उसके चेहरे पर मानो खून ही न रहा हो. उसने सुलगती सिगरेट एक ओर फेंक दी. फ़ौरन अपने कपड़े पहने और रुपए आश्चर्यचकित सुरेखा के सामने मेज़ पर रख यह कहते हुए निकल गया, "सुबह होने पर तुम चली जाना."
गाड़ी सरपट दौड़ी चली जा रही थी. वह खिड़की के सहारे बैठा दौड़ते आते तार के खंबों में और उनके बीच में से झांकती हर क्षण बदलती दृश्यावली को देख रहा था. हां, देखने में तो ऐसा ही लगता है, परन्तु वास्तव में उसका मन उस दृश्यावली में नहीं है, यह भी सरलता से जाना जा सकता था.
कोलकाता जाने को मन न जाने कब से था, परन्तु उस जैसे सीमित साधनों के व्यक्ति के लिए इतनी दूर का सफ़र कहां संभव हो पाता है? यह तो अच्छा हुआ कि उसे कोलकाता में काम का बहाना निकल आया. काम तो दो-तीन दिन का था, परन्तु साथियों से मिलने, कोलकाता घूमने-फिरने की इच्छा के कारण दस दिन की छुट्टी और ले ली, क्योंकि उसे यक़ीन है कि जीते जी पुनः कोलकाता जाना संभव नहीं होगा. उनका व्यापार सीमित सा है और देहरादून से दिल्ली जाकर वहीं से सारी आवश्यकताएं पूरी हो जाती हैं.
काम का तो मात्र बहाना ही था. वास्तव में उसे दो काम थे. हालांकि वह दूसरे काम को अपने मुख्य कामों में गिनते समय ग्लानि अनुभव करता रहा है. सो उस गिनने में जो मुख्य काम है, वह है अपने पुराने साथी राजीव से मिलना. राजीव और उसकी दोस्ती एक पड़ोस के कारण आरंभ हुई थी, परन्तु धीरे-धीरे इतनी प्रगाढ़ होती गई कि दोनों प्रातः उठते ही एक-दूसरे को आवाज़ लगाते. गर्मी का मौसम होता तो बात ही क्या थी, क्योंकि दोनों छत पर ही सोते थे और छतें साथ-साथ थीं. सर्दी के मौसम में भी खिड़की में से या बाहर आंगन में से दोनों एक-दूसरे का मुंह ही सबसे पहले देखा करते.
राजीव में कई गुण थे. वह कविताएं भी लिखता, कहानियां भी, खिलाड़ी भी था कई खेलों का. संगीत का बेहद शौकीन और उस पर देखने में भला चंगा. राजीव की अपने परिवार के सदस्यों से भी खटपट रहती ही थी, सो उसके बार-बार कहने पर ही तो राजीव अपना घर छोड़ने को तैयार हुआ था. उसने स्वयं कह-कह कर तथा अन्य मित्रों से बार-बार कहलवा कर ही तो राजीव को देहरादून से निकलने को तैयार किया था. उसका सुझाव था, राजीव बम्बई जाए और सिनेमा में अपना भाग्य आज़माए. गीत लिखने से लेकर अभिनेता बनने तक के तो सारे गुण राजीव में थे. फिर भला क्या बात है कि राजीव वहां जाकर न चमके. परन्तु जब दोनों विचार-विमर्श करने बैठे तो भी यही फ़ैसला किया कि पहले मुंबई न जाकर कोलकाता ही जाया जाए, क्योंकि मुंबइया फिल्मों में क्रांति लाने के लिए पहले कलकता की मोहर चाहिए, और फिर कोलकाता में एक बड़ी फिल्म में सहायक निर्देशक का कार्य दिला देने का आश्वासन भी किसी ने दिया था.
पहले राजीव ने अपनी पत्नी और बच्चों को उसके मायके भेज दिया और स्वयं कोलकाता चला गया. पहले हर सप्ताह पत्र आता रहा. फिर मास में एक बार और अब भूले-भटके ही राजीव का पत्र आता था. हर पत्र में वह आश्वासन देता था कि बस अब एक अच्छी फिल्म का निर्देशन पूर्ण रूप से उसके द्वारा ही होगा.
