“नहीं, इससे रंग नहीं छीने जाएंगे. अभी कितने दिन जीए हैं इसने सुहाग के रंग.” जैसे ही उसका सिंदूर पोंछा गया, जैसे ही उसकी चूड़ियां तो़ड़ी जाने लगीं, बिछिया, पायल खोल दी गई और माथे की बिंदी को हटा, पहनने के लिए सफ़ेद साड़ी दी गई, सिर पर सूती सफ़ेद दुपट्टा डाला जाने लगा, प्रतिवाद का करारा स्वर आंगन में गूंजा.
सफ़ेद रंग एकमात्र ऐसा रंग है, जिस पर चाहे कोई भी रंग छितरा दो, वह अपनी पहचान नहीं खोता है. हर रंग उस पर बिछकर इतराता-इठलाता रहता है और फिर भी सफ़ेद रंग की शान बरक़रार रहती है. सफ़ेद रंग को पवित्र माना जाता है, सफ़ेद रंग पर रंगोली सजाई जाती है, सफ़ेद रंग के कैनवास पर मन के भावों को रंग दिए जाते हैं. चटकदार कपड़ों के साथ अगर सिर पर स़फेद रंग का, सफ़ेद लेस वाला दुपट्टा डाल लिया जाए, तो मां बेटी की बलैय्यां लेने लगती है, सास बहू पर वारी जाती है और आशिक़ प्रेयसी को निहारता उसके दुपट्टे में उंगली फंसाने लगता है.
इसके बावजूद इस रंग के साथ विरोधाभास भी जुड़े हैं. तभी तो इस रंग के कपड़े पहनने के लिए बाध्य किया जाए, इसी सफ़ेद रंग की ओढ़नी सिर पर डाल दी जाए, और कहा जाए कि अब बस इसी रंग को ओढ़ना-बिछाना तुम्हारी नियति है, तो ज़िंदगी से सारे रंग छिन जाते हैं. कैसा विरोधाभास है ना!
लौट आए थे घर के सारे मर्द,
आस-पड़ोस के, रिश्तेदारी के सारे मर्द. सिर झुकाए बाहर दालान में ही बैठ गए थे दरियों पर. घर के अंदर जाने की हिम्मत नहीं हो रही थी. नहा लेंगे बाद में, अभी तो वहीं उनके हाथ-पैर धुला दिए गए थे. मोहल्ले की सबसे बुज़ुर्ग स्त्री जिन्हें सब ताई कहते थे, बहुत सारे जग भरकर चाय बनाकर ले आई थीं. आज घर में चूल्हा नहीं जलेगा. खाना भी किसी भी समधियाने के घर से आ जाएगा. चाय से भरे ग्लास मर्दों के आगे रखे थे, पर उन्हें उठाने के लिए किसी के हाथ आगे नहीं बढ़े थे. किसी अपने को राख में बदलता देखने के बाद किस के अंदर कुछ खाने-पीने की इच्छा बचती. राख एक इंसान होता है, पर मरते पीछे छूट गए सारे लोग भी हैं. जो जला गया, वह पल भर में मुक्ति पा जाता है, पर जो उसे याद कर सारी ज़िंदगी रोते हैं, वे तिल-तिल कर हर पल मरते हैं.
वाह री नियति के खेल! जाता एक है, मरते अनगिनत हैं.
और वह अंदर आंगन में ढेर सारी स्त्रियों के बीच बैठी थी… अकेली, गुमसुम बैठी थी. उसके चारों ओर भीड़ थी, पर वह अकेली थी. उसके चारों ओर शोर था, पर उसके भीतर सन्नाटा था. क्या सचमुच ऐसा हो गया है, वह इसी दुविधा में उलझी थी. आख़िर ऐसा कैसे हो सकता है? कुछ घंटों पहले उसके साथ प्यार का झूला झूलते, उसे बांहों में भरते, अपने चुंबनों से उसे प्रेम रस में भिगोते, प्यार के चटकीले, चमकते रंगों से उसे सराबोर करते और ज़िंदगी के हर पल को नई उम्मीद से जीने वाले इंसान का यकायक मौन हो जाना.
