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कहानी- बदलती दिशाएं (Short Story- Badalti Dishayen)


ये बच्चे आख़िर चाहते क्या हैं..? बड़े हुए नहीं कि ख़ुद ही विभिन्न परिभाषाएं गढ़ने लगते हैं. कैसी विडम्बना है कि घर से निकल परिवार की आय में इज़ाफा करती, दोहरी ज़िम्मेदारियां निभाती, अपनी थोड़ी पहचान बनाती स्त्री इन्हें स्वार्थी और आत्मकेन्द्रित लगती है, बचपन के साथ अन्याय करती मां प्रतीत होती है. तो दूसरी ओर पूरी तरह घर-परिवार, बच्चों के प्रति समर्पित, उनका हर हुक्म बजाती, घर को संभालती स्त्री उन्हें कमज़ोर, असफल और अस्तित्वहीन नज़र आती है.


अंतहीन पीड़ा के साथ अवहेलना का दंश और उपेक्षित होने का एहसास लिए आज एक और स्त्री संस्था के द्वार पर दस्तक दे रही थी. अपने पूरे जीवन को, पूरे वजूद को अपने परिवार, अपने बच्चों को समर्पित करने के बाद एक स्त्री के कदम कहां जाकर रुकते हैं? शायद ऐसी ही किसी नारी संस्था के द्वार पर. क्या यही है एक स्त्री के जीवन का यथार्थ? यही है उसके सम्पूर्ण जीवन का पारितोषिक..? ऐसे ही न जाने कितने प्रश्‍न एक बार फिर शिखा के सम्मुख खड़े हो उसके अस्तित्व को झकझोर गए थे.
न चाहते हुए भी अतीत की परछाइयां परतों से निकल उसके मन के गलियारों में विचरण करने लगीं. पिता की आकस्मिक मृत्यु, भाई की अल्प आमदनी से घर की जर्जर होती आर्थिक स्थिति को भाभी ने ऐन वक़्त पर नौकरी कर संभाला था. घर का किराया पहले की तरह दिया जाने लगा था. अब महीने के अन्तिम दिनों में राशन-पानी के लिए पैसों की खींचतान नहीं होती थी. घर के सदस्य राहत की सांस लेने लगे थे.
भाभी के प्रेम, त्याग और समर्पण से वह दिन-ब-दिन उनके क़रीब होती जा रही थी. दोहरी ज़िम्मेदारियां निभाते देख वह उनके प्रति गहरी संवेदना, आत्मीयता, श्रद्धा और सम्मान से भर उठती. एक रोज़ ऑफिस से लौटते समय बारिश में भीग जाने के कारण तेज़ ज्वर पीड़ा ने उन्हें दबोच लिया था, तब शिखा ने ही दिन-रात एक कर भाभी की देखभाल की थी.
उसे अपने लिए इतना चिन्तित महसूस कर भावुक हृदय से भाभी ने उसे अपने अंक में समेट लिया था और शिखा भाव-विहृवल हो भाभी से कह उठी, “बस भाभी, अब आप नौकरी नहीं करेंगी, देखिए न कितनी कमज़ोर हो गई हैं और अब तो सब कुछ सामान्य हो गया है. भैया की आमदनी भी बढ़ गई है. अब आपको नौकरी करने और स्वयं को बेहाल करने की ज़रूरत नहीं है.”

