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कहानी- बेबी सानिया (Short Story- Baby Sanya)

"पति से तो बाद में निपटूंगी पहले इसे देखती हूं." तड़ से एक चांटा पड़ा नन्हें कोमल गाल पर. बच्ची तो पहले ही सहम गई थी, डर के मारे रो भी नहीं पाई, सांस भीतर ही घुट के रह गई.
"पहले ही सुबह-सुबह इतने सारे काम रहते हैं, उस पर ये लड़की उसे और बढ़ाने में लगी रहती है."

"सान्या… सान्या उठो बेटा. आपको स्कूल नहीं जाना? उठो… उठो झटपट." मम्मी का धैर्य चुकने लगा, “क्या बात है, उठती क्यों नहीं हो? मुझे क्या बस एक ही काम है कि सुबह से तुम्हारे साथ ही लगी रहूं." मम्मी का पारा चढ़ते देख सान्या उठकर बैठ तो गई. लेकिन सुबह की मीठी नींद आंखें खोलने ही नहीं देती थी. फिर रात वो सोई भी तो थी देर से. घर में पार्टी जो थी और उसके फ्रेंड्स भी तो आए थे प्रांशु, श्रेय, मिन्नी, गिन्नी, एकांश कितना मज़ा आया था.
प्रांशु ने उसे धक्का दिया, तो चोट भी लग गई. बहुत रोई थी वो. आंसू भी आए थे.
सान्या का छोटा-सा दिमाग़ अब खूब सोचने लगा था. फिर मम्मी ने उसे उठाकर उसके हाथ में ब्रश थमा दिया जिसे वह कभी इधर-उधर घुमाती, तो कभी हौले से चबा जाती.
फिर जल्दी-जल्दी मम्मी ने उस पर चार-छह मग पानी डाले और तौलिए में लपेटकर बेडरूम में ले आई.
"राहुल, प्लीज इसे कपड़े पहना दो, मैं ज़रा किचन देखती हूं."
"लता, पहले एक प्याला चाय मिल जाता…"
"अभी देती हूं." कहकर लता जैसे ही किचन की तरफ़ दौड़ी, हड़बड़ी में गाउन पैरों में ऐसा उलझा कि दरवाज़ा न थाम लेती, तो गिर ही पड़ती. फिर भी पैर के अंगूठे का बढ़ा नाख़ून दूसरे पैर पर लगने से खरोंच आ गई और खून भी निकल आया. लेकिन अभी ये सब देखने की फ़ुर्सत किसे थी.
स्कर्ट का हुक फंसाते हुए राहुल बेबी से बतियाने की कोशिश कर रहा था, लेकिन बेबी का मुंह लटका हुआ था. चॉकलेट, टेडी बेयर किसी का भी आकर्षण उसे नहीं लुभा रहा था.
क्रेच की काली मोटी कर्कश आया की झिड़कियां, ग़ुस्सैल आंखें और सूस्सू निकल जाने पर काटी गई चिकोटी के स्मृतिदंश सान्या की सारी ज़िंदादिली सोख गए थे. फिर वही सज़ा…


