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कहानी- चाहत (Short Story- Chahat)

"विशाल, तुम्हें माँ को भावनाओं और जज़्बातों के संबंध में समझाने की ज़रूरत नहीं है. वह बहुत दुनिया देख चुकी हैं." प्रशांत ने कहा.
कविता अब तक चुप थी. उसने कहा, "तुम लोगों को मेरे कारण बहस करने की ज़रूरत नहीं है. अरे, सारे झगड़े की जड़ तो इस घर में मैं ही हूं. इस घर में रहने का मुझे कोई अधिकार नहीं है. तुम लोगों से और कुछ तो नहीं ही कहती हूं. आज से अपने खाने के बारे में भी मैं कुछ नहीं कहूंगी." कहती हुई कविता खाना छोड़ कर उठ खड़ी हुई और अपने कमरे में चली गई.

घंटे भर से आकाश में टकटकी लगाए कविता का हृदय बहुत उद्वेलित था. सोच रही थी- पूर्णिमा का चाँद बहुत ख़ूबसूरत होता है, स्वच्छ आकाश में चमकीला चाँद हृदय को कितनी शीतलता प्रदान करता है, परंतु मुझे इसका एहसास क्यों नहीं होता? वही पीला निस्तेज चाँद मुझे पूरे आकाश में बिल्कुल अकेला, उदास नज़र आता है.
भारी मन से कविता नीचे उतरकर अपने कमरे में आई घड़ी देखा- बारह बज रहे थे. उदास मन से सोचती हुई बिस्तर पर लेट गई. फिर सुबह होगी, भागदौड़ होगी, वही रूटीन होगा… सभी अपने-अपने कामों में व्यस्त होंगे, वही निरस, निस्तेज लंबा-सा पूरा दिन होगा और फिर अंतहीन रात सामने आ खड़ी होगी.
"माँजी चाय लीजिए." अचानक कविता की आंख खुल गई. सामने देखा तो बहू सुबह की चाय लिए खड़ी थी.
"रख दो." मुंह बनाते हुए कविता ने कहा. बहू चली गई. चाय पीते हुए कविता फिर सोचने लगी.
इन पचास सालों में कितना कुछ बदल गया. कभी सुबह का समय मेरे लिए कितना व्यस्त होता था. हमारे समय सुबह उठकर बुज़ुर्गों के पांव छुए जाते थे, मगर आजकल की बहुओं के पास तो समय ही नहीं होता. सास-ससुर के पाँव छूने के बाद ही मेरी दिनचर्या शुरू होती थी. प्रशांत और विशाल को स्कूल भेजना. प्रकाश के दफ्तर के लिए लंच तैयार करना, सास-ससुर के असीमित मांगों को पूरा करना, देवर-ननदों की जमघट, रिश्तेदारों का तांता और यह सारा काम सुमन को मैं गोद में लिए हुए करती.
"दादी" और कविता की तंद्रा टूट गई. सामने कविता का पोता राजू खड़ा था.
"दादी, कपड़े पहना दो स्कूल जाना है. मम्मी नाश्ता बना रही है." "जाओ छोटी मम्मी से पहन लो."
"वह बर्तन धो रही हैं."
राजू अपनी तोतली जुबान से बोल रहा था. कविता बिस्तर से उठी और राजू का हाथ पकड़े रसोई घर तक चली आई.
"क्या बहू राजू को कपड़े भी नहीं पहना सकती. सारा बर्तन अभी ही धोना ज़रूरी है? मैं बिस्तर से उठी नहीं कि मुझे काम पकड़ा दिया." भुनभुनाते हुए कविता बाथरूम में घुस गई.
"क्या माँ तुम तैयार नहीं हुई ?" दफ्तर से आते हीं प्रशांत ने पूछा.
"मेरी तबीयत ठीक नहीं है, तुम लोग चले जाओ." सिर पर हाथ रख कर बैठी कविता ने अनमने ढंग से कहा.
"क्या हुआ है माँ, तुम्हें कहीं बुखार तो नहीं?" कहते हुए प्रशांत माँ का बुखार देखने लगा.
"नहीं मुझे बुखार नहीं है, बस यूं ही ज़रा सिर भारी हो गया है." कविता ने कहा.
प्रशांत ने अपनी पत्नी नीता को बुलाकर कहा, "नीता, माँ को दवा दे दो. थोड़ी देर में आराम मिल जाएगा. फिर हम सब साथ चलेंगे. अग्रवाल के यहां हमारा डिनर है. माँ को तो उसने विशेष ज़ोर देकर बुलाया है. थोड़ी देर में दफ्तर से विशाल भी आता ही होगा."
"मैंने कहा ना, मुझे नहीं जाना तो नहीं जाना. बहुत घूम चुकी हूं मैं, घूमने की इच्छा मेरी पूरी हो चुकी है. तुम लोग जाओ." कविता ने कहा.
