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कहानी- कंफर्ट ज़ोन (Short Story- Comfort Zone)

 

"... ज़िंदगी में पैसा सब कुछ न होते हुए भी बहुत कुछ होता है दोस्त, और वो भी गाढ़ी मेहनत की कमाई. बस, फिर प्रताप ने पीछे मुड़कर नहीं देखा. उन्नति की एक के बाद एक सीढ़ियां चढ़ता ही चला गया. और यह संभव हुआ हिम्मत करके अपने कंफर्ट ज़ोन से बाहर निकलने से..."

      सब्ज़ी-फल ख़रीदते ललितप्रसादजी को अपने शहर के सुखदेवजी नज़र आ गए. आनंद के अतिरेक में दोनों दोस्त गले मिल गए. सुखदेवजी को इस शहर में आए कुछ ही अर्सा हुआ था, जबकि ललितप्रसादजी स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति लेकर काफ़ी पूर्व ही यहां बेटे के पास आकर बस गए थे. बेटा प्रताप एक प्राइवेट कॉलेज में लेक्चरर था. ललितप्रसादजी को हार्ट प्रॅाब्लम हुई थी, तो पहले तो वे बेटे के पास इलाज के लिए आए थे. फिर बेटे-बहू की सलाह पर स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति लेकर यहीं आ बसे थे. घर का एक कमरा मय बाथरूम उनके लिए व्यवस्थित कर दिया गया था. उनके कमरे में ही एक छोटा टीवी भी लगा दिया गया था. ललितप्रसादजी की दुनिया उस कमरे तक ही सीमित होकर रह गई थी. बहू एक प्राइवेट स्कूल में टीचर थी. वह भी सवेरे ही निकल जाती थी. बाई आती तब उन्हें दूध नाश्ता दे देती. फिर सारा काम निबटाकर खाना बनाकर रख जाती. बहू आती तब खाना गरम कर उन्हें कमरे में ही पकड़ा देती. दड़बेनुमा फ्लैट में कई बार ललितजी को ताज़ी धूप-हवा खाए हफ़्तों निकल जाते थे. आज जब सुखदेवजी ने अपना यही दर्द बयां करना आरंभ किया, तो ललितजी को भी अपने वे आरंभिक दिन याद आ गए. "मेरा तो यहां अभी तक मन लगा नहीं है. कहने को सभी सुख-सुविधाएं हैं, पर वक़्त पर खाना-कपड़ा मुहैया होना ही तो सुखी जीवन नहीं होता. यह सब तो अपनी पेंशन से मैं ख़ुद ही अर्जित कर सकता हूं." "तो तुम्हें और क्या चाहिए? क्या घरवाले तुम्हारी परवाह नहीं करते?" ललितजी दोस्त की समस्या समझकर भी जान-बूझकर नासमझ बने रहे. "परवाह तो बहुत करते हैं. दूध, फल, दवा... घर में किसी चीज़ की कमी नहीं है. सुमंत रोज ऑफिस जाते वक़्त पूछ जाता है, 'कुछ चाहिए तो बता दीजिएगा बाबूजी, लौटते में लेता आऊंगा...' पता नहीं मेरा ही मन क्यों नहीं लग रहा है?.. अच्छा, मेैं चलता हूं, सुमंत आ रहा है. वह सब्ज़ी लेने आ रहा था, मुझे भी चश्मा बनवाना था, तो साथ हो लिया." तब तक सुमंत पास आ चुका था. "नमस्ते अंकल! कैसे हैं आप? चलो पापा कोे कोई तो साथी मिला बात करने को. आप फ़ुर्सत में घर आइए, पापा का भी मन लग जाएगा. हम लोग इधर साकेत विला में ही रहते हैं." "अरे, वह तो बहुत पास है. कभी भी घूमते हुए आ जाऊंगा. आज तो मैं इसे मेरे साथ घर ले जाता हूं. हम तीन