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कहानी- चिमटियां (Short Story- Chimtiyan)

“अरे हां अम्मा, संभालकर लगाई थीं. दोनों सिरों को अटकाया था चिमटी से, पर चिमटी ही बकवास थी. अब उनमें शर्ट संभालने की नीयत ही न हो, तो कोई क्या करे.”
आरती के मुंह से यह सुनकर नरेंद्र की हंसी छूट गई. समझदार अम्मा ने उस पर भी लापरवाही से कपड़े फैलाने की तोहमत लगाई होगी, तभी उसने चिमटियों का मानवीकरण कर दिया.
भला हुआ जो आज इतवार के दिन पत्नी की मदद कराने की गरज से उन्होंने कपड़े नहीं फैलाए, वरना सारा दोषारोपण उन पर ही होता.

‘‘अरे सुनो, सुबह तुम्हारी नीलीवाली शर्ट धोकर फैलाई थी, तुमने उतारी है क्या?” आरती के कहने पर नरेंद्र ने अख़बार से सिर उठाया और धीमे से ‘ना’ में सिर हिलाकर वापस अख़बार में डूब गए. पतिदेव की ना से व्यथित वह चिहुंककर बोली, “हाय राम! लगता है हवा में तुम्हारी शर्ट उड़ गई.”
“क्या बात करती हो?” अख़बार वहीं फेंककर नरेंद्र अपनी प्रिय नीली शर्ट को देखने बालकनी में आए. आरती बालकनी से झांकती हुई बोली, “बड़ी बेकार चिमटियां लाए हो. पता है कितने कपड़े उड़ चुके हैं इन मरदूद चिमटियों की वजह से.”
‘जाऊं क्या नीचे, मिलेगी क्या शर्ट? वैसे मुश्किल ही है मिलना?’ सरीखे ख़ुद से किए सवाल-जवाब के साथ चिमटियों को कोसती वह तीसरी मंज़िल से नीचे उतरी.
नरेंद्र चिंता से नीचे झांककर इधर-उधर नज़र दौड़ाकर अपनी पसंदीदा कमीज़ को देखने लगे. क़रीब दस मिनट बाद आरती आई, तो नरेंद्र ने पूछा, “क्या हुआ,
मिली क्या?”
“नहीं मिली, हवा चल रही है सो जाने कहां उड़ गई होगी?”
“हवा इतनी भी तेज़ नहीं थी कि कमीज़ चिमटियों की पकड़ से छूट जाए.”
“अरे, काहे की पकड़, बड़ी बेकार निकली ये चिमटियां.”
“बेकार होनी तो नहीं चाहिए. होम सिटीज़ की चीज़ें तो एक-से-एक नायाब होती हैं.”
“महंगी और सुंदर चीज़ें हमेशा अच्छी निकलें, ये क्या जरूरी है?” आरती हल्का-सा झुंझलाई.
फिर मायूसी से बोली, “कभी-कभी छोटी दुकानों से ली गई चीज़ ज़्यादा टिकाऊ और बढ़िया निकलती है. बड़े मॉल से लेने का प्रलोभन हमें भारी पड़ गया. तीन कपड़े अब तक उड़ चुके हैं.”
आरती का चिमटी पुराण बहुत देर तक चलता, पर भला हो सासू मां के फोन का, जिसने उन्हें बचा लिया.
“हेलो” के साथ “अरे, अब क्या बताऊं?” कहकर एक लंबी सांस के पश्‍चात आरती द्वारा कुछ देर पहले उड़ी शर्ट का सारा दोष पतिदेव पर ही थोपा गया. चिमटियों के अदूरदर्शी ख़रीददार पर संपूर्ण घटना का दारोमदार नरेंद्र पर डालते हुए ख़ुद की वेदना-संवेदना मां के साथ सहजभाव से साझा की जाने लगीं.
“अब क्या बताऊं अम्मा, इनको गली-बाज़ार की दुकानें तो सुहाती नहीं हैं. भला बताओ मॉल से चिमटियां उठा लाए. बस, दिखने में ही ख़ास थीं. सब-की-सब बेकार निकलीं. आज मंजूषा दीदी की दी हुई शर्ट उड़ गई. पिछले हफ़्ते मेरा दुपट्टा और उससे पहले…” लब्बोलुआब यह कि अपनी अम्मा के सामने पतिदेव की ख़रीददारी की समझ की धज्जियां जमकर उड़ाई गईं.
