आज तक जो अर्जित किया वो ज्ञान था. आज बोध प्राप्त हुआ था उसे. उसकी पलकें भीग गईं. किसी को वश में करने की चाह तो प्यार नहीं है. अपने ज्ञान के अभिमान में क्या करने चला था वो? किसी को वश में करने? प्यार किसी को पाने का नहीं ख़ुद को खो देने का नाम है. प्यार किसी को जीतने का नहीं ख़ुद को हार जाने का नाम है. प्यार ख़ुद को समझाने का नहीं, किसी को समझ लेने का नाम है.
शीना को एकटक निहारता सहर्ष उसके बहुत क़रीब आ गया. शीना का चेहरा पूरा झुका हुआ था. पलकें बंद थीं. सहर्ष ने उसका चेहरा दोनों हाथों से पकड़ लिया. शीना कुछ नहीं बोली. ‘लगता है इसे सब कुछ समझ आ गया है’ इसे शीना की मौन स्वीकृति समझ उसने शीना के माथे पर चुंबन अंकित कर दिया.
“छी…” शीना ने उसे धक्का देकर ख़ुद से दूर किया, तमतमाई नज़रों में आंसू आ गए और भय से चिल्लाने लगी. मां बगल के कमरे में ही थीं. वो उसकी आवाज़ सुनकर तुरंत आईं और सांत्वनाभरा हाथ शीना के कंधे पर रखा. शीना बिन बोले बिदुर बनाकर बच्चे की तरह उनसे शिकायत करने लगी और मां उसे सहलाते हुए अपने साथ ले गईं. वो सहर्ष के आत्मसम्मान और आत्मविश्वास को लहूलुहान करते हुए चिल्ला रही थी, “छोटू के पास जाना है.”
सहर्ष हारा-सा अपने बेड पर बैठ गया. क्या कमी है उसके ज्ञान में! भारत की टॉप यूनिवर्सिटी से मेडिकल करने के बाद न्यूयॉर्क की टॉप यूनिवर्सिटी से मन की शाखा में विशेषज्ञता हासिल करके आया है. जब से शीना से प्यार हुआ है, ऑटिज़्म पर सैकड़ों पुस्तकें खंगाल चुका है, दुनियाभर के विशेषज्ञों से विचार-विमर्श कर चुका है. ऐसे ही थोड़े न शीना से शादी करने का निर्णय लिया था उसने. कुछ भी हो, अब शीना पर विजय पाना, उससे शादी करना उसकी प्रतिष्ठा का प्रश्न बन चुका था.
क्या कहेगा उनसे जिनसे शीना के बारे में विमर्श किया है! उनकी छोड़ो शीना के माता-पिता के सामने कैसे स्वीकारेगा कि वो हार चुका है… उसके प्रस्ताव पर शीना के माता-पिता पहले चिंतित हुए थे, पर धुन के पक्के सहर्ष की बातों ने उनके मन में भी सपने जगा दिए थे कि शीना ख़ुशी से सब कुछ समझकर विवाह के लिए हां कर सकती है. फिर सबके सहयोग से सहर्ष ने अपनी मनोचिकित्सक मां के साथ इस ‘केस’ पर नए सिरे से काम शुरू किया था. शादीशुदा जीवन जीने का मतलब समझाने के टार्गेट के साथ.
शीना अब रोज़ क्लीनिक पर लाई जाने लगी थी. सहर्ष ने बड़ी सावधानी के साथ उसके दिमाग़ में बहुत-सी बातें डालने की कोशिश की. तीन माह हो गए थे. एक माह से उसकी मम्मी और छोटू उसे छोड़कर भी जाने लगे थे, पर वो रोती नहीं थी. इस उपलब्धि से ख़ुश सहर्ष उसके चेहरे पर लिखी बाध्यता और घर जाने के समय का इंतज़ार स्पष्ट पढ़कर भी उपेक्षित करता रहा.
