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कहानी- अतीत के साये  (Short Story- Ateet Ke Saaye)

भारती वीनू के जाने के बाद स्वयं निढाल सी बैठ गई. स्वयं उसके अंदर इतनी उदासी भर गई थी कि इस वक़्त सिवाय विश्राम से बात करने के उसके पास और कोई चारा नहीं था. विश्राम- उसका पहला प्यार, उसका अतीत, जो आज भी उसकी ज़िंदगी में है, जिसके बिना वह अपने आपको अधूरा समझती है. अगर आज उसके वर्तमान में उसका साथ न होता, तो वह बिल्कुल टूट चुकी होती.

सब कुछ इतना अचानक हुआ कि वह स्वयं भी समझ नहीं पाई. उस स्थिति से उबरने में उसे कुछ समय लगा. हालांकि सब कुछ इतनी जल्दी हुआ कि यह कहना कतई ठीक न होगा कि वह उस स्थिति से उबर चुकी है. बस पलकें ही तो नम नहीं हुई थीं, लेकिन मन के भीतर आंसुओं का सैलाब उमड़ रहा था. वह खुलकर रोना चाहती थी, लेकिन हिम्मत नहीं थी. आख़िर ख़ुशी के क्षणों में रोना, एक तो अपशगुनी कहलाता है, दूसरा कोई कारण भी तो होना चाहिए रोने के लिए.
नहीं, कारण तो है पर वह किसी को बता या समझा नहीं सकती, क्योंकि उस कारण को लेकर वह स्वयं भी आश्वस्त नहीं है. केवल भ्रमित है. फिर मात्र भ्रम के आधार पर वह कैसे सब कुछ खुलकर उड़ेल सकती है. वजह का ठोस होना भी तो नितांत ज़रूरी है.
अचानक ही ऐसा घटित हो जाएगा, इसकी उसने कल्पना तक नहीं की थी. पहले से कुछ आभास होता, तो वह तैयार रहती और अपने मन को भी तसल्ली दे देती. बात काफ़ी समय से चल रही थी. लेकिन वह कोई निश्चित रूप ले लेगी ऐसा उसने सोचा तक नहीं. दीदी की शादी तय हो जाने के बाद पापा चाहते थे कि उसकी शादी भी कहीं तय हो जाए, ताकि दोनों बेटियों का ब्याह इकट्ठे कर वह चैन की सांस ले सकें. आख़िर कौन सा ऐसा पिता है, जो अपनी ज़िम्मेदारियों से मुक्त नहीं होना चाहता.
सुबह घर फोन आया कि शाम को लड़के-लड़की की एक बार मुलाक़ात करवा दें. लड़का अभी मुंबई से दिल्ली आया हुआ है, इसलिए अभी देख लें, तो बात आगे बढ़े, शाम को भइया-भाभी के साथ वह एक होटल में उससे मिलने गई. वहीं औपचारिक बातों के बीच परिचय हुआ और उनके घर पहुंचने से पहले ही लड़के का जवाब व उसके घरवालों की सहमति की सूचना फोन पर पहुंच गई. रात को ही पापा और भइया जाकर लड़के को रोक आए. घर में सब इतने ख़ुश थे कि कोई उसकी उदासी को भांप ही नहीं पाया. किसी ने सोचा तक नहीं होगा कि इतना अच्छा रिश्ता और इंजीनियर लड़का पाकर कोई नाख़ुश भी हो सकता है.


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मां तो इतनी भावविह्वल हो उठी थीं कि बार-बार ईश्वर का धन्यवाद प्रकट कर रही थीं. उसकी क़िस्मत की भी सराहना कर रही थीं कि पहली बार में ही बात तय हो गई, वरना लड़कीवालों को कितने धक्के खाने पड़ते हैं, ख़ासकर मध्यमवर्गीय परिवार की बेटी के परिवार को. और तब तो और भी, जब वह सामान्य सी दिखनेवाली हो. हां, सच है कि वह एक साधारण सी लड़की है- गेहुंआ रंग, पतली-दुबली काया और सामान्य से ज़्यादा लंबाई. नैन-नक़्श भी तराशे हुए नहीं कहे जा सकते, न ही उसकी देहयष्टि को देखकर दीवाना हुआ जा सकता है, बस शायद उसके गुण देखे गए हैं. पोस्टग्रेजुएट, सेक्रेटेरियर कोर्स करने के बाद सिटी बैंक जैसी जगह पर अच्छी तनख़्वाह पाती थी वो.
