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कहानी- अवसाद (Short Story- Avsad)

"… इस पत्र से यह ज़रूर मालूम पड़ता है कि इस समय वह बहुत अवसाद और तनाव की स्थिति से गुज़र रहा होगा. जब कभी मनुष्य के जीवन में ऐसी स्थिति आती है वह उम्मीद करता है, अपनों से सहानुभूति की, अपनेपन की और याद करता है उस अतीत को, जो उसके
जलते हुए दिल पर शीतल बौछारों का काम करे…"

"पोस्टमैन…" आवाज़ से मनीषा चौंक गई थी. मई की झुलसा देनेवाली गर्मी में मनीषा उनींदी सी सोफे पर बैठी थी. उसने दरवाज़ा खोला और लिफ़ाफ़ा ले लिया. अंदर आकर उसने लिफ़ाफ़े को उलट-पलट कर देखा. एक कोने में प्रोफेसर सौरभ लिखा था. अपनी याददाश्त पर ज़ोर देते हुए मनीषा ने लिफ़ाफ़ा खोला. इसी के साथ एक धुंधली सी याद मनीषा के दिलो-दिमाग़ पर छा गई.
वह सेंट मेरी कॉलेज में बी.ए. अंतिम वर्ष की छात्रा थी, तभी प्रोफेसर सौरभ ने कॉलेज ज्वाइन किया था. वह हिंदी साहित्य विषय पढ़ाया करते थे. मनीषा शुरू से ही शोख एवं चंचल थी. 'मीरा के कृष्ण' शोध पर चर्चा करते हुए प्रोफेसर सौरभ ने कहा था, "आज न मीरा जैसी प्रेमिका है, और न ही कृष्ण जैसा चरित्र. आज का प्रेम निश्छल नहीं है, उसमें वासना की गंध भर गई है." इसका विरोध मनीषा ने बड़े जोरदार शब्दों में किया था, "सर, प्रेम देश या काल से बंधा नहीं रहता. हर समय में, हर तरह के लोग हमारे समाज में होते आए हैं. उस समय‌ भी दु:शासन और दुर्योधन जैसे लोग थे."
मनीषा की बात से प्रोफेसर सौरभ एवं क्लास के अन्य लोगों में स्तब्धता छा गई थी. इसके बाद यदाकदा प्रोफेसर सौरभ, मनीषा से मिलने का बहाना ढूंढ़ते रहते. वह स्वयं को कृष्ण और मनीषा को मीरा समझने लगे थे. लेकिन मनीषा की स्पष्ट राय थी कि वह मीरा नहीं, राधा बनने को तैयार है, क्योंकि पढ़ाई ख़त्म करने के बाद उसे अपने पिता को उनकी ज़िम्मेदारी से मुक्त करना था. इसी तरह उधेड़बुन चलती रही और मनीषा की शादी मयंक से हो गई, जो एक कंपनी में मैनेजर था. पिछले पांच सालों में मनीषा अपने घर, पति मयंक और बेटे टोनी में इस तरह रम गई थी कि उसे किसी और के बारे में सोचने का समय ही नहीं मिला.
फोन की घंटी की आवाज़ सुनकर मनीषा अतीत से फिर वर्तमान में आ गई. उधर से मयंक बोल रहा था, "क्यों, कहां खो गई थीं? बड़ी देर से घंटी बज रही है." मनीषा ने अपने आपको संभालते हुए कहा, "नहीं, बस यूं ही थोड़ी आंख लग गई थी. हां, कहो कैसे फोन किया?"
मयंक ने शैतानी भरी आवाज़ में कहा, "तो अब हमें आपसे बात करने के लिए काम ढूंढ़ना पड़ेगा."
मनीषा अब तक अपने आपको पूरी तरह संभाल चुकी थी. इसलिए उसने कहा, "ऐसी बात नहीं है, आप अक्सर कुछ काम होता है तभी फोन करते हैं." इसलिए मैंने पूछा. मनीषा ने बड़ी सहजता से कहा. मयंक ने बड़ी ख़ुशी से उसे बताया, "शाम को तैयार रहना, फिल्म देखने चलेंगे. खाना बाहर ही खाएंगे." मनीषा ने ख़ुशी से "जी अच्छा" कहते हुए फोन रख दिया. फिर हाथ में दबे लिफ़ाफ़े को देखा. एक मन हुआ कि वह इसे बिना पढ़े ही फाड़कर फेंक दे. लेकिन, फिर अपने को रोक नहीं सकी और पत्र पढ़ने लगी.
प्रिय मनु,
एक लंबे अंतराल के बाद पुनः पत्र संबंधों को जीवन्त करने का प्रयास कर रहा हूं. आशा है तुम्हारा सहयोग मिलेगा. वैसे अब रिश्तों में उष्मा तो शायद नहीं रहेगी, फिर भी तपती धूप में एक तिनके सी छाया की उम्मीद तो कर ही सकता हूं. कॉलेज में जब तुमसे आख़िरी बार भेंट हुई थी, तब महसूस हुआ था कि संभवतः नेह प्रवाह रुकेगा नहीं. परंतु इस विराम के बाद अंततः मन रूपी पक्षी ठौर-ठिकाना ढूंढ़ते हुए तुम्हारे नीड़ के द्वार पर दस्तक देने पहुंच ही गया. मनु…"


