“क्या बात है? आज पढ़ने में मन नहीं लग रहा है.” उसने भोलेपन से पूछा था, “सर… तो क्या शादी के बाद साथ-साथ रहना ज़रूरी होता है?”
“हां.”
कुछ देर वह चुप रही, फिर मेरा हाथ पकड़ते हुए वह मासूमियत से बोली, “सर, आप मुझसे शादी कर लीजिए न.” स्वर में कुछ याचना भी थी. मैं चौंक पड़ा था. आश्चर्यचकित उसे देखता रहा. बलिश्त भर की लड़की और मुझसे शादी करना चाहती है.
उसी के शहर में लगभग सात-आठ वर्ष बाद उससे मुलाक़ात हुई थी. वह शहर के पास ही किसी गांव में पढ़ाता था. कार्यवश उसके शहर जाना हुआ था. उससे मिलने गया, तो वहीं रुक गया. शाम के व़क़्त उसके साथ पार्क घूमने निकला. पार्क बहुत ख़ूबसूरत था. एक तरफ़ जालीनुमा कमरे में मोर, हिरन, खरगोश और कुछ बंदर भी रखे गए थे. कुछ लोग बंदरों को चने खिला रहे थे. मित्र ने टिप्पणी की, “मुझसे अच्छे तो ये बंदर हैं.”
“क्यों?”
वह बोला, “जब तक जीवन है, उसे मस्ती से जीते हैं. इन्हें जीवन के झंझट तो नहीं.”
वह मुझे जीवन से कुछ क्षुब्ध दिखाई दिया, “क्यों? तुझे क्या झंझट हैं?”
“एक हो तो बताऊं.” वह कुछ निराश स्वर में बोल रहा था, “कितना पढ़ा-लिखा. पोस्ट ग्रे़ज़्युएशन किया और मिला क्या? दो-ढाई हज़ार की टीचर की नौकरी. कभी-कभी लगता है हम सभी बंदर हैं.”
स्पष्ट विरोधाभास. अभी-अभी उसने बंदरों को ख़ुद से श्रेष्ठ बताया था और अब ख़ुद को बंदर. मैं कुछ नहीं बोला. वही आगे कह रहा था, “बड़ी बेरोज़गारी है इस देश में, ख़ासकर शिक्षित, पढ़े-लिखे लोगों की जमात ज़्यादा है. शायद इसीलिए सरकार जब मन पड़े, उन्हें बंदरों की तरह नचाती है. अभी देख, राज्य सरकार शिक्षकों की संविदा के आधार पर भर्ती करने में जुटी है. आठ-दस हज़ार वेतन के पदों को आराम से तीन-चार हज़ार में भर लिया जाएगा. सरकार कहती है कि वेतन देने के लिए फण्ड नहीं है तो फिर हर साल करोड़ों के घोटाले कैसे होते हैं..?”
वह कोसे जा रहा था. मैं तटस्थ उसे सुन रहा था. जीभर के कोसने के बाद वह अपनी लाइन में आया, “हम भी कोई बेवकूफ़ नहीं, थोड़ा-बहुत पढ़ाया, फिर अपना काम-धाम देखा.”
उसकी बात पूरी भी नहीं हुई थी कि तभी एक लड़की मेरे दाएं तरफ़ आ खड़ी हुई. उसके हाथ में भी चने थे. उसने अपना हाथ जैसे ही जाली के अंदर डाला, वह बंदर जो अभी तक मेरे मित्र को सुख दे रहा था, एक ही झटके में कूद कर उसके पास चला गया. मित्र को अच्छा नहीं लगा. बड़ी मुश्किल से एक बंदर मिला था, उसे भी छीन लिया गया था. उसने क्रोधित दृष्टि से उस लड़की की तरफ़ देखा. मैंने भी उचटती-सी नज़र उस पर डाली. उस लड़की ने भी मेरी तरफ़ देखा. मैं झेंप गया और पुन: मित्र की तरफ़ देखने लगा. मित्र अपनी खीझ को दूर करने के लिए शेष चने मुंह में डालते हुए बोला, “चल.”
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मैं उसके साथ चल पड़ा. चला ही जाता यदि पीछे से उसी लड़की का स्वर न सुनाई दिया होता, “सर.”
मैं पलटा, वह मेरे सामने आकर खड़ी हो गई, “आपने मुझे नहीं पहचाना?”
मैंने गौर से देखा. पहचानने की पूरी कोशिश भी की, लेकिन असफल रहा. कुछ संकोच से बोला, “नहीं तो.”