आख़िर ऐसा कैसे हो सकता है?
कुछ ही समय में चलती सांसों का रुक जाना और इलेक्ट्रिक शवदाह गृह की तीव्र, पीड़ादायक आग में राख में बदल जाना.
जब मर्द शमशान घाट के लिए निकले थे, तो उसे आंगन में बिठा दिया गया था. शव को स़फेद वस्त्रों में लपेटकर ले जाने के लिए भी कितने क्रियाकर्म करने पड़ते हैं. उसकी तो सांसें चल रही हैं, पूरे अनुष्ठान के साथ उसे विधवा का रूप दिया जाएगा. उसका भी तो अब जीते जी क्रियाकर्म होगा. वैसे भी अब वह शेष ही कहां बची है. मृत समान ही तो है. घर-परिवार, आस-पड़ोस, परिचित, कितनी स्त्रियों से भरा था आंगन. मानो उसे शृंगार-विहीन करने नहीं, अपनी-अपनी कुंठाएं उस पर उड़ेलने आई हों. जैसे मन ही मन सोच रही हों, बड़ी इतराती थी कि इतना रूपवान, प्यार करनेवाला पति मिला है. अब क्या करेगी?”
ग़लत थोड़े ही कहा जाता है कि स्त्री की ईर्ष्या किसी नुकीली धार से कम नहीं होती है, जो किसी दूसरी स्त्री की ख़ुशियों को ऐसा चीरती है कि पैबंद लगने की भी गुंजाइश नहीं रहती. उसके चारों ओर आंसू थे, उसके भीतर-बाहर आंसू थे. वह बह रहे थे, कभी रुक जाते तो उसका मन पीड़ा से छलकने लगता. वह भीगी हुई थी. बस एक ही बात रह-रहकर उसे उद्वेलित कर रही थी कि आख़िर ऐसा कैसे हो सकता है?
उसका दिल कह रहा था यह सब झूठ है. अभी लौट आएगा वह और उसे बांहों में भर लेगा, उसके बालों में गजरा लगाएगा और कानों में फुसफुसाते हुए कहेगा, “तुम सा हसीन कोई नहीं. तुम प्यार हो बस प्यार.”
“नहीं, इससे रंग नहीं छीने जाएंगे. अभी कितने दिन जीए हैं इसने सुहाग के रंग.” जैसे ही उसका सिंदूर पोछा गया, जैसे ही उसकी चूड़ियां तो़ड़ी जाने लगीं, बिछिया-पायल खोल दी गई और माथे की बिंदी को हटा, पहनने के लिए स़फेद साड़ी दी गई, सिर पर सूती स़फेद दुपट्टा डाला जाने लगा, प्रतिवाद का करारा स्वर आंगन में गूंजा.
वहां मौजूद हर स्त्री और चोरी-चोरी उसे ताकते दालान में बैठे मर्द भौंचक्के रह गए. जिसने कहा था, उनका यकायक विरोध करने की हिम्मत किसी में नहीं थी. हैरान तो वह भी रह गई थी. यह क्या कह रही हैं वे? परंपराएं, वह भी पीढ़ियों से चली आ रही परंपराओं को तोड़ने के लिए कह रही हैं. ऐसा साहस उनमें ही हो सकता है!
निगाहें उससे हटकर अम्माजी पर जाकर जम गईं. ज़रूर या तो उन सबने ग़लत सुना है या अम्माजी दुख में इतना बौरा गई हैं कि उन्हें ही नहीं पता कि क्या बोलना है. लेकिन वह कभी कुछ बिना सोचे-समझे कहां बोलती हैं!
82 वर्ष की अम्माजी का वर्चस्व अभी भी पूरे घर पर था. उनके निर्णय माने जाते थे. उनसे घर के छोटे-बड़े, सभी राय लेते थे. उनका सब सम्मान करते थे और उनका डर भी था. उम्र के इस पड़ाव पर पहुंचने के बावजूद न तो वह मानसिक रूप से शिथिल हुई थीं, न ही शारीरिक रूप से. चेहरे पर छाई रहनेवाली चमक उनके अनुभव और पारखी नज़र की प्रतीक थी.