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मनीषा का अंतःकरण तीव्र ज्वाला में जलने लगा. उसके हाथ भिंच गए. आंखें लाल हो गई थीं. वह सोचने लगी थी, यह प्रोफेसर सौरभ कौन होता है उसके जीवन में ज़हर घोलनेवाला? अरे, अब तो 'मान न मान, मैं तेरा मेहमान' वाली स्थिति बना दी है इसने. मनीषा की इच्छा हुई कि वह उस पत्र को आगे पढ़े बिना ही जला दे और ख़त्म कर दे उस अतीत को, जिससे उसका अब कोई संबंध रहा ही नहीं. लेकिन फिर मन में आया आख़िर लिखा क्या है प्रोफ़ेसर ने, ज़रा आगे पढ़कर भी तो देखूं. और न चाहते हुए भी मनीषा आगे पढ़ने लगी.
"… मनु मैं भूले-बिसरे और बिखरे रिश्तों को पुनर्जीवित करने का प्रयास कर रहा हूं, प्लीज़ निराश मत करना. जीवन बहुत क्षणिक है. मेरी आंखों के आगे अभी भी तुम वैसी ही शोख चंचल, सुंदर लड़की समान घूमती रहती हो. मनु, ढाई माह के हिमालय दर्शन, गंगोत्री-यमुनोत्री से होते हुए कन्याकुमारी तक के लंबे प्रवास से लौटा हूं. इस लंबी यात्रा में विचार था कि शायद मुक्तिपथ मिल जाए और शेष जीवन साधना शांति और प्रेम से गुज़र जाए. लेकिन अब ऐसा महसूस हो रहा है कि शायद शेष जीवन अधूरा ही बीतेगा. जब अपनों का अपनत्व न मिले, तो वियोग और भी असहनीय हो जाता है. अब सोचता हूं कहीं चला जाऊं, सबको छोड़कर तुमको, अपने को सभी को…" मनीषा ने महसूस किया कि किसी ने एक भारी बोझ रख दिया है उसके सीने पर. आख़िर उसने सौरभ को क्या अपनापन दिखाया था कि इतने साल वह उसकी याद में ज़िंदगी गुज़ारता रहा और अब भी अपना दीवानापन दिखा रहा है.
आगे प्रोफेसर सौरभ ने लिखा था, "मनु, मुझे बाद में ज्ञात हुआ था कि तुम मेरे मनुहार का इंतज़ार नहीं कर पाई थीं और डोली में बैठकर चली गई थीं… मनु, अभी भी मेरे कल्पना के चित्र संग्रह में तुम्हारा दुल्हन के रूप में चित्र सुरक्षित है. मैंने तो तुम्हारा परित्याग नहीं किया था, फिर भी तुम इतनी नाराज़ क्यों बैठी हो. तेज़ तपन के बाद कजरी के दिन समीप हैं, याद करोगी न… भाई मयंक को याद कहना… स्वाती की प्रतीक्षा में, तुम्हारा ही,
सौरभ
पत्र पढ़कर मनीषा का अंतर्द्वंद्व तेज हो गया. आख़िर चाहता क्या है सौरभ? क्या उसे मयंक की निगाह से गिराना चाहता है? या यह सिद्ध करना चाहता है कि अभी भी मनीषा पर उसका अधिकार है? लेकिन किस अधिकार से वह यह सब लिख रहा है? अच्छा होगा कि मैं यह पत्र जला दूं. लेकिन यदि सौरभ का उद्देश्य उसे नीचा दिखाना, परेशान करना एवं नुक़सान पहुंचाना है, तो वह फिर पत्र लिखेगा, जिसमें पुराने पत्र का भी उल्लेख करेगा. अभी तो पत्र मेरे पास है, कभी मयंक के हाथ लग गया और उसने पढ़ा तो… एक अज्ञात भय से मनीषा के शरीर में सिहरन-सी दौड़ गई. या फिर मयंक को इस पत्र के साथ सब बता देना चाहिए कि उसका सौरभ से कभी कोई संबंध नहीं रहा. पुरुष का मन इतना विशाल नहीं होता कि कोई उसकी पत्नी को चाहे और वह पत्नी पर संशय न करे. अरे, वह तो यही सोचेगा कि कहीं तो आग लगी होगी, तभी तो धुआं उठ रहा है.
तभी दीवार पर एक छिपकली ने एक कीड़े को अपने मुंह में दबा लिया. मनीषा को ऐसा महसूस हुआ, मानो सौरभ ने अपना खूनी पंजा उसके गले पर रख दिया है. एक बार मनीषा के मन में आया कि वह सौरभ को उसके दिए पते पर पत्र लिख दे कि वह इस तरह के पत्र न लिखे. लेकिन यदि सौरभ ने उस पत्र को ही आधार बना कर मयंक से सीधे पत्राचार किया तो?.. तो फिर मैं क्या करूं? मनीषा सोच नहीं पा रही थी.