और फिर जब उसने अपना परिचय दिया तो विश्वास ही नहीं हुआ. 10-11 वर्ष की अबोध बालिका एक परिपक्व तरुणी में कब और कैसे बदल गई? कब व़क़्त इतनी तेज़ी से गुज़र गया, पता ही नहीं चला. कभी मैं उसका टीचर हुआ करता था. संघर्ष के दिन थे. कम्प्यूटर साइंस से पॉलीटेकनिक करने के बाद एक प्रतिष्ठित कम्प्यूटर इंस्टीट्यूट में प्रशिक्षक की नौकरी कर ली.
नौकरी के साथ-साथ प्राइवेट ग्रेज्युएशन की पढ़ाई भी चल रही थी. उसके पिता के एक मित्र मेरे पिता के मित्र थे. उन्हीं के द्वारा मुझे ऑफ़र मिला था कि जब भी उनकी बेटी को कम्प्यूटर में द़िक़्क़त होगी, तो मुझे उसका निदान करना होगा. एकतरफ़ा कॉन्ट्रेक्ट हुआ और मैं उसका पार्ट टाइम टीचर बन गया था. मेरी उससे पहली मुलाक़ात उसके भव्य और सुसज्जित स्टडी रूम में ही हुई थी. उसे क़िताबों के ढेर के बीच कुछ हताश और चिंता मग्न देखा.
अंग्रेज़ी माध्यम की पढ़ाई थी. सिलेबस देख मैं चौंक पड़ा. ठीक है आधुनिक युग में नई जेनरेशन को स्कूल से ही कम्प्यूटर एडेड् कर देना चाहिए. लेकिन इतनी निचली कक्षा में इतना हाई सिलेबस! बात मेरे गले नहीं उतर रही थी. यह मैं उसके सामने जाहिर नहीं कर सकता था. डर था कहीं उसके मन में कम्प्यूटर के प्रति भय न समा जाए. प्रत्यक्षत: मैंने कहा, “देखो तो कितना आसान सिलेबस है. बताओ तो कहा द़िक़्क़त है.” उसने अविश्वास से मेरी तरफ़ देखा, फिर अपनी समस्याओं को एक-एक करके मेरे समक्ष रखती गई और मैं अपने ज्ञान कौशल से उन्हें दूर करता गया. लगभग एक घंटे बाद मैं फुर्सत पा सका. जाते समय मैंने एक बार फिर समझाया था, “देखो मन लगाकर पढ़ो. कम्प्यूटर बहुत ही आसान है. जल्द ही बनने लगेगा.”
उसने उलाहना दिया था, “हां, आपको तो आसान लगेगा ही. इतने बड़े-बड़े बच्चों को पढ़ाते हैं, तो मुझ जैसी ‘छोटी-सी गुड़िया’ को पढ़ाना कौन-सी बड़ी बात है?”
अब उसे जब भी द़िक़्क़त होती, तो किसी-न-किसी माध्यम से मेरे घर में ख़बर पहुंचा दी जाती. मैं लगभग रात आठ-नौ बजे उसके स्टडी रूम में हाज़िर हो जाता. अब तक वह मुझसे काफ़ी घुल-मिल चुकी थी.
पहले वह गणित के तीन-चार सवाल पूछती, फिर कहीं जाकर कम्प्यूटर का नंबर आता. इसी बीच मुझे महसूस हुआ था कि वह कम्प्यूटर विषय से डरती है. बड़ी अरुचि से नाक भौं और माथे को एक साथ सिकोड़ते हुए बैग से कम्प्यूटर की बुक निकालती है. मैंने उसे अभिप्रेरित करने के उद्देश्य से ही कहा था, “देखो मॉर्डन युग में कम्प्यूटर बड़े काम की चीज़ है. तुम कितना भी पढ़ लो. यदि इसका नॉलेज नहीं रखोगी, तो अर्ध शिक्षित कहलाओगी.”
“अर्ध… शिक्षित मतलब?” उसने पूछा था.
“मतलब… हॉफ एज्युकेटेड पर्सन… और अच्छे से समझना चाहो तो आधा-अधूरा ज्ञान.”
बात उसके हृदय में लगी थी शायद. ‘हाफ़ एज्युकेटेड पर्सन’ ही सुन कर वह सिहर गई. उस दिन से उसकी अरुचि लुप्त हो गई.
वह मुझसे खुलती गई. कभी-कभी इतनी बातें करती कि मैं अपना सर पकड़ लेता. एक दिन उसने पूछा.
“सर मम्मी-पापा इतना लड़ते-झगड़ते हैं, फिर भी साथ क्यों रहते हैं?”
