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कहानी- दख़ल (Short Story- Dakhal)

"… अच्छा बताओ, यदि तुम्हारे जिस्म का कोई हिस्सा ख़राब हो जाएगा, तो क्या तुम उसे निकाल कर फेंक दोगी? नहीं ना! फिर क्या मैं तुम्हारा हिस्सा नहीं हूं? मुझे अपनी ज़िंदगी से क्या ऐसे ही निकाल कर बाहर फेंक दोगी? मैं लाइलाज तो नहीं, पर मेरा इलाज तो तुम ही हो, तुम ही करोगी भी. तुम्हारे बिना मेरी हालत और बदतर हो गई है…"

आज वृंदा को चैन की सांस आई है. आज उसे एक लम्बे अरसे के बाद सुकून मिला है. कितनी जद्दोज़ेहद करनी पड़ी है उसे अपनी बेटी को यहा लाने में.
उफ़! दो बरस की लम्बी लड़ाई के बाद अन्ततः वह सफल हो ही गई, वरना श्रेष्ठा को मना लेना क्या आसान था. आज दो बरस बाद वो चैन से सोएगी, चैन से खाएगी. एकाएक उसे भूख लगने लगी. उसे लगा जैसे एक लम्बे समय के बाद आज सचमुच उसे भूख लगी है. आज वह अपनी पसंद का खाना बनवाएगी, आराम से खाएगी और फिर चैन की नींद तान कर सो जाएगी. पर श्रेष्ठा की तो भूख जैसे मर ही गई थी, सब कुछ इतना अजीब, अपरिचित और अटपटा-सा लग रहा था, मानो किसी पराये के घर आ गई हो वह..!
कोई भी तो चीज परिचित नहीं लग रही थी, लगती भी कैसे? आंखें बार-बार भीग जाती थीं. मां को इसका आभास न हो, इसलिए आंसुओं को उसने टपकने नहीं दिया, कोरों पर ही पोंछ डाला और अपने कमरे में चली आई. अंजुरी की आवाज़ भी उसे अच्छी नहीं लग रही थी. इसीलिए सविता को उसे थमा एकान्त में अपने पलंग पर लेट गई. वह सोच रही थी, कितनी बेबस और निरीह हो गई थी वो मां की दलीलों के सामने, कुछ भी तो नहीं कह पाई. बस मथती रही अपने आपको, पर हासिल क्या हुआ? यह जुदाई, यह पराया सा लगने वाला घर, यह घुटन, यह सिसकी, जिसे वह निरन्तर दबाने का प्रयास कर रही है. पर कहां दबा पाई.
फूट ही पड़ी. आंखों से घारा बन आंसू बह चले अविरल, अविराम, तभी मां का स्वर सुनाई दिया, "श्रेष्ठा, खाना खा लो."
नहीं! उसका मन नहीं कर रहा है खाने को, वो रोना चाहती है, अपनी बेबसी पर. तभी मां के हाथ का स्पर्श महसूस किया उसने अपने सिर पर, उन्हीं के स्वर थे, "भूल जा उसे. ऐसे पति के साथ रहने से तो अकेले रहना ज़्यादा अच्छा. उसके लिए आंसू बहाने का कोई अर्थ नहीं, चल उठ, कुछ खा ले." भारी मन से वह मां के पीछे चल दी. जैसे-तैसे मां के सामने कुछ निवाले मुंह में डाले और गले के नीचे उतार सोने के बहाने फिर अपने कमरे में आ गई. पर नींद कहां आनेवाली थी उसे, वो तो जैसे कोसों दूर चली गई थी. आंखें तो विहान को ढूंढ़ रही थीं अंधेरे में, उसकी मज़बूत बांहों का संबल चाह रही थी वो, उसके सीने पर सिर रख कर अपने को हल्का करना चाह रही थी. पर चाहा हुआ कुछ भी तो नहीं बीत रहा था उसके साथ, हर काम उसकी इच्छा के विरुद्ध विपरीत दिशा में होता सा प्रतीत हुआ.
"तुमने ऐसा क्यों किया मां?" वो बुदबुदाई. मां तो बच्चों का भला ही चाहेगी, बुरा कैसे चाह सकती है? फिर क्या मुझसे ही विहान को समझने में ग़लती हुई है? मां जो देख रही है, वो मैं क्यों नहीं देख पा रही! मां जो समझा रही है, मेरे गले क्यों नहीं उतरता. मैं क्यों उन ग़लतियों को नहीं देख पा रही, जो मां विहान में देख रही है?
विहान से मैंने प्यार किया है मां। अगर उन भूलों को मैं नज़रअंदाज़ कर दूं तो क्या बुरा है? अगर उन भूलों को अनदेखा कर मेरा परिवार, मेरी गृहस्थी अच्छी तरह चल रही है, तो मुझे उन्हें भूल जाना चाहिए और फिर क्या मैं पूर्ण हूं? मुझमें क्या कोई कमी नहीं? मेरी हर बात विहान को पसंद हो, यह ज़रूरी तो नहीं. कुछ मेरी बातें उन्हें भी नापसंद होंगी, पर उन्होंने तो कोई शिकायत नहीं की. क्या इतनी सी बातों के लिए तलाक़ ले लिया जाता है?
यह सब बातें वह मां से अलग-अलग समय पर कई बार कह चुकी है. ऐसा नहीं है कि मां को मनाने या समझाने की उसने कोशिश नहीं की, पर मां की दलीलों के आगे वह अनुत्तरित होकर रह गई. वह शुरू से ही मां के नियंत्रण और सानिध्य में रही है. मां के सामने वह बचपन में भी नहीं बोल पाती थी, तब भी नहीं जब वो पिताजी से अलग हुई थीं. हालांकि वह जानती थी कि ग़लती मां की थी.