कुछ देर अख़बार के पन्ने उलटने-पलटने के बाद नरेंद्र वहां से उठकर बालकनी में चले आए. जानते थे कि अब घंटेभर की फुर्सत हो गई. मां-बेटी अपने मन की एक-एक बात जब तक कह-सुन न लेंगी, तब तक उनके दिल को सुकून न पहुंचेगा.
बालकनी में गमले में लगे दो-चार पौधों की सूखी पत्तियां निकालकर पानी देकर क़रीब 10 मिनट बाद आए तो भी वही टॉपिक छिड़ा पड़ा था.
“अरे हां अम्मा, संभालकर लगाई थीं. दोनों सिरों को अटकाया था चिमटी से, पर चिमटी ही बकवास थी. अब उनमें शर्ट संभालने की नीयत ही न हो, तो कोई क्या करे.”


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आरती के मुंह से यह सुनकर नरेंद्र की हंसी छूट गई. समझदार अम्मा ने उस पर भी लापरवाही से कपड़े फैलाने की तोहमत लगाई होगी, तभी उसने चिमटियों का मानवीकरण कर दिया.
भला हुआ जो आज इतवार के दिन पत्नी की मदद कराने की गरज से उन्होंने कपड़े नहीं फैलाए, वरना सारा दोषारोपण उन पर ही होता.
आधा घंटा बीत चुका था. वह अभी भी धीमे-धीमे अम्मा से बतिया रही थी. हल्की खुसफुस में चिमटियों का कोई ज़िक्र नहीं था. एकाध बार मोनिका भाभी का नाम सुनकर लगा कि विषय परिवर्तन हो चुका है. 45-50 मिनट बाद आरती ने फोन रखा और वहीं गुमसुम सी बैठ गई.
“क्या हुआ, सब ठीक तो है न?”
नरेंद्र के पूछने पर वह बुझे मन से बोली, “अम्मा की क़िस्मत भी कैसी है, इस उम्र में भी पूरे घर की ज़िम्मेदारी ओढ़े हैं.”
“क्या हुआ? बेटे-बहू व पोती के होते अब क्यों उलझाती हैं ख़ुद को गृहस्थी में.”
“70 साल की उम्र में कोई ख़ुद को गृहस्थी में ख़ुशी से झोंकता है क्या?”
“तो अपने बेटे-बहू से कहें.”
“बहू से कहकर घर की कलह मोल लें क्या? और रही बात बेटे की, तो उसी का मुंह देखकर वह काम में जुटी रहती हैं. गिरीश भइया भी सब समझते हैं. सुबह जितना होता है, काम करवाकर जाते हैं. शाम को अम्मा के काम में हाथ बंटाते हैं, पर हमेशा ऐसे कैसे चलेगा? मोनिका भाभी ने तो भइया को ग़ुलाम बना लिया है.”
“ये ग़लत बात है आरती. मोनिका भाभी भी तो दफ़्तर जाती हैं.”
“तो क्या भइया नहीं जाते? रेवती को छोड़कर इन्हें पसंद किया. अम्मा की क़िस्मत में बहू का सुख नहीं लिखा.”
आरती की बात का नरेंद्र ने कोई जवाब नहीं दिया. वह भलीभांति समझते थे कि रेवती की ननद न बन पाने की कसक उसके ताऊजी के बेटे की शादी में जाकर बढ़ गई है.
नरेंद्र के ताऊजी के बेटे की शादी में रेवती को देख अम्मा और आरती दोनों चौंक पड़ी थीं. नरेंद्र तब तक नहीं जानते थे कि रेवती भाभी का रिश्ता आरती के भाई के लिए आया था.
“अरे सुन, ये तो वही है न जिसे हम देखने गए थे. पटपड़गंजवाली…” अम्मा ने आरती से पूछा, तो वह भी विस्मय से भर गई.
“हां मां, है तो रेवती ही, पर ये यहां कैसे? इनसे पूछती हूं.” नरेंद्र से पूछने पर पता चला कि रेवती उनके ताऊजी के साले की बहू है.
“हाय नरेंद्र, इसे हम गिरीश भइया के लिए देखने गए थे. मंदिर में दिखाया गया था- बिल्कुल झल्ली-सी दिखती थी. अब देखो, बहुत बदल गई है.”
रेवती ने भी आरती और अम्मा को पहचान लिया था, पर उनकी उपस्थिति में सहज रहते हुए अतीत से दूरी बनाए रखी.