"क्या तुम अकेली रहोगी और फिर तुम्हारा डिनर बाहर था, तो खाना भी नहीं बना है." प्रशांत ने कहा.
"मेरे खाने की फिकर करने की ज़रूरत नहीं है और रही बात अकेले रहने की तो तुम लोगों के साथ रहकर भी मैं अकेली ही हूं."
कहती हुई कविता अपने कमरे में चली गई. आवाक प्रशांत माँ को देखता रह गया.
अपने कमरे में लौटकर प्रशांत ने नीता से कहा, "सबको कह दो आज डिनर पर कोई नहीं जाएगा."
नीता तैयार थी. कुछ नहीं बोली. कपड़े बदलकर रसोईघर में चली गई. छोटी बहू भी अपने कामों में लग गई. बच्चे उदास होकर सोने चले गए. पूरे घर में मातम-सा छा गया. विशाल जब घर लौटा, तो उसकी पत्नी मीना ने उसे सब कुछ बता दिया. वह यह कहकर कि रात को देर से लौटेगा, फिर बाहर निकल गया.
रात का सन्नाटा था. लगभग सभी सो चुके थे. प्रशांत को नींद नहीं आ रही थी. आज वह बहुत उदास था, इसलिए नहीं कि आज वह डिनर पर नहीं गया, बल्कि माँ को लेकर क्षुब्ध था. बगल में नीता सो रही थी. उसने धीरे से आवाज़ दी, "नीता."

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"क्या है?" शायद वह भी जाग रही थी. सारे दिन घर के कामों में व्यस्त रहते हुए नीता रात को बिल्कुल निढाल हो जाती. प्रशांत से बात किए हुए कभी-कभी सप्ताह हो जाते. कभी बात करती, तो उसे अजनबी की तरह लगता. प्रशांत भी उसकी मजबूरियों को समझते हुए उसे सोते में कभी परेशान नहीं करता.
"यह माँ को क्या हो गया है नीता?" प्रशांत ने पूछा.
"मैं क्या जानू तुम्हारी माँ है तुम ही पूछो." नीता ने अनमने ढंग से कहा.
"क्यों वह तुम्हारी माँ नहीं हैं?" प्रशांत ने कहा.
"उन्होंने मुझे कभी बेटी समझा ही नहीं, फिर वह मेरी माँ कैसे हो सकती हैं. मैं तो सिर्फ़ उनकी 'बहू' हूं. बिना रक्त मांस की बिल्कुल मशीनों की तरह उनकी मांगों को पूरी करनेवाली."
"ऐसा मत कहो नीता पहले तो वह ऐसी नहीं थी." समझाते हुए प्रशांत ने कहा.
"पता नहीं मैंने तो जब से इस घर में कदम रखा है वह ऐसी ही हैं." नीता ने कहा.
"ज़रूर हमारी सेवा में कहीं ना कहीं कुछ कमी है. क्यों माँ दिन-ब-दिन अपने आप में सिमटती जा रही हैं. किसी से कुछ कहती नहीं, अपने मन की बात किसी को बताती नही." प्रशांत ने कहा.
"हाँ, परंतु सभी की बातों में दख़लअंदाज़ी ज़रूर करती हैं और ज़रा-सी ग़लती हुई नहीं कि व्यंग्य करना और मेरे पूरे खानदान को ताने कसने में भी नहीं चूकतीं. कितनी देर तुम घर में रहते हो? जब आते हो तो मुंह बना कर बैठ जाती हैं." नीता ने उत्तेजित होते हुए कहा.
"बस करो नीता, आख़िर वह इस घर में सबसे बड़ी है. अगर हमारी ग़लतियों पर उंगली उठाती हैं, तो बुरा नहीं मानना चाहिए." प्रशांत ने धीमे स्वर में कहा.
"मुझे सोने दो प्रशांत अंधेरे में ही उठना पड़ता है. तुम लोगों को क्या, आठ बजे आराम से उठोगे." कहते हुए नीता ने करवट बदल लिया. प्रशांत की आंखों में नींद नही थी. जाने क्यों बचपन से लेकर आज तक की सारी बातें उमड-घुमड़ कर सामने आती जा रही थी और प्रशांत उन्हीं में खो गया.
प्रशांत जब दस साल का था, तब उसके पिता की मौत हुई थी. तीन भाई-बहनों में सबसे बड़ा प्रशांत था. उसके बाद विशाल था. सबसे छोटी सुमन उस वक़्त गोद में थी. पति की मौत के इस भयानक सदमे को कविता ने अपने सीने में हमेशा के लिए क़ैद कर लिया. बच्चों के सामने इसे कभी बाहर नहीं निकलने दिया. कविता के सामने लंबी अथाह ज़िंदगी पड़ी थी. अपने संघर्ष के दिनों में चट्टान बनकर कविता ने अपनी ज़िंदगी की गाड़ी को किसी न किसी तरह खींचा था. पति द्वारा संचित थोड़ी-सी पूंजी से अपने बच्चों को पढ़ा-लिखा कर इस लायक बना दिया कि वह अपना जीवन स्वयं जी सके. माँ के संघर्षों में हिस्सा बंटाता प्रशांत बचपन से ही समझदार था.