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मां शुरू से ही काफ़ी डॉमिनेटिंग थी. पिताजी अक्सर चुप ही रहा करते थे. घर में हर काम मां की इच्छा से होता, घर की साज-सजावट, मेहमानों का आना, खाना-पीना, बाग-बगीचा हर चीज़ में मां की पसंद स्पष्ट झलकती थी, घर में किसी और का दख़ल उन्हें गवारा नहीं था. अपने बच्चों का भी नहीं. उनकी पसंद-नापसंद का मां ने कभी सम्मान नहीं किया. जब कभी श्रेष्ठा अथवा सुयश ने कुछ कहना चाहा, तो स्पष्ट तौर पर उन्हें यह जता दिया गया कि यह घर उनकी मां का है, यहां उन्हीं की इच्छा का स्थान है. अपनी इच्छा को वो अपने घर में पूरा कर सकते हैं. पर मां ने उसे अपने घर में भी अपनी इच्छानुसार कहां रहने दिया? उनका दख़ल लगातार उसके घर में सेंध लगाता रहा और अंततः उसकी दीवारें चरमरा कर गिर पड़ीं, वो लगातार टुकड़े होते हुए घर को समेटने की चेष्टा करती रही, पर मां के सामने पता नहीं क्यों, वो बेबस हो जाती. एक टुकड़ा उठाती, तो दूसरा हाथ से फिसल जाता और आज नौबत ये आ गई कि उसके दोनों हाथ खाली हो गए थे. ऐसी ज़िंदगी तो नहीं चाही थी उसने.
वह अपने आप से बोली, "विहान, हमने तो इतने अच्छे-अच्छे सपने देखे थे ज़िंदगी के, जहां न दुख था, न निराशा, बस के धूमते फूल थे, आंगन में बहार थी. तुम्हारी बांहों का सम्बल था, मेरी कोमलता थी, वाणी का माधुर्य था और था तुम्हारा साहस. कहां… कहां बिखर गए वो सारे सपने? क्यों छितरा गए सब, काग़ज़ के टुकड़ों की भांति? मेरी वो आकांक्षाएं इतनी हल्की तो नहीं थीं और न ही आधारहीन, फिर ये क्या हो गया? कैसे खुल गया मुझमें बंध कर रहनेवाला तुम्हारा अनुबन्ध? सब बह गया तुम्हारी शराब के साथ, सब कुछ बिसर गया तुम्हारे नशे के साथ, तुम्हें क्या हो गया विहान? मैं अकेली नहीं रह पाऊंगी. तुम्हारे बिना में जीने की कल्पना भी नहीं कर सकती." वो बुदबुदा रही थी.
"तुम्हें अकेले जीने की आदत डालनी ही होगी. क्या दिया है उसने तुम्हें? निचोड़ कर रख दिया मेरी फूल सी बेटी को. मैं उसे कभी माफ़ नहीं करूंगी और तुम्हें भी उस नरक में कभी नहीं लौटने दूंगी, क्या कमी है तुम में? पढ़ी-लिखी हो, अपनी और अपनी बेटी की परवरिश कर सकती हो. यहां रह कर उसे अच्छे संस्कार दो, सिर उठा कर जीने के योग्य बनाओ. उस माहौल में ये क्या सीख पाएगी? अपने लिए ना सही, अपनी बेटी के लिए तो सोचो."
धम्म से बैठ गई वह. विचार करने के लिए बाध्य हो गई एकबारगी, अपनी भावनाओं के बहाव को विवश हो रोकना पड़ा उसे. हक़ीक़त इतनी सरल, सहज या फिर सपनों सी कोमल और ख़ूबसूरत नहीं होती, यह समझ आ रहा था उसे.
आहिस्ता-आहिस्ता वह अपने आपको सम्भालने लगी. उसकी ज़िंदगी की गाड़ी पटरी पर आने लगी. अंजुरी को भी उसने मना ही लिया था कि पापा अब उनके साथ नहीं रहेंगे. और फिर इतने दिनों में विहान ने ही कौन-सी सुध ली थी उसकी?
मां फिर अपने क्लब और सोसायटी के कामों में व्यस्त हो गई. ज़िंदगी फिर एक ढरे पर चल निकली. सोते-सोते श्रेष्ठा चौंककर बैठ गई. वह पसीना-पसीना हो रही थी. घबराहट से उसका मुंह सूख रहा था. पास में स्टूल पर रखे ग्लास में से उसने पानी पिया. थोड़ा स्वस्थ होने पर उसे विहान का वह पत्र याद आने लगा, जिसमें उसने अपने पहले पत्रों का उल्लेख किया था, जो उसे मिले थे. फिर क्या मां ने उसे वह पत्र जान-बूझकर नहीं दिए, क्यों? यह 'क्यों' उसके दिमाग़ में कौंधने लगा.