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उधर चाय बनाते हुए लता सोच रही थी, पहले ही तय था कि अभी बच्चा पैदा नहीं करेंगे, बच्चे की देखरेख और नौकरी भला दोनों साथ चला करते हैं कहीं? सारे ख़्वाब सान्या के आने से धूल में मिल गए मैं तो केवल आया बनकर रह गई हूं.
अब राहुल का भी क्या कसूर? दो-तीन आया दोस्तों से कह-सुनकर लाए थे, लेकिन एक भी नहीं टिकी. पहली चोर, दूसरी बीड़ी फूंकने वाली और तीसरी को मिसेज माथुर ने पटा लिया. सान्या किसी को भी पसंद नहीं कर सकी. वह उनके पास फटकने को भी तैयार न थी.
बेटी की देखभाल की चिंता है लता को, लेकिन काम पर जाना भी तो ज़रूरी है. फिर दोनों की कमाई से ही तो आज ये शानदार फ्लैट, गाड़ी, फ़र्नीचर और ऐशो-आराम की ढेर सी चीज़ें जुटा पाए हैं वो.
शादी के बाद बहुत सी बातें हर कोण से उन्होंने पहले ही तय कर ली थीं, जिससे बाद में अधिकारों और काम को लेकर कोई झंझट न खड़ी हो.
लता ने चाय का प्याला राहुल को पकड़ाया. फिर जल्दी-जल्दी बेबी को दूध ख़त्म करने की हिदायत दे वह उसका लंच बॉक्स तैयार करने लगी.
दूध में मलाई आ जाने से सान्या ने दूध उलट दिया. उसकी इस हरकत से राहुल बौखला गया, "तुमसे कितनी बार कहा है, इसे दूध छानकर दिया करो, मगर तुम्हारे आलस की भी हद है."
"पति से तो बाद में निपटूंगी पहले इसे देखती हूं." तड़ से एक चांटा पड़ा नन्हें कोमल गाल पर. बच्ची तो पहले ही सहम गई थी, डर के मारे रो भी नहीं पाई, सांस भीतर ही घुट के रह गई.
"पहले ही सुबह-सुबह इतने सारे काम रहते हैं, उस पर ये लड़की उसे और बढ़ाने में लगी रहती है."
सफ़ाई कर मम्मी दूसरा ग्लास ले आई.
"चल, पी ले झटपट छानकर लाई हूं." सान्या का दहशतभरा चेहरा देख मम्मी के भीतर कुछ पिघलने लगा, "रानी बेटी देखें कैसे फर्स्ट आती है."
मां का उतरता पारा देख आश्वस्त बच्ची ने मां की शाबाशी पाने की ख़ातिर जल्दी-जल्दी दूध ख़त्म कर मम्मी की शाबाशी के लिए ऊपर देखा. लेकिन मम्मी तो यह जा वह जा उड़नछू हो गई थी. सान्या धीरे से किचन के दरवाजे पर जा पहुंची और सुबह से पहली बार उसके मुंह से बोल फूटा, “आमलेट नहीं खाऊंगी."
"फिर क्या खाएगी रानी बेटी!"
"पिकल परांठा."
"अच्छा कल दे दूंगी. आज तो ऑमलेट-ब्रेड ही खा लेना."
राहुल कार का हॉर्न बजा रहे थे, लता एक हाथ से सान्या की उंगली पकड़ दूसरे में वॉटर बॉटल और लंच बॉक्स का बैग थामे हुए सीढ़ियां उतरी.