परिस्थितियों ने उसे घर की ज़िम्मेदारियों में लपेट रखा था. माँ उसके जीवन की आदर्श थी. कविता के तीनों बच्चे महत्वाकांक्षी थे.
जिस दिन प्रशांत इंजीनियर बना. कविता को लगा कि उसका जीवन सफल हो गया. लंबे कष्ट भरे दिन उस दिन बहुत छोटे प्रतीत हुए. वर्षों से सीने में दबाए उसके सारे ग़म आज बाहर निकल पड़े थे. उस दिन बंद कमरे में पति की तस्वीर के सामने कविता फूट फूट कर रोई.
"अब तो तुम्हें मुझसे कोई शिकायत नहीं है ना. मैंने माँ और बाप की दोहरी ज़िंदगी निभाते हुए अपना फर्ज़ पूरा किया है."
तीन साल के बाद विशाल को भी एक फर्म में नौकरी मिल गई. दोनों बेटों का कविता ने धूमधाम से विवाह किया. बड़ी बहू नीता जब आई थी, तब उसकी पढ़ाई चल रही थी, परंतु ससुराल आते ही घर की बडी बहू की सारी ज़िम्मेदारियों से उसे बांध दिया गया और एक साल में वह मां भी बन गई. पढ़ाई को तिलांजलि देकर धीरे-धीरे घर-गृहस्थी में डूब गई. परंतु छोटी बहू नहीं मानी. उसने अपनी पढ़ाई ज़ारी रखी और विशाल के सहयोग से उसी कंपनी में उसे नौकरी मिल गई.
बचपन से ही विशाल और प्रशांत में अंतर था. प्रशांत के जीवन में माँ ही सब कुछ थी. उनके हर ग़लत और सही सभी बातों को आंख मूंदकर स्वीकार कर लेता था. ऐसा कोई काम नहीं करता, जिससे माँ को ठेस पहुंचे, चाहे इसके लिए उसे अपनी इच्छाओं, ख़ुशियों को ताक पर हीं क्यों न रखना पड़ता हो. विवाह के बाद भी उसमें कोई परिवर्तन नहीं आया, पहले माँ थी उसके बाद पत्नी.
विशाल के लिए भी मांँ सब कुछ थी. आम माँओं से उसे अपनी माँ सबसे अलग लगती थी. परंतु वह माँ का अंधभक्त नहीं था. माँ की ग़लत बातों का बचपन से ही वह विरोध करता था. उसके लिए ग़लत बात ग़लत थी और सही बात सही, चाहे उसे किसी ने भी किया हो. उसके लिए माँ का स्थान अलग था और पत्नी का अलग.
सुमन की दुनिया अलग थी. माँ और भाइयों के बीच पली-बढ़ी सुमन घर के सुख-दुख से अलग थी. कम उम्र में ही प्रशांत को नौकरी मिलने के कारण उसने सुमन को किसी बात का अभाव नहीं होने दिया. आज सुमन का विवाह एक अच्छे परिवार में हो चुका है.
कुल पांच पोते-पोतियों, जिसमें तीन प्रशांत के और दो विशाल के हैं कि दादी बनी कविता अपनी सारी ज़िम्मेदारियों से मुक्त हो चुकी है.
परंतु अपने जीवन के इस मोड़ पर आकर कविता बहुत बदल चुकी है.

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कभी ममता और वात्सल्य से भरी कविता आज कठोर सास बन चुकी है. वह शारीरिक रूप से नही मानसिक रूप से बहुओं को प्रताड़ित करती है. इससे बेटों से दिन पर दिन दूर होती जा रही है. हर समय घुटते रहना और ज़रूरत से ज़्यादा उम्मीदें करना उसकी आदत बन चुकी है. अपने ही घर में अपने को पराया समझना और इतने बड़े परिवार में भी अपने अकेलेपन का एहसास उसे हर समय सालता रहता है. बेटी जब से विदा हुई उसने रसोईघर की तरफ़ मुंह उठाकर भी नहीं देखा. कभी भूले-भटके चली भी जाती, तो ज़मीन-आसमान एक कर देती और एक बार ऐसा कुछ हुआ कि प्रशांत ने बौखलाकर माँ को अपना कसम दे दिया, "बहुओं के होते तुम्हें आज से काम करने की ज़रूरत नहीं है माँ."