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कल उसकी तबियत ठीक नहीं होने से डाक के समय वह घर पर ही थी. इसीलिए डाकिया पत्र उसे ही दे गया था. कितना विनीत हो कर लिखा था वह पत्र विहान ने, "तुम्हारे बिना में कैसे जिऊं ये तो बता दो. मेरे किसी पत्र का जवाब लिखने के लिए तुम्हारे पास वक़्त नहीं है, क्या मैं इतना बुरा हूं? माना मुझमें;बहुत-सी कमियां हैं. मैं शराब पीता हूं, पीने के बाद तुम्हें बुरा-भला भी कहता हूं, जो शायद मैं अपने आपको ही कह रहा होता हूं. मैं घर का ध्यान नहीं रखता. तुम्हारे किसी काम में हाथ नहीं बंटाता. मैं टिककर नौकरी नहीं कर पाता. तुम्हारी नौकरी पर बड़े-बड़े शौक पालता हूं. मेरे दोस्त तुम्हें पसंद नहीं हैं. फिर भी मैं हूं तो तुम्हारा ही ना और क्या तुम मेरी नहीं हो? अच्छा बताओ, यदि तुम्हारे जिस्म का कोई हिस्सा ख़राब हो जाएगा, तो क्या तुम उसे निकाल कर फेंक दोगी? नहीं ना! फिर क्या मैं तुम्हारा हिस्सा नहीं हूं? मुझे अपनी ज़िंदगी से क्या ऐसे ही निकाल कर बाहर फेंक दोगी? मैं लाइलाज तो नहीं, पर मेरा इलाज तो तुम ही हो, तुम ही करोगी भी. तुम्हारे बिना मेरी हालत और बदतर हो गई है. मैं कमरे से बाहर नहीं निकल पाता. खाना नहीं खा पाता. शेव करने का भी मन नहीं करता, क्या-क्या बताऊं? क्या एक बार भी सम्भालने नहीं आओगी! मुझे डांट नहीं
लगाओगी कि मैंने अपना क्या हाल बना रखा है? कि मेरी ये झाड़-झंकाड हुई दाढ़ी तुम्हें ज़रा भी अच्छी नहीं लगती और अगर मैंने स्वयं नहीं बनाई, तो तुम सोते समय मेरी सारी दाढ़ी काट डालोगी.
श्रेष्ठा, तुम्हें नहीं मालूम तुम्हारे बिना मैं कितना अकेला हो गया हूं. क्या तुम्हें मेरी कमी नहीं खल रही? तुम वहां मेरे बिना कैसे जी रही हो? क्या तुम्हारा भी वही हाल नहीं हो रहा जो मेरा यहां हो रहा है? मुझे तो बांध रखा है तुम्हारी मां ने, जो मुझे अपने घर नहीं आने देतीं, पर तुम्हें तो यहां आने से कोई नहीं रोक रहा. मैं तो हर आहट पर तुम्हारे कदम खोज रहा हूं, आ जाओ श्रेष्ठा, प्लीज़ आ जाओ.
तुम्हारा, सिर्फ़ तुम्हारा विहान