दोस्त हर बुधवार यहां हाट से ताज़ा फल-सब्जी लेने आते हैं, तेरे पापा की भी उनसे दोस्ती करा देता हूं." "ज़रूर... ज़रूर! पापा, मैं आगे कुछ बचे हुए काम करके आता हूं. लौटते में आप को ले लूंगा." सुमंत ने ललितजी से उनके घर का पूरा पता और फोन नंबर ले लिया. ललितजी के सभी पड़ौसी दोस्त भी सुखदेवजी से ख़ूब गर्मजोशी से मिले. बातों बातों में ही घर आ गया. परिसर में घुसते ही चीकू दौड़ा चला आया और दादा... दादा... करता ललितजी के लाए थैले टटोलने लगा. ललितजी ने अपने कुर्ते की जेब से चॉकलेट निकालकर उसे पकड़ा दी. तब तक बेटा प्रताप भी नीचे आ गया था. उसने थैले थाम लिए. "आज तो बड़ी देर कर दी बाबूजी. मैं तो आपको फोन लगाने वाला था." "अरे, यह सुखदेव मिल गया था. पहचाना? मेरे ही स्कूल में था. मैं वीआरएस लेकर आ गया था और यह अब रिटायर होकर आया है. यहीं आगे साकेत विला में रहता हेै." दोनों दोस्तों ने फ्रेश होकर चाय पी. "तेरा तो यहां अच्छा फ्रेंड सर्किल बन गया है. काफ़ी ख़ुश, तंदुरूस्त ओैर आत्मविश्वास से लबरेज़ नज़र आ रहा है." सुखदेवजी ने कहा. "हां, पर आरंभ में मेरी हालत भी तेरे जैसी ही थी. बहुत बोरियत और घुटन महसूस होती थी. अख़बार पढ़ते ओैर टीवी के चैनल बदलते थक जाता था. एक दिन मैं यहीं लॉबी में बैठा अख़बार के पन्ने पलट रहा था. प्रताप उस सोफे पर बैठा चाय पी रहा था. तभी उसका एक दोस्त उसके लिए एक प्रस्ताव लेकर आया. किसी कोचिंग इंस्टीट्यूट में पढ़ाने का प्रस्ताव था. प्रताप तब एक प्राइवेट कॉलेज में पढ़ा रहा था. बंधी बंधाई नौकरी थी और बंधी बंधाई सैलरी. पता है दोस्त, लंबे समय तक एक जैसी दिनचर्या जीते जीते इंसान उसका इतना अभ्यस्त हो जाता है कि नीरस और उबाऊ लगने पर भी वह अपने उस कंफर्ट ज़ोन से बाहर नहीं आना चाहता. उसे भय सताता है कहीं यह न हो जाए, कहीं वह न हो जाए. प्रताप की भी यही स्थिति थी. इसलिए वह बराबर ना नुकूर किए जा रहा था." "मेरी नौकरी ठीक चल रही है यार! अब तो किताबें नोट्स भी नहीं टटोलने पड़ते. नींद से उठकर भी लेक्चर दे सकता हूं. लड़कों को भी सिर्फ़ डिग्री हासिल करने से मतलब है इसलिए ज़्यादा सवाल-जवाब नहीं करते. किसके दिमाग़ में कितना घुसा मेरी कोई ज़िम्मेदारी नहीं बनती. बस गिनती की क्लासेस लीं, टिफिन खाया और छुट्टी. घर आकर चैन की नींद."   यह भी पढ़े: लघु उद्योग- इको फ्रेंडली बैग मेकिंग: फ़ायदे का बिज़नेस (Small Scale Industries- Profitable Business: Eco-Friendly Bags)   "प्रताप मेरे दोस्त! तुम इस सबके लिए नहीं बने हो. मैं तुम्हारी प्रतिभा से वाकिफ़ हूूं. यही करते रहोगे, तो तुम्हारी प्रतिभा को जंग लग जाएगा. अपने कंफर्ट ज़ोन से बाहर निकलो. नए जरनल्स पढ़ो, अपनी नॉलेज को अपडैट करो. यहां प्रतियोगी परीक्षाओं के लिए विद्यार्थी