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दांपत्य जीवन का आधार विश्वास की दीवार होती है. जब उसी में कोई सेंध लगा दे, तो उस सेंध के भरने तक तो बिखराव आ ही जाता है और फिर सेंध को भरने पर उसमें धब्बा लग ही जाता है. तभी कॉलबेल की आवाज़ से मनीषा के अंतर्द्वंद्व में विराम लग गया.
टोनी सामने खड़ा था. नाराज़गी से बोला, "क्या मम्मी, इतनी देर घंटी बजा रहा हूं और आप हैं कि…" मनीषा ने कहा, "बेटे, यूं ही क आंख लग गई थी." और वह टोनी के कपड़े बदल कर नाश्ता बनाने चली गई. इसी सब में कब पांच बज गए, मनीषा को पता ही नहीं चला,.
मयंक ने आते ही कहा, "अरे, अभी तक तुम तैयार नहीं हुई. मनीषा ने बेमन से कहा, "अभी तैयार हो जाती हूं." सिनेमा हॉल भी मनीषा फिल्म के दृश्यों से अपने को जोड़ रही थी. एक खलनायक हीरो-हीरोइन के जीवन में आ जाता है और हीरोइन को अपने मनगढ़ंत बातों से डराता है. उस पर दबाव डालता है कि वह हीरो के छोड़कर उसके पास आए. जब वह नहीं जाती, तो वह हीरो को गुमराह करता है और हीरो हीरोइन पर शक करने लगता है. इस तरह उनका सुखी जीवन बिखर जाता है.
वापस लौटते हुए मनीषा ने मयंक को टटोलने के अंदाज़ से पूछा, "फिल्म में जिस तरह खलनायक को दिखाया गया था, ऐसा वास्तविक जीवन में हो सकता है क्या?"
तब मयंक ने गाड़ी चलाते हुए लापरवाही से कहा था, "मनीषा फिल्मों की कहानी और वास्तविक जीवन की कहानी में ज़मीन-आसमान का फ़र्क़ होता है."
"लेकिन इनकी कहानी भी तो आम लोगों के जीवन पर ही आधारित होती है?"
मयंक ने फिर कहा, "अरे मनीषा, तुम भी कहां फिल्म के उस भाग को लेकर बैठ गई. अरे उसमें रोमांच-कॉमेडी भी तो थी." और दोनों हंसने लगे.
घर आकर मयंक होने के कारण जल्दी सो गया, जबकि मनीषा की आंखों से नींद कोसों दूर थी.
सुबह सैंडविच बनाते समय मनीषा की आंखें जल रही थीं. मन व्याकुल-सा था… सिर भारी. बड़ी मुश्किल से सैंडविच बना सकी थी, इसलिए सैंडविच जल गए थे. तभी टोनी ने टोका, "आज तो मम्मी ने वैसे ही सैंडविच बनाए हैं पापा! जैसे शादी के बाद पहली बार बनाए होंगे…" टोनी के बात से सभी हंस दिए. काफ़ी उधेड़बुन के बाद आख़िर  मनीषा ने एक निर्णय ले ही लिया था. जब मयंक ऑफिस जाने की तैयारी कर था, तब उसका सामान ब्रीफकेस में रखते हुए सबसे ऊपर उसन प्रोफेसर सौरभ का पत्र भी रख दिया. अब निर्णय पूरी तरह से मयंक पर था.
मयंक और टोनी के जाने के बाद मनीषा सोचने लगी, मयंक ने अपना ब्रीफकेस खोला होगा, फिर उसको सौरभ का पत्र दिखा होगा जिसे उसने पढ़ा होगा… और अब यह जानने के लिए कि उस पत्र का क्या प्रभाव पड़ा, मनीषा ने ऑफिस फोन लगाया.
उधर मयंक की सेक्रेटरी की आवाज़ आई, "मैडम, कॉन्फ्रेन्स हॉल में मीटिंग चल रही है. साहब वहीं व्यस्त हैं. कोई मैसेज हो तो…" लेकिन तब तक मनीषा ने फोन काट दिया. अक्सर ऐसा होता था कि मनीषा जब फोन करती और मयंक नहीं मिलता, तब उसे जब भी समय मिलता वह ज़रूर फोन करता था. लेकिन शाम होने को आ गई थी. मयंक ने फोन नहीं किया. रात को क़रीब दस बजे ज़रूर फोन आया कि आज वह व्यस्त रहेगा, इसलिए वह और टोनी खाना खा लें.
उस रोज़ मयंक देर रात लौटा और सो गया. न उसमें पहले जैसी चपलता थी, न ही संबंधों की उष्मा. सुबह जब तक मनीषा जागती, मयंक जा चुका था. इस सब घटनाक्रम से मनीषा टूट गई. वह समझ गई के मयंक ने सौरभ का पत्र पढ़ लिया है, इसलिए वह ऐसा व्यवहार कर रहा है. लेकिन जो भी हो, अब तो निर्णय उसी पर है. इधर रो-रोकर मनीषा की आंखें लाल हो गई थीं. इन दो दिनों के घटनाक्रम ने मनीषा को झकझोर दिया था. रात को फिर मयंक के देर से आने का फोन आ गया था.
अगले दिन मनीषा फिर भारी मन से मयंक के ऑफिस जाने की तैयारी कर ही रही थी, तभी मयंक ने कहा, "हां! तुम्हारा एक पत्र मेरे ब्रीफकेस में न जाने कहां से आ गया. शायद टोनी ने रख दिया होगा. वह तो मीटिंग की व्यस्तता के कारण तुमसे बात ही नहीं हो पाई. वाह भई, कमाल का आदमी है ये प्रोफेसर सौरभ…"
तब मनीषा ने बुझे स्वर में कहा, "टोनी ने नहीं, वह पत्र मैंने ही आपके ब्रीफकेस में रखा था. अब आपकी अपराधिन आपके सामने खड़ी है. चाहें तो स्वीकारें, चाहें तो घर से निकाल दें…"