आजकल रूप-सौंदर्य या घर के कामों में निपुणता होना उतना मायने नहीं रखता, जितना कि अच्छी नौकरी में होना. उसने अपने भीतर के सैलाब को छिपाते हुए बस हल्की सी आवाज़ में इतना ही पूछा था कि लड़के से अच्छी तरह से पूछ लो, कहीं अपने मां-बाप के दबाव में आकर तो उसने 'हां' नहीं कर दी है. यह पूछते हुए उसे कहीं यह उम्मीद भी थी कि कोई उसकी इच्छा जानना चाहेगा, पर ऐसा हुआ नहीं, बल्कि सुबह वे उसकी गोद भरने आ गए और भइया ने लड़के से स्पष्ट यह बात पूछ ली तो उसने साफ़-साफ़ कह दिया कि इस रिश्ते में उसकी पूर्व सहमति शामिल है.
जब उसकी उंगली में उसने अंगूठी पहनाई और रस्म के अनुसार मांग भी भर दी, तो वह कुछ समझ नहीं पाई, असमंजस की स्थिति घेरे हुई थी, उसका मन उसे विरोध करने के लिए कह रहा था. लेकिन वह विरोध करती भी कैसे किस साहस से? उसके पास कोई आधार भी तो नहीं था. जैसे ही शाम हुई, उसके लिए और रुकना नामुमकिन हो गया. वह यह कहकर कि कुछ किताबें लेनी हैं, सीधे भारती दीदी के घर पहुंच गई. उस समय वह इतनी परेशान और रुआंसी थी कि शब्द उसका साथ नहीं दे रहे थे, इसलिए दरवाज़ा खुलते ही सामने भारती दीदी को खड़े देख भी उससे कुछ नहीं कहा गया, सिर्फ़ कांपते हाथों से उसने सिंदूर भरी अपनी मांग की ओर इशारा किया. भारती उसके दिल के हाल से परिचित थीं, इसलिए सब समझ गईं. उसे बैठाकर पानी दिया.
"पहले तू जी भर के रो ले वीनू, कुछ भी कहने की ज़रूरत नहीं है." भारती ने उसे सांत्वना देते हुए कहा.
"मैं क्या करूं दीदी? सब कुछ ऐसे हो जाएगा सोचा भी नहीं था, अब क्या होगा?" वीनू के अंदर छिपा सैलाब उमड़ पड़ा और वह फफक-फफक कर रो पड़ी थी.
"कुछ नहीं, बस स्वीकार कर ले, वैसे भी तू एक आधारहीन बात को ही तो पकड़े बैठी थी. जब तक रिश्तों में 'कमिटमेंट' न हो, उनसे जुड़े रहना बेकार है, ख़ासकर ऐसे रिश्ते में. ज़िंदगी में आनेवाला पहला पुरुष, जो तुम्हारी तारीफ़ करें, उसकी ओर आकर्षित हो जाना सहेज ही है- यह प्यार नहीं, मात्र इन्फेक्चुएशन होता है. फिर तू उसे जानती भी कितना है मात्र तीन महीने की मुलाक़ात को ज़िंदगीभर का साथ मान लेना… नहीं वीनू, जो हुआ है, उसे ही सच मान ले. अच्छा हुआ कि तू अब तक अजय से इमोशनल रूप से बहुत ज़्यादा नहीं जुड़ पाई थी. शादी के बाद उसे भूलने में ज़्यादा वक़्त नहीं लगेगा."


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"दीदी, आप?" वीनू सब कुछ जानते-समझते भी प्रश्न कर बैठी.