इसके विपरीत आरती और अम्माजी पूरी शादी में उसे देखकर आहें भरती रहीं. लेडीज़ संगीत पर वह खुलकर नृत्य करती हुई किसी फिल्म की चंचल हसीना से कम नहीं लगी. शादी के कामकाज में उसकी फुर्ती और सुघड़ता देखकर आरती और अम्माजी को महसूस हुआ कि उन्होंने नायाब हीरा पत्थर समझकर गंवा दिया.
उस व़क्त तो ‘आरती, अम्मा को समझाओ तुम. रेवती बिलकुल सीधी-सादी सी है. मेरे साथ नहीं चल पाएगी’ गिरीश भइया ने आरती से मनुहार की और वह अपने बड़े भाई के पक्ष में खड़ी हो गई.
“अम्मा, गिरीश भइया कितने हैंडसम हैं.


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मल्टीनेशनल कंपनी में काम करते हैं. इनके साथ के सभी दोस्तों की शादी नौकरीपेशा लड़कियों से हुई है. तुम एकदम घरेलू बहू ले आओगी… कुछ तो आजकल की मॉडर्न लड़कियोंवाली बात हो…”
आरती के कहने पर मां के ‘घर-परिवार जाना-बूझा है’ सरीखे तर्क कमज़ोर पड़ गए.
फिर कुछ और रिश्ते आए सभी में कुछ-न-कुछ ख़ामियां दिखीं, सो बात न बन सकी. उसी दौरान गिरीश भइया ने अपने एक दोस्त की शादी में मोनिका को देखा था.
रंग-रूप अतिसाधारण होते हुए भी भइया मोनिका पर लट्टू हो गए. सभी ने इसे शादी का योग-संजोग मानकर भइया के लिए मोनिका को स्वीकार कर लिया.
दो लोगों की तनख़्वाह आएगी, तो घर चलेगा नहीं दौड़ेगा. यार-दोस्तों ने भी यही पट्टी पढ़ाई और वाकई भइया दौड़ते ही रहे.
मोनिका का बैंक बैलेंस उसके मायकेवाले संभालते रहे, जबकि भइया अकेले लोन तले दबे सबको ज़ाहिर करते रहे कि सुख सुविधाभरे जीवन की वस्तुएं जुटाने में मोनिका का बराबर का योगदान है. घर के कामों में वह अनाड़ी थी और अनाड़ी ही बनी रही. ऑफिस जाने से पहले वह ऐसी हड़बड़ी और हाय-तौबा मचाती कि चाय का कप तक उसके हाथों में पकड़ाने में भलाई दिखती.
शाम को जब घर आती, तो थकी-हारी वह बिस्तर में पस्त पड़ जाती. खाने के लिए डायनिंग टेबल पर बुलाना भी गुनाह लगता. नौकरी न चल रही हो, तो छोड़ दो, इस बात पर वह नारी अस्तित्व के झंडे तले खड़ी हो कहती, “क्या मैं सब्ज़ियां काटने, रोटियां पकाने में जीवन खपाऊं? क्या इसी दिन के लिए मुझे मां-बाप ने पढ़ाया है.” उसके बिखरते अस्तित्व को संभालने में ही घर की शांति मुमकिन थी.
रिश्तेदारों को घर पर बुलाना और उनके घर जाना उसे गवारा नहीं था, पर अपने हमउम्र दोस्तों के संग घूमने-फिरने के लिए वह सदैव तत्पर रहती. दोस्तों और मायकेवालों के संग बिताया समय उसके लिए नायाब होता, पर ससुराल के किसी रिश्तेदार के संग बिताया समय सज़ायाफ़्ता लगता. अपने सर्कल में एक्टिव मोनिका ससुराल के किसी रिश्तेदार के आने पर उदासीनता दिखाती.
सेजल के जन्म के बाद भी मोनिका का वही रवैया रहा. उसके लिए बच्ची को जन्म देना ही बड़ी बात थी. “लालन-पालन मैं करूंगी, तुम उसकी ज़रा भी चिंता मत करना.” यह आश्‍वासन अम्मा ने उन्हें पहले ही दे दिया था. सो सेजल अपने पापा-दादी के हाथों ही पली-बढ़ी.
आरती को याद आया कि शादी-ब्याह के व्यस्ततम समय में भी रेवती अक्सर फोन लिए बैठी रहती. सब रेवती को चिढ़ाते कि तुम्हारी बिटिया ग्यारहवीं का इम्तिहान दे रही है या तुम? कितना परेशान होती हो?