तैयार करने के लिए दुगुनी सैलरी मिलेगी. चाहो तो कुछ दिन कुछ शाम की कक्षाएं लेकर देखो. जम जाए तो फिर हां कह देना, वरना जैसी नौकरी तुम कर रहे हो, वैसी तो तुम्हें कभी भी कहीं भी मिल जाएगी." प्रताप का दोस्त तो चला गया, पर मेरे और प्रताप के सोचने के लिए बहुत कुछ छोड़ गया. प्रताप को शायद यह लग रहा था कि मैं उसे मना करूंगा. पर जब मैंने ही उसे आगे बढ़ने के लिए समझाया, तो वह तुरंत मान गया. पहले उसने प्रयोग के तौर पर शाम की कुछ कक्षाएं लीं. उस दौरान वह जी तोड़ मेहनत कर रहा था. सुबह से दोपहर तक कॉलेज की नौकरी निभाता. फिर घर आकर थोड़ा सुस्ताकर शाम का लेक्चर तैयार करता. घर में रखी नई पुरानी सभी किताबों की धूल छंटने लगी थी. घर में जरनल्स, इकोनोमिक टाइम्स, रीडर्स डाइजेस्ट जेैसी पत्र पत्रिकाएं आनी आरंभ हो गई थीं. जिन्हें मैं भी बड़े चाव से पढ़ता था. कभी-कभी प्रताप ज़्यादा थक जाता, तो मैं उसे प्रोत्साहित करने के लिए ख़ुद कोई पत्रिका लेकर पास बैठ जाता और देर तक पढ़ता रहता. जब सप्ताह भर की मेहनत एक मोटी रकम के रूप में सामने आई, तो प्रताप सहित घर भर की आंखें चमक उठी थीं. ज़िंदगी में पैसा सब कुछ न होते हुए भी बहुत कुछ होता है दोस्त, और वो भी गाढ़ी मेहनत की कमाई. बस, फिर प्रताप ने पीछे मुड़कर नहीं देखा. उन्नति की एक के बाद एक सीढ़ियां चढ़ता ही चला गया. और यह संभव हुआ हिम्मत करके अपने कंफर्ट ज़ोन से बाहर निकलने से. वह रोज़ कुछ नया सीखता है. बहू भी उसे हरसंभव मदद करती है." "लेकिन घर में सब इतना व्यस्त रहने लगे, तो तुम तो और ज़्यादा बोर होने लगे होगे ना?" सुखदेवजी ने उत्सुकता ज़ाहिर की. "ऐसा हो सकता था यदि मैं भी अपने ही खोल में दुबका रहता. लेकिन सबको इतनी मेहनत करते देखकर मुझे भी जोश आने लगा था. नई-नई जानकारीपूर्ण पत्र-पत्रिकाएं पढ़कर मुझे आभास हुआ कि दुनिया कितनी आगे निकल गई है और मैं कितना दब्बू रह गया हूं. लिफ्ट में अकेले जाने-आने के डर से नीचे टहलने ही नहीं जाता. बहू चाहती थी मैं माइक्रोवेव में दूध, खाना आदि गर्म करना तो सीख लूं, ताकि घर में कोई न हो तो वक़्त पर खाकर दवा आदि ले सकूं. पर मैं इन सबसे दूर भागता था. लैपटॉप, मोबाइल सब मुझे झमेले लगते थे. मैं कहता मुझे कहां ज़रूरत है यह सब सीखने और रखने की. मैं तो अपने कमरे से ही बाहर नहीं आता. इसी बीच बहू के पीहर में कोई गमी हो गई. जाना ज़रूरी था, पर वे चीकू की पढ़ाई के हर्जाने से जाने में हिचकिचा रहे थे. तुम तो जानते ही हो आजकल बच्चों की पढ़ाई कितनी महत्वपूर्ण हो गई है. मैं उनकी दुविधा भांप गया था. मैंने उन्हें आश्वस्त किया कि वे चीकू को मेरे भरोसे छोड़ जाएं. काफी मुश्किल से वे राजी हुए. ज़्यादा सोचने और रूकने का वक़्त नहीं था. वे लोग तुरंत निकल पड़े थे. वह पहला मौक़ा