"क्यों, ग़लत कहा मैंने? तेरे सामने एक जीता-जागता उदाहरण हूं मैं, फिर भी…" भारती की आवाज़ भी भर्रा गई थी.
"दीदी, फोनन कर लूं? हिम्मत तो नहीं हो रही. पता नहीं शब्द साथ दें भी या नहीं."
"फोन करने की क्या ज़रूरत है, इस तरह तो मामला उलझ जाएगा. तू मान ले कि 'दि एंड' हो गया."
"नहीं दीदी, बस आख़िरी बार अजय से बात लूं, उसे बता दूं." वीनू ने आग्रह किया.
"कर, तेरी मर्ज़ी, लेकिन इस आख़िरी बार का कहीं और कभी अंत नहीं होता. मनुष्य की जिजीविषाएं इतनी प्रबल होती हैं कि उनका कोई आख़िरी छोर नहीं होता. हम जितना उन्हें छोड़ने की कोशिश करते हैं, वे उतनी ही बढ़ती जाती हैं."
रिसीवर उठाकर रख दिया वीनू ने, "लेकिन मैं उसे कहूंगी क्या?"
“सीधे-सीधे कह दे कि एक ख़ुशख़बरी है बस. तुझसे नहीं कहा जाता तो मैं कह देती हूं."
"मेरी एंगेजमेंट हो गई है. तुम मुझसे एक बार मिल सकते हो?" वीनू ने भरयि स्वर में फोन पर अजय से पूछा.
"दीदी, वह बहुत नाराज़ हो रहा था. कह रहा था यह कैसे हो गया? कल मिलेगा."
"तू मत मिल उससे."
"नहीं दीदी, नहीं मिली तो गुबार जम जाएगा."
"देख, वह तुझसे कल भी कुछ नहीं कहेगा. मुझे नहीं लगता कि वह किसी कमिटमेंट में बंधनेवाला लड़का है. तुम दोनों एक जगह काम करते थे, दोस्ती हो गई, उसने काम में तेरी मदद कर दी और तू उसे प्यार समझ बैठी. प्यार यह नहीं होता और मान लो वह भी तुझे प्यार करता है, तो क्या तुझमें इतनी हिम्मत है कि तू उसे अपने मां-बाप के सामने लाकर खड़ा कर दे और यह सगाई तोड़ दे."
"नहीं दीदी, कतई नहीं, एक तो वह दूसरी जाति का है, फिर मां- बाप की इज़्ज़त…" वीनू घबरा उठी थी.
"फिर क्यों मिलना चाहती है. जानती नहीं कि यह अतीत अगर शादी के बाद भी हावी रहे, तो कितनी तकलीफ़ देता है. मुझे देखकर भी तू कुछ क्यों नहीं सीखना चाहती?" भारती बार-बार उसे समझाने की कोशिश कर रही थी, क्योंकि वह जिस संत्रास को झेल रही थी, उससे वीनू को बचाना चाहती थी.
वीनू भारती के घर से लौटी, तो काफ़ी संभल चुकी थी. भारती दीदी का भी उसे कितना सहारा था और परिचय था सिर्फ पंद्रह दिनों का, उसमें भी वह उनके बहुत क़रीब आ गई थी. दोनों एक ही जगह से कम्प्यूटर कोर्स कर रही थीं और वहीं दूसरी मुलाक़ात में ही वीनू को उनसे इतना अपनापन लगा कि दिल की सारी बात उड़ेल दी उनके सामने.
भारती दीदी अपनी विवाहित ज़िंदगी से ख़ुश नहीं थीं, क्योंकि उन्होंने जिसे चाहा, वह नहीं मिला था और पति के व्यसनों के कारण वह सामंजस्य नहीं बिठा पा रही थीं. इसी असंतुष्टि के कारण वह अपने पुराने प्यार से जुड़ गई थीं और दोनों विवाहित होने व बच्चे होने के बाद भी मिलते थे. लेकिन उन्हें इस बात का संतोष था कि वे एक- दूसरे को सच्चा प्यार करते हैं, इसलिए एक-दूसरे से सुख-दुख बांटते थे.
