उसकी पीठ पर अपनी गुदगुदी हथेली से थपकी देते तो नीति एकदम सिहरकर संभल जाती.
ऐसे नाज़ुक मौक़े पर भी मैं अनुग्रह को 'वॉच' करती रहती.
उसकी हथेली पीठ से खिसककर ब्लाउज़ और साड़ी के बीच निरावृत्त हिस्से तक पहुंच जाती और नीति रोना भूल जाती थी.
उसके चेहरे पर स्पर्श सुख की सतरंगी रेखाएं खिल उठती थीं.
कोई समय तय नहीं होता. कब, क्या घट जाए? कहना मुश्किल है. लॉन की हरी दूब ऐसी लगती है कि कांटे उग आए हों और मैं लगातार नंगे पैर उन पर चलने के लिए अभिशप्त हूं.
नौति से यह उम्मीद कभी नहीं थी कि वह मेरा बसा-बसाया घर उजाड़ देगी, क्या केवल नीति ही दोषी है? पूरे घटनाचक्र में अनुग्रह और मैं भी तो सम्मिलित हूं. हमें अपने दोष और कमियां दिखाई नहीं देतीं, क्योंकि हम स्वयं अपने आईने नहीं बन सकते. अनुग्रह और नीति ने मिलकर मुझे अपना आईना दिखा दिया. काश! मैं भी ऐसा कर पाती?
अवसाद के एक ऐसे संवेदनात्मक भंवर में फंस गई हूं कि यह समझना तक मुश्किल हो गया है कि आख़िर आदमी अपनों पर विश्वास नहीं करे तो किस पर करे? नीति कोई पराई नहीं, मेरी छोटी बहन है. मैंने उसे बहन से ज़्यादा बेटी की तरह देखा, माना और जताया है. मुझसे पांच साल छोटी होने के कारण एक अंतर सा बनाकर मैंने सदैव उसके और अपने बीच रखा था.
जब अनुग्रह से विवाह था, उस वक़्त नीति ने मैट्रिक का इम्तिहान दिया था. कितनी भोली, कितनी सुकुमार, कितनी सुन्दर थी नीति. मैंने महसूस किया था कि नीति बी.ए. तक पहुंचते-पहुंचते मॉडल जैसी दिखने लगेगी. मैं हमेशा अपने सांवले रंग को लेकर हीनभावना की शिकार रही. नौति बिल्कुल उजली दुधिया चांदनी की तरह है. नैन-नक्श मेरे तीखे हैं, जो सांवलेपन की खाली जगह को भरते हैं, लेकिन नीति का दुधिया रंग, मुस्कुराते होंठ और बोलती सी आंखें उसके प्लस प्वाइंट्स है.
शादी के बाद लखनऊ से कानपुर आ गई थी. अनुग्रह यहां एक कंपनी में इंजीनियर थे. कुछ साल कपूर की तरह उड़ गए, मेरा सांवला रंग और गहरा हो गया, अनुग्रह कहते, "तुम तो दिन-ब-दिन काली होती जा रही हो." मैं क्या कहती, चुप्पी लगा गई. कितनी क्रीम लगाई, लेकिन भला प्राकृतिक त्वचा अपना रंग बदलती है क्या?
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आचमन के जन्म के बाद तो सौन्दर्य और ढल सा गया. अनुग्रह से दूरियां इतनी न चढ़ती, अगर नीति हमारे बीच नहीं होती. घटनाक्रम तेजी से बदला.
अम्मा दमा की लंबी बीमारी से लड़ते-लड़ते हार गईं. पापा ने जब फोन से इस हादसे की ख़बर दी तो मैं और अनुग्रह लखनऊ पहुंचे. नीति मुझसे लिपट कर ख़ूब रोई. तेरहवीं के बाद पापा ने ख़ुद कहा, "रीति बेटी, अब तुम्हारी अम्मा तो रही नहीं, इसलिए नीति कुछ दिनों के लिए तुम्हारे साथ रह ले तो इसका दुख कुछ कम हो जाएगा. जब सामान्य हो जाए तो मुझे ख़बर कर देना, मैं इसे लेने आ जाऊंगा."