था जब चीकू और पूरे घर की ज़िम्मेदारी मेरे कंधों पर थी. दिन में चीकू स्कूल से लौटा, तो उसने बताया कि उसे एक मॉडल तैयार करना है, जो अगले दिन ही स्कूल में जमा होना है. बाज़ार से उसका सारा सामान लाना पड़ेगा. मैं चिंता में पड़ गया. मुझे परेशान देख चीकू तुरंत बोल उठा, "आप परेशान मत होइए दादा. मैं अभी बाज़ार जाकर सारा सामान ले आऊंगा. पास में ही तो है. हर शनिवार-रविवार पापा या मम्मी के साथ जाता तो हूं. इस बार अकेला सही. मुझे सब दुकानें पता हैं."         उस 9 साल के बच्चे की हिम्मत और आत्मविश्वास देख मुझमें भी जोश आ गया था. मैं उसके साथ जाने के लिए तैयार होने लगा. तो उसने हैरत से पूछा, "आप भी चलेगें?" उससे ज़्यादा हैरत मुझे उसके सवाल से हुई. सच अपनी अकर्मण्यता से मैंने सब केे मन में अपनी क्या छवि बना ली थी. खैर, नीचे पहुंचते ही हमें कैब मिल गई थी. और बहुत आसानी से हम मिनटों में बाज़ार पहुंच गए थे. चीकू को सारा सामान दिलाने के बाद मुझे ख़्याल आया क्यों न घर के लिए सब्ज़ी-फल भी ले लिए जाएं. प्रताप या बहू छुट्टी वाले दिन सप्ताहभर की सब्ज़ी-फल लाकर रख देते हैं. अब वे आएंगे, तब तक छुट्टी वाला दिन तो निकल चुका होगा. पूरा सप्ताह मुश्किल से निकलेगा. हमने ढेर सारे फल और ताज़ा सब्ज़ियां ख़रीद लीं. बहुत समय बाद इतने आत्मविश्वास से घर से अकेले निकलना, ताज़ा सब्ज़ियां छांटना, मोलभाव करना... सब कुछ बहुत अच्छा लग रहा था. बीच-बीच में चीकू के कमेंट्स मेरा उत्साहवर्धन किए जा रहे थे. "वाह दादा, आपको तो सभी चीज़ों की बहुत अच्छी परख है. हमेशा आप ही क्यों नही शॉपिंग करते?" मुझे लग रहा था मैंने एक बड़ी परीक्षा एक्सीलेंट रिमार्क के साथ उत्तीर्ण कर ली है. लेकिन परीक्षा का एकाध पेपर शायद अभी बाकी रह गया था. घर पहुंचे तो पता लगा बाई नहीं आएगी. अब खाने का क्या होगा? मैं तो दूध तक नहीं उबाल सकता था. बहू की समझाइश मेरे कानों में गूंजने लगी थी. "आप चिंता मत कीजिए दादा, आपको दूध भी मिलेगा और गरम गरम मैगी भी." चीकू बोल पड़ा था. मैं साधारणत: ये मैेगी वेगी खाता नहीं हूं. लेकिन उस दिन चीकू के हाथों से बनी मेैगी में इतना स्वाद आया कि अब चीकू के साथ-साथ यह मेरा भी पसंदीदा नाश्ता बन गया है. मैं पूरे वक़्त उसके पास रसोई में खड़ा रहा. कहीं बच्चा जल-वल न जाए या करंट न आ जाए... पर सब कुछ कितना आसान था. मैं बेकार ही इतने समय तक यह सब सीखने से कतराता रहा. दोस्त, आज मैं तुम्हारे सामने खुले दिल से स्वीकारता हूं कि वाकई सीखने की कोई उम्र नहीं होती. बस, सीखने की इच्छाशक्ति और जुनून होना चाहिए. खा-पीकर उस दिन हम मॉडल बनाने बैठे. चार घंटे तक हम बिना रूके थके काम करते रहे. इतने तन-मन से तो शायद मैंने अपना घर भी नहीं बनाया था. इस शहर में आने के बाद वह शायद मेरी पहली रात थी जब मैं थककर, बेसुध चैन की नींद सोया था, वरना तो करवटें बदलते ही रात गुज़र जाती थी. कुछ सार्थक करने का एहसास इंसान को कितनी सुखकर नींद दे जाता है यह मुझे उस दिन पता चला."   