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मुस्कुराते हुए भाभी ने कहा था, “शिखा, ज़रूरतें अभी ख़त्म नहीं हुईं, अभी तो ज़िंदगी में बहुत सी ज़रूरतें व उम्मीदें आस लगाए खड़ी हैं. उन्हें पूरा करने के लिए मुझे इसी तरह सतत् प्रयत्नशील रहना होगा. मेरे बच्चों की अभिलाषाएं, उनका करियर, उनका भविष्य सभी कुछ तो व्यवस्थित करना है. मैं नहीं चाहती कि धन के अभाव में मेरे बच्चे अपने सपनों को पूरा न कर पाएं, मन मसोस कर उन्हें अपनी इच्छाओं का दमन करना पड़े. मेरे परिवार को एक अच्छी ज़िंदगी और बच्चों को उज्ज्वल भविष्य मिलता है, तो मैं उम्रभर यूं ही काम करती रहूंगी बिना थके.
उनके चेहरे पर उभरी सफलता और प्रसन्नता की चमक ही मेरे जीवन का पारितोषिक होगी. यदि तुम मेरे लिए इतनी संवेदनशील हो सकती हो, तो यह अनुभूति, यह प्रेम, सम्मान, यह विशिष्टता बोध मैं अपने लिए अपने बड़े होते बच्चों में महसूस करूंगी.
तुम नहीं जानती तब मुझे कितनी आत्मसंतुष्टि प्राप्त होगी, उनकी नज़रों से मैं अपने अस्तित्व का बोध करूंगी. सचमुच शिखा, अक्सर ही भविष्य का यह दृश्य मेरे मन-मस्तिष्क में कौंध कर मुझे आत्मशक्ति देता है, मुझे प्रेरित करता है, क्योंकि अपने थोड़े से शारीरिक और मानसिक आराम को अभी प्राप्त करके भविष्य में अपने बच्चों के मुरझाए चेहरे और अच्छी जीविका के लिए संघर्ष करते हुए देखकर मैं आत्मग्लानि महसूस करना नहीं चाहती.”
भाभी फिर दुगुने उत्साह से जुट गईं अपनी कर्मभूमि में. भाभी से ही प्रेरणा प्राप्त कर उसने भी जी-जान से परिश्रम कर शिक्षा के क्षेत्र में सफलता-दर-सफलता पा एक अच्छी कंपनी में नौकरी हासिल की. वहीं पर उसकी मुलाक़ात उदय से हुई, जल्द ही छोटी-छोटी मुलाक़ातें, लंबी मुलाक़ातों में तब्दील होकर एक-दूसरे के दिल में अपनी जगह बना बैठीं. दोनों परिवारों की सहर्ष स्वीकृति से वे आजीवन निभाए जाने वाले पवित्र और प्यारे बन्धन में बंध गए.
फिर उनके बीच आया उनके प्रेम का अंकुर, जिसके आने की ख़ुशी में शिखा और उदय दोनों ही प्रसन्नता से सराबोर हो गए. छुट्टियां कब बीत गईं, पता ही नहीं लगा. अपने कार्यक्षेत्र से वापस जुड़ने के कारण शिखा को अंकुर की देखभाल के लिए आया का प्रबंध करना पड़ा था. कुछ वक़्त और बीता, फिर उनके परिवार में एक और नन्हीं मेहमान का आगमन हो गया. अंकिता के जन्म के साथ ही शिखा की व्यस्तता और बढ़ गई थी.
अपनी घर-गृहस्थी और व्यस्तता के कारण वह बहुत दिन से भाभी से नहीं मिल पाई थी. अत: एक दिन वह स्वयं को रोक न सकी, कदम ख़ुद-ब-ख़ुद भाभी से मिलने के लिए मुड़ गए, उसे भाभी को देखकर एक अलग तरह का आत्मिक बल मिलता था, जिसे वह अपनी सफलता का श्रेय मानती थी.
अंदर से आती आवाज़ें सुन उसके कदम दरवाज़े पर ही ठिठक गए थे.
“पर मां, भविष्य उज्ज्वल तब बनेगा जब बचपन मां की ममता, सानिध्य और सही मार्गदर्शन में व्यतीत होता, परन्तु आपके पास तो समय का हमेशा ही अभाव रहा. जब आप हमें ज़रूरत के पलों में वह सामीप्य और सुरक्षा नहीं दे सकीं, तो आज हमसे ये अपेक्षा क्यूं..?”
“और हां, जो पैसे आपने हमारे लिये कमाये हैं, उन्हें हम कहां और कैसे उपयोग करते हैं, यह हमारा व्यक्तिगत मामला है. हम अपने निर्णय लेने में सक्षम हैं, आपकी दखलअंदाज़ी हमें नहीं चाहिए.”
शिखा सन्न रह गई ये सब सुनकर. उसकी आंखों के समक्ष अंधेरा छाने लगा.
एक मां के लिए उसके जिगर के टुकड़ों की ये उक्तियां… उस मां के लिए जिसने अपने परिवार के लिए, अपने बच्चों के लिए न दिन देखा, न रात, न सर्दी, न बरसात, अनवरत, बिना थके संघर्षरत रही.