मैं कुछ उत्तर देती, इससे पहले ही अनुग्रह बोले, "पापा सच कह रहे हैं, तो ऐसा करें न कि नीति को हम अब अपने ही पास रखें, इसके लिए लड़का भी देखते रहेंगे, समस्या जब सामने होती है, तो समाधान भी जल्दी मिल जाते हैं." पापा ने कुछ नहीं कहा. एक तरह से आंखों ही आंखों में अपनी मौन स्वीकृति दे दी.
मैं नीति को लेकर कानपुर आ गई. कुछ दिनों तक अम्मा के संस्मरण चलते रहे. नीति रोती और मैं उसे सांत्वना देती. कभी-कभी अनुग्रह भी वहां उपस्थित होते तो ऐसे संवेदनशील अवसर पर नीती के अति निकट पहुंच जाते. उसकी आंखों के आंसू अपने रुमाल से पोंछते उसकी पीठ पर अपनी गुदगुदी हथेली से थपकी देते तो नीति एकदम सिहरकर संभल जाती. ऐसे नाज़ुक मौके पर भी मैं अनुग्रह को 'वॉच' करती रहती. उनकी हथेली पीठ से खिसककर ब्लाउज़ और साड़ी के बीच निरावृत हिस्से तक पहुंच जाती और नीति रोना भूल जाती थी. उसके चेहरे पर स्पर्श सुख की सतरंगी रेखाएं खिल उठती थीं. मुझे यहीं पर अनुग्रह को टोकना था, लेकिन अनुग्रह ने अपने लिए ऐसा अवसर तलाशा था, जो अत्यंत कारुणिक था और इस मौक़े पर उसे टोकने का मतलब था, अपना ओछापन प्रदर्शित करना.

आचमन को नोति के हवाले करके मैं बैंक जाने लगी थी. अनुग्रह अपनी कंपनी जाते समय मुझे बैंक तक छोड़ देते थे. सब ठीक से ही चल रहा था. नीति ने भी अब अम्मा का ज़िक्र करना छोड़ दिया था. उसमें आया परिवर्तन मेरे लिए सुखद था, लेकिन यह तो बाद में पता चला कि उसके चेहरे पर आया गुलाबीपन मेरे लिए कांटों का एक चक्रव्यूह बनने जा रहा था.
बैंक में उस दिन मिस कपूर नहीं आई थीं, छुट्टी पर थीं. ब्रांच मैनेजर गोखले साहब ने मुझे कैश काउंटर पर बिठा दिया. नोट देते-देते और गिनते-गिनते मुझे एक पल ऐसा लगा कि मैं कंगाल हो गई हूं. उस दिन शायद ग्राहकों ने सबसे ज़्यादा ड्राफ्ट भरे थे और चेक काटे थे. दो बजते-बजते कुछ घबराहट सी हुई, ऐसा लगा कि जी मिचला रहा है. रामटेके से पानी मंगवाया, एक ग्लास पानी पीने के बाद भी घबराहट कम नहीं हुई. रामटेके ने मेरे कांपते शरीर की ख़बर गोखले साहब को दी, तो वे मेरे लाख इंकार करने पर भी अपनी कार से मुझे घर छोड़ने आए, जैसे ही मैं कार से उतरी तो देखा कि अनुग्रह की कार भी बाई तरफ़ पार्क है. इस समय अनुग्रह यहां कैसे? मैंने जल्दी ही गोखले साहब को विदा किया. इस आपाधापी में शिष्टाचार का महत्वपूर्ण शब्द 'धन्यवाद' तक उन्हें देना भूल गई. जैसे ही गोखले साहब की कार गई, मैं चुपचाप फाटक खोलकर लॉन पर चलती हुई मुख्य द्वार तक पहुंची. जैसे कॉलवेल का बटन ही दबाने जा रही थी कि संदेह का एक रुझान मेरे सिर से गुज़रा, क्यों न पिछले दरवाज़े की तरफ़ चुपके से चला जाए? दबे पैर चोरों की तरह मैं दीवार से सटी हुई पिछले दरवाज़े की ओर चलने लगी. इस हड़बड़ाहट में गुलाब के एक गमले में ठोकर लगी और वह फ़र्श पर लुढ़क गया. मेरे पैर के अंगूठे में तेज दर्द हुआ, लेकिन किसी तरह सहती हुई, पिछले दरवाज़े पर पहुंची. ज़रा सा किवाड़ को धक्का देकर देखा तो वे खुल गए, बगैर किसी आहट के मैं धीर-धीरे किचन तक पहुंची. बेडरूम से नीति और अनुग्रह की खिलखिलाहटें मेरे कानों में गर्म शीशे ही तरह पहुंच रही थीं. मुझे मर्यादा का ध्यान ही न रहा, एकदम से बेडरूम में घुस गई. नीति और अनुग्रह जिस स्थिति में थे, वह खौफनाक थी. उन्हें पूरी तरह संभलने में वक़्त लगा.