रेवती की बिटिया पढ़ाई में बहुत तेज़ है. बहुत ध्यान रखती है रेवती उसका. सब कहते, ख़ुद उसने भी देखा कि कैसे रेवती अपने ससुरालवालोेंं पर अपनी स्नेहमयी पकड़ बनाए थी. सास की दवा, ससुर के कपड़े, बेटी की पढ़ाई, पति के खाने-पीने का ध्यान. वहीं किसी को यह कहते भी सुना, “रेवतीजी, अबकी आप की पेंटिंग की प्रदर्शनी लगे, तो बताना…”
“प्रदर्शनी?” अम्मा के साथ उसका भी मुंह खुला रह गया. जब किसी ने बताया कि रेवती बहुत अच्छी पेंटिंग बनाती है. प्रदर्शनी लगती है उसकी पेंटिंग्स की, विदेशों में भी जाती है.
उनके सामने जब रेवती के व्यक्तित्व का एक नया कलापक्ष आया तब अम्मा ने ख़ुशी, दुख और विस्मय के मिले-जुले भाव से आरती को देखा.
उन्हें याद आया कि जब ‘हमारी बेटी पेंटिंग बहुत अच्छी बनाती है.’ कहकर रेवती के पिता ने अपनी बेटी का यह गुण उजागर किया, तब सबने उसे बड़े हल्के में लिया था.
साधारण साज-सज्जा में सिर झुकाए रेवती किसी को रिझा न पाई. अपनी
जात-बिरादरी और जान-पहचान की रिश्तेदारी द्वारा लाया रिश्ता अम्मा के अलावा किसी के मन न भाया था. रेवती के आचार-व्यवहार के अच्छे होने की सूचना कई सूत्रों से मिली थी, पर अम्मा भइया को राज़ी न कर पाईं.
“अम्मा सिलाई, बुनाई, पेंटिंगवाला ज़माना अब नहीं है. लड़की की शैक्षणिक योग्यता क्या है? करियर के प्रति उसका विज़न क्या है? आजकल ये मायने रखता है.” भइया झुंझलाकर बोले थे.
नरेंद्र के ताऊजी के बेटे की शादी में अम्मा ठंडी सांस लेते हुए बोली थीं, “रेवती बढ़िया लड़की थी, हम लोगों ने मूर्खता की जो छोड़ दी.”
“धीरे बोलो अम्मा, अब इस बात का क्या फ़ायदा? जो है उसी में ख़ुश रहो.” आरती ने अम्मा को तसल्ली दी, पर सच कहें, तो उसके मन में भी रेवती जैसी भाभी न होने की कसक बढ़ गई. नरेंद्र के ताऊजी के बेटे की शादी में रेवती को क्या देखा, मोनिका मन से और उतर गई. हालांकि सच ये भी था कि मोनिका के कदम मन पर कभी पड़े ही न थे.
अपने काम-से-काम रखनेवाली मोनिका ने कभी प्रयास ही नहीं किया कि वह अपने ससुरालवालों के मन पर पकड़ बनाए. उन्हें संतुष्ट रखने का कभी तो कोई प्रयास करे. वह तो बस निज हितों तक सीमित अपने में ही मगन थी.
यदि साफ़ व कठोर शब्दों में कहें, तो वह अव्वल नंबर की स्वार्थी थी. उसके विचित्र स्वभाव को अब सबने अपनी नियति मानकर स्वीकारा लिया था. अम्मा और उसकी बात तो छोड़ ही दिया जाए. अपने पति को रसोई में अम्मा के साथ जुटा देखकर भी उसे कोई ग्लानि नहीं होती थी. पत्नी के प्रति अम्मा का ग़ुस्सा न फूटे, घर में कोई क्लेश न हो, बस इसी जुगत में जहां गिरीश भइया चकरघिन्नी के माफ़िक घूमकर अम्मा के साथ रसोई का काम निपटवाते, वहीं अम्मा भी बेटे को कष्ट न हो, इस प्रयास में उम्र से परे जाकर ख़ुद को घर-गृहस्थी में लपेट लेतीं.
आरती के ज़ोर देने पर अम्मा कामवाली बाई से एक समय का खाना बनवाने लगी थीं.


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कोई मेहमान आता, तो गिरीश भइया अपनी पत्नी के ऊपर ऑफ़िस के लोड की कहानियां रचते. मेहमान को बाहर ले जाकर खाना खिलाते, क्योंकि घर में बहू का रसोई में कोई योगदान न होना, उसकी उदासीनता, ससुराल के लोगों से कोई जुड़ाव न होना समेत कई उठनेवाले प्रश्‍न उनकी पसंद पर प्रश्‍नचिह्न लगा सकते थे.