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यकायक किसी से कुछ नहीं बोला गया. वैसे ही मौत के सन्नाटे ने सबके मन को जकड़ा हुआ था, उस पर अम्माजी का हुक्म सुन चुप्पी पूरे आंगन में वहां बिछी स़फेद चादरों पर पसर गई थी. और वहां से निकलकर बाहर दालान तक, घर के मुख्य द्वार तक, सड़क तक, दूर चौराहे तक पसर गई थी. उनको जवाब देने की कौन पहल करे, सब यही सोच रहे थे.
“क्या कह रही हो जिज्जी? ऐसा अनर्थ? अपना दर्द भूल गईं? आपने भी तो कम उम्र में स़फेद वस्त्रों से ख़ुद को लपेट लिया था. फिर यह क्या अनोखी है?” बहुत ही दबे स्वर में अम्माजी की देवरानी ने उनके पास खिसकते हुए कहा.
“हमारा ज़माना कुछ और था. कुछ नहीं भूली हूं मैं छोटी. तुम्हारे जेठ के बीच राह में चार-चार बच्चों के साथ छोड़ जाने का दर्द आज भी मेरी आंखों में ़कैद है. किसी को अपने ज़ख़्म नहीं दिखाती, तो इसका मतलब यह तो नहीं कि वे भर गए हैं. इसीलिए मैं नहीं चाहती कि जो पीड़ा मैंने सही है, वह यह बच्ची भी सहे. कह दिया न यह स़फेद कपड़े नहीं पहनेगी. इसकी दुनिया के रंग कोई नहीं छीनेगा.” इस बार उनकी आवाज़ में तीखापन था.
“जवान पोते के जाने से बुढ़िया का दिमाग़ हिल गया है.” पड़ोस की महिलाओं के जमघट से एक स्वर उभरा.
अम्माजी की पैनी निगाहें उस स्वर को ढूंढ़ने लगीं. इस डर से कि कहीं कोई तमाशा न खड़ा हो जाए और घर की इज़्ज़त का मज़ाक न उड़े, आनंदी उनके पैरों पर झुकती हुई बोली, “अम्माजी, यह क्या बोल रही हैं? भुवन के जाने का ग़म क्या कम है, जो नई रीत चलाने की बात कर रही हैं. दुनिया क्या कहेगी और संजना ने तो कोई विरोध नहीं जताया कि वह शृंगार विहीन नहीं होगी. फिर आप क्यों बेकार का बखेड़ा करना चाहती हैं. जो रीत है, उसे चलने दें. इस समय पूरा समाज यहां पर है, सारे समधियाने वाले हैं. बेकार जगहंसाई हो जाएगी.” उनके आंसू बह रहे थे और गला रुंद्ध गया था. बोलते हुए कांप रही थीं वह.
बेटा तो उन्होंने खोया है, बहू के दुख से वह भी तो पीड़ा की धारदार कैंची से लहूलुहान हो रही हैं. एक तरफ़ बेटे के जाने का दुख और दूसरी तरफ़ अम्माजी का यह फरमान… आनंदी निढाल सी बैठी रही.
बड़ी बहू आनंदी अम्मा की लाडली तो थीं ही, उनका गुरूर भी थीं. जब से ब्याह कर आई थीं, पूरे घर को अपने आंचल में बांध लिया था. भाइयों, उनकी बीवियों की लड़ाइयों के बावजूद घर की एक ईंट को भी सरकने नहीं दिया था. इसलिए उनकी बात सुन लेती थीं अम्माजी और मान भी लेती थीं.