मैंने इधर-उधर देखा, कहीं कोई सुन तो नहीं रहा? फिर उसे कुछ डपटते हुए कहा था, “क्या यही पूछने के लिए बुलाया था? जो पूछना है जल्दी पूछो, आज मुझे जल्दी जाना है.”
आशा के विपरीत वह निर्भीकता से बोली थी, “आप कैसे टीचर हैं. स्टूडेंट के एक शक को भी दूर नहीं कर सकते?”
उस वक़्त मुझे मौरीशन का एक वक्तव्य याद आया. ‘शिक्षण एक परिपक्व तथा एक कम परिपक्व व्यक्ति के मध्य आत्मीय संबंध है, जहां कम परिपक्व को शिक्षा की ओर अग्रसित किया जाता है.’ उससे प्रेरित हो मैंने उसे समझना चाहा था.
“तुम्हारे मम्मी-पापा की एक-दूसरे से शादी हुई है, इसलिए वो कितना ही लड़-झगड़ लें, उन्हें साथ ही रहना होगा.”
मैं अपने काम में जुट गया, लेकिन महसूस किया कि उसका ध्यान कहीं और है. मैंने पूछा, “क्या बात है? आज पढ़ने में मन नहीं लग रहा है.” उसने भोलेपन से पूछा था, “सर… तो क्या शादी के बाद साथ-साथ रहना ज़रूरी होता है?”
“हां.”
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कुछ देर वह चुप रही, फिर मेरा हाथ पकड़ते हुए वह मासूमियत से बोली, “सर, आप मुझसे शादी कर लीजिए न.” स्वर में कुछ याचना भी थी. मैं चौंक पड़ा था. आश्चर्यचकित उसे देखता रहा. बलिश्त भर की लड़की और मुझसे शादी करना चाहती है.
“क्यों?” मैंने हैरानी से पूछा था.
उसने कारण बताया, “जब आपसे मेरी शादी हो जाएगी, तो आप हमेशा मेरे साथ रहेंगे और मैं जब चाहूं, आप से पढ़ सकूंगी.”
मैंने उसे समझाना चाहा, “देखो शादी हमउम्रवालों में होती है. तुम छोटी सी गुड़िया हो और मैं तुमसे कितना बड़ा हूं.”
वह फिर ख़ामोश हो गई. मैंने सोचा शायद वह समझ गई है, लेकिन नहीं. उसने प्रस्ताव आगे बढ़ाया था.
“सर, मेरे ताऊजी की लड़की की भी शादी होनेवाली है, लेकिन इस साल नहीं अगले साल. इस साल उनकी सगाई हो गई है. आप भी मुझसे सगाई कर लीजिए. शादी बड़े होने पर कर लीजिएगा.”
उसने जिस तरह से भूमिका बांधी थी, मुझे हंसी आ गई.
“अच्छा! लेकिन सगाई के लिए रिंग भी तो होनी चाहिए?”
उसका चेहरा उतर गया, लेकिन जल्द ही सचेत हुई. उसने पेन मेरी तरफ़ बढ़ाते हुए कहा, “यह पेन रख लीजिए, जब बड़ी हो जाऊंगी, ख़ूब पैसे कमाऊंगी, तो रिंग भी पहना दूंगी.” मैंने थोड़ा-सा मज़ाक करना चाहा था, लेकिन उसकी संजीदगी उसकी मासूमियत देख आंखें भर आईं थी. दुविधा की स्थिति थी. पेन रखूं या ना रखूं? वापस करता हूं, तो मासूम हृदय को चोट पहुंचेगी. यदि रख लेता हूं, तो मेरी नज़र में ग़लत होगा. ठीक है. आज यह अज्ञान है. अबोध है. कल बड़ी होगी और समझदार भी, तब क्या यह नहीं सोचेगी कि मैंने उसकी अज्ञानता का अनुचित लाभ उठाया था.
मुझे फ़ैसला करना था और किया भी. कुछ सोचकर ही पेन रख ली और उसे समझाया, “देखो, तुम्हें जब भी मेरी ज़रूरत हो बुला लेना, मैं वैसे ही आ जाऊंगा. इसके लिए शादी करना ज़रूरी नहीं और ये बातें किसी से दुबारा मत कहना.” वह हंसी थी- एक निश्छल हंसी. मैंने उसके गाल पर प्यार भरी थपकी दी.
इससे पहले अख़बारों में ऐसे दर्जनों केस पढ़ चुका था, जिसमें शिक्षक ने ही अपनी मासूम और भोली-भाली छात्रों के साथ दृष्कृत्य किए थे. कैसे और कौन लोग हैं? शिक्षक तो दूर क्या इंसान कहने लायक भी हैं ऐसे लोग? शायद नहीं, यक़ीनन नहीं.
