तो कोई भी कर सकता है. बड़ी बात तो तब है जब आप यह सब दूसरे बच्चों पर लुटाएं.”
“तुम्हारा मतलब अनाथाश्रम में चंदा देने से है?”
“नहीं, वह भी हर कोई कर सकता हेै. आजकल लोगों के पास धन की कमी नहीं हेै.”
“तो तुम मुझसे प्रायश्‍चित के तोैर पर क्या अपेक्षा रखती हो?”
“वैसे तो आपका प्रायश्‍चित उसी दिन पूरा हो गया था, जब स्नेह और आत्मीयता के वशीभूत आपने उसे गोद में उठाया था और उसमें अपना प्रतिरूप पाकर भरपूर लाड़ से उसे चूमा था. फिर भी यदि आप प्रायश्‍चित के तौर पर कुछ करना ही चाहते हैं, तो मेरे दिमाग़ में बहुत समय से एक बात है. आजकल लोेगों के पास धन से ज़्यादा समय की कमी है. यदि आप अपना कुछ समय अनाथ बच्चों को दें, उन्हें पढ़ाएं, उनके संग खेलें, उनसे बातें करें, तो मेरी नज़र में वह ज़्यादा बड़ी बात है और आपके लिए सच्चा प्रायश्‍चित भी. और हां, इस सद्कार्य में मैं भी आपके साथ कदम से कदम मिलाकर चलना चाहूंगी.”
तुम सही अर्थों में मेरी अर्द्धांगिनी हो, न केवल सही राह दिखाने वाली वरन उस राह पर साथ चलने वाली भी.” मुकुल ने गर्व से मेरा मस्तक चूम लिया, तो मैं ख़ुशी से आत्मविभोर हो उठी.

संगीता माथुर

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