कविता इस मामले में भाग्यशाली थी कि नीता और मीना ने कभी उसकी उपेक्षा नहीं की. उसके सामने कभी ज़ुबान नहीं खोला. एक समय था जब अपने संघर्ष और कष्टों के समय कविता हमेशा उत्साह से भरी रहती, परंतु आज उसके पास सब कुछ है, परंतु ख़ुशी और उत्साह गायब है. अपने को बीमार घोषित करती हुई बहू और बेटों की हर हरकतों पर नज़र रखते हुए कविता हमेशा कुढी बैठी रहती है.
आज रविवार का दिन था. सभी की छुट्टियां थी.
"माँ, जल्दी आओ खाना निकल चुका है." प्रशांत ने माँ को बुलाया.
कराहती हुई कविता धीरे से आकर कुर्सी पर बैठ गई. आज के दिन का सभी को इंतज़ार रहता, क्योंकि घर के सभी छोटे-बड़े एक साथ खाना खाते थे. बाकी दिन तो सभी अपने-अपने कामों में व्यस्त रहते थे. किसी के खाने का समय ठीक नहीं रहता. खाने के लिए सबसे ज़्यादा परेशान कविता ही करती. एक तो समय पर नहीं खाती, दूसरे जब भी खाती तुरंत बना खाना ही खाती. इस कारण नीता का सारा दिन रसोईघर में ही बीत जाता. मीना तो ऑफिस चली जाती थी, परंतु जितनी देर रहती थी. नीता की मदद किया करती थी. नीता को कभी भी मीना से कोई शिकायत नहीं थी.
"माँ तुम ठीक से खा नहीं रही हो. आज तो खाना बडा ही स्वादिष्ट बना है." विशाल ने कहा.
"क्या देवरजी, खाना सचमुच स्वादिष्ट है या भाभी को मक्खन लगाया जा रहा है?" खिलखिलाते हुए नीता ने कहा.
इस बात पर सभी हंसने लगे और भाभी-देवर की नोक-झोंक चलती रही. परंतु इन सबसे अलग कविता किसी तरह खाने को घोंट रही थी.
"क्या बात है माँ तबीयत ठीक नहीं है क्या?" प्रशांत ने माँ की थाली में सब्ज़ी डालते हुए कहा.
"क्या खाऊं सब्ज़ी में नमक इतना ज़्यादा है कि खाया नहीं जा रहा है." कविता ने मुंह बनाते हुए कहा.
"तो दूसरी सब्ज़ी खा लो." विशाल ने कहा.
"उसमें तो मसाले इतने कम पड़े हैं कि मरीज़ की सब्ज़ी लग रही है." कविता बोली.
यह सुनकर नीता उदास हो गई. आज उसने बड़े शौक से सास की पसंदीदा सब्ज़ी बनाई थी. विशाल इस बात को भांप गया, परंतु बोला कुछ नहीं.
"जाओ नीता, माँ से पूछ कर कोई दूसरी सब्ज़ी बना दो, ऐसा कैसे होगा कि सभी खाना खाएं और माँ भूखी रह जाए." प्रशांत ने कहा.
नीता ने कुछ नहीं कहा उठकर हाथ धोने लगी. विशाल को रहा नहीं गया उसने कुछ उत्तेजित होते हुए कहा, "यह क्या बात हुई भैया, भाभी को खाने के बीच से क्यों उठा दिया. अब कुछ नहीं बनेगा. इतना सारा खाना है. माँ कुछ भी खा लेगी." कहकर विशाल ने भाभी को हाथ पकड़ कर बैठा दिया.
"विशाल ज़िद मत करो नीता को जाने दो."
"नहीं… भाभी नहीं जाएंगी."
दोनों भाई उत्तेजित हो चुके थे. अंत में विशाल ने माँ की तरफध मुड़ते हुए कहा.
"क्यों माँ सबकी ख़ुशी के लिए एक दिन तुम ख़राब खाना नहीं खा सकती? हमेशा तो तुम्हारी पसंद की ही बनती है, भाभी कभी कुछ कहती नहीं, मूकदर्शक की भांति हमेशा चुप रहती हैं. उनकी भावनाओं का कभी तो परवाह करो. सभी की मांगों को वह पूरा करती हैं. उनकी क्या मांग है, कभी किसी ने पूछा है. मुझे भी पनीर की सब्ज़ी पसंद नहीं, फिर भी मैं खा रहा हूं, जानती हो क्यों? इसलिए कि सिर्फ़ इस पल के लिए हम सप्ताह इंतज़ार करते हैं. आज खाना महत्वपूर्ण नहीं होता, बल्कि खाने की आड़ में हम सब एक साथ बैठकर एक-दूसरे को बहुत क़रीब महसूस करते हैं. तुमने देखा मेरी ज़रा-सी प्रशंसा से भाभी का मुरझाया चेहरा कितना खिल गया था."