“न आनंदी, इस बार तेरी नहीं सुनूंगी. करने दे मुझे यह नई रीत. ज़माना बदल गया है, तो परंपरा भी बदलनी चाहिए. तेरी बहू कोई मेरी तरह कुछ जमात तो पढ़ी नहीं है. डबल एम.ए. है. इतनी अच्छी कलाकार है. देखी नहीं क्या तूने उसकी बनी पेंटिंग? तू भी तो उसे रंगों की जादूगर कहती है. स़फेद कैनवास पर जब अपनी कूची से वह रंगों को आकार देती है, तो कौन नहीं है, जो उसकी तारीफ़ नहीं करता था. भुवन तो उसके लिए न जाने कहां-कहां से रंग और ब्रश मंगाया करता था. मुझसे कहा था, ‘अम्माजी, जैसे ही संजना की पचास पेंटिंग बन गईं, मैं उनकी एक्जीबीशन लगाऊंगा. मैं चाहता हूं उसका देश-विदेश में नाम हो. वह जितनी अच्छी है, उतनी ही सुंदर पेंटिंग भी बनाती है. उसके चित्र मेरी आत्मा में बस जाते हैं.’
मैं उससे जीना नहीं छीन सकती. भुवन भी कभी नहीं चाहेगा ऐसा हो. वह जहां भी होगा उसके चित्रों को निहारेगा. वे उसकी आत्मा में बसे थे.” अम्माजी ने सिर झुकाए पास बैठी संजना के सिर पर हाथ फेरते हुए कहा.
प्यार का स्पर्श पाते ही आंसुओं का सैलाब फूट पड़ा एक बार फिर से संजना की आंखों से.
‘कैसे तो अचानक चले गए तुम भुवन. ऐसे भी भला कोई जाता है. तुम कितने ख़ुश थे, हंस रहे थे, मुझे बांहों में भरकर प्यार कर रहे थे कि अचानक पसीने से भीग गए थे. सीने पर हाथ रखकर पलंग पर लेट गए थे और मेरा हाथ थाम लिया था. बस वही अंतिम पल था. उस समय भी आंखों में मेरे लिए प्यार था.
कार्डियेक अरेस्ट! 32 साल की उम्र में दिल ने काम करना बंद कर दिया था. उसे लगता है कोई मजाक किया है भुवन ने उसके साथ. अभी हंसते हुए लौट आएंगे और कहेंगे, “देखा कैसा बुद्धू बनाया. चलो किसी पार्क में चलते हैं. तुम वहां बैठकर अस्त होते सूरज का चित्र बनाना और मैं तुम्हें निहारूंगा.”
“दीदी, मातम के घर में क्या तुम्हें ठिठोली सूझ रही है?” उनसे चार बरस छोटी बहन भड़क उठीं. शुरू से बड़ी तेज थीं वह. एकदम खुर्राट. किसी की कोई परवाह नहीं. बड़ी बहन पर रोब मारने से चूकती नहीं थीं, क्योंकि ख़ुद तो बड़े वैभव से और घमंड से पति को पल्लू में बांधे रहती थीं. अकूत संपत्ति थी, इसलिए अहंकार से भरी रहती थीं.
“तू कुछ न बोल. यह क्या ठिठोली करने का व़क्त है. कभी तो सोचकर शब्द निकाला कर रानो.”
“क्या ग़लत कह दिया मैंने दीदी. आपने कभी पहने रंग? या आपके, हमारे परिवार में किसी विधवा ने पहने चमकीले कपड़े? बरसों से चली आ रही रीत को नए ज़माने में किए जाने वाले बदलाव का नाम देकर संजना का पक्ष न लो. अपने दिन ही याद कर लो.” रानो तर्क ना करे, यह तो संभव ही नहीं.
“मेरी बात न कर रानो. मेरे लिए क्या स़फेद, और क्या रंग? घर में सबसे बड़ी थी, इसलिए न पढ़ने को मिला, न मन का करने को. ब्याह मेरे लिए किसी गुड्डे-गुड्डी के खेल से कम ना था. शादी हो गई तो भी कहां अक्ल थी कि समझूं कि कैसे बर्ताव करना है.