लेकिन वीनू की स्थिति अलग थी. अजय उसे अच्छा लगता था, लेकिन अजय ने कभी कुछ कहा नहीं था. हां, अपने घर में उसे छूने की कोशिश की थी, पर भारती का कहना था कि प्यार में पहले शरीर नहीं, बल्कि संवेदना आती है, एहसास आते हैं, फिर समर्पण की भावना उत्पन्न होती है और यह भी ज़रूरी नहीं कि शारीरिक संबंध बने ही. भारती वीनू के जाने के बाद स्वयं निढाल सी बैठ गई. स्वयं उसके अंदर इतनी उदासी भर गई थी कि इस वक़्त सिवाय विश्राम से बात करने के उसके पास और कोई चारा नहीं था. विश्राम- उसका पहला प्यार, उसका अतीत, जो आज भी उसकी ज़िंदगी में है, जिसके बिना वह अपने आपको अधूरा समझती है. अगर आज उसके वर्तमान में उसका साथ न होता, तो वह बिल्कुल टूट चुकी होती, यह एहसास ही उसे जीने को मजबूर कर रहा है कि कोई ऐसा है, जो बहुत दूर है, लेकिन उसकी परवाह करता है, उसे प्यार करता है, जिसके कंधे पर सिर रखकर वह रो सकती है.


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कहीं भारती को यह भी महसूस होता था कि विश्राम की उपस्थिति के कारण ही वह पूर्ण रूप से अपने पति से जुड़ नहीं पाई है. शुरू-शुरू में उसने भरपूर कोशिश की थी, पर पति से प्यार की बजाय कड़वाहट पाने के कारण उसका छटपटाता मन वापस विश्राम की ओर मुड़ गया था. उसके और पति की सोच में ज़मीन-आसमान का अंतर था. जहां वह कला प्रेमी और संवेदनशील औरत थी, वहीं पति हर चीज़ को पैसों से तोलता था. रिश्तों में व्यावहारिकता ढूंढ़ता था. जो भी बात कहो, उसका 'लॉजिक' पहले दो, भारती अंदर-ही-अंदर घुटती रहती थी, जबकि विश्राम के सामने वह स्वयं को इतनी सहज महसूस करती कि उसके मनोभाव पिघल उठते. वह अच्छी तरह से जानती थी कि अगर विश्राम नहीं होता, तो वह पति से सामंजस्य बिठाने की ज़्यादा कोशिश करती या स्वयं को उसके अनुरूप ढाल लेती, लेकिन अब…
विश्राम से फोन पर बात कर बहुत हल्का महसूस किया उसने.
प्यार किसे कहते हैं, यह उसने विश्राम से मिलकर ही जाना था. लेकिन उसमें भी तब विद्रोह करने की शक्ति नहीं थी, इसलिए विवाह नहीं कर पाई थी. लेकिन वीनू की तरह उनका जुड़ाव मात्र तीन महीनों का नहीं था. वे चार सालों तक एक-दूसरे से मिलते रहे थे. इसीलिए भारती चाहती थी कि वीनू अभी अजय से मुक्त हो जाए, नहीं तो वह भी अपने पति के प्रति न तो पूर्णतया समर्पित हो पाएगी, न ही उसके साथ न्याय कर पाएगी. ज़िदगीभर एक कसक बनी रहेगी और प्रेमी व पति के बीच तुलना कर उसका वर्तमान कभी सुखद नहीं हो सकेगा.
वीनू फिर दो दिन बाद आई.
"दीदी, मैं अजय के सामने बहुत रोई, लेकिन उसने सिर्फ़ यही पूछा कि मैं क्या चाहती हूं, एक बार भी यह नहीं कहा कि वह क्या चाहता है या मुझसे प्यार करता है. मैं जानना चाहती थी कि उसकी क्या प्रतिक्रिया है, लेकिन वह इतना 'नॉर्मल' था मानो उसे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ा है."
