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कहानी—दायरे (Short Story- Daayre)

 
“समय की एक छोटी-सी भूल ने, वक़्त के आईने ने मुझे साफ़-साफ़ दिखा दिया कि मैं क्या हूं? मेरी मर्यादा, मेरी सीमाएं… सब कुछ याद दिला दिया. उस दिन रेल्वे स्टेशन पर अकेली असहाय खड़ी हो मैंने जाना रिश्तों की अहमियत को, समाज के प्रति अपनी ज़िम्मेदारी को, घर आकर समीर की अच्छाइयों को… कितनी आसानी से माफ़ कर दिया मुझे उसने? जबकि मैं अपने पिता को माफ़ नहीं कर पायी एक लम्बे अरसे तक…’’

 
अपोलो के कॉरीडोर में खड़ी तपिश कमरा नं. 34 तक पहुंच कर ठिठक गयी- “वह यहां क्यों आयी है! कैसे सामना करेगी उनका, बीस साल में अनगिनत लम्हे जिन्हें कोस कर गुज़ारे हों! नफ़रत… अपमान… जाने क्यूं उनका अक्स मन में उभरते ही जलने लगती है वो. फिर इतनी घृणा के बावजूद आज वह क्यूं है यहां!”
शायद उसकी उसी ग़लती पर समीर के द्वारा दी गयी सहज माफ़ी! इंसान जो दूसरों से पाता है, वही बांटता है. प्यार के बदले प्यार, क्षमा के बदले मिली क्षमा, शायद यही वजह थी.
“अरे दीद आप कब आयीं?” रोहन ने उसे देख लिया, तभी तो चला आया. हूबहू पिताजी की कॉपी है रोहन!
“कैसे पहचाना मुझे?”- तपिश अभी तक सहज नहीं थी. “आपकी फ़ोटो देखी है ना. देखो ना डैड, दीद आ गयी है.”
अनेकों मशीनों में जकड़ी वह जीर्ण-क्षीण-सी काया, पिता का यह रूप सब कुछ भूल जाने के लिए काफ़ी था; फिर ख़ून के रिश्ते… न जाने कहां से ढेर-सी ममता उमड़ पड़ी तपिश के भीतर? बड़े यत्नों के साथ उन्होंने आंखें खोलीं, होंठ फड़फड़ाए, “मेरे पास आकर बैठो बेटा.” उन्होंने उसका हाथ पकड़ लिया. शब्द गुम थे, पर आंखों में सारी शक्ति सिमट आयी थी.
“क्या तुमने मुझे माफ़ कर दिया बेटा?” तपिश ने हाथ सहला कर आश्‍वस्त किया. कुछ देर बैठ कर वह बाहर चली आयी; यत्नों से रोके गये आंसू निकल पड़े.
“रोहन, ख़्याल रखना.”
“आप भी आती रहना, अच्छा लगेगा उन्हें.” सहमति में सिर हिला वापस चली आयी थी.
तपिश ने फ्लैट का ताला खोला. बिना कपड़े बदले बदन को बेमन से बिस्तर के हवाले कर दिया.
समीर तीन दिन के लिए बाहर गए थे. हर तरफ़ चुप-सी लगी थी. रात का गहन अंधकार उसे अतीत की उस सुरंग में खींच ले आया, जहां से वह जितना भागना चाहे, नहीं बच सकती थी.
पिताजी का स्मरण होते ही सामने आता था एक अ़क़्स….लाल सेब-सा रोबिला चेहरा, दर्प से चमकती आंखें, तने कन्धे. हमेशा रौब में गुस्साते, शायद मां की उपस्थिति थी इसकी वजह. मां और पिताजी रूप-रंग से ही नहीं, व्यवहार से भी नदी के किनारे थे.
दुबली-पतली, चेहरे पर हल्के चेचक के निशान, आंखों में हर व़क़्त भय…तपिश ने अपनी मां को कभी हंसते-खिलखिलाते नहीं देखा था औरों की तरह. याद आता है मां पिताजी के सामने भी सिर ढंक कर रहती थी. पिताजी की एक आवाज़ पर बांदी की तरह खड़ी हो जाती, फिर भी उनकी छोटी-सी ग़लती पर दहाड़ उठते थे पिताजी.