अम्मा की चिंता निरंतर बनी रहती कि अभी तो वह जैसे-तैसे सब काम संभाल रही हैं, पर भविष्य में ये घर कैसे चलेगा? मोनिका के पल-पल बनते-बिगड़ते मूड पर गिरीश भइया के सब्र का बांध कब तक बंधा रहेगा. अम्मा की हारी-बीमारी में भइया ही रसोई संभालना सीखने लगे थे. बेटी सेजल अपनी मम्मी के नक़्शेकदम पर चल रही है. वह बख़ूबी समझती है कि उसके मम्मी-पापा दो अलग-अलग दिशाएं हैं, इसका पूरा फ़ायदा उठाने से वह कभी नहीं चूकती. उसकी जो मांगें पापा और दादी नहीं पूरा करते, वह अपनी मम्मी से पूरा करवा लेती है.
सेजल, अम्मा-भइया के हाथों पली बढ़ी. उसके लालन-पालन में भाभी का कोई योगदान नहीं रहा, पर बड़ी होती बेटी के सामने ख़ुुद को श्रेष्ठ साबित करने का अवसर मोनिका भाभी नहीं चूकना चाहती थीं. जिस ज़िद को अम्मा-भइया नकारते, उसे भाभी स्वीकारतीं. वह सेजल की हर नाजायज़ मांग पूरी करके उसे अपने पाले में रखतीं. अपनी आत्मसंतुष्टि के लिए बेटी के प्रति अपनाया दोस्ताना व्यवहार सेजल को स्वार्थी बना गया है. उसकी बढ़ती मांगें और उद्दंडता दिन-प्रतिदिन बढ़ती जा रही है, अब वह भइया-अम्मा के क़ाबू में नहीं है और भाभी आंख मूंदकर बैठी हैं. गोया कि उनकी पकड़ अपनी बेटी पर भी न के बराबर है.
घर के दरवाज़े की बजती घंटी से आरती ने सोच-विचार के दायरे से बाहर आते हुए दरवाज़ा खोला, तो देखा सोसायटी का गार्ड हाथों में नीली कमीज़ लिए पूछ रहा था, “साहब की शर्ट है क्या? पीछे पोर्च में एक गाड़ी के नीचे पड़ी मिली.”
“अरे हां, इनकी है.” वह ख़ुशी से चिल्लाई.
नरेंद्र अपनी नीली शर्ट को देख ख़ुुश थे.
आरती ने सारी चिमटियां खोलकर रखते हुए कहा, “आज से ये चिमटियां कभी नहीं लगाऊंगी.”
“क्या करोगी इनका?”
“करना क्या है पड़ी रहेंगी. बस, तार में नहीं लगेंगी.”
नरेंद्र अजीब नज़रों से उसे देखते हुए बोले, “तुम भी अजीब हो. बेकार हैं, तो फेंको इन्हें.”
“हां, बेकार तो हैं, पर कितनी महंगी लाए थे.”
“तो क्या हुआ? अपना गुण छोड़ चुकी हैं, इसलिए इनकी जगह डस्टबिन में है. आज शाम को बाज़ार से दूसरी ले आएंगे.”
नरेंद्र द्वारा चिमटियों को फेंकने का फरमान सुनाने के बावजूद आरती ने उन्हें उठाकर एक खाली डिब्बे में डाल दिया और सोच में डूब गई. जगमगाती आलीशान बड़ी-बड़ी दुकानों से मन को लुभाती वस्तुओं की ख़रीदी मन को सुख-संतोष से भरे, यह ज़रूरी नहीं. चिमटियां भी सिखा गईं कि ‘हमें देख-समझकर परखकर ही ख़रीदें, वरना हम नुक़सान ही पहुंचाएंगी.’
फिर रिश्ते बनाने में इतनी अदूरदर्शिता और जल्दबाज़ी कैसे दिखा गए. ये तो चिमटियां थीं, सो फेंक देने का आदेश मिला, पर रिश्ते फेंके और छोड़े नहीं जा सकते हैं. रिश्ते बोझ न बनें, इसके लिए सोच-समझकर ही जोड़े जाने चाहिए. कुछ देर के लिए ख़ुशी देनेवाला बाहरी रंगरूप, चकाचौंध को सुंदरता का मानक समझना बेमानी है. अंदरूनी शुद्धता, त्याग और समर्पण ही जीवन को स्थिरता देते हैं, इसीलिए चिमटी हो या रिश्ते, इनके स्वाभाविक गुणों की परख और समझ आवश्यक है.

Meenu Tripathi
मीनू त्रिपाठी

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