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जिसके चेहरे पर न अवसाद कभी दिखा, न किसी के प्रति कोई शिकायत, उस पर ऐसा घनघोर आरोप, इतनी शिकायतें, उसकी ऐसी अवहेलना, उसकी मेहनत, समर्पण, उसकी देखभाल का ये इनाम..?
उल्टे पांव लौट आई वह, उसके अंदर इतना साहस नहीं बचा था कि वह उन परिस्थितियों में भाभी का सामना कर पाती. निढाल, निस्तेज, निष्प्राण, जैसे उसके शरीर का समूचा रक्त सूख गया हो.
“तो क्या कल उसके बच्चे भी उस पर यही आरोप लगा सकते हैं. वह भी उन्हें कहां समय दे पाती है. हृदय में कितना ममत्व है, पर कहां दर्शा पाती है. कहां हैं उसके पास सुकून के वे पल, जब वह घंटों बच्चों को अपने अंक में समेट सके, उन्हें दुलार सके, उनके नखरे उठा सके, उनके साथ खेल सके, खिलखिला सके, क्योंकि नौकरी के बाद का बचा हुआ अधिकतर समय तो घर के ज़रूरी कामों की ही भेंट चढ़ जाता है और कभी-कभी तो बीमार बच्चों को भी उसे आया के भरोसे ही छोड़ना पड़ता है.
नहीं… नहीं… वह इस दृश्य को भविष्य में नहीं सहन कर पायेगी. आज से वह अपना वक़्त अपने बच्चों को देगी, उनके बचपन को, भावनाओं, संवेदनाओं और ज़रूरतों को, उनमें अच्छे संस्कारों के प्रत्यारोपण को.
उदय हतप्रभ थे उसके फ़ैसले पर, “शिखा, बच्चों की परवरिश में मैं भी तुम्हारे साथ हूं, फिर यह आत्मघाती निर्णय क्यूं..? तुमने इतने परिश्रम से यह मुक़ाम पाया है, इसे यूं छोड़ देना… ये तो तुम्हारे भविष्य का सहारा है.”
“नहीं उदय, मेरा भविष्य मेरे बच्चे हैं. अभी मैं उनकी बुनियाद उचित रूप से नहीं रखूंगी, तो कल वो मेरा मज़बूत सहारा कैसे बनेंगे.”
उस घटना का खौफ़ शिखा के मन-मस्तिष्क पर इस कदर छा गया था कि वह साए की तरह बच्चों के क़रीब रहने लगी. अपना पूरा अस्तित्व, पूरा व्यक्तित्व उसने बच्चे, घर और पति के इर्दगिर्द समेट लिया, पूरी तरह समर्पित हो गई‌ वह.
गुज़रते वक़्त के साथ, उचित मार्गदर्शन, उच्च शिक्षा और आर्थिक मज़बूती ने बच्चों को एक अच्छा करियर चुनने में सफलता दिलाई. बच्चों की इस सफलता और ख़ुशहाली से शिखा स्वयं को गौरवान्वित महसूस करती कि उसके द्वारा वर्षों पहले लिए गए निर्णय के कारण ही आज उसके बच्चे इस जगह पर पहुंच पाए हैं. दोनों ही मनपसंद जीवनसाथी के साथ अपनी-अपनी ज़िंदगी में व्यवस्थित हो चुके थे.
इसी बीच वक़्त के क्रूर हाथों ने उदय को उससे छीन लिया था. कुछ पलों के लिए अकेली पड़ गई थी वह.
उन्हीं दिनों बहू ने जुड़वां बेटियों को जन्म दिया और वह फिर से व्यस्त हो गई उनकी देखभाल में. कामकाजी बहू के कारण बच्चियां दिनभर उसी के पास रहती थीं, पर कभी-कभी मां के लिए बिलखते बच्चों को संभालना उसके लिए मुश्किल हो जाता था, तब उसने बेटे से इच्छा जताई थी कि बेहतर होगा बहू बच्चों को अधिक से अधिक समय और सामीप्य दे.