“क्या बदसूरत ढोल बांध दिया है मेरे गले में ज़िन्दगी भर के लिए.” दादी ही मां को अपने पीछे छुपा कर शांत करती थीं पिताजी को.

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एक बेमेल अनचाहा विवाह था यह- दादाजी की ज़िद का परिणाम. अपने बच्चों को अनावश्यक दबा कर रखने की दादाजी-नानाजी की ज़िद का नतीज़ा मां ने जीवनभर भुगता था. पिताजी ने उन्हें कभी न सम्मान दिया न प्यार, बस जब तक ज़िन्दा रहीं, मूक गाय-सी बंधी रहीं खूंटी से. किस्मत भी उनके साथ नहीं थी. कुलदीपक को जन्म देतीं तो शायद दिन फिरते, पर तपिश कन्या के आने से अंधकार और गहरा गया था.
दादाजी के देहान्त के साथ ही पिताजी ने मां को छोड़ दिया, तुरन्त दूसरी शादी कर ली थी अपनी मनपसंद लड़की से. एक बार भी नहीं सोचा, क्या भविष्य होगा इस नन्हीं बच्ची का?
मामाजी ने हम दोनों को पनाह दी थी. पिताजी को कोर्ट में भी घसीटते, पर लगातार दुख झेलते-झेलते मां टूट चुकी थीं. एक बार बुखार आया तो ठीक नहीं हुईं, चली गयीं मुझे मामी के हवाले कर. पिताजी की नज़रों में वो बदसूरत औरत मेरे लिए दुनिया की सबसे अच्छी मां थी, हर व़क़्त सिर पर हाथ फेर कर कहती, “अच्छा हुआ रूप-रंग में मुझ पर नहीं गयी, उनका पाया है, वरना मेरे जैसी बदनसीब…”
अन्तिम दिनों तक सिन्दूर से मांग भरनेवाली मां के अंतिम संस्कार में भी वो नहीं आये, बल्कि कहलवा भेजा था, “तपिश की ज़िम्मेदारी न ले पाऊंगा, चाहे जो करो उसका. हां, बैंक में जमा करता रहूंगा कुछ पैसा उसके नाम से.” ‘पिता’ शब्द से तपिश का नाता ही टूट गया था और जुड़ गयी थी अपने जन्मदाता के लिए घृणा.
मामा ने अपनी बहन को दिया वचन निभाया था, उसकी परवरिश बिल्कुल अपने बच्चों-सी की. बी.ए. की परीक्षा पास करते ही मामाजी ने समीर से विवाह की बात चलायी तो वह इंकार न कर सकी. एहसान तले दबी ज़िन्दगी में उसकी अपनी सोच की गुंजाइश ही कहां थी? फिर ज़िद किससे करती? अरमान-इच्छाएं तो उसकी होती हैं, जिसका कोई अपना हो और वह तो बिन मां-बाप की ‘बेचारी’ लड़की.
दुबला-पतला साधारण क़द-काठी वाला, सांवला-सा और अपने आप में खोया-सा रहनेवाला शख़्स… जब समीर से पहली बार मिलवाया गया तो तपिश को लगा जैसे उसके घर का इतिहास शायद अपने आपको दोहरा रहा है. फिर एक बेमेल विवाह. उसे समीर एक आंख भी न भाये, पर परिस्थितिवश चुप रही.
विवाह के व़क़्त भी पिताजी कन्यादान करने नहीं आये थे. तपिश स्वयं भी नहीं चाहती थी कि जीवनभर उसके प्रति अपनी ज़िम्मेदारियों से भागनेवाला उसका स़िर्फ नाम का पिता उसका ‘दान’ स्वयं करे.