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क्रेच में और बच्चों को रोते देख सान्या का नन्हा सा दिल डर के मारे तेजी से धड़कने लगा. सुबह से शाम तक कारावास की सज़ा काट सान्या जब पापा के साथ घर लौटी, तो उसे लगा कि अभी मम्मी उसे प्यार से चिपटाकर पूछेगी, "छोनू बच्चा, पढ़ाई कर आया?" पढ़ाई की बातें सान्या को अच्छी लगती हैं. पड़ोस की सलोनी दीदी जैसे पढ़ने जाती हैं, ठीक वैसे ही उसे भी तो जाना है.
लेकिन मम्मी बिस्तर पर कराहती हुई लेटी थीं. सान्या के भीतर कुछ बुझ-सा गया. उसने जाकर मम्मी से चिपटना चाहा, तो पापा ने खींचकर अलग कर दिया, "क्या कर रही है सान्या? मम्मी की तबियत ख़राब है, उन्हें तंग मत कर."
बाहर एम्बुलेंस खड़ी थी. मम्मी को पड़ोसवाली नीना आंटी और पापा ने पकड़ कर धीरे-धीरे गाड़ी में बिठाया. मम्मी-पापा दोनों चले गए. फिर नीना आंटी उसे अपने घर ले गईं.
सान्या का मन हो रहा था कि वह बुक्का फाड़कर रोए. नीना आंटी उसे ज़रा भी अच्छी नहीं लगतीं. शांता बाई कह रही थी कि वह इतनी कड़क हैं, इसीलिए उनके बच्चे नहीं होते. जहां बच्चे नहीं होते सान्या का मन वहां नहीं लगता.
उसने न ही खाना खाया, न ही पानी पिया. टीवी देखते-देखते एकाएक वह सुबकने लगी. रोते-रोते उसकी हिचकी बंध गई थी. नीना आंटी ने घुड़का, "अजीब लड़की है, न खाती-पीती है, न कुछ बात ही करती है. बगैर बात रोए जा रही है. कोई देखेगा तो समझेगा मैंने ही इसे रुलाया है. वैसे ही बच्चों को लेकर कौन-सी कम बदनाम हूं. चोऽऽप, चुप कर वर्ना थप्पड़ लगा दूंगी."
सान्या का रोना तो थम गया, मगर रोकते-रोकते भी सुबकी आ ही जाती थी. उसने डरते हुए धीरे से कहा, "मम्मी, पास… मम्मी पास जाना है." नीना आंटी इस पर आंखें तरेर कर कुछ कहती, इससे पहले ही नीचे गाड़ी की आवाज़ सुन सान्या खिल उठी. वाकई मम्मी-पापा ही थे. वह घर की ओर दौड़ पड़ी.
पापा ने सान्या को अच्छी तरह समझा दिया कि मम्मी को वह बिल्कुल तंग न करे. मम्मी को अभी सुई लगी है और बहुत दर्द हो रहा है. सान्या ने भी समझदारी से सिर हिलाकर 'अच्छा' कह दिया. उसे अंदेशा था कि कहीं मम्मी फिर न चली जाएं. मम्मी उसके सामने हों बस. उसे बहुत अच्छा लगता है, शानू, किट्टू सबकी मम्मी घल पर ही तो रहती हैं.
सान्या को दूसरे दिन पापा ने बताया कि उसकी दादी मां आ रही हैं और अब सान्या को क्रेच नहीं जाना पड़ेगा. ये जानकर सान्या के चेहरे की रौनक़ लौट आई. वह पूरे घर में तितली सी इधर-उधर मंडराने लगी.
दादी से दोस्ती करने में सान्या को केवल दस-पंद्रह मिनट लगे. उसके बाल मनोविज्ञान ने चट ताड़ लिया कि दादी सुरक्षा और प्रेम की वह शीतल छाया हैं, जहां वह बेफ़िक्र हो मस्ती में रह सकती है. दादी भी उसकी एक-एक बात पर वारी जातीं. उसका मटकना देख निहाल होती. "दादी अब आप यहीं रहोगी?" दूसरे दिन सान्या ने दादी से पूछा.
"तू बता, यहीं रहूं कि जाऊं?" दादी ने सान्या का मन टटोला.
"नई जाओ. "
"क्या? चली जाऊं." दादी ने जान-बूझकर अनजान बन सान्या की बात का मतलब पूछा. अब की सान्या चिल्लाकर अपनी बात समझाते हुए बोली, "नई जाओ…"
"अच्छा नहीं जाऊंगी." दादी ख़ुश होकर बोलीं, क्योंकि अब वह भी तो बहुत ख़ुश थीं. बच्ची का मोह जो हो गया था. दादी के सूखे रेगिस्तान से तपते जीवन में सान्या रस की फुहार थी. उसकी तोतली मीठी बातें दादी को गुदगुदा जातीं. कभी सान्या अपने ढेर से खिलौनों का तफ़सील से वर्णन करते हुए दादी को बताती, “ये मेरा गुड्डू, ये मेरी बॉबी डॉल, मैं कलेछ गई थी ना, तो बॉबी सान्या सान्या कल लई थी…'
"हूं… ऊं…" दादी ने हुंकार भरा.
एकाएक खिलौनों की बात करते-करते चौंककर सान्या ने पूछा, "तुम यहीं लओगी?"
"हां.. बच्ची, हां…" दादी को हंसी आ गई.
"लात को भी?"
"हां रात को भी."
सान्या ने देखा दादी सचमुच ही रात को भी नहीं गई. कौतुक भरी नज़रों से वह दादी की एक-एक हरकत देखती और उनमें से कुछ की नकल कर ख़ुश होती.
क्रेच का दुःस्वप्न जब कभी रात में भी वह देखती, तो बुरी तरह डर जाती, तब दादी उसे थपथपातीं, दुलारतीं और वह चैन से सो जाती. अब वह रोज़ रात को दादी से अच्छी-अच्छी कहानियां सुनती. बंदर, भालू, चूहे और तोता-मैना की कहानियां उसे बहुत अच्छी लगती थीं.
पूजा करती दादी के पास बैठी वह भगवान जी को जे करती. फिर टुनटुनाती घंटी की मधुर स्वर लहरी पर हुलसकर ख़ुद भी ख़ूब ज़ोर-ज़ोर से घंटी बजाती.
दादी के पास कोई निषेध, कोई वर्जनाओं की महीन चाबुके नहीं हैं, जिनसे मम्मी-पापा उसे अक्सर घायल किया करते थे. दादी के आने से आजकल वे भी सान्या की तरफ़ से निश्चिंत होकर हर समय बगैर लड़े-झगड़े आराम से बातें करते हैं.
मम्मी ने आज से ऑफिस जाना शुरू कर दिया. मगर अब सान्या को परवाह नहीं. अब दादी जो हैं उसके नाज-नखरे उठाने, उसकी इतराहट पर वारी जाने के.
सान्या के बचपन की ख़ुशबू जहां दादी के वजूद को गमका रही थी, वहीं सान्या तेजी से दादी की अनुभवी बातों को अपने में जज़्ब कर रही थी.