सोचती थी मायके को छोड़ नए घर आई हूं, तो खेलने के लिए नया दोस्त मिल गया है. ब्याह के अगले दिन ही अपने गिट्टे निकालकर बैठ गई थी कि उसके साथ खेलूंगी. वह हंसा था कि लड़का हूं गिट्टे नहीं खेलता, तो मैंने कहा था कि चलो गेंद-बल्ला खेलते हैं. जब तक कुछ समझती, बच्चे हो गए और उन्हें पालने में लग गई. पति का साथ पाने की ललक जब मन में उठी, तब वही छोड़ कर चले गए.
सास ने जो कहा वही किया. तब से आज तक रंगों की ख़ुशबू तक महसूस नहीं की है. होली पर ख़ुद को कमरे में बंद कर लेती हूं. तू क्या चाहती है संजना भी वही करे. ना मैं ऐसा होने नहीं दूंगी.” उनके स्वर में व्याप्त दृढ़ता सबको हिला गई.
उनकी दूसरी बहू जिनसे उनकी कभी नहीं बनी थी, हैरानी से ठुड्डी पर हाथ रखे, माथे पर त्योरियां चढ़ाते हुए, अपना पल्लू संभालते, संजना के मायकेवालों को अवहेलना भरी नज़रों से देखती, उन्हें एक तरफ़ सरकने के लिए कहते हुए अपनी बहू सुहानी के पास आकर बैठ गई. भुवन से पहले उसके बेटे की शादी हुई थी और इतना दहेज आया था कि उसे संभालने में महीनों लग गए थे.
“जाने क्या हो गया है अम्माजी को. तेरी संजना से कोई बात हुई क्या? उसने कुछ कहा है? उम्र के इस पड़ाव पर पहुंच कर जब कब्र में पांव लटके हैं, जाने क्यों परंपराओं की धज्जियां उड़ा रही हैं?”
“नहीं मां, संजना क्या कहेगी, वह तो इस हालत में ही नहीं है. भुवन भाई का जाना क्या वह सह सकती है? पत्थर हो गई है.” सुहानी अपनी सास के स्वभाव से परिचित थी कि कैसे वह हमेशा अपने व्यंग्य बाणों से दूसरों को छलनी करने के लिए कमर कसे बैठे रहती थीं. संजना के लिए उसके मन में शुरू से ही एक सॉफ्टकोर्नर था.
“बहुत हो गई बहसबाज़ी और कुछ नहीं सुनना मुझे. आनंदी, बहू को अंदर ले जा. नहाकर आराम कर लेगी और तुम सब भी नहा लो. उसे अकेले छोड़ देना, कोई तंग न करे. अकेले में जी भर कर रो लेगी, तो भीतर जमा दर्द कुछ तो बह जाएगा मेरी बच्ची का.” अम्माजी ने जैसे फरमान सुनाया और उठ गईं.
उनके उठते ही आंगन में फुसफुसाहटें बढ़ गईं और हाथ लहराते, टीका-टिप्पणी करते, मन की भड़ास निकालते आस-पड़ोस की महिलाएं अपने-अपने रास्ते चल दीं. रिश्तेदार भी सोचने लगे कि क्या करें. संजना के मायकेवाले हतप्रभ थे. वे स़फेद चादर पर बुत बने बैठे रहे.
बेटी के कमरे में जाएं या घर लौट जाएं, वे असमंजस में थे.
बेटा सामने आ खड़ा हुआ, “क्या कर रही हो अम्मा यह सब तमाशा? भुवन के जाने का ग़म ही क्या कम है? अम्मा मैंने जवान बेटा खोया है. अपना शोक तो चैन से मनाने दो.”
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“तूने शादी के समय क्या संजना और उसके घरवालों को यह बताया था कि भुवन का दिल बचपन से ही कमज़ोर है? जानती हूं नहीं बताया होगा. तेरी तो हर बात वैसे ही छिपाने की आदत है, प्रताप.” अम्माजी ने बेटे की आंखों में आंखें डालते कहा.
“वह बचपन की बात थी. इलाज हुआ था उसका. ठीक हो गया था. इसमें बताने जैसा क्या था?”