समीर से शादी कर वह दिल्ली आ गयी थी. वो और समीर, छोटा-सा दो बेडरूम वाला फ्लैट. समीर बैंक में कार्यरत थे. शादी के बाद घर की मालकिन बन कुछ अपने ढंग से जीने की आज़ादी तो उसे मिल गयी, पर मन था पहले-सा वीरान, अकेला किसी बहुत अपने के प्यार और मनुहार के लिए तड़फता हुआ. समीर बहुत सीधे-सादे थे, कहते थे उससे प्यार करते हैं, पर ना उनमें कोई उमंग थी, न जीने के लिए कोई प्लान. बस हर व़क़्त अपने आपमें व्यस्त रहना यही उनकी दुनिया थी, जहां तपिश का आना-जाना स़िर्फ भौतिक ज़रूरतों तक ही सीमित था.
मां के जाने के बाद किसी ने उसे अपने आगोश में लेकर नहीं पुचकारा. हमेशा अकेली ही रही. तृप्ति का एहसास नहीं हुआ. बस अधूरी-अधूरी-सी. समीर को जीवन की सच्चाई मान लेने के बाद उसने अपने आपको इसी रूप में ढाल लेने की कोशिश शुरू कर दी थी.
पर उन्हीं दिनों एक अनहोनी घटना घटी? पिताजी का फ़ोन आया था. अपने लिए पहली बार ‘बेटी’ का सम्बोधन उनके मुंह से सुन वह हैरान रह गयी. परेशान और कुछ अस्वस्थ से लग रहे थे वो, मिलना चाहते थे उससे. तपिश ने साफ़ इन्कार कर दिया. मां और उसके जीवन के सारे दुखों की जड़ तो वही थे. पिताजी के फ़ोन आने का सिलसिला रुका नहीं था, हर दूसरे दिन फ़ोन पर उनका गिड़गिड़ाना, माफ़ी मांगना जारी था. तपिश ने चुप्पी साध ली थी.

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“तपिश, आजकल आपका ध्यान कहां रहता है, ना खाने में स्वाद, ना घर में कोई हलचल.” समीर ने एक दिन उसे टोका था.
“कल पिताजी और उनके बेटे का फ़ोन आया था, मिलना चाह रहे थे वो.”
“हम लोगों को मिलना चाहिए उनसे तपिश, वो कई बार मुझसे भी बातक्षकर चुके हैं.”
समीर उसे समझाने लगे तो वह चिढ़-सी गई.
“सलीब पर टंगे ईसा-सी वेदना सही है मैंने और मां ने उनकी अय्याशियों की वजह से.”
“भूल जाओ पुरानी बातें तपिश, कई दिनों से बीमार चल रहे हैं वो, ़ज़्यादा जीने की शक्ति नहीं दिखती. फिर उनकी पत्नी भी नहीं रही, बस एक बेटा है. शायद तुम्हारी मां भी माफ़ कर चुकी होतीं. यदि वो ज़िन्दा होतीं.” समीर ने उसे मनाने की भरसक कोशिश की.
“दूसरों को सलाह देना आसान है समीर. उनका यह नरक तो उनके अपने किए की सज़ा है. उन्होंने हमें हमेशा दु:ख ही बांटा है, तो अब सुख कहां से पाएंगे.”
तपिश के मिज़ाज़ में ज़रा-सी भी नरमी न देख समीर चुप हो गए. ज़िन्दगी घसीट रही थी व़क़्त के साथ कि अचानक फागुन की उन मदमस्त हवाओं ने या यूं कहें कि गुलमोहर के उन लाल धधकते फूलों ने अपनी सारी ऊर्जा तपिश के बुझे बेरंग जीवन में भर दी. क्षितिज का उसकी ज़िन्दगी में आना, जैसे अभी तक की दबी सारी आकांक्षा और कुंठा को पर निकल आये हों, दबी इच्छा दुबारा सांस ले उठी थी.