अब राजीव को घर छोड़े बारह वर्ष हो गए हैं. राजीव ने जाते ही लिखा था कि सहायक निर्देशन का तो काम मिला, परन्तु हर निर्देशक के सहायक निर्देशक दर्जनों होते हैं, जिनका कार्य झाडू लगाने से आरंभ होता है. राजीव का परिवार अब पिछले दस वर्षों से उसके साथ ही है और कोलकाता जैसी नगरी में पांच आदमियों का परिवार चलाना सरल नहीं है. यह तो तय है ही कि उस परिवार योग्य वह कमा ही लेता होगा. राजीव को उसने अपने आने की सूचना भी नहीं दी, क्योंकि वह एकदम जाकर सामने खड़ा हो जाना चाहता था, यह सोच कर कि भाभी उसे पहचानती है कि नहीं. उस समय का राजीव का प्रसन्न चेहरा, उसका लपक कर, उठ कर, उसके गले लग जाना, इन सब को अपनी उस दौड़ती हुई दृश्यावली की कल्पना में देख-देख कर ही अपना समय निकाल देना चाहता था.
समय इस यात्रा में एक पहाड़ सिद्ध हो रहा था. इतनी दूर की यात्रा, स्टेशन पर स्टेशन, नदी-नाले, पहाड़, मैदान, अंधेरे और अलस दोपहरी, इन सब को देखते और अनुभव करते हुए ही यात्रा अधिक आनन्दमयी ज़रूर महसूस हो रही थी. पर दूसरी एक जो कल्पना, एक जी संभाव्य सुख भोग, लालसा बन, मन के पर्दे के पीछे छिपा हुआ था, इतने वर्षों से वह आज हुलस हुलस कर मानो निकल जाना चाहता था.
बारह बरस में धुरे के दिन भी फिरते है. राजीव को गए बारह वर्ष हो गए. उसे उस सामंजस्य पर हंसी आ गई, तो क्या उसके भी दिन फिरने वाले हैं? फिरने ही चाहिए, आख़िर उसका शहर भी क्या शहर है, जहां पर हर आदमी जान-पहचान का निकल आता है. न कोई बड़ा होटल, न कोई ऐसी व्यवस्था कि कोई कहीं एकान्त पा जाए.
सुना है, कोलकाता तो बहुत बड़ा शहर है.
ईडन गार्डेन, खिदरपुर, चौरंगी का कोलकाता, साहब, बीवी, ग़ुलाम का कोलकाता, ऐलाकेशी और सुकेशियों का कोलकाता, श्यामा सुन्दरियों का कलकत्ता, मृगनैनियों का...
एक दिन अरोड़ा आया था, कहता था, "प्यारे एक बार तो इच्छा हुई थी, मारो लात साले देहरादून को."
"क्यों?" उसने उत्सुक होकर पूछा था.
"अरे, बस जहां चाहो, वहीं पा लो. दो रुपए से लेकर पचास के बीच वेराइटी." अरोड़ा कहता था. उसका गाल सिहर गया, शायद ग्लानि से या शायद जुगुप्सावश किसी आनन्द से. अरोड़ा की क्या? उसके जितने भी दोस्त कोलकाता गए, सभी वापस आकर ऐसा कुछ कहते थे, मानो हज करके आ गए हों. साले धरती पर पैर ही नहीं रखते. कुन्दन सैंडो का एजेंट है, अक्सर ही जाता था. यहां आकर अच्छी से अच्छी को भी कह देता है, "कोलकाता में यह पांच और दस के बीच का माल है." कैसा होगा यह कलकता?
अपने परिकार, अपनी सुन्दर-सुशील पत्नी के होते हुए भी उसकी यह आदिम चाह कई बार सिर उठाती रही है. इसलिए भी कोलकाता शहर का आकर्षण उसके लिए सदा बना रहा है. कभी कोलकाता जाकर उस वैराइटी को चखने की इस चाह के कारण ही वह अपने जेब में सदा कुछ बचाता रहा है.
उसका गंतव्य स्थान भी निश्चत सा ही था. हावड़ा पहुंचते ही उसने चितरंजन एवेन्यू पर एक मित्र के द्वारा सुन रखे एक होटल के लिए टैक्सी ले ली. होटल में रह कर किसी का बंधन जो नहीं रहता. जब इच्छा हो, जाओ. जिसे इच्छा हो, अपने कमरे में अपना काम निपटा देगा और फिर दो-तीन दिन कोलकाता घूम-फिर कर अपनी उस अतृप्ति को पूरा करने के लिए होटलों और सोनागाछियों के चक्कर काटेगा फिर शेष दिन राजीव के साथ. एक मन राजीव के पास सीधा जाने को कहता, परन्तु भय था कि उसके मन की दूसरी इच्छा पूरी करने का अवसर ही फिर न मिल पाएगा. टैक्सी धौर चलाने को उसने कह ही दिया था. हावड़ा स्टेशन से निकलने पर सामने ही खिलौना सा दिखता हावड़ा पुल उसे दिखाई दिया. मानो किसी बच्चे ने मकानों के खिलौने से बनाकर वहां रख दिया हो. पुल की भीड़भाड़ को देखकर उसे लगा, यह दैत्य दोनों ओर से सबको निगले जा रहा है. किसी बड़े नगर की उपमा एक ऐसे दैत्य से देकर, जिसका मुंह दोनों तरफ़ खुला है, उसे अच्छा लगा. ऐसे नगर ही तो है, जहां आकर सारी सभ्यता, संस्कृति समा गई है और यही नगर हैं, जहां आकर सारी सभ्यता, संस्कृति समाप्त हो जाती है.
पुल के बाद की भीड़ में वह आंखें फाड़-फाड़ कर हर समय केश खोले स्वच्छंद घूमती फिरती, अपने नैनों से सबको घायल करती युवतियों की खोज करने लगा, परंतु निराशा ही उसके हाथ लगी, क्योंकि यहां तो चारों ओर लोग सुबह के अपने काम निपटाने, कोने के नलों पर पानी भरने आदि में व्यस्त दिखे.
होटल पहुंच कर वह स्नान करके तैयार हो गया और टेलीफोन पर ही अपने काम निपटाने आरंभ कर दिए, दो दिन के स्थान पर उसे पूरे तीन दिन लग गए अपना काम निपटाने में. अपने पूर्व निश्चित कार्यक्रम के अनुसार अब वह ऐसे रेस्तरां का नाम-पता पूछ कर होटल के साथ वाली सड़क पर चला गया.
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सांझ का झुटपुटा बढ़ रहा था और उस सड़क पर ऐसे रेस्तराओं का शोरगुल भी जिस रेस्तरां को खोज में था, उसका बोर्ड उसे दूर से ही दिख गया. परंतु पास पहुंच कर उसके पांव मन की धुकधुकी के कारण अन्दर की ओर नहीं गए.
वह सीधा आगे निकल गया. परंतु आधे घंटे के पश्चात् उसके कदम पुनः उसी ओर लौटे और रेस्तरां के अन्दर घुसते हुए ऐसे लगा, मानो पसीने से एकबारगी वह नहा गया हो. ऊपर पहुंच कर बिना इधर-उधर देखे वह सीधा सामने के एक केबिन में चला गया. जिन केबिनों में लोग थे, उनके दरवाज़े पर पर्दा पड़ा हुआ था.
कुर्सी पर बैठ कर उसने इधर-उधर दृष्टि दौड़ाई. कई मेज़ों पर बैठे व्यक्ति सामने ग्लास रखे अपने साथियों से बातें करने में व्यस्त थे. किसी मेज़ पर एक युवती और किसी पर दो-दो, तीन-तीन पुरुषों के साथ बैठी थीं. एक ओर एक बेंचनुमा लंबी कुर्सी पर छह-सात लड़कियां बैठी थीं.
लगता था, उसके अन्दर आते ही वह कोई बात करते चुप हो गई थीं और सब एकटक उसी की ओर देखे जा रही थीं, मानो पहचानने की कोशिश कर रही हों कि वह उनमें से किस लड़की का नियमित ग्राहक है. उसने अपनी आंखें झुका लीं.
उसे लगा कि उस समूह में से एक लड़की उठ कर उसकी केबिन की ओर आई हो. उसने अपना मुंह ऊपर उठाया तो मुस्कान बिखेरती हुई उस लड़की ने पूछा, "आप क्या पीएंगे?" और फिर बिना उत्तर की प्रतीक्षा किए पूछा, "आपको साथी भी चाहिए? जिसे कहें, वही आ जाए."
उसे लगा कि लड़की को मुस्कुराहट में इस बात का व्यंग ही है कि एक नौ सिखिए से पाला पड़ रहा है.
उसने लगभग उठते हुए कहा, "आप बैठिए और बताइए कि यहां क्या मिल सकता है और आप क्या लेंगी?"
यह कहते हुए वह आश्वस्त हो गया था शायद अपने मन को समझा कर, यह लड़कियां तो सस्ते क़िस्म की हैं, इनसे मुझे भय क्या होना चाहिए. बहरहाल ऐसे ही तो होता होगा यह सारा गोरखधंधा.
उस लड़की ने बैठते ही बताया कि उसका नाम सुरेखा है. इतने में जो बेयरा आया था, उसे दो ग्लास व्हिस्की तथा साथ में कुछ खाने के लिए लाने का ऑर्डर दे दिया. उसने यह सुन रखा था कि यह लड़कियां प्रायः महंगी चीज़ों का ऑर्डर दिलवाती है, क्योंकि उनके द्वारा करवाई गई हर बिक्री में इनका कमीशन होता है. परंतु वह इन्हीं दो-चार दिनों के लिए तो कब से धन इकट्ठा करता रहा है.
इसके पश्चात् तो दोनों उस केबिन में दो-तीन घंटे बैठे रहे और सुरेखा सामने वाली कुर्सी से खिसक कर उसके साथ वाली कुर्सी पर आ गई थी. सुरेखा ने उसकी किसी हरकत पर भी आपत्ति नहीं की. यह तय हुआ कि यहां से सुरेखा उसके साथ उसके होटल में जाएगी और वहीं रात बिताएगी, सुरेखा ने बातों-बातों में रात भर के रुपए की बात भी कह दी.
बेयरा टैक्सी बुला लाया और दोनों उसके होटल में आ गए, तब उसकी झिझक समाप्त हो चुकी थी और उसके स्थान पर उसकी पुरानी अतृप्त चाह ने उसके मन एवं शरीर पर पूरा अधिकार कर लिया था. केबिन में बैठे-बैठे उसको इस प्यास ने सिर उठाना आरंभ कर दिया था. अपने कमरे में पहुंचते ही, इससे पूर्व कि सुरेखा अपने वस्त्र उतारती, वह उस पर भूखे भेड़िए की भांति टूट पड़ा और तब तक उसे जकड़े रहा, जब तक उसका शरीर निढाल नहीं हो गया.
सुरेखा शायद ऐसे लोगों की अभ्यस्त थी, जो उसे होटल ले जाकर अपने रुपयों को वसूल करने के लिए रात भर एक पलक भी नहीं सोते. और यही तो यह अजनबी भी कर रहा था, परंतु उसके मन में रुपयों को वसूल करने की बात से कहीं ऊपर अपनी उस आदिम चाह की पूर्ति की भावना ही अधिक थी, जो वैवाहिक जीवन के इतने वर्षों' के बाद परिवर्तन चाह रही थी.
लगभग प्रातः तीन बजे, जब वह एक सिगरेट सुलगा कर बिस्तर पर निढाल पड़ी सुरेखा से कुछ दूर एक कुर्सी पर बैठा, तब कहीं उसे होश आया कि सुरेखा भी हाड़-मांस का एक ऐसा पुतला है, जिसकी अपनी भी कोई इच्छा हो सकती है, अपने अरमान हो सकते हैं, वह भी किसी की बेटी है और शायद किसी की पत्नी भी...
सिगरेट के कश खींचते उसने सुरेखा से उसके विषय में पूछना आरंभ कर दिया. वह यह सुन कर चौंका कि सुरेखा का जन्म उसके अपने नगर देहरादून में ही हुआ है. सुरेखा ने बताया, "मेरे पिता बहुत पहले कोलकाता नगरी आ गए थे. पिता की आय से परिवार का ख़र्च नहीं चलता, मैं सुंदर हूं, परंतु पढ़ी-लिखी नहीं हूं, सो कुछ सहेलियों के सुझाव से यही आरंभ कर दिया है. वैसे अब जान गई हूं कि इस महान नगरी में पढ़ी-लिखी लड़कियां भी यही धंधा करती हैं. पिता को यही पता है कि टेलीफोन एक्सचेंज में रात की ड्यूटी है. संभव है. उन्हें पता हो कि मैं क्या करती हूं, परन्तु कुछ कह नहीं पाते."
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उसके दिल की कुछ धड़कन बढ़ गई थी. "तुम्हारे पिता का कार्य फिल्मों से संबंधित तो नहीं है?" यह प्रश्न उसके अधरों तक आया और उसे लगा कि शायद इस प्रश्न का कुछ अंश निकल भी गया, परन्तु प्रयत्न करके वह इस प्रश्न को दांतों ही दांतों में दबा गया.
उसके चेहरे पर मानो खून ही न रहा हो. उसने सुलगती सिगरेट एक ओर फेंक दी. फ़ौरन अपने कपड़े पहने और रुपए आश्चर्यचकित सुरेखा के सामने मेज़ पर रख यह कहते हुए निकल गया, "सुबह होने पर तुम चली जाना."
बाहर प्रातः का धुंधलका घने अंधकार से निकलने के संघर्ष में तल्लीन था. उसकी यह हिम्मत भी न हुई की सुरेखा से पूछे कि उसका पिता फिल्मों में काम तो नहीं करता और उसका असली नाम गीता तो नहीं था. उसे भय था कि कहीं उसकी शंका सही निकल गई तो उसके डूबने के लिए बंगाल का सागर भी कहीं छोटा न पड़े.
- ब्रह्मदेव