जब उसने सहर्ष के साथ बैठकर एक रोमांटिक मूवी पूरी देख ली थी, तो दूसरे दिन मां से सलाह करके ‘परीक्षण’ निश्चित कर फिर टेलीविजन पर कुछ रोमांटिक दृश्य देखने के बाद ये प्रयोग किया था…
दूसरे कमरे से आनेवाली शीना की सिसकियों की आवाज़ तेज होती जा रही थी. सहर्ष के ज़ेहन में छोटू की हिदायतें गूंज रही थीं, जिन्हें अपने अहं में उसने कभी ठीक से सुना नहीं था. एक बार ज़्यादा बोलने पर उसने ग़ुस्से में छोटू को देखा था, तो वो सहमकर बोल पड़ा था, “माफ़ कीजिएगा साबजी, अगर मेमसाब एक बार किसी से चिढ़ या डर जाएं, तो उससे कभी नहीं बोलतीं. मैं नहीं चाहता वो आपसे… मैं बस उनकी आंखों में आंसू नहीं देख सकता साबजी. उनकी मुस्कान ही मेरी ज़िंदगी है.” नहीं, नहीं… उसे शीना के चिढ़ जाने का जोख़िम नहीं उठाना चाहिए था…
कार शीना के घर की ओर दौड़ रही थी. सहर्ष देख रहा था कि शीना चुप तो हो गई थी, लेकिन रुआंसा मुंह बनाए थी. मॉम को पकड़े थी और उसकी ओर डरी निगाह से देख रही थी. सहर्ष को ग्लानि हो रही थी. क्या कारण बताएगा उसके अचानक रोने लगने का? उस पर लाख कोशिशों के बावजूद उसने चप्पल भी नहीं पहनी थी. हारकर सहर्ष ने चप्पल उसके पैर के पास रखकर कहा था कि कार से उतरने से पहले पहन ले. सहर्ष को ये अपनी अब तक की सबसे बड़ी हार लग रही थी कि शादीशुदा जीवन के बारे में समझा पाना तो दूर तीन महीने रोज़ तीन घंटे के सेशन लेकर भी वो उसे नई चप्पल तक पहनने को राज़ी नहीं कर पाया था. उसके मन में पिछले कुछ महीने चलचित्र से चल रहे थे…
सहर्ष अपनी बहन की शादी के पांच दिन पहले ही अपनी शिक्षा पूरी करके विदेश से वापस आया था. उसी दिन से रस्में शुरू होनी थी. हल्दी के भव्य समारोह के बीच मम्मी का हाथ पकड़े सकुचाई, शरमाई-सी पलकें झुकाए शीना दिखी. देखते ही ऐसा लगा सुंदरता के लिए दी जानेवाली सारी उपमाएं एक लड़की में सिमट आई हों. सादे कपड़ों में लिपटा वो श्रृंगार और आभूषण विहीन रूप पहली ही नज़र में सहर्ष का दिल जीत ले गया. वो सभी समारोहों में ऐसे ही नज़र आती रही. सहर्ष ने समारोहों के बीच उससे कई बार बात करने की कोशिश की, पर उसने बात नहीं की. बस उसकी बातें सुनकर मुस्कुरा देती और सहर्ष शादी की सारी व्यस्तताओं के बीच उसे एकटक निहारा करता.
शादी वाले दिन वो घबराई-सकुचाई-सी खड़ी उचक-उचककर स्टेज की ओर देख रही थी. उसके मम्मी-पापा स्टेज पर गए थे. तभी वहां भीड़ हो गई और शायद उसे उसके मम्मी-पापा दिखना बंद हो गए. शीना की घबराहट बढ़ गई. तभी सहर्ष एक सभ्य संबोधन के साथ उपस्थित हो गया, “कोई परेशानी?” शीना कुछ बोल न सकी, पर उसकी ओर हाथ बढ़ा दिया. सहर्ष ने बड़ी कोमलता से हाथ थाम लिया. वो शीना की ओर देखकर मुस्कुराया, तो शीना भी मुस्कुरा दी. तभी उसके मम्मी-पापा दिख गए, तो शीना हाथ छुड़ाकर उनकी ओर भाग गई.