तपिश के जीवन में अचानक ही हुआ था सब कुछ. उस दिन घर के लिए सामान लेने वो कनाट प्लेस गयी थी अकेली. स्टोर में अभी शॉपिंग कर ही रही थी कि अचानक भगदड़ मच गयी. पुलिस चेतावनी देने लगी-“इस स्टोर में कुछ आतंकवादी घुस आये हैं, राजधानी में गड़बड़ी मचाने हेतु. पुलिस ने इस स्टोर को चारों ओर से घेर रखा है. जो जहां है, वहीं छिप जाये, लेट जाये. तपिश गेट के तक़रीबन पास ही थी. सोचा बाहर भागकर अपने आपको सुरक्षित कर ले. वह भागी भी दरवाज़े की तरफ़, पर तभी दो बलिष्ठ हाथों ने उसे अपनी ओर खींच लिया, हड़बड़ाहट में वो उसी पर गिर पड़ी.
कोई 10 मिनट, बस 10-12 मिनट वह ऐसे ही पड़ी रही नि:श्‍चेष्ट. थोड़ा मन पर क़ाबू पाया तो अपने रक्षक को देखा- सुनहरी आभा लिये चेहरे पर मेल खाते नयन-नक्श, चौड़ी बलिष्ठ छाती, जिस पर तपिश का सर था, तेज़-तेज़ चलती सांसों का स्पंदन, उसकी भुजाओं का घेरा तपिश के चारों ओर सुरक्षा कवच-सा कसा था. समीर के सीने पर अनगिनत बार सिर रखा उसने, पर इतनी आश्‍वस्त वह पहले कभी नहीं हुई.
एक अनजान अनोखे पुरुष का इतना घनिष्ठ सामीप्य, गोलियों की आवाज़ ने भय के साथ-साथ एक अद्भुत रोमांच-सा भर दिया था बदन में. लग रहा था जैसे ज़िन्दगी ख़त्म भी हो जाए इसी क्षण तो गिला नहीं. वो शायद तपिश के स्पर्श के बावजूद पूरी तरह चौकन्ना था, तभी अचानक उससे छिटक कर खड़ा हो गया. उसने अपना हाथ बढ़ाते हुए परिचय दिया- “क्षितिज मल्होत्रा.” गुज़रे पलों की याद आते ही तपिश की आंखें झुक गयी थीं.
“मैं मिसेज़ तपिश शर्मा… आपने जो किया, उसके लिए ‘शुक्रिया’ शब्द बहुत छोटा है, पर क्या आप किसी ऑटो तक छोड़ देंगे मुझे?” न चाहते हुए भी तपिश बोल उठी थी.
“आप बहुत घबराई हुई हैं, घर तक छोड़ देता हूं, मेरी गाड़ी पास ही खड़ी है.”
तपिश चुप थी. इंकार करने की गुंजाइश कहां थी, एक तो उस स्वप्न पुरुष का सम्मोहन, उस पर भय से कांपता उसका मन… पीछे-पीछे हो ली थी उसके.
“एक बार मिलना चाहूं मैं आपसे तो…” क्षितिज की दृष्टि तपिश को निहार रही थी.
तपिश मना नहीं कर पायी. पर फिर क्षितिज से मुलाक़ातों का सिलसिला थमा नहीं था. समीर के ठण्डे व्यवहार से आहत, अपनी ज़िन्दगी की बोरियत से उकतायी तपिश के सब्र का बांध टूट गया था ‘क्षितिज’ से मिलकर. एक तरफ़ समीर से छोटी-छोटी बातों पर झूठ बोलना और बच निकलना तो दूसरी ओर क्षितिज से मिलकर घंटों तक सपनों की दुनिया में खो जाना. कभी-कभी अतीत से उपजी ग्लानि दस्तक देती मानस पर तो क्षितिज से पूछ बैठती थी.
“क्या हम कुछ ग़लत कर रहे हैं? एक शादीशुदा स्त्री का एक पर-पुरुष से इस तरह बेकरार हो मिलना…”
“दोहरा जीवन जीते हैं हम लोग…एक दिखावे के लिए, दूसरा स्वयं के लिए…पर दूसरे जीवन की अवधि बहुत छोटी होती है. क्या ग़लत है कि मेरा मन तुम्हारा सामीप्य पाकर सुकून पाता है? क्या ग़लत है कि हम दोनों एक-दूसरे के  साथ ख़ुशी पाते हैं?”