यह भी पढ़ें: आदतें, जो आपको बूढ़ा बना रही हैं (Daily Habits That Are Aging You?)   सुखदेवजी मन ही मन अपनी नींद न आने की स्थिति का आंकलन करने लगे थे, पर ललितजी ने अपनी बात आगे बढ़ाकर उन्हें सोचने का मौक़ा ही नहीं दिया. "चीकू द्वारा बनाया मॉडल स्कूल में सभी की प्रशंसा का केन्द्र बना रहा. उसने इसमें अपने दादा के सहयोग और गाइडेंस की बात बताई, तो उसकी प्रिंसिपल ने ग्रैंड पैरेंट्स डे पर मुझे सम्मानित करने की घोषणा कर दी. चीकू ने बड़े ही उत्साह से फोन पर यह सूचना अपने पापा-मम्मी को दी. और उन्होंने भी उतने ही उत्साह से मुझे बधाई दी. दोस्त, मैंने तो यह पाया है कि अधिकांश संतानें अपने माता-पिता को उनकी उम्र के हर पड़ाव पर स्वस्थ और प्रसन्न ही देखना चाहती हैं. अब यदि हम अपनी प्रसन्नता अपने खोल में सिमटे रहने को ही मान लें तो कोई क्या कर सकता है? शाम को चीकू नीचे पार्क में खेलने गया, तो मैं भी उसके साथ गया. उससे लिफ्ट चलाना सीखा. पार्क में अपनी उम्र के लोगों से मिलकर बहुत अच्छा लगा. ये मेरे वे ही दोस्त थे जिनसे मैंने तुम्हें मिलवाया है. उन्होंने बताया वे लोग तो रोज़ मिलते हैं. और हर सप्ताह एक बार सब साथ बाज़ार भी जाते हैं. घूमते-फिरते हैं, स्ट्रीट फूड का आनंद लेते हैं, अपने कुछ जरूरी काम निबटाते हैं और फिर लौटते में पूरे सप्ताह की सब्ज़ी-फल आदि ले आते हैं. तब से मैं भी इस ग्रुप में शामिल हो गया हूं. तुम चाहो तो तुम भी हो सकते हो. यह मेरा मोबाइल नंबर है. जब भी मिलने या साथ चलने का मन हो बता देना. आरंभ में थोड़ी हिचकिचाहट होगी, पर फिर सब कुछ सहज होता चला जाएगा." "तुझे इतना ख़ुश देखकर तो लग रहा है तुझे और तेरे ग्रुप को जॉइन करना ही पड़ेगा. अच्छा, तेरे पास वो गोविन्द देवजी वाली आरती मिलेगी, मेरा तो वो पन्ना जाने कहां रह गया." "एक मिनट..." ललितजी उठकर लैपटॉप ले आए. कुछ देर वे उस पर कुछ तलाशते रहे. सुखदेवजी हैरत से अपने दोस्त को निहार रहे थे. "यह रही, मिल गई." उन्होंने दोस्त की ओर नज़रें उठाई, तो उसे हैेरानी से अपनी ओर ताकते देख ठठाकर हंस पड़े. "अरे चीकू से सीख रहा हूं. सच बड़े काम की चीज़ है. तुझे भी सिखा दूंगा." "क्योंकि सीखने की कोई उम्र नहीं होती." सुखदेवजी ने दोस्त की कुछ समय पूर्व कही उक्ति को उसीे अंदाज़ में दोहरा दिया और फिर दोनों दोस्त ठहाका मारकर हंस पड़े.   [caption id="attachment_182852" align="alignright" width="147"] संगीता माथुर[/caption]        
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