"विशाल, तुम्हें माँ को भावनाओं और जज़्बातों के संबंध में समझाने की ज़रूरत नहीं है. वह बहुत दुनिया देख चुकी हैं." प्रशांत ने कहा.
कविता अब तक चुप थी. उसने कहा, "तुम लोगों को मेरे कारण बहस करने की ज़रूरत नहीं है. अरे, सारे झगड़े की जड़ तो इस घर में मैं ही हूं. इस घर में रहने का मुझे कोई अधिकार नहीं है. तुम लोगों से और कुछ तो नहीं ही कहती हूं. आज से अपने खाने के बारे में भी मैं कुछ नहीं कहूंगी." कहती हुई कविता खाना छोड़ कर उठ खड़ी हुई और अपने कमरे में चली गई.
"ज़रा-सी बात का तुम लोगों ने बतंगड़ बना दिया." पति को संबोधित करती हुई मीना बोली.
"सब इसकी वजह से हुआ है. नीता अगर सब्ज़ी बना ही देती और सभी लोग थोड़ी देर इंतज़ार कर लेते, तो कौन-सा पहाड़ टूट जाता. भाभी से इतना स्नेह ही था, तो मीना से क्यों नहीं बनवा लिया." प्रशांत ने व्यंग्य से कहा.
"आप बात नहीं समझ रहे हैं भैया. मेरे कहने का यह मतलब नहीं था, परंतु हर समय तनावग्रस्त रहना और बात-बात पर मीन-मेख निकालना माँ की आदत बन गई है. मुझे यह अच्छा नहीं लगता. इस बात की कोई गारंटी नहीं है कि मीना की बनाई सब्ज़ी माँ को अच्छी ही लगती. आदमी का मन अच्छा नहीं हो, तो उसे कुछ भी अच्छा नहीं लगता." सहज भाव से विशाल ने कहा.
"माँ तुम्हें अच्छी नहीं लगती तो ठीक है. कहो तो मैं माँ को लेकर कहीं चला जाऊं." क्रोध में प्रशांत ने कहा.
"यह क्या कह रहे हैं भैया… आप होश में तो हैं?"
"जो भी कह रहा हूं, पूरे होशो-हवास में कह रहा हूं." पांव पटकते हुए प्रशांत बाहर निकल गया.
खाना वैसे ही पड़ा रहा, मगर खाने वाले भारी मन से उठ कर जा चुके थे.
आज दो सप्ताह बीत चुके थे. कविता चुपचाप ड्रॉइंगरूम में बैठी थी. उस दिन के बाद से घर की सारी ख़ुशी गायब हो चुकी थी. दोनों भाइयों के बीच बातचीत बहुत कम होती. कविता हर समय उदास बैठी रहती. बहुएं मशीनी जीवन जी रही थीं. बच्चे अपनी दुनिया में मस्त थे.
तभी कॉलबेल की आवाज़ हुई. उठकर कविता ने दरवाज़ा खोला. सामने पोस्टमैन खड़ा था. कविता ने चिट्ठी ले ली और दरवाज़ा बंद कर चिट्ठी देखने लगी. सुमन की थी. दो दिनों के बाद आ रही थी, एक महीने के लिए. महीनों बाद कविता के होंठों पर मुस्कुराहट की एक पतली-सी रेखा खींच गई. पल भर को लगा कि जैसे उसका कोई बहुत 'अपना' उसके पास आ रहा है.
एक वही तो है इस पूरी दुनिया में जिससे वह अपना दुख बांट सकती है. इस पराए वातावरण से तो मैं तंग आ चुकी हूं. सब अपनी मर्जी के मालिक है. किसी को मुझसे मतलब नहीं है… कविता सोचने लगी.
"दादी किसकी चिट्ठी है?" राजू ने पूछा.
"अरे, तेरी बुआ आ रही हैं."
कविता ने राजू को प्यार से थपथपाते हुए कहा. दादी तो बच्चों को हमेशा काट खाने को दौड़ती थी, आज जब राजू के साथ प्यार जताया तो वह थोड़ा अनमना हो गया और अपनी मम्मी के पास भाग गया. शाम तक सबको पता चल चुका था कि सुमन नैनीताल से आ रही है. सभी ख़ुश थे, लेकिन किसी ने कहा कुछ नहीं. माहौल वैसा ही बना रहा. दोनों भाई ड्रॉइंगरूम में बैठे थे. कविता भी वही बैठी थी. मीना अभी-अभी ऑफिस से थकी हुई आई थी. वह भी एक कोने में बैठी थी. बच्चे भी वही थे. सभी की नज़रें टीवी के तरफ़ थी. वातावरण इतना भारी था कि सभी बिना मन के टीवी देख रहे थे. नीता सभी के लिए ट्रे में चाय लेकर चली आ रही थी. अभी रास्ते में हीं थी कि कविता की आवाज़ सुनाई पड़ी. "बहू..."