क्षितिज का व्यक्तित्व ही नहीं, सोचने का ढंग भी बिल्कुल स्पष्ट है, कोई असमंजस नहीं, सब कुछ बिल्कुल साफ़. रात को समीर की बगल में पड़े अचानक ख़यालों से वह क्षितिज की बांहों में सिमट आती. काश, ज़िन्दगी यूं ही चलती रहे. पिताजी को आजकल जस्टिफाय करने (उचित ठहराने) लगी है तपिश.
क्या बुरा किया उन्होंने जो समझौता न कर अपना मनपसन्द जीवनसाथी ढूंढ़ लिया? छल तो नहीं किया मां के साथ साफ़-स्पष्ट राह चुनकर. सारी तकली़फें-दुख शायद भूल गयी वो, सोच भी नहीं सकती थी कि मां के प्रति अन्याय के एक-एक क्षण की गवाह स्वयं ऐसे रास्ते पर चल देगी कभी. फिर समीर को अपने से तौलती तो लगता जैसे अन्याय ही हुआ उसके साथ भी पापा की तरह, बड़ों की ज़िद की वजह से. ये भी सच नहीं कि वो समीर को पूरी तरह छोड़ सकती है कभी. समीर उसके सामाजिक मर्यादित जीवन का आईना है और क्षितिज
उसकी इच्छाओं और सुखों की स्वप्न दुनिया. बहुत दिनों तक सामंजस्य न बिठा सकी दोनों में वह.
उस दिन क्षितिज ने उससे मिलते ही अल्टीमेटम दे दिया, “तुम मेरे लिए बहुत लकी हो तपिश, अभी मेरा एम.बी.ए. पूरा नहीं हुआ और देखो मुझे अप्वाइंटमेंट लेटर मिल गया है…सपनों का गुलाबी शहर जयपुर होगा हमारा पहला पड़ाव.”
“आगे क्या सोचा है तुमने?” तपिश एक-टक निहार रही थी उसे.
“सोचना क्या? सब कुछ छोड़ कर मेरे साथ चलो, सुकून भरी दुनिया बनाएंगे हम दोनों मिलकर.” वह बेतकल्लुफ़ हो उठा. कितनी आसानी से कह गया था क्षितिज,
पर तपिश के लिए तो ये जीवन-मरण का प्रश्‍न बन गया था. “तुम एक बार जयपुर होकर तो आओ, कुछ सोचने का व़क़्त मिल जाएगा.”
तपिश ने बहुत भारी मन से विदा दी थी. कुछ दिन दूर रहने से सिर्फ ‘आकर्षण’ है ये रिश्ता या प्यार, इसकी परीक्षा भी हो जाएगी. उन सारे दिनों में वह तौलती रही अपने आपको.
क्या मिला उसे आज तक जीवन में? एक बुझा-बुझा आतंकित-सा बचपन या त्याग, आदर्शों को ढोती जवानी…? ऐसे ही किसी एक दिन समीर का घर संभालते-संभालते रोती-झींकती चली जाएगी इस दुनिया से.
क्या उसे अपने बारे में सोचने का हक़ नहीं? उसे क्षितिज के रूप में दुबारा जीने का मौक़ा मिला है, फिर समीर के साथ बेरुखी-बेस्वाद ज़िन्दगी क्यों ढोये? किसी ने ठीक ही कहा है ‘कमज़ोर और असफल इंसान ही हमेशा अपनी असफलताओं के लिए किस्मत व हालात को दोष देते हैं, वरना ज़िन्दगी एक बार मौक़ा सभी को अवश्य देती है.’ विचारों में उठे तूफ़ान ने समीर की ओर जानेवाली उसकी राह में जैसे कांटे बिछा दिए. दोहरी ज़िन्दगी नहीं जीनी है उसे, अपनी ख़ुशी के लिए वह स्वयं को मु़क़्त कर लेगी इस दुनियादारी से.
आज उसने तय कर लिया कि वह नहीं सोचेगी मामा-मामी या समीर के लिए, नहीं सोचेगी कि समाज कहेगा- जैसा बाप वैसी बेटी निकली.