उस दिन पहली बार मन में आया था. ‘हे ईश्वर यदि मेरी बेटी हो, तो बिलकुल इसी तरह हो… छोटी सी गुड़िया की तरह. परीक्षाएं हुई और वह चौथी पास कर गई. मेरे लिए ख़ुशी की बात थी कि उसने कम्प्यूटर में अच्छे मार्क्स पाए थे. आशा थी कि अब मेरा पारिश्रमिक भी मिल जाएगा. ख़ुद कहकर मैं अपनी इ़ज़्ज़त कम नहीं करना चाहता था. इंतज़ार करने लगा कि कब उसके पिताजी बात चलाएं. धीरे-धीरे एक साल और गुज़र गया, लेकिन उनकी तरफ़ से कोई पहल नहीं हुई. मैं अब भी उसे पढ़ाने जाता था. क्या करूं, वादा जो किया था, लेकिन वह उत्साह नहीं रह गया. इस भौतिकवादी समाज में जहां पग-पग पर धन की ज़रूरत होती है, कौन और कब तक बेगारी कर सकता है? मैंने संतोष कर लिया, चलो बदले में पैसा न सही, एक बच्ची की मन:स्थिति को समझने का अनुभव तो मिला.
इधर वह छठीं में गई और मैंने ख़ुद का व्यवसाय प्रारंभ कर दिया. घर से जल्दी निकलता और देर से लौटता. समयाभाव होता चला गया. उसके संदेश अब भी मेरे घर आते. एक-दो बार मैं गया भी, लेकिन ज़्यादा दिन तक यह क्रम न चल पाया. उसके संदेश आने बंद हो गए. शायद वह मेरे समयाभाव हो समझ चुकी थी. समय तेज़ी से गुज़रता गया. मेरी शादी हुई और एक वर्ष के अंतराल में ही एक बेटा भी. इतना व्यस्त होता गया कि उसकी शक्ल-सूरत भी दिमाग़ से उतर गई.
वह सामने खड़ी थी.
मैंने उससे पूछा था, “यहां कैसे?”
उसने चहकते हुए जवाब दिया था, “सर, मैं आईटी से इंजीनियरिंग कर रही हूं.”
सुनकर आश्चर्य हुआ.
“आईटी से! क्यों तुम्हें तो कम्प्यूटर से डर लगता था ना?”
“था.” उसने ज़ोर देकर कहा, “अब नहीं लगता. आपकी ‘हाफ एज्युकेटेड पर्सन’ वाली बात हमेशा याद रही थी.”
“अच्छा..!” मैंने और कुरेदना उचित नहीं समझा. अब वह परिपक्व है. उसने बात बदलते हुए कहा था.
“सर, आज ‘टीचर्स डे’ है. “हैप्पी टीचर्स डे सर.” वह मेरे पैर छूने के लिए झुकी थी. मैंने बीच में ही रोकते हुए कहा था.
“अ… अरे यह क्या कर रही हो..! ये सब पुरानी परंपराएं हैं. कम्प्यूटर युग में नहीं चलतीं.” फिर भी उसने ज़ोर देकर मेरे पैर छू ही लिए.
मुझसे विदा लेते समय उसे दुख था कि मुझे गिफ़्ट देने के लिए उसके पास कुछ भी नहीं है. मैं अपने आपको रोक न पाया. उसी तरह प्यार से उसके गाल पर थपकी दी. आंखें भर आने को थीं. मुश्किल से कह पाया था, “कोई बात नहीं… वो पेन आज भी मेरे पास है… तुम्हें याद हो न हो… उस दिन भी ‘टीचर्स डे’ ही था.” वह चली गई. पीछे से मित्र ने पूछा, “कब पढ़ाया था इसे.”
मैंने कुछ तल्ख स्वर में कहा, “उसी ज़माने में जब मैं भी तुझ जैसी सोच रखता था.” वह तिलमिला गया. एहसास हुआ भाषा ग़लत है. मैंने नम्रतापूर्वक उसे समझाना चाहा, “देख, यदि वेतन कम है, गुज़ारा न हो, तो कोई दूसरा काम कर ले. लेकिन ईश्वर के लिए एक शिक्षक के कर्तव्य व उसकी गरिमा को न भूल. नहीं तो काग़ज़ पर शत-प्रतिशत साक्षरता होगी, किन्तु वास्तविकता कुछ और होगी.” सुन वह हौले से मुस्कुराया था. शायद यह उसकी मौन स्वीकृति रही होगी.
- शैलेन्द्र सिंह परिहार
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