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लोगो से पता चला कि प्रसिद्ध कलाकार थी वो. उसकी पेंटिग्स की चर्चा दूर तक थी, पर अपनी किसी प्रदर्शिनी में वो ख़ुद नहीं जाती थी. उसे भीड़-भाड़ बिल्कुल पसंद नहीं थी. बहुत कम पारिवारिक व सामाजिक उत्सवों में गई थी वो. उन्हीं में से एक उत्सव था उसकी दीदी की शादी. सहर्ष कुछ-कुछ समझ गया. उसकी मां अपने मरीज़ों के प्रति वात्सल्य के कारण उनकी चिकित्सा से इतर भी मदद करती रहती थीं. शीना को कुछ हद तक भीड़ का आदी बनाने के लिए वो अपने घर के समारोहों में उसे बुला लेती होंगी.
मां से बात की, तो वो गंभीर हो गईं, “ऑटिस्टिक है वो. अपने माता-पिता, उनके नौकर छोटू और मेरे सम्मिलित प्रयासों से काफ़ी हद तक सामान्य जीवन जीना और पढ़ना-लिखना सीख गई है. लेकिन शादीशुदा जीवन जीने की उम्मीद उससे नहीं की जा सकती…”
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सहर्ष के लिए मां के बाकी शब्द ध्वनियां बनकर रह गए थे. शीना को देखकर उसे समझ आया था कि ‘लव ऐट फर्स्ट साइट’ क़िस्से-कहानियों की बात नहीं है. हज़ारों लड़कियों के प्रेम-प्रस्ताव ठुकराने के बाद उसके दिल की मल्लिका बनी थी वो लड़की, जिसे प्रेम शब्द का अर्थ समझाना एक चुनौती था. इस चुनौती को हर कक्षा में प्रथम आनेवाले सहर्ष के गुमान ने स्वीकार करने का फ़ैसला किया, तो मां ने समझाने की बहुत कोशिश की.
“तुम तो जानते हो कि इस तरह के केसेज़ को समझाया नहीं जा सकता, केवल समझा जा सकता है. मैं इसे समझती हूं. ये…" पर सहर्ष के तर्कों और मेडिकल की किताबों में दिए उदाहरणो के आगे उन्हें झुकना पड़ा.
फिर सहर्ष ने बड़ी संजीदगी से पहले उसके माता-पिता और छोटू के साथ सेशंस शुरू किए. उसकी हिदायत के अनुसार वे एक कहानी की तरह शीना के जीवन के एक-एक पल का पन्ना खोलते गए.
पार्टी के लिए तैयार होते देख नन्हीं शीना दौड़कर मम्मी से लिपट जाती. उसकी मुस्कान गायब हो जाती, पर बहुत प्यार से पूछने पर भी इसका कारण न मम्मी समझ पाईं, न वो समझा पाई. हालांकि मम्मी उसका बहुत ख़्याल रखती थीं. वो जानती थीं कि शीना अपनी ख़्वाहिशें कभी बता नहीं पाती, इसलिए हमेशा चीज़ों का नाम ले-लेकर पूछतीं कि उसे ये चाहिए या वो. उसके चेहरे की ख़ुशी से वो जान लेतीं कि शीना को क्या चाहिए. रात में उसे सुलाते समय कहानी सुनातीं. जब वो माथे पर चुंबन अंकित करने झुकतीं, तो शीना ख़ुद को बहुत भीतर समेट लेती. वो समझ न पातीं क्यों. पापा जानते थे कि वो उनसे डरती है, पर कारण न जान सके कभी.