“मां, नीरू आपकी तरह कमज़ोर नहीं, जो ज़िम्मेदारियों से भागकर और परेशानियों से घबरा कर नौकरी छोड़ घर में बैठ जाए स़िर्फ बच्चे पालने के लिए. उसने इतनी उच्च शिक्षा घर की चारदीवारी में बैठने के लिए नहीं ली है… और आपके पास तो बच्चों को संभालने का अच्छा अनुभव है. फिर परेशानी क्या है?.. फिर भी आपसे नहीं होता, तो मैं किसी आया का प्रबन्ध कर दूंगा.”
सड़ाक… सड़ाक… सड़ाक… शब्दों के रूप में जैसे नंगी पीठ पर चाबुक पड़ रहे हों. शिखा का सर्वांग कांप उठा.
हृदय लहूलुहान हो थमने लगा था. उसने कभी स्वप्न में भी ऐसी स्थिति की कल्पना नहीं की थी.
क्या वह कमज़ोर है?.. परेशानियों से घबराती है? ज़िम्मेदारियों से भागती है? क्या इसी दिन के लिए उसने नौकरी से त्यागपत्र दिया था? यही जगह है उसकी उसके बच्चों के मन-मस्तिष्क में? क्या यही वजह थी स्वयं को पूरी तरह घर और बच्चों के प्रति समर्पित करने की..?
ये बच्चे आख़िर चाहते क्या हैं..? बड़े हुए नहीं कि ख़ुद ही विभिन्न परिभाषाएं गढ़ने लगते हैं, कैसी विडंबना है कि घर से निकल परिवार की आय में इज़ाफा करती, दोहरी ज़िम्मेदारियां निभाती, अपनी थोड़ी पहचान बनाती स्त्री इन्हें स्वार्थी और आत्मकेन्द्रित लगती है, बचपन के साथ अन्याय करती मां प्रतीत होती है, तो दूसरी ओर पूरी तरह घर-परिवार, बच्चों के प्रति समर्पित, उनका हर हुक्म बजाती, घर को संभालती स्त्री उन्हें कमज़ोर, असफल और अस्तित्वहीन नज़र आती है.
संज्ञा शून्य हो शिखा की आंखों से अश्रुधारा बहने लगी.
क्या ऐसे ही भविष्य के सपने बुने थे उसने अपने वर्तमान की दिशाएं बदल कर? कहां चूक हो गई उससे? जब उसने दिशाओं को परिवर्तित कर सफ़र का आगाज़ किया था, तब उसके समक्ष मंज़िल की स्पष्ट तस्वीर थी. चलते-चलते ये कौन-सी जगह आ गई वह, जहां सिर्फ़ घना कोहरा है, सब कुछ धुंधला-धुंधला…
तो क्या गुम हो जाएगी वह इस कुहांसे में? क्या वह सचमुच कमज़ोर है… शक्तिहीन, अस्तित्वहीन..?
“नहीं… नहीं…”

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एक बार फिर दिशा बदल गई शिखा की ज़िंदगी की और फिर उदय हुआ एक संस्था का, जिसे शिखा ने नए सिरे से गढ़ा-संवारा. जहां था प्रेम, सम्मान, आत्मीयता और अस्तित्वबोध. ज़िंदगी को फिर से जीने की चाह थी, निराशा को छोड़ जीवन को नई दिशाएं देने का संकल्प था.
जहां बचे हुए जीवन को सिर्फ़ काटना भर नहीं था, बल्कि उम्र के इस पड़ाव पर भी अपने सामर्थ्य के अनुसार, अपनी रचनात्मकता और कल्पनाशीलता से कुछ न कुछ अर्जित कर, ज़रूरतमंदों की मदद करना था, स्वयं को समाज की मुख्यधारा से जोड़े रखना था.
बहुत कुछ सहज और सामान्य हो चला है शिखा के जीवन में, पर अब भी जब-जब कोई स्त्री उसकी संस्था में शामिल होने आती है, उसका हृदय इसी तरह पुरानी स्मृतियों को झरोखों से झांक वेदना से भर उठता है.

- गीता जैन

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