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लघुकथा- भगवान का पता (Short Story- Bhagwan Ka Pata)

“मैं तो उनके साथ ही रहती हूं. आज तक तो उन्होंने किसी से मिलने से मना नहीं किया. तुम लोग आना, तुम्हें भी मिलवा दूंगी.” कहकर अपना पता देकर वो चली गई.
दंपति को लगा कोई पागल थी, पर फिर लगा एक बार देखने में हर्ज ही क्या है.

वो निःसंतान दंपति थे. मंदिरों और दरगाहों के चक्कर काट-काट कर थक गए थे. एक दिन बस में लौट रहे थे. जिस पूजाघर से लौट रहे थे वहां की बड़ी मान्यता थी, मगर दर्शन नहीं हो पाए थे. पत्नी रो पड़ी, तो पति ने सांत्वना देते हुए कहा, "शायद भगवान हमसे मिलना ही नहीं चाहते या वो कहीं हैं ही नही. हम व्यर्थ ही भटक रहे हैं."


बगल की सीट पर बैठी भद्र महिला बोली, "शायद तुम्हें किसी ने भगवान का ग़लत पता बता दिया है. वो हैं भी और सबसे मिलते भी हैं.”
“आपको कैसे मालूम?”

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“मैं तो उनके साथ ही रहती हूं. आज तक तो उन्होंने किसी से मिलने से मना नहीं किया. तुम लोग आना, तुम्हें भी मिलवा दूंगी.” कहकर अपना पता देकर वो चली गई.
दंपति को लगा कोई पागल थी, पर फिर लगा एक बार देखने में हर्ज ही क्या है. वे दूसरे दिन वहां पहुंचे, तो देखा कई हंसते-मुस्कुराते रोते-कुनमुनाते लड्डू गोपाल इधर-उधर घूम रहे है. वो एक अनाथाश्रम था. वो भद्र महिला बड़ी तन्मयता के साथ अपने गोपालों की सेवा में लगी थी. मुरादें लेकर आए एक दंपति अपनी मुराद लेकर जा रहे थे.


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उन्हें भगवान का सही पता भी मिल गया और मुराद भी पूरी हो गई. तब से वो भी भगवान की तलाश में भटकते लोगों को उसका सही पता बताने लगे.

भावना प्रकाश

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