घर में पार्टी होने पर वो बहुत परेशान दिखती. जब मम्मी-पापा पूछते कि उसे क्या चाहिए वो कछुए की तरह अपने कवच में बंद हो जाती. मम्मी, पापा, स्कूल के बच्चे, अध्यापिकाएं या घर में आनेवाले लोग या उसकी बात समझ नहीं पाते या वो उन्हें समझा नहीं पाती.
टीचर के उसके अतिशय अंतर्मुखी और ज़िद्दी स्वभाव की शिकायत करने पर उसे सहर्ष की मां के पास लाया गया था, जो एक मनोचिकित्सक थीं. शीना जल्द ही उन्हें बहुत पसंद करने लगी थी. वो उसकी हर बात बिना कहे समझ जो जाती थीं. उन्होंने ही तो उसे ड्रॉइंग करना सिखाया था, जो उसे सबसे बड़ी ख़ुशी देता था.
लगभग आठ साल की थी जब बगीचे में बैठी सामने की छोटी-सी पहाड़ी ध्यान से देखते हुए अपना मनपसंद चित्र बना रही थी. तभी देखा पहाड़ी से उसकी उम्र का एक बच्चा उतर रहा है.
“जी मैं छोटू. गांव से शहर काम ढूंढ़ने आया हूं. चाचाजी ने मेरे बारे में बताया होगा.” वो पापा से बोला, तो शीना के चेहरे पर ख़ुशी छा गई. पापा कुछ कहते इससे पहले वो बोल पड़ी, “तुम उस ऊपरवाले घर में रहते हो?”
“हां, वो मेरे चाचा का घर है. उनके घर आया हूं.” फिर उसने एक नज़र ड्रॉइंग पर डाली.
“कितनी सुंदर ड्रॉइंग है. मेरे घर की है न? तुम्हें मेरा घर पसंद है? मेरे घर को नज़दीक से देखने चलना चाहती हो?” शीना के चेहरे पर मुस्कान आ गई. उसने तुरंत हां में ऐसे सिर हिलाया जैसे यही चाहती हो. छोटू ने पापा की इजाज़त पाकर शीना की ओर हाथ बढ़ा दिया, जो शीना ने पकड़ लिया. जिस पेड़ों से घिरी कच्ची सीढ़ियों को, चोटी पर बने उस झोपड़ीनुमा घर को जाने कितनी बार वो अपनी ड्रॉइंग बुक में बना चुकी थी, पहली बार वहां गई, तो जाने कितनी देर अपने ‘सपनो के महल’ में फूलों और तितलियों से बतियाती रही. मम्मी ने उसे लौटते हुए देखा. मस्त पवन की तरह लहराती, छोटू के साथ हंसती, खेलती, उछलती, कूदती. उनकी आंखें सुखद आश्चर्य से खुलती गईं.
“तुम्हें छोटू पसंद है? उसे दोस्त बनाओगी?” शीना को तो जैसे मनचाही मुराद मिल गई और नौकर के भतीजे छोटू को मनचाहे पैसों का काम.
स्कूल में शीना का कोई दोस्त नहीं था. होता कैसे. कोई सिर झुकाए अपनी ड्रॉइंग में व्यस्त शीना को अकड़ू समझता, तो कोई उससे बात करने पर भावविहीन आंखों से दूसरी ओर ताकते रहनेवाली शीना को पागल. कोई टीचर उसे पसंद नहीं करती थी. करती कैसे? आदेश समझने और मानने में असमर्थ शीना उनके हिसाब से अलग स्कूल की पात्र थी, जिसे उसके रसूखदार पिता की ज़िद और मनोचिकित्सक की लिखित सिफ़ारिश के कारण सामान्य स्कूल में रखना उनकी मजबूरी थी.
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किसी को ये समझने की फ़ुर्सत न थी कि मासूम शीना प्यार और नफ़रत एक सामान्य इंसान से भी अधिक अच्छी तरह समझती थी. वो जानती थी कि सिर्फ़ एक छोटू ही था, जो उसे समझता था. उसके दर्द से दुखी होता था और उसकी मुस्कान से आह्लादित. और इसीलिए वो अपने दिल की हर छोटी से छोटी बात सिर्फ़ छोटू को बताने के लिए आतुर रहने लगी. नहीं, बताती तो वो उसे भी नहीं थी. शायद समझा लेती थी या शायद वो ख़ुद ही समझ जाता था.