और नीता ट्रे लिए गिरते-गिरते बची. कितने दिनों के बाद उसे ऐसी उत्साह भरी आवाज़ सुनाई पडी थी. उसे अपने कानों पर विश्वास नहीं हुआ. वह कविता के बिल्कुल पास आकर खडी हो गई.

"बहू घर में घी है क्या? सुमन को गुझिया बहुत पसंद है, सोचती हूं हम लोग मिलजुल कर बना लेते हैं."
माँ के इस रूप को देखकर सभी हतप्रभ थे और दो दिनों के भीतर जब तक सुमन आ नहीं गई कविता की फ़रमाइशें बढ़ती गईं. सुमन के स्वागत में व्यंजनों का ढेर लग गया. आख़िर सुमन आ ही गई, परंतु उसके साथ पति नहीं आए. अपने बेटे के साथ वह अकेली ही आई. उसके पति को छुट्टी नहीं थी. शादी के बाद सुमन दो सालों के बाद पहली बार मायके आई थी. घर का पूरा माहौल ही बदल गया था.
कविता सारे दिन सुमन और उसके बच्चे में व्यस्त रहती. सुमन कविता के कमरे में ही सोती और देर रात तक उनकी बातें सुनाई पड़ती. इसी बीच कविता ने यह कहकर सभी को चौंका दिया कि वह कुछ महीनों के लिए सुमन के साथ नैनीताल जाएगी.
सुमन को आए हुए दो सप्ताह बीत चुके थे. सुमन ने माँ में हुए बदलाव को भांप लिया था. उसने यह भी देखा कि जितनी फ़िक्र उन्हें सुमन की रहती, उतनी किसी की नहीं. जो भी हंसती-बोलती सुमन से ही, बाकि लोगों से कटी रहती थी. एक दिन कविता सुमन से हंस-हंसकर बातें कर रही थी, इतने में प्रशांत जो दो-तीन दिनों से ऑफिस के काम से कहीं बाहर गया था आया. आते ही उसने माँ के पांव छुए. तब तक बच्चे दौड़ पड़े, प्रशांत उनमें व्यस्त हो गया. कविता बेटे को देखकर अचानक चुप हो गई. सुमन ने इसे गौर किया. सुमन ने जब माँ से यह पूछा कि उसने भैया के आते ही उनका हाल क्यों नहीं पूछा, क्योंकि पहले तो कविता बेटों के आते ही उनके पास दौड़ जाती थी. इस पर कविता का यही रोना था कि अब तो बेटों का अपना संसार है, उन्हें किसी के लिए फ़ुर्सत नहीं है.
सुमन माँ में हुए इस बदलाव को देखकर बहुत क्षुब्ध थी. आख़िर ऐसा कब तक चलेगा. वह सोच रही थी कि माँ को कैसे समझाए, क्योंकि माँ का आजकल स्वभाव बन गया था. वह हर बात का उल्टा मतलब निकाल लेती थीं. सुमन यह समझ गई थी कि एक बार यदि माँ उसके पास चली जाती है, तो आने के बाद भाई-भाभियों का जीना और भी हराम कर देगी. उनकी हर बात की तुलना सुमन से की जाएगी. जाने के दिन जैसे-जैसे नज़दीक आते जा रहे थे, सुमन की चिंता बढ़ती जा रही थी.
दोपहर को सुमन और कविता खाना खाने के बाद ड्रॉइंगरूम में बैठी थीं. सुमन तो अनमने ढंग से बैठी थी, मगर कविता बहुत ख़ुश थी. इतने में नीता आकर चाय दे गई. कविता को दोपहर में चाय पीने की आदत थी. नीता जा ही रही थी कि सुमन ने रोक लिया, "आप भी बैठिए ना भाभी हमारे साथ."
नीता बैठ गई, मगर कविता ने मुंह बना लिया. एकाएक ड्रॉइंगरूम का वातावरण भारी-सा हो गया. नीता समझदार थी बच्चे का बहाना करती हुई उठकर चली गई.
"कितनी अजीब बात है." एक लंबी सांस खींचते हुए सुमन ने कहा.
"क्या सुमन?" कविता ने चौंकते हुए पूछा.