“संजना के बारे में तो सारी पूछताछ की गई थी. भुवन के बारे में बताना ज़रूरी नहीं था? प्रताप तेरे फलस़फे हमेशा से निराले रहे हैं. मेरी बात कान खोलकर सुन ले. मेरे ़फैसले पर आवाज़ उठाने की हिम्मत मत करना. मैं संजना के साथ कुछ भी ग़लत नहीं होने दूंगी. उसके और भुवन के प्रेम का ही मान रख ले. ऐसा प्यार देखा तूने अपने परिवार में किसी के बीच? वह बच्ची किसी बात का विरोध नहीं करेगी, जानती हूं मैं. जैसा कहेंगे, कर लेगी. अपने सपने भूल जाएगी, जीना छोड़ देगी, अपने को समेटकर कमरे में बंद कर लेगी, और भुवन की याद में सारा जीवन बेरंग गुज़ार देगी, लेकिन मैं ऐसा होने नहीं दूंगी. जाकर स्नान कर ले. तेरह दिन का शोक रहेगा, तब तक कोई शोर न उठे.”
शोर तो उठा, पर उसकी आवाज़ दबी-दबी सी रही. फुसफुसाते हुए सब अम्माजी के ़फैसले पर एक-दूसरे से विरोध जताते रहे. संजना के साए की तरह वह उसके साथ बनी रहीं. संजना की आंखों में सवाल थे, पर वह चुप थी. सारे शृंगार उसने ख़ुद ही उतार दिए थे. चुभ रही थी हर चीज़ बस साड़ी स़फेद नहीं पहनने दी गई. अम्माजी ने भी कुछ नहीं कहा. जानती थीं कि इस समय उसका दुखी मन बिंदी लगाने के लिए तैयार नहीं होगा, चूड़ी पहनने को नहीं मानेगा.
महीना हो गया था भुवन को गए. संजना मायके रहकर लौट आई थी. उसके माता-पिता नहीं चाहते थे कि वह ससुराल लौटे, पर भुवन की सारी यादें वहीं थीं, वह कैसे न लौटती और अम्माजी, उन्हें कैसे छोड़ दे वह.
उसके कमरे को रंगों के डिब्बों, कैनवास, और ब्रश से भर दिया था उन्होंने. वह सारा दिन कमरे में बैठी पेंटिंग बनाती रहती. उदासी के सारे रंग उनमें उड़ेल देती, तो अम्माजी आकर कुछ चटक रंग भरने को कहतीं.
“सुख-दुख दोनों साथ-साथ चलते हैं, इसलिए ग़म के साथ ख़ुशी के छीटें भी कैनवास पर दिखने चाहिए. भुवन की मीठी यादें, उसका प्यार कैनवास पर उगते सूरज की लालिमा की तरह होना चाहिए.”
संजना उनसे लिपटकर रो पड़ती.
“प्रताप, संजना की पचास पेंटिंग बनकर तैयार हो गई हैं. इनकी एक्जीबिशन की तैयारी करके बढ़िया सा हॉल बुक कर और निमंत्रण पत्र छपवा. आनंदी, जान-पहचानवालों, रिश्तेदारों, पड़ोसियों को बुलाना. भुवन का सपना पूरा होगा आज.”
हैरानी से अम्मा को देखते प्रताप ने पूछा, “इतना तामझाम कर रही हो, तो यह भी बता दो कि चीफ गेस्ट कौन होगा, एक्जीबिशन का उद्घाटन कौन करेगा?” उसकी आवाज़ से व्यंग्य झलक रहा था.
“यह भी कोई पूछने की बात है? उद्घाटन भी मैं करूंगी और चीफ गेस्ट भी मैं
ही रहूंगी.”
अपने कमरे की चौखट पर ब्रश हाथ में पकड़े खड़ी संजना ने अम्माजी की ओर देखा. उसके होंठों पर आज कितने दिनों बाद उन्होंने मुस्कान की एक हलकी लकीर देखी थी. उसके हाथों में खनखनाती चूड़ियों, माथे पर लगी बिंदी, और रंग-बिरंगे फूलोंवाली साड़ी में से उन्हें भुवन का हंसता हुआ चेहरा झांकता नज़र आया. कैनवास के कुछ चटकीले रंग संजना के मन पर उतर आए.
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