छोटू शीना को स्कूल छोड़ने जाता और समझाता कि वो किसी से न डरे, वो बाहर बैठा है. शीना सिर हिला देती. मासूम शीना जब भी किसी टीचर की खुंदक का शिकार होती, किसी बच्चे के हंसी उड़ाने से उसका दिल छिलता, तो दौड़ती हुई गेट पर आती. छोटू उसे वहां बैठा मिलता. वो गेट के बाहर से ही अपनी उंगलियों में उसकी उंगलियां फंसाता फिर कुछ अलग ढंग से गर्दन हिलाकर उसे हंसा देता. अपने में बहुत भीतर सिमटी शीना कुछ आश्वस्त होकर वापस चली जाती. छोटू स्कूल की छुट्टी होने पर पता नहीं कैसे उसका चेहरा देखकर उसके दिनभर का हाल समझ जाता.
एक दिन मम्मी उसे सुलाने उसके कमरे में आईं, तो छोटू ज़मीन पर बैठा था और शीना बेड के किनारे उसका हाथ पकड़े लेटी थी. उन्हें बहुत ग़ुस्सा आया. छोटू को उसके कमरे में आने की अनुमति नहीं थी. पूछने पर छोटू ने बताया कि आज स्कूल में कुछ हुआ है, इसलिए वो उसका हाथ नहीं छोड़ रही है. उस रात मम्मी ने उसे वैसे ही लेटे रहने देकर कहानी सुनाई और माथे पर चुंबन दिया. उस रात शीना ने छोटू का हाथ तब तक नहीं छोड़ा, जब तक गहरी नींद में न आ गई.
दूसरे दिन छोटू ने मम्मी को बताया कि शीना को पार्टी का शोर-शराबा और चुंबन पसंद नहीं. आज़माने पर छोटू की बातें सच निकलीं, तो मम्मी को जैसे शीना के मन के ताले की चाभी मिल गई. वो हफ़्ते में एक बार मनोचिकित्सक के यहां होनेवाले सेशंस में भी साथ जाने लगा. वे भी उसकी पसंद-नापसंद जानने में छोटू की सहायता लेतीं, फिर अपने सुझाव देतीं. सम्मिलित प्रयासों से शीना के सीखने में सुधार होता गया. बात-बात पर उसका रोना और भड़कना या अपने भीतर बंद हो जाना कम होता गया. उसके कुछ पढ़ने या कॉपी में लिखने पर मम्मी-पापा को समझ आता कि वो स्कूल में टीचर की बताई वो सभी बातें ग्रहण करती है, जो उसे अच्छी लगती हैं. जितना वो पढ़ना चाहती है उसे सिर्फ़ उतना ही पढ़ने देने की मनोचिकित्सक की हिदायत मम्मी-पापा कभी भूले नहीं. उनकी हिदायत के अनुसार ही शीना के पास रंगों और ड्रॉइंग बुक का स्टॉक कभी ख़त्म न होने दिया जाता.
धीरे-धीरे ड्रॉइंग बुक की जगह कैनवास और पानी के रंगों की जगह ऑयल पेंट्स ने ले ली. उम्र के साथ उनका आकार बड़ा होता गया और गुणवत्ता उत्कृष्ट. छोटू शीना की सब चीज़ें उठाए उसकी मनपसंद जगह तक उसे लेकर जाता और पेंटिग बनाती शीना के खाने-पानी और हिफाज़त का ध्यान रखता. हालांकि बड़ी होती शीना का यूं छोटू के साथ हर समय रहना पापा को कतई पसंद न था, पर उनके पास कोई विकल्प भी तो नहीं था…
कार के रुकते ही, “छोटू-ऊ-ऊ…” चिल्लाती शीना ने जैसे ही कार के बाहर पैर रखा छोटू ने दूर से ही रुकने का इशारा किया. शीना रुक गई. छोटू तेज़ी से भागता आया और उसके पांव के नीचे अपने हाथ रख दिए. सहर्ष आश्चर्य से देखे जा रहा था. उसकी मम्मी उसकी पुरानी चप्पल लेकर आ रही थीं और छोटू उन तक जाती शीना को अपनी हथेलियों पर ले जा रहा था. सहर्ष को ध्यान आया कि ये गंदी और पुरानी-सी चप्पल उसने एक दिन फेंक दी थी.