श्रेष्ठा को फिर नींद नहीं आई. उसने घड़ी देखी, सुबह के तीन बज रहे थे.
मां, मैं विहान के बिना नहीं रह सकती. मैं सोच रही हूं कि मैंने निर्णय लेने में या तो ज़्यादा ही उतावली कर दी या फिर अपने नहीं, तुम्हारे दिमाग़ से काम लिया. मैं जब से
यहां आई हूं, तुम्हारे चेहरे पर विचलित कर देनेवाला एक सुकून देख रही हूं. तुम कभी पापा से भी नहीं निबाह पाई और उसका दंड भी हमने भोगा. तुम्हारी ज़िद के आगे हमारा पापा से सम्पर्क तक टूट गया, जिसकी कमी मैं आज तक अपने जीवन में महसूस कर रही हूं. मैं अंजुरी को वही दंड नहीं भोगने देना चाहती. वो जैसे भी हैं, उसके पिता हैं. अंजुरी से बढ़कर उनके लिए कोई और तो नहीं हो सकता. तुम्हारी भैया-भाभी से भी नहीं बनी. तुम्हारे खोखले अहम् के कारण वो भी तुम्हें छोड़कर देहरादून में बस गए. कम-से-कम दोनों ख़ुश तो हैं. ये मेरी बदनसीबी है कि मैं तुम्हारे ही शहर में बस‌ गई और तुम्हारे इस्तेमाल की चीज़ बन कर रह गई. तुम्हें मेरी ज़रूरत है. तुम्हारा बुढ़ापा मुझे चाह रहा है. मेरी सेवा और नौकरी दोनों की आवश्यकता है तुम्हें. तुम अपने आपसे इतनी बंधी हुई हो मां कि अपनी स्वार्थ सिद्धी के लिए तुमने अपनी ही बेटी का घर उजाड़ दिया, पर मैं अपनी इस ग़लती को सुधारूंगी. सुबह का भूला अगर शाम को घर आ जाए, तो वह भूला नहीं कहलाता. तलाक़ के बाद हम दोनों के साथ रहने को तुम जो चाहे नाम दो. हम पति-पत्नी थे, हम पति-पत्नी ही रहेंगे.

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एक बात और मैं तुम्हारी आवश्यकता से मुकर नहीं रही, पर मुझे तुम्हारा स्वार्थी होना खला. मैं उन्हें छोड़कर, अपना घर तोड़ कर तुम्हारी आवश्यकता पूरी करू, यह मेरे सामर्थ्य में नहीं है, पर अगर तुम मेरे पास आकर रहोगी, तो यकीन मानो, अपने कर्तव्य से पीछे नहीं हटूंगी. श्रेष्ठा
श्रेष्ठा ने पत्र मेज पर रखा. घड़ी में चार बज रहे थे. उसने अंजुरी को गोदी में लिया और घर से बाहर निकल गई.

- अंशु 'रवि'

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