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"कल तक जो लड़की अपने परिवार में उन्मुक्त जीवन जीती है, हर ज़िम्मेदारी से मुक्त. पूरा परिवार उसकी देखरेख करता है. उसकी इच्छाओं व अनिच्छाओं का ख़्याल रखा जाता है. जिसके पीठ पर हर समय माँ खड़ी होती है, एक छाया की तरह… वही लड़की जब ससुराल आती है, तो उसकी इच्छाओं, अनिच्छाओं को बड़ी बेरहमी से कुचलकर घर की सारी ज़िम्मेदारी उस पर लाद दी जाती है. और की जाती है, तो उससे सिर्फ़ उम्मीदें और कुछ भी नहीं. सबकी उम्मीदों पर खरी उतरने के लिए हर रोज़ कितनी बार वह अपनी आत्मा को मारती है. कितनी बार अपने पूरे अस्तित्व को कुचल डालती है. इससे सभी बेख़बर रहते हैं. तुमने भाभी में ऐसा कभी महसूस किया है माँ? पांच सालों में वह बूढ़ी दिखने लगी हैं."
"यह क्या हो गया है सुमन तुम्हें? किसी ने कुछ कहा क्या?" कविता ने पूछा.
"नहीं कहा इसी बात का तो मुझे दुख है. मैं मेहमानों की तरह इस घर में रहना नहीं चाहती तुम्हारी तरह." नीता ने माँ को देखते हुए कहा. "क्या मतलब?" कविता चौंकी.
"हां, माँ मुझे आए हुए तीन सप्ताह बीत चुके हैं. इस घर में कहीं कोई बदलाव नज़र नहीं आया, सिर्फ़ तुम्हें छोड़कर. बहुत बदल गई हो माँ. तुम्हें इस बात का एहसास है… तुम्हारे जैसे बेटे बहुत कम लोगों को मिलते हैं. बहुएं तुम्हारे इशारों पर नाचती हैं. उन्हें मुंह खोलने की हिम्मत नहीं. तुम कितनी सुखी हो इसका तुम्हें एहसास नहीं, जो तुम्हारे संघर्षों का फल है." सुमन ने कहा.
"नहीं बेटी तुम नहीं जानती यह जो भी करते हैं अपना फर्ज़ समझकर करते हैं. किसी को मुझसे प्यार नहीं है. सभी की आंखों में परायापन झलकता है." कविता उदास होते हुए बोली.
"एक बात बताओ माँ, इन पाँच सालों में तुम्हारे मन में एक बार भी भाभी के प्रति बेटी का भाव जगा? तुमने कितनी बार प्यार से बेटी कहकर उनके सिर को सहलाया है ? कभी उनकी इच्छाओं को जानने का प्रयास किया है? उनकी भावनाओं को समझा है? फिर तुम उनसे कैसे यह उम्मीद कर सकती हो कि वह तुम्हें माँ समझे और उनके मन में तुम्हारे प्रति प्रेम हो." सुमन ने समझाते हुए कहा.
कविता आवाक होकर देखने लगी.
"इन बहुओं के प्रति तुम्हारे मन में इतनी आक्रोश की भावना है कि अपने बेटों को भी तुम उन्हीं से जोड़ कर देखने लगी हो. तुमने सारा जीवन कष्ट और संघर्ष में बिताया. आख़िर किसके लिए ? सिर्फ़ इसलिए ना कि तुम्हारे बच्चों का संसार बस जाए. उनकी भी अपनी एक दुनिया हो. आज जब वह अपने संसार में रम गए हैं, तो तुम्हें दुख क्यों हो रहा है?" सुमन बोली.
"बेटी… मेरी भावनाओं को समझो. सारा जीवन मैंने अपने आपको भुलाकर तुम लोगों का मुंह देख कर बिता दिया. जो तेरे पिता को करनी चाहिए थी, मैंने माँ के फर्ज़ के साथ-साथ उस दोहरे फर्ज़ को भी निभाया. इतने के बाद यदि अपने बच्चों से मैं थोड़ी सी उम्मीद कर लेती हूं, तो क्या यह मेरा हक नहीं बनता है." कविता रूंआसी होकर बोली.
"तुम्हारी बात एक हद तक ठीक है माँ. फिर भी एक बार तुम अपनी आत्मा से पूछ कर देखो कि संघर्ष के दिनों में जिस जीवन को तुमने गंवा दिया, क्या उस जीवन को अपने बेटों से तुम वापस नहीं मांग रही हो. तुम्हारा इस तरह के अकेलेपन का भाव, इस घर को अपना घर न समझना, सभी के प्रति असंतोष और ज़रूरत से ज़्यादा उम्मीदें, यह समझना कि जो भी हो तुम्हारी मर्जी से हो. यह सब क्या है? अपने बच्चों के लिए तुमने जो किया उसे अप्रत्यक्ष रूप से यह मांगना ही तो है. पहले तुम दुख में जीती थी, आज तुम उन्हें दुख में देखना चाहती हो. अरे कोई माँ प्रसव के समय हुई वेदना को अपने बच्चों से कभी वापस मांगती है क्या?" सुमन उत्तेजित होकर बोली. इस बात पर कविता रोने लगी, पर सुमन नहीं पिघली.