मेरे होंठ पत्थर बन गए थे. एक शब्द नहीं निकला, आंखों ही आंखों में मैंने दोनों को साबुत निगल जाने वाली निगाह से देखा, फिर एकदम से पलटकर मुड़ी. ड्रॉइंगरूम में गई और दीवान पर ढेर हो गई. थोड़ी देर बाद कार के स्टार्ट होने की आवाज़ आई और फिर गहरा सन्नाटा मौत सी ख़ामोशी छा गई.
मैं प्रतीक्षा करती रही कि शायद नीति मेरे पास आएगी, अनुग्रह आएंगे और अपने किए पर पश्चाताप करेंगे. मुझे मनाएंगे, लेकिन ऐसा हुआ नहीं. अनुग्रह चले गए, नीति बेडरूम से नहीं निकली. एकबारगी मन हुआ कि इस चुड़ैल को बाल पकड़कर घसीटती हुई घर से बाहर फेंक दूं, लेकिन दूसरे ही क्षण छोटी बहन का चेहरा सामने आ गया.
रात को अनुग्रह नौ बजे लौटे. आचमन को खाना खिलाकर नीति ने सुला दिया था. अनुग्रह तेज नशे में थे. आज शायद ज़्यादा ले ली थी. मैं अभी तक दीवान पर ढेर होकर पड़ी थी. वे मेरे पास आए और बोले, "रीति डार्लिंग, इसमें नाराज़ होने की बात नहीं. नीति तुम्हारी बहन है, फिर नीति और मैं एक-दूसरे को पसंद भी करते हैं. तुम समझदारी से काम लो. नीति और तुम मिलकर मेरा साथ दे सकती हो." अनुग्रह की बेशर्मी पर इतना क्रोध आया कि उनका चेहरा नोच लूं.
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दूसरे दिन बिना कुछ कहे आचमन को लेकर लखनऊ रवाना हो गई. जाते वक़्त एक पत्र नीति और अनुग्रह को संबोधित करते हुए छोड़ गई, पापा घर पर ही मिल गए. उनसे लिपट कर जी भर रोई. एक शब्द भी न कहने के बावजूद पापा जैसे सब कुछ समझ गए. उन्होंने हिकारत भरे लहजे में नीति और अनुग्रह को कोसा, फिर बोले, "रीति तुम यहां रहो. कल मैं कानपुर जाकर उन दोनों को सबक सिखाता हूं."
मैंने पापा को जकड़ लिया. आंखों से झरने फूट पड़े और मैंने कहा, "पापा, आप कहीं नहीं जाएंगे. आपकी एक बेटी आज भी सुखी है. उसके हिस्से का सुख मत छिनिए, मेरा क्या है? किसी तरह आचमन के सहारे बाकी जिंदगी काट लूंगी."
- विश्वमोहन माथुर
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