शीना ने छोटू का हाथ पकड़ लिया और छोड़ने से मना कर दिया, तो उसकी मां दूसरे नौकर को चाय आदि के लिए कहकर उन्हें सादर बिठाकर बात करने लगी. छोटू से मिलकर शीना कितना सुरक्षित और सहज महसूस कर रही थी, ये उसके चेहरे पर पढ़ा जा सकता था. कुछ ही देर में उनकी उपस्थिति को पूरी तरह उपेक्षित करती शीना ड्रॉइंगरूम में ही दीवान पर लेट गई. छोटू उसका हाथ पकड़े ज़मीन पर बैठा गुनगुनाने लगा और वो एक निश्चिंत मासूम बच्चे की तरह सोने लगी.
… उसे एकटक देखते सहर्ष के दिल में एक हारे योद्धा की तरह नैराश्य और खीझ के भावों का चक्रवात चल रहा था. आख़िर अनपढ़ छोटू में ऐसा क्या है, जो वह शीना को इतनी आसानी से हैंडिल कर लेता है, जो वो इतना क्वॉलिफाइड होकर भी नहीं कर पाता.
“जब तक मेमसाब गहरी नींद में नहीं आ जातीं, मुझे यहीं बैठना होगा नही तो वो उठकर रोने लगेंगी.” उसके चेहरे पर कुछ नाराज़गी के भाव देखकर छोटू दीनता से बोला. सहर्ष के होंठों पर फीकी-सी मुस्कान के साथ बेसाख्ता दिल का प्रश्न भी कूद पड़ा, “कैसे वश में कर पाते हो तुम उसे? कैसे समझ लेते हो उसके दिल की बात?”
छोटू उत्साहित हो गया, “मैं बस में करता कहां हूं साबजी, मैं तो ख़ुद उनके बस में रहता हूं. छोटे बच्चे की तरह मासूम और निर्दोष हैं मेरी मेमसाब. जो बात उन्हें अच्छी लगती है उससे उनका चेहरा खिल उठता है. जो बुरी लगती है, उससे मुरझा जाता है. मैं बस उनका चेहरा देखा करता हूं. सब कुछ साफ़-साफ़ लिखा रहता है उस पर.”
छोटू के सीधे-सरल वाक्यों ने सहर्ष को झकझोर दिया. अभिमान का कुहासा तितर-बितर हुआ, तो सब कुछ साफ़-साफ़ नज़र आने लगा. उसके भावप्रवण चेहरे पर एक स्नेहिल मुस्कान फैलती जा रही थीं. आज तक जो अर्जित किया वो ज्ञान था. आज बोध प्राप्त हुआ था उसे. उसकी पलकें भीग गईं. किसी को वश में करने की चाह तो प्यार नहीं है. अपने ज्ञान के अभिमान में क्या करने चला था वो? किसी को वश में करने? प्यार किसी को पाने का नहीं ख़ुद को खो देने का नाम है. प्यार किसी को जीतने का नहीं ख़ुद को हार जाने का नाम है. प्यार ख़ुद को समझाने का नहीं, किसी को समझ लेने का नाम है. और किसी को समझने के लिए दुनियाभर की किताबें कम हैं. बस, छोटू की तरह प्रेम के ढाई अक्षर पढ़ लेना पर्याप्त है.
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