"जब तुम अपनी बहू को जो तुम्हारे हर सुख-दुख का हिस्सा है, अपनी बेटी नहीं मान सकी, तो अपने दामाद को तुम कैसे बेटा मान सकती हो, जो तुम्हारे पास एक घंटा भी नहीं रहा. आज अगर मैं कहूं कि मेरे साथ चल कर हमेशा के लिए रहो, तो असलियत यह है कि तुम वहां भी नहीं रह पाओगी. तुम्हारे नैनीताल चलने के लिए मना नही है माँ, मुझे भी शौक होता है कि तुम मेरे पास रह. परंतु इस घर को यह एहसास कराकर जाना कि तुम इन लोगों से ऊब कर जा रही हो, यह मुझे उचित नहीं लग रहा है. वह मेरे भी भाई हैं और तुम्हारे साथ-साथ उनके सुख-दुख की भी मुझे परवाह है. प्रशांत भैया तुम्हें बहुत मानते हैं. उनकी आत्मा तुम में बसती है. वह तुम्हारे लिए पूरे परिवार को ठुकरा देंगे. ठीक इसके विपरीत विशाल भैया किसी एक के लिए पूरे परिवार को बिखरने नहीं देंगे. वह 'एक' तुम भी हो सकती हो या मीना भाभी भी हो सकती हैं. ऐसे में तुम इन दोनों को कितना बड़ा घाव दे कर जाओगी, इसका एहसास तुम्हे है क्या? यह घर तुम्हारा है माँ और घर में जितने लोग हैं सभी तुम्हारे हैं, तुम्हारे खून से सींचे हुए. ऐसे में अपने आपको तुमने इस घर से अलग कैसे कर रखा है…" सुमन ने समझाते हुए कहा.
अचानक कविता उठी और अपने कमरे की तरफ़चल दी.
"मैं जानती हूं माँ, मेरी बात का तुम उल्टा अर्थ लोगी और आज से मुझे भी पराया समझोगी." कविता को जाते हुए देख कर सुमन ने थोड़े ऊंचे आवाज़ में कहा.
इस बात को घटे आज तीन दिन हो गए थे. दोनों माँ-बेटी के बीच इस संबंध में फिर कोई बात नहीं हुई. सुमन के जाने में दो दिन बचे थे. ननद के जाने की तैयारियां चल रही थी. साथ में ले जाने के लिए सूखे व्यंजन बन रहे थे, जिसकी ख़ुशबू पूरे घर में फैली हुई थी. कविता अपने कमरे में बैठी हुई कोई किताब उलट रही थी, तभी किसी की आहट आई. उसने पीछे घूम कर नहीं देखा.
"माँ, परसो तो तुम जा रही हो. नैनीताल में इस समय ठंड होगी. तुम्हारे लिए कुछ गर्म कपड़े ला दिए हैं इन्हें रख लो."
यह आवाज़ प्रशांत की थी. कविता ने कुछ भी नहीं कहा वैसे ही किताब के पन्ने पलटती रही. प्रशांत लौट गया.
कैसे समय बीत गया पता हीं नही चला. रात में सभी एक साथ खाने के लिए बैठे थे. सुबह में सुमन को नैनीताल जाना था माँ के साथ. सभी के भीतर हलचल थी, मगर सभी ख़मोश थे. विशाल ने ख़ामोशी तोड़ी.
"माँ तुमने अपना सामान पैक कर लिया या मैं कर दूं? नैनीताल में अभी ठंड होगी. अपना पूरा ख़्याल रखना, वरना बीमार पड़ जाओगी. जाओ जाकर जल्दी सो जाओ. सुबह जल्दी उठना है और हां, सप्ताह में दो बार फोन ज़रूर करना, नहीं तो हमें चिंता लगी रहेगी."
"लेकिन मैं जा कहां रही हूं."
कविता के इस कथन ने सभी को चौंका दिया.
"मैं जानती थी मां तुम यही करोगी. फिर वही, हर बात का उल्टा अर्थ." सुमन ने कहा.
"नहीं बेटी , यह बात नहीं है. आज तीन रात हो गए, मैं सो नहीं पाई हूं. तुम्हारी बातों ने मेरी आत्मा को झकझोर दिया है. यह सच है कि आदमी जब किसी पेड़ पर उल्टा लटक जाए, तो उसे पूरी दुनिया उल्टी नज़र आती है. हमारे साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ है. बदलाव हमारे में होती है, परंतु बदले हुए हमें आसपास के लोग लगते हैं. मेरे साथ भी यही हुआ है. सुमन, मैं नैनीताल आऊंगी ज़रूर, लेकिन अभी नहीं. बच्चों की छुट्टियों में हम सभी साथ जाएंगे." कहती हुई कविता अपने कमरे में चली गई.


प्रीति सिन्हा

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Photo Courtesy: Freepik

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