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एक दिन उज्जैन, जहां से दादी आई थीं, से तार आया कि दादी के पड़ोस में रहनेवाली भंवरी बाई नहीं रहीं. उस दिन दादी बहुत उदास रहीं. सान्या का नन्हा सा मन दादी के लिए संवेदनाओं से भर गया. सान्या को अंगूर बेहद पसंद थे, जिसे वह किसी से बांटना भी पसंद नहीं करती. लेकिन आज तो वह अपने अंगूर भी दादी से शेयर करने को राजी हो गई थी. उसने अपने हाथ से दादी को खिलाने चाहे, मगर दादी 'न बेटी, न' ही करती रहीं. और जब दादी अपनी सहेली की तेरहवीं के लिए चली गई, तो सान्या दादी की जुदाई के ग़म में बीमार हो गई. सान्या के लिए कौन छुट्टी लेकर घर बैठे, इस बात को लेकर राहुल और लता में फिर तकरार शुरू हो गई, "मीटिंग में मेरा होना जरूरी है."
"मुझे ज़रूरी फाइलें पूरी करनी हैं." दोनों में से कोई घर पर रुकने को तैयार नहीं था. आखिर नीना आंटी की ख़ुशामद की गई. हालांकि सान्या उसके पास रहने को कतई राजी न थी. रात की ट्रेन से ही राहुल जाकर सान्या
की बीमारी के बारे में बता दादी को घर ले आया.
लता को जो सास कभी फूटी आंख न सुहाती थी, अपनी गर्ज के कारण उन्हें हाथों हाथ लिया. मीठी-मीठी बातों की चाशनी भरे शब्दों से उनका स्वागत करते हुए बोली, "मांजी, आपकी याद में तो बच्ची बीमार ही हो गई. देखिए न, कुछ ही रोज़ में आपसे कितना हिल-मिल गई है." उसका हिसाबी मन ये अंदाजा बखूबी लगा चुका था कि मांजी आया से बेहतर विकल्प हैं.
दादी को देख सान्या बिस्तर छोड़ चहकती हुई उनकी गोद में समा गई.
"अच्छी दादी, प्याली दादी" कहते हुए सान्या ने अपनी नन्हीं नन्हीं बांहें दादी के गले में डाल दीं.

- उषा जैन 'शीरीं'

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