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रूप नहीं इच्छाएं और साहस भी उसे पिताजी से ही मिला था, निर्णय ले लिया था तपिश ने. क्षितिज को फ़ोन पर अवगत करवा शांत हो गयी वह. क्षितिज हर तरह से उसके साथ था. सब कुछ तय था. समीर के ऑफ़िस निकलते ही वह भी सूटकेस लेकर निकल पड़ी थी एक नये क्षितिज की तलाश में, अपने क्षितिज के साथ.
समीर के नाम एक ख़त में घर छोड़ने की सारी वजह और क्षितिज का ज़िक्र साफ़-साफ़ लिखकर चाबियों के गुच्छों के साथ उसने रख छोड़ा था, ताकि ढूंढ़ने या चिन्ता में परेशान न हो समीर.
इधर रेलवे स्टेशन पर आकर बताए प्लेटफार्म से लेकर सारा स्टेशन ही छान डाला, पर क्षितिज का कोई पता नहीं चला. पैरों तले ज़मीन खिसक गयी थी. मर्यादा की सारी सीमाओं को तोड़कर वह छोड़ आयी थी अपना घर, ये उसने क्या कर डाला? शायद इस जन्म में चैन नहीं मिलेगा, अच्छा हो जीवनलीला यहीं ख़त्म कर दे किसी पटरी पर लेटकर, लेकिन दिन के उजाले में साहस न कर पायी.
तपिश एक पल भी नहीं रुकी, ऑटो कर सीधे घर पहुंची. फ्लैट की दूसरी चाबी उसके साथ हमेशा रहती है, दरवाज़ा खोला तो देखा समीर बैठे थे सो़फे पर, निढाल… आंसुओं से भीगा था उनका चेहरा, “क्या लेने आई हो तपिश? वो नहीं मिला या कोई चीज़ भूल गयी थी अपनी?” समीर के स्वर लड़खड़ा रहे थे. “क्या कुसूर था मेरा तपिश? कहां कमी छोड़ी थी मैंने?”
तपिश निरुत्तर थी. क्या कहती, चुपचाप अपराधी-सी खड़ी रही, क्या बहाना बनाती? वो उड़ता काग़ज़ का टुकड़ा सब सच-सच कह रहा था.
“ग़लती की है मैंने समीर, फिर उसी को दोहराया है, जिस ग़लती ने मेरी आत्मा को सबसे ज़्यादा कुचला था, जाने क्यूं? मैंने इस घर पर, तुम पर अपना हक़ खो दिया है.”  कहते हुए उसकी आंखें छलछला गईं.
“कोई अनजाने में अपराध करे तो उसका सच्चे मन से किया पश्‍चाताप, उसे इस अपराध से मुक्त कर सकता है, पर मैंने तो जानबूझकर, ठोकर खाकर भी…सुबह होने पर स्वयं चली जाऊंगी.”
समीर की ओर से कोई जवाब नहीं आया.
अपना सूटकेस नीचे रख वह भी पास पड़ी कुर्सी पर बैठ गयी. रातभर लाइट जलती रही. दोनों वहीं पड़े रहे, एक-दूसरे से मुंह फेरे, मानो तौल रहे हों अपने आपको, कभी-कभी आंसुओं की धारा निकल पड़ती थी. एक निस्तब्ध ख़ामोशी पसर गयी थी.
सुबह होते ही तपिश ने सूजी आंखों को पानी का छपका मार बिखरे बालों को समेटा, बाहर क़दम बढ़ाए थे कि समीर ने पुकारा, “अनजान नहीं था मैं कि मेरे सिवा कोई और भी तुम्हारी ज़िन्दगी में है, पर इतना बड़ा क़दम उठा लोगी… मैं ऑफिस टूर से बाहर जा रहा हूं, तीन दिन के लिए, जाना चाहो तो चली जाना, मेरे आने से पहले…पर रुकना चाहो तो सोचना. क्या दुबारा क्षितिज के पुकारने पर तुम्हारे क़दम नहीं बहकेंगे? क्या पूरी सच्चाई से अपना सकोगी मुझे और इस घर को?
मेरी तरफ से निश्‍चिंत रहना- शब्दों के जाल नहीं बुनना आता मुझे, पर तुमसे इतना प्यार तो अवश्य करता हूं कि तुम्हारी ऐसी कई ग़लतियों को माफ़ कर सकता हूं मैं.”
समीर के जाने के बाद बस तीन घंटे ही लगे थे उसे अपने आपको सम्हालने में. क्यों बाहर भटक रही है वो, जब समीर जैसा सुलझा इंसान और एक सुन्दर घर है उसका अपना? क्षितिज और समीर में रूप-रंग में कोई समानता नहीं, पर अब सहृदय समीर ही उसका सब कुछ है. समीर की उदारता ने उसके मन की सारी गांठों को खोल दिया था.
क्षितिज एक सुन्दर विचार, प्रेरक क़िताब की तरह आया था उसके जीवन में कुछ समय के लिए, जिसकी ख़ुशबू और जीवन मंत्र को वो सदा छुपा के रखेगी. अपने आप को पूरी तरह तैयार कर, नहा-धोकर सीधे अस्पताल पहुंची थी तपिश पिताजी से मिलने. कई दिनों से जीवन-मरण के बीच झूल रहे उसकी प्रतीक्षा कर रहे थे वो.
उसे कोई हक़ नहीं है, उन्हें सज़ा देने की…
पिताजी भी संभल जाते ठोकर खाकर उसकी तरह यदि मां ने उन्हें खुले मन से माफ़ कर दिया होता समीर की तरह. काश…! लेकिन सबको सब कुछ तो नहीं मिल पाता है हमेशा. अतीत की ग़लियों में घूमते-घूमते पता नहीं तपिश की कब आंख लग गयी.
सुबह डोर बेल की कर्कश आवाज़ ने उसे जगाया, सामने क्षितिज खड़े थे, सीधे अन्दर आ गए.
“धोखेबाज़, बेवफ़ा समझ न जाने कितनी बार कोसा होगा तुमने इन तीन दिनों में. क्या करता, जयपुर से लौटा तो ख़बर मिली कि मां नहीं रही. एक दोस्त को तुम्हारे नाम ख़त देकर चला गया, वापस आया तो पता चला वो ख़त तुम तक पहुंचा ही नहीं, भूल गया देना. तुम्हारी क्या हालत हुई होगी, समझ सकता हूं मैं. आज लेने आया हूं तुम्हें. कोई समाज, किसी की परवाह नहीं, अब तुम्हीं मेरा परिवार और परिचय हो बस.” क्षितिज भावुकता में उठकर तपिश के बिल्कुल नज़दीक था.
गरम सांसों की आवाजाही उसकी भावना की सच्चाई को बयां कर रही थी. लेकिन आज तपिश न पिघली, न लड़खड़ायी. अपने आपको दूर कर सधे शब्दों में बोली, “समय की एक छोटी-सी भूल ने, व़क़्त के आईने ने मुझे साफ़-साफ़ दिखा दिया कि मैं क्या हूं? मेरी मर्यादा, मेरी सीमाएं… सब कुछ याद दिला दिया. उस दिन रेल्वे स्टेशन पर अकेली असहाय खड़ी हो मैंने जाना रिश्तों की अहमियत को, समाज के प्रति अपनी ज़िम्मेदारी को, घर आकर समीर की अच्छाइयों को… कितनी आसानी से माफ़ कर दिया मुझे उसने? जबकि मैं अपने पिता को माफ़ नहीं कर पायी एक लम्बे अरसे तक.
जीवन में आज जो अपना है वह अपना ही बना रहे, इसी में जीत है, यही है सफल ज़िन्दगी. हो सके तो मुझे भुला कर सही जीवनसाथी की तलाश करना.” क्षितिज को वहीं छोड़कर तपिश अन्दर कमरे में आ गयी और दरवाज़ा बन्द कर लिया. तपिश का आत्मविश्‍वास, उसका व्यवहार, क्षितिज के लिए साफ़ संकेत था वापस लौट जाने का!!
उसका अपना घर, समीर ये ही उसके दायरे हैं!

- साधना जैन

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