"चल अच्छा ही है. अब तो उसे भूलने में दिक़्क़त नहीं होगी न. यह मात्र दोस्ती ही थी."
"पर उसने कहा है कि मैं उससे फिर मिलूं." वीनू ने बताया, तो उसके चेहरे से साफ़ झलक रहा था कि वह स्वयं भी ऐसा ही चाहती है.
"जानती हो दीदी, कल मुंबई से दिनेश का फोन आया था. मैं कुछ भी बोल नहीं पाई. घर में सबने डांटा. उसने कहा, "अब बातें करने को तैयार रहना, मैं फिर फोन करूंगा. लेकिन मैं क्या करूं अजय और दिनेश के चेहरे मेरी आंखों के सामने गड्मड हो जाते हैं. मैं समझ नहीं पाती कि किसे सच मानूं."
बार-बार उसे समझाना निरर्थक सा लगा भारती को. आख़िर कब तक दूसरों को फ़ैसला लेने के लिए मनाया जा सकता है. हालांकि वह चाहती थी कि उसकी तरह वीनू की ज़िंदगी बरबाद न हो. अपने वर्तमान में वह ख़ुश रहे, वरना अतीत काली परछाइयों की तरह सदा उसका पीछा करता रहेगा.
दस-पंद्रह दिन बीत गए, वीनू नहीं आई. कंप्यूटर कोर्स भी ख़त्म हो चुका था. शाम को घंटी बजी, तो वीनू सामने थी. हमेशा की तरह उसके चेहरे पर वीरानी नहीं थी. वह ख़ूबसूरत भी लग रही थी.
"आज अच्छी लग रही है, वरना हमेशा झल्ली बनी घूमती रहती थी." भारती ने उसे प्यार से झिड़का.
"दीदी, मैंने सोच लिया है." वीनू की बिना किसी भूमिका के बात शुरू करने की आदत थी. जब भी मिलती, बस शुरू हो जाती थी, मानो उसे दूसरे की परेशानी से कोई मतलब ही नहीं हो. कई बार बुरा भी लगता था कि कभी-कभी दूसरे की बात भी सुननी चाहिए. हो सकता है, दूसरा सुनने के मूड में न हो. वीनू भारती को बहुत सम्मान देती थी, इसलिए वह उसकी आदत को नज़रअंदाज़ कर देती थी.
"दीदी, मैं अजय से फिर मिली थी, उसी ने फोन कर बुलाया था. कहता था कि वह मुंबई ट्रांसफर करवा लेगा. मुझे तो बहुत डर लग रहा है. इस बीच दिनेश से भी फोन पर बात होती रही है."
"फिर क्या सोचा है तुमने?" भारती ने उसे फिर बहकते देख पूछ लिया.
"यही कि अजय को भूल जाऊंगी और दिनेश से प्यार करूंगी. वही सच है. आख़िर दिनेश का इसमें क्या कसूर है, जो उसका हक़ छीना जाए. वह तो दिलो जान से मुझे प्यार करता है. अजय की यादों के साथ फेरे लेना उसके प्रति अन्याय होगा. दिनेश के प्रति 'जस्टीफिकेशन' होना चाहिए, वरना हम दोनों ही सुखी नहीं रह पाएंगे. मेरी वजह से दिनेश की ज़िंदगी तबाह नहीं होनी चाहिए. और अजय को याद कर मुझे मिलेगा भी क्या अधूरापन. पूर्णता तो दिनेश से ही है."
भारती ने देखा वीनू ने आज अपनी सगाई की अंगूठी पहनी हुई थी. उसके गालों पर एक गुलाबी आभा बिखरी हुई थी, जो उसके गेहुएं रंग को और भी चमका रही थी.
"दीदी, कल दिनेश आ रहा है, मैं उसे आपसे मिलवाने लाऊंगी." वीनू जा चुकी थी, लेकिन भारती को लग रहा था कि उसके सीने पर रखा कोई बोझ हट गया है. अपने न सही, पर वीनू के वर्तमान को तो सुखद बनाने में वह कामयाब हो गई थी.

सुमन बाजपेयी

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