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मयंक ने परेशान होते हुए कहा, "ऐ मनीषा, तुम्हें क्या हो गया है? कैसी बहकी-बहकी बातें कर रही हो. अरे, मैं तो यह कह रहा था कि वह ठहरा प्रोफेसर और अपन ठहरे एक कंपनी मैनेजर, इतनी साहित्यिक भाषा तो आती नहीं. हां, इस पत्र से यह ज़रूर मालूम पड़ता है कि इस समय वह बहुत अवसाद और तनाव की स्थिति से गुज़र रहा होगा. जब कभी मनुष्य के जीवन में ऐसी स्थिति आती है वह उम्मीद करता है, अपनों से सहानुभूति की, अपनेपन की और याद करता है उस अतीत को, जो उसके
जलते हुए दिल पर शीतल बौछारों का काम करे…" मनीषा के सब्र का बांध टूट गया था, वह फफक-फफककर रो पड़ी और मयंक के सीने से लग गई…
मयंक कह रहा था, "पगली, इन पांच वर्षों में मैं क्या तुम्हें इतना भी नहीं समझ पाया और फिर दांपत्य जीवन का मूल आधार ही विश्वास है. तो फिर क्या उस सौरभ का यह पत्र हिला सकता था. सौरभ ने यह पत्र बेहद भावुकता में लिखा है. लेकिन हमने तो उसे वास्तविक धरातल की पृष्ठभूमि पर पढ़ा है. तुम चिंता मत करो, सौरभ को मैं जवाब दूंगा. उसे अपनी ज़िंदगी, अपने तरीक़े से शुरू करने के लिए कहूंगा, ना कि दूसरे की ज़िंदगी में ताका-झांकी करते हुए गुज़ारने के लिए."
पिछले दो दिनों से मनीषा के दिलो-दिमाग़ पर छाए हुए अवसाद के बादल छंट गए थे. मयंक ने उसे अपनी बांहों में कसते हुए कहा, "पगली, अरे तेरे आंसुओं से मेरा सूट ही गीला हो गया. अब दूसरा पहनना पड़ेगा." और मनीषा 'धत' कहते हुए, दूसरा सूट निकालने लगी.